पुरुषोत्तम मास कृष्ण पक्ष सप्तमी (8-7-2015ई.)

 लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास कृष्ण पक्ष सप्तमी का जो माहात्म्य दिया गया है, उसका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है – सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने अपने मन से अत्रि, मरीचि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वसिष्ठ, नारद, दक्ष व भृगु की सृष्टि की। वह उत्पन्न होते ही सुरूप, यौवनयुक्त, कार्य दक्ष, मन को क्षुभित करने वाले दिव्य थे। इसके पश्चात् अज ब्रह्मा के मन से सुंदर रूप सन्ध्या उत्पन्न हुई जो सायं सन्ध्या का जप कर रही थी। उसके पश्चात् दक्ष आदि प्रकट हुए। उसके पश्चात् ब्रह्मा के मानस पुत्र काम का आविर्भाव हुआ जो उत्पन्न होते ही कांचन आभा वाला तथा चन्द्र के समान लोल वाला था। उस रम्य पुरुष को देखकर सन्ध्या, दक्ष आदि को बहुत उत्सुकता हुई, चंचलता हुई, इन्द्रियानन्द हुआ। तब काम ने हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण, द्रावण आदि अस्त्रों को ग्रहण किया। ब्रह्मा ने काम से कहा कि तुम पांच पुष्पबाणों से स्त्री – पुरुषों को मोहकर सृष्टि में मेरी सहायता करो। मैं या वासुदेव या शिव या पुरुषोत्तम सब तुम्हारे वश में होंगे, प्राणधारियों की तो बात ही क्या है। तब काम ने परीक्षा के लिए अपने धनुष पर लक्ष्य साधा। तब दक्ष आदि सब मोहित हो गए और विकारयुक्त हो गए। सब सन्ध्या की ओर देखते हुए विकृत हो गए। तब शरीर से 49 भाव उत्पन्न हुए। उन्होंने ने भी संध्या की ओर देखकर कटाक्ष भाव किए।  सन्ध्या भी उन युवकों को देखकर विशिष्ट विकृति को प्राप्त हुई। अब काम ने समझ लिया कि मुझे ब्रह्मा ने जिस कार्य के लिए उत्पन्न किया है, वह सफल हो गया। तब धर्मदेव ने अपने पिता ब्रह्मा, भ्राताओं, सन्ध्या को विकृत देखकर कहा कि मदन का जन्म धर्मार्थ हुआ है। यदि सारे कुटुम्ब में ही विकृति हो गई तो यह क्षेमकर नहीं होगा। हे विधाता, तुम ऐसा उपाय करो कि उत्पन्न मात्र प्राणियों में काम विकार न हो, युवावस्था में ही हो। धर्म ने काम को भस्म होने का शाप भी दिया। धर्म ने सन्ध्या से कहा की तुम श्वपच की पुत्री बनो, तब तुम शुद्ध होओगी। सन्ध्या ने धर्म से कहा कि मैं तप से ऐसा प्रयत्न करूंगी कि नवजातों को यह काम बाधा न पहुंचाए। मैंने इस शरीर से अपने कुटुम्बीजनों में कामभाव का उद्दीपन किया है, इसलिए मेरा यह शरीर सुकृत का साधन नहीं है। ऐसा विचार करके सन्ध्या ने योगसमाधि से मानस रूप में सूक्ष्म होकर श्वपच के घर में जन्म लिया। उसे अपने पूर्वजन्म की स्मृति थी और वह जन्म लेते ही युवा थी। उसके पिता का नाम राखाल व माता का नाम मातङ्गिनी था। वह दोनों हिमाचल में रहने से कर्मचाण्डालता को प्राप्त हो गए थे। वहां न तो कोई वृक्ष निष्फल था, न कोई मरुदेश था। वह पूर्व जन्म में धर्म के शाप के कारण वहां तप आदि द्वारा समय काट रहे थे। सन्ध्या ने अपने माता – पिता की, जो पापक्षालन का प्रयत्न कर रहे थे, सेवा की। इसी समय सप्तर्षिगण व्योम मार्ग से बदरिकाश्रम की ओर जा रहे थे।उन्होंने योग चक्षु से वहां वन में स्थल देखा और भिक्षा के निमित्त श्वपच के गृह में अवतरण किया। उन्होंने सोचा कि यद्यपि यह ब्रह्मपुत्र कर्मचाण्डाल है, फिर भी इससे फल आदि की भिक्षा लेना अनुचित न होगा। अपक्व अन्न में कोई दोष नहीं है, कणों में कोई सूतक नहीं है। यह विचार कर उन्होंने श्वपच वक्ष से भिक्षा मांगी। श्वपच ने उन्हें फल – अन्न के साथ वह कन्या भी दे दी। ऋषियों की अनुमति से वसिष्ठ ने वह कन्या ग्रहण कर ली। उसे बद्रिकाश्रम में ले जाकर गंगा में नहलाया। कामधेनु के मुख से प्रवेश कराकर मूत्रद्वार से बाहर निकाल लिया। इससे वह अत्यन्त पवित्र बन गई। सन्ध्या की इच्छा अभी भी काम की मर्यादा स्थापित करने की थी और उसने ऋषि से अपने मन की बात कही और कहा कि वह चन्द्रभागा नदी के तट पर तप करना चाहती है। ऋषि ने उसकी गम्भीर हार्दिक इच्छा जानकर उसे ओम कह कर अपनी स्वीकृति दे दी। वहां अरुन्धती ने सौभाग्य प्राप्ति की इच्छा से गौरी की पूजा की। उसकी पूजा व तप से गौरी प्रकट हुई और उसको पुरुषोत्तम पूजा की विधि बताई। सन्ध्या ने बृहल्लोहित तीर पर उसी प्रकार तप किया जिससे उसे दिव्यज्ञान, दिव्यचक्षु, दिव्यावाक्, दिव्यकर्ण प्राप्त हुए। तब उसने पुरुषोत्तम मास की कृष्ण पक्ष की दुन्दुभि सुनी जो सप्तमी व्रत की विधि बता रही थी। सन्ध्या ने उसी प्रकार व्रत किया। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में श्रीहरि ने दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। सन्ध्या ने कहा कि यदि मैं कामविकृति के पाप से शुद्ध हो गई हूं तो मेरा प्रथम वर यह है कि सृष्टि में उत्पन्न होते ही सकाम न हों। द्वितीय वर यह चाहती हूं कि जैसी मैं हूं, वैसी मेरे सिवाय सृष्टि में अन्य कोई न हो। तृतीय वर यह चाहती हूं कि जो सन्ध्या में कामनायुक्त हो, उसके पौरुष का नाश हो जाए व उसकी प्रजा पिशाचता को प्राप्त हो। चौथा वर यह चाहती हूं कि मेरे चार रूप हों। प्रथम रूप तो प्रातःसन्ध्या का हो, द्वितीय सायंसन्ध्या का, तृतीय वसिष्ठ पत्नी के रूप में स्वर्ग में रहने वाला और चौथे रूप में मैं तुम्हारे धाम में दासी रूप में रहने वाली बनूं। तब माधव ने उससे कहा कि तुम्हारे व्रत, तप से तुम्हारे पाप भस्म हो गए हैं। प्रथम वर के विषय में कहा कि शैशव, कौमार, यौवन और वार्धक्य में से तृतीय यौवन में ही कामना होगी। द्वितीय वर के सम्बन्ध में, तुम्हारी ख्याति तीनों लोकों में सती भाव में होगी। ऐसी कीर्ति और किसी की नहीं होगी। तीसरे वर के संदर्भ में, संध्याकाल में कामसेवन करने वाले पिशाच , बलपौरुष से वर्जित होंगे। चतुर्थ वर के संदर्भ में, तुम प्रातः व सायं सन्ध्या – द्वय होओ। तुम्हारा पति वसिष्ठ तुम्हारा शाश्वत पति हो, वह सात कल्प तक जीवित रहने वाला हो। और दिव्य स्वरूप से तुम मेरे साथ अरुणा नाम से वैकुण्ठ में वास करो। अब एक काम करो। तुम अपना कायाकल्प कर लो। यहां चन्द्रभागा नदी के तट पर मेधातिथि का ज्योतिष्टोम यज्ञ चल रहा है। उसकी वह्नि में तुम सूक्ष्म रूप से बिना किसी के देखे प्रवेश कर जाओ। उस अग्नि द्वारा शोधित होकर चार शरीर ग्रहण करो। यह पर्वत तुम्हारे नाम से अरुणाचल नाम से प्रसिद्ध होगा। सन्ध्या ने ऐसा ही किया। वह्नि ने उसका मलिन शरीर शुद्ध कर दिया। उस शुद्ध किए हुए दिव्य शरीर को वह्नि ने सूर्यमण्डल में प्रवेश करा दिया। सूर्य ने उसके शरीर को विभाजित करके आधे भाग को अपने रथ पर संस्थापित कर लिया जिससे पितरों को प्रसन्नता मिलती है। उसका ऊर्ध्व भाग जो अति अरुण है, प्रातःसन्ध्या बना। शेष भाग सायं सन्ध्या बना जो पितरों को प्रसन्नता देता है। यज्ञ समाप्त होने पर मुनि ने वह्निकुण्ड से तप्त कांचन जैसी पुत्री को प्राप्त किया और उसका नाम अरुन्धती रखा। जो किसी भी कारण से धर्म का रोधन नहीं करती, जिसके धर्म में विष्णु द्वारा सदा रोधन किया जाता है, इस प्रकार नाम की निरुक्ति है। कालान्तर में मुनि ने उसका विवाह वसिष्ठ से कर दिया।

 

विवेचन

शब्दकल्पद्रुम में सन्ध्या शब्द की दो निरुक्तियां उपलब्ध हैं – सं सम्यक् ध्यायति अस्याम् इति। ध्यै – चिन्तने। जिसमें सम्यक् ध्यान किया जाता है। अथवा सन्दधाति इति। सं – धा। अर्थात् जो सम्यक् रूप से जोडती है, सन्धि बनाती है। शब्द पर मुक्त रूप से विचार करने पर प्रतीत होता है कि सन्ध्या का अर्थ है जिसे सम्यक् प्रकार से जोडे जाने की आवश्यकता है। अर्थात् कोई वस्तु, भाव है जो बिखरा पडा है। उसको जोडने की आवश्यकता है। ब्रह्मोपनिषद का कहना है कि आत्मा प्रज्ञा की सहायता से अपने को परमात्मा से जोडती है, अतः सन्ध्या ध्यान है। सब भूतों की सन्धि होने से वह सन्ध्या कहलाती है।

यदात्मा प्रज्ञयाऽऽत्मानं सन्धत्ते परमात्मनि । तेन सन्ध्या ध्यानमेव तस्मात्सन्ध्याभिवन्दनम् ॥  निरोदकाध्यानसन्ध्या वाक्कायक्लेशवर्जिता । सन्धिनी सर्वभूतानां सा सन्ध्या ह्येकदण्डिनाम् ॥ - ब्रह्मोपनिषद

इस जगत में वह कौन – कौन से तत्त्व हैं जो बिखरे पडे हैं। हमारी वाक् है जो बिखरी पडी है। यदि वाक् में सन्धि हो जाए, वह जुड जाए तो हममें शाप – वरदान देनी की सामर्थ्य आ जाए। इसी प्रकार प्राण हैं। सारे प्राण बिखरे पडे हैं। उनमें सन्धि करने की आवश्यकता है।

     इसका अर्थ यह हुआ कि कर्मकाण्ड में प्रातः, मध्याह्न व सायंकाल जो संध्याएं की जाती हैं, उनका उद्देश्य वाक्, प्राण अथवा अन्य किसी तत्त्व में सन्धि कराना है। पहले स्तर पर सन्ध्या का रूप कामविकार उत्पन्न करने वाला है। दूसरे स्तर पर सन्ध्या श्वपच की पुत्री बनती है। श्व का अर्थ होता है – अश्व से विपरीत स्थिति, जहां भविष्य, कार्य – कारण, द्यूत विद्यमान हैं। श्वपच का अर्थ होगा जो श्व का, भविष्य का पाचन करने का प्रयत्न कर रहा है, अश्व स्थिति प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा है। तीसरे स्तर पर सन्ध्या कामधेनु की कन्या बनती है। अब उससे जो भी कामना की जाएगी, वह प्रदान करेगी। चौथे स्तर पर वह मेधातिथि की कन्या बनती है। मेधातिथि का अर्थ है – जिसको अतिथि के रूप में कभी – कभी मेधा प्राप्त होती है, सदैव नहीं। उसे प्रज्ञा के रूप में सन्ध्या पुत्री प्राप्त हुई है। प्रज्ञा को शकुन आदि कहा जा सकता है और प्राज्ञ को शकुन आदि का निर्वचन करने वाला। यदि उल्टा चल कर विचार किया जाए तो प्रज्ञा का जो रूप बिखरा हुआ है, वह काम को उत्तेजित करने में व्यय होता है। यदि बिखरे हुए रूप में संधि हो जाए तो वही प्रज्ञा बन जाएगा। प्रज्ञा के पौराणिक संदर्भ देखकर प्रज्ञा के स्वरूप के विषय में निर्णय किया जा सकता है।

     कहा गया है कि प्रातः सन्ध्या से वह पाप दूर होते हैं जो रात्रि में किए गए हैं। सायं संध्या से दिन में किए गए पाप दूर होते हैं । माध्यन्दिन संध्या सूर्य का मार्ग प्रशस्त करने के लिए है। प्रातः काल गायत्री रूपी, मध्याह्न में सावित्री रूपी और सायंकाल सरस्वती रूपी सन्ध्या की उपासना की जाती है।

सप्तमी को सार्वत्रिक रूप से सूर्य की अर्चना की तिथि माना जाता है। यदि किसी योगी ने अपने सारे प्राणों का विकास करके पहले ही सूर्य का रूप प्राप्त कर लिया है तो उसके लिए सन्ध्या व्यर्थ है। मैत्रेय्युपनिषद का कथन है कि यदि मेरे हृदय आकाश में चिदादित्य सदा भासता है तो मुझे संध्या करने की क्या आवश्यकता है। 

मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः । सूतकद्वयसम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १३॥  हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति । नास्तमेति न चोदेति कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १४॥ मैत्रेय्युपनिषद

 

     ऐसा लगता है कि सन्ध्या का मन से विरोध है। सायं सन्ध्या में मन्देहा नामक राक्षस सूर्य को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। उनके नाश के लिए जल का ऊपर की ओर प्रक्षेपण किया जाता है। लेकिन सन्ध्या के तप का स्थान चन्द्रभागा नदी के तट पर है। अतः यह विरोधाभास अन्वेषणीय है।

 

 

 

श्रीनारायण उवाच-

शृणु लक्ष्मि! चमत्कारं सप्तम्यास्तु व्रतेन वै । ब्रह्मपुत्र्यास्तु सन्ध्याया जातो यस्तं वदाम्यहम् ।। १ ।।

 सृष्टिकर्ता स्वयं ब्रह्मा सृष्ट्यारंभे तु मानसान् । अत्रिं मरिचिं पुलहं पुलस्त्यांगिरसौ क्रतुम् ।। २ ।।

 वशिष्ठं नारदं दक्षं भृगुं चेति महाप्रभून् । प्रससर्ज जातमात्रान् सुरूपान् यौवनान्वितान् ।। ३ ।।

 कार्यदक्षान्मनःक्षोभकरान् दिव्यान् यदा ततः । तदाऽजमनसो जाता चारुरूपा वरांगना ।। ४ ।।

 नाम्ना सन्ध्या दिवक्षान्ता सायं सन्ध्या जपन्तिका । अतीव सुन्दरी सुभ्रूर्मुनिचेतोविमोहिनी ।। ५ ।।

 मानस्यभूत्तदा सृष्टिर्न वै कामादिगर्भजा । ततो दक्षादयो ध्याता वेधसा कामसारिणः ।। ६ ।।

 कामस्तत्राऽऽविर्बभूव ब्रह्मणो मानसः सुतः । कांचनीकृतजाताभो लोलश्चन्द्रनिभाननः ।। ७ ।।

 आरक्तपाणिनयनाननपादकरादिकः । प्रफुल्लपद्मपत्राक्षः पुष्पकोदण्डमण्डितः ।। ८ ।।

 कान्तः कटाक्षपातेन भ्रामयन् नयनद्वयम् । तं वीक्ष्य पुरुषं रम्यं सन्ध्या दक्षादिकास्तदा ।। ९ ।।

 औत्सुक्यं परमं जग्मुश्चांचल्यं राजसं तथा । इन्द्रियानन्दभानं च प्रापुस्ते साऽऽप कामनाम् ।। १० ।।

 हर्षणं रोचनं चापि मोहनं शोषणं तथा । द्रावणं सुमनोऽस्त्राणि कामो जग्राह वै तदा ।। १ १।।

 ब्रह्मा प्राह तदा कामं पुष्पबाणैस्तु पञ्चभिः । मोहयन्पुरुषान्स्त्रींश्च कुरु सृष्टिसहायताम् ।। १२।।

 अहं वा वासुदेवो वा स्थाणुर्वा पुरुषोत्तमः । भविष्यामस्त्वद्वशेऽत्र किमन्ये प्राणधारकाः ।।१३।।

 प्रच्छन्नरूपो जन्तूनां प्रविशन् हृदयं सदा । सुखहेतुः स्वयं भूत्वा सृष्टिं कुरु सनातनीम् ।। १४।।

 आज्ञापयित्वा ब्रह्मा तं स्वासने निषसाद ह । दक्षादयो निषेदुश्च सन्ध्या चोपाविवेश ह ।। १५।।

 तावत् कामस्तुतान्सर्वान्परीक्षार्थं प्रयत्नतः । आलीढस्थानमासाद्य धनुराकृष्य वै बलात् ।। १६।।

 कामार्थे पुष्पजातैर्वै योजयामास मार्गणैः । दक्षाद्या मोहिताः सर्वे विकारं प्रापुरादितः ।। १७।।

 सन्ध्यां सर्वे निरीक्षन्तो विकृतिं बहुधा ययुः । तदैव चोनपञ्चाशद्भावा जाताः शरीरतः ।। १८।।

 सन्ध्यापि वीक्ष्यमाणा तैश्चक्रे भावान्कटाक्षगान् । अथ भावयुतां सन्ध्यां दृष्ट्वाऽतिविकृतिं गताः ।। १९।।

 सन्ध्या यूनश्च तान्दृष्ट्वा विशिष्टां विकृतिं गता । मदनश्च निजे कार्ये श्रद्दधे फलभावनः ।।।२०।।

 यदिदं ब्रह्मणः कार्यं ममोद्दिष्टं मयापि तत् । कर्तुं शक्यमिति त्वद्धा निश्चितं सफलं ननु ।।२१।।

 तदा तु विकृतान्दृष्ट्वा धर्मदेवः सुतः स्वयम् । पितरं च तथा भ्रातॄन् सन्ध्यां प्राह विवेकतः ।।२२।।

 धर्मार्थं मदनो जातो नाऽधर्मार्थे कदाचन । कुटुम्बं विकृतिं प्राप्तं त्वन्योन्यं मदनेन हि ।।२३।।

 नैतद्योग्यं प्रजानां हि क्षेमकृन्न भविष्यति । यौवने जातमात्रे चेद् यदि कामप्रवेशनम् ।।२४।।।

 तदा माता च भगिनी भ्रातृपत्नी तथा सुता । पिता भ्राता पतिः पुत्र इत्याम्नायो विनंक्ष्यति ।।२५।।

 जातमात्रस्य तु कामो यौवनं न भवेद्यथा । तथा कुरु विधातस्त्वं येन धर्मावनं भवेत् ।।२६।।

 धर्म प्राहापि कामं च कृतवाँस्त्वं हि वैशसम् । अयोग्ये चाप्यकाले च ततो भस्मी भविष्यसि ।।२७।।

 धर्मः प्राह च दक्षादीन् यात बदरिकाश्रमम् । गंगां स्नात्वा हरिं नत्वा तपस्तप्त्वा तु पावनाः ।।२८।।

 भवन्त्यथ ततः सृष्टिं कुर्वन्तु धर्मतः सदा । धर्मः प्राह च पितरं यशं कुरु पितामह ।।२९।।

 ब्रह्मा सृष्टौ प्रथमं तु यज्ञं चकार वैदिकम् । ततो जातास्तु पर्जन्यास्तृप्तिदा अन्नदाः सदा ।।३ ०।।

 धर्मः प्राह ततः सन्ध्यां विकारदोषयोगिनीम् । श्वपचस्य भव पुत्री ततः शुद्धा भविष्यसि ।। ३ १।।

 सन्ध्या प्राह तदा धर्मं यतिष्ये तपसा यथा । जातमात्रस्य कामोऽयं न बाधेत तथा चिरम् ।।३२।।

 इतिवृत्तोत्तरं सर्वे यथोद्दिष्टं ययुस्ततः । सन्ध्याऽप्यमर्षमापन्ना तदा ध्यानपराभवत् ।।३३।।

 इदं विममृशे योग्यं भविष्यत्सुखदं भवेत् । उत्पन्नमात्रा चाहं सुयुवती काममोहिता ।।३४।।

 दक्षाद्याश्च तथा जाता मयि कामेन मोहिताः । सर्वेषां मथितं चित्तं मदनेन कुटुम्बिना ।।३५।।

 प्राप्नुयां फलमेतस्य पापस्य त्वघरूपिणः । करिष्याम्यस्य पापस्य प्रायश्चित्तमहं स्वयम् ।।३६।।

 तच्छोधनफलं शघ्रमहमिच्छामि साधनम् । निजां तपसि होष्यामि धर्ममार्गानुसारतः ।।३७।।

 किं त्वेकां स्थापयिष्यामि मर्यादामिह सर्वथा । यथा नोत्पन्नमात्रा वै सकामाः स्युः शरीरिणः ।।३८।।

 एतदर्थमहं कृत्वा तपः परमदारुणम् । मर्यादां स्थापयिष्यामि त्यक्ष्यामि दुष्टजीवितम् ।।३९।।

 मयाऽनेन शरीरेण कुटुम्बिस्वजनेषु वै । उद्भावितः कामभावो न तत्सुकृतसाधनम् ।।४० ।।

 एवं विचार्य मनसा सन्ध्या योगसमाधिना । तेनैव तु शरीरेण छायात्मकेन मानसी ।।४१ ।।

 सूक्ष्मीभूय दुरितस्य नाशाय श्वपचगृहे । जातिस्मरा सुता जाता जातमात्रा सयौवना ।।४२।।

 राखालो जनकस्तस्या माता मातङ्गिनी तदा । कर्मचाण्डालतां प्राप्तौ वसतः स्म हिमाचले ।।४३।।

 यत्र नाऽवग्रहः कश्चिन्नास्ति निष्फलवृक्षता । नास्ति यत्र मरुदेशस्तादृश्यां वसतो भुवि ।।४४।।

 धर्मशापं पूर्वजन्म स्मृतवत्येव नित्यदा । समयं क्षपयामास शुद्धिकृत्तपआदिना ।।।४५।।

 पितरौ सेवयामास पापक्षालनशक्तिकौ । प्रतीक्षमाणा तं कालं येन शुद्धिर्भवेद् यथा ।।४६।।

 तावद्भूमौ विचरन्तः पतितोद्धारकारकाः । सप्तर्षयस्ततो व्योम्ना निर्जग्मुर्बदरीं प्रति ।।४७।।

 वने तत्र स्थले तां तु दृष्ट्वा ते योगचक्षुषा । अवतेरुश्च ते भिक्षामिषेण श्वपचगृहम् ।।४८।।

 यद्यपि कर्मचाण्डालो ब्रह्मपुत्रो ह्ययं खलु । फलाद्यर्थे भिक्षणीयो यत्र बाधो न विद्यते ।।४९।।

 अपक्वान्नेऽपि न दोषः कणेषु नास्ति सूतकम् । ययाचिरे विचार्येत्थं भिक्षां श्वपचवृक्षतः ।।५०।।

 श्वपचस्तान् द्विजान् ज्ञात्वा कन्याऽभिज्ञाय सर्वथा । सहर्षं प्रददौ भिक्षां वाणीबन्धनपूर्विकाम् ।।५१ ।।

 श्वपचः पादयोर्नत्वा पीत्वा पादामृतं जलम् । प्रार्थयामास सप्तर्षीन् जगदुद्धारकारकान् ।।५२।।

 भिक्षां फलान्नकन्याढ्यां गृह्णन्तु मुनयोऽमलाः । कन्यां चास्मानुद्धरन्तु कन्यां भिक्षां ददामि वः ।।५३।।

 ऋषीणामानुमत्येन वशिष्ठो वेधसोंऽशकः । जग्राह भिक्षां कन्यां च नीत्वा ययुश्च बद्रिकाम् ।।५४।।

 तां कन्यां ते तु संस्नाप्य गंगायां बदरीवने । कामधेनुशरीरान्तर्मुखात्प्रवेशनं तु ते ।।५५।।

 कारयित्वा प्रभावेण मूत्रद्वारेण तां तदा । बहिर्निष्कासयामासुर्जन्मान्तरगताऽभवत् ।।५६।।

 बभूव पावनी सा तु ह्युपवीतेनसंस्कृता । द्विजत्वं च तपोयोग्यं लब्धवती तु कन्यका ।।५७।।

 अथापि सा तपसाऽर्थे मर्यादां कामयौवनाम् । स्थापयितुं वाच्छति स्म प्रोवाच ऋषये स्मिता ।।५८।।

 महर्षे लोकमर्यादा जातमात्रे तु यौवने । रक्ष्यते नैव भूतानां तस्याः स्थापनहेतवे ।।५९।।

 तपः कर्तुं समिच्छामि चन्द्रभागानदीतटे । यद्याज्ञा ब्रह्मदेवस्य वाच्छामि चरितुं तपः ।।६०।।

 ज्ञात्वा हार्दं तु गम्भीरं बह्विष्टं तु निजस्य वै । ओमित्युवाच तां तत्र वसिष्ठस्तपसां निधिः ।।६१।।

 वीक्षांचक्रे सरस्तत्र बृहल्लोहितसंज्ञकम् । चन्द्रभागानदीं तस्मात्प्राकाराद् दक्षिणाम्बुधिम् ।।।६२।।

 यान्तीं ददर्श सा चैव तथा सानुगिरेर्महत् । निर्भिद्य पश्चिमं सा तु चन्द्रभागगिरेर्नदी ।।६ ३।।

 पावयन्ती जनान्देशान् शनैर्गच्छति सागरम् । तस्मिन् गिरौ चन्द्रभागे गृहल्लोहितसत्तटे ।।६४।।

 अवतीर्य व्योममार्गाद् वशिष्ठस्तामुवाच ह । कुर्वत्रैव तपो देवि! रक्षासूत्रं गृहाण च ।।६५।।

 प्रकोष्ठे धार्यमेवैतद् रक्षणं ते भविष्यति । इत्युक्त्वा ते ययुस्तस्माद् ऋषयः सत्यलोककम् ।।६६ ।।

 तत्राऽतपत्तपो घोरं स्वयं देवी त्वरुन्धती । सौभाग्यकांक्षमाणा सा गौरीपूजापरायणा ।।६७।।

 पापनाशनयत्ना च कामनियमतत्परा । तपसा स्वल्पकालेन गौरी प्राविर्बभूव च ।।६८।।

 उवाच परमाऽऽराध्योरुन्धति! पुरुषोत्तमः । तमेकं जगतामाद्यं भजस्व पुरुषोत्तमम् ।।६ ९ ।।

 ओंनमः श्रीकृष्णनारायणाय ओनमोऽस्तु ते । मन्त्रेणानेन सर्वेशं कृष्णं भज शुभानने ।।७० ।।

 तेन ते सकलाऽवाप्तिर्भविष्यति न संशयः । स्नानं मौनेन कर्तव्यं मौनेन  हरिपूजनम् ।।७१ ।।

 जलाहारं फलाहारं कन्दाहारमुपोषणम् । वाय्वाहारं भोजनं वा षष्ठे काले समाचरेत् ।।७२।।

 कुरु त्वेवं तपस्यां त्वं सर्वाभीष्टमवाप्स्यसि । मालानां तु सहस्रे द्वे सहस्रं वा जपोऽन्वहम् ।।७३।।

 उक्तमन्त्रेण कर्तव्यो मूर्तिं कृष्णस्य चिन्तयेः । तामाभाष्य महागौरी तत्रैवाऽन्तर्दधे ततः ।।७४।।

 सन्ध्याऽपि च तपोरीतिं ज्ञात्वा मोदमवाप ह । तपश्चर्तुं समारेभे बृहल्लोहिततीरगा ।।७५ ।।

 दिव्यज्ञानं दिव्यचक्षुर्दिव्यां वाचमवाप सा । दिव्यकर्णौ प्राप्तवती तपश्चचार दारुणम् ।।७६ ।।

 पुरुषोत्तममासस्य सप्तम्यां परपक्षके । शुश्राव दुन्दुभिं दिव्यं प्रातरेव त्वरुन्धती ।।७७।।

 शृण्वन्तु तापसाः सर्वे तापस्यश्च कृपामयम् । पुरुषोत्तमवाद्योऽहं प्रवदाम्यत्यभीष्टदम् ।।७८।।

 अधिकमाससप्तम्यां निराहारं व्रतं चरेत् । पूजयित्वा यथालब्धोपचारैर्भोजयेद्धरिम् ।।७९।।

 रात्रौ जागरणं कुर्यात्प्रातर्वै पारणां चरेत्। दानं दद्यात्फलादीनां जलेनार्घ्यं ददेत्ततः ।।८०।।

 विसर्जयेत् क्षमां प्रार्थ्य स यायात्सुखमुत्तमम् । श्रुत्वा तया दुन्दुभेश्चार्चनं कृतं कृतं व्रतम् ।।८ १ ।।

 पत्रपुष्पफलैर्वार्भिः पूजितः पुरुषोत्तमः । भोजितश्च फलैः पक्वैरर्थितो हृदयेन च ।।।८२।।

 रात्रौ जागरणं कृत्वा प्रातर्ब्राह्मे मुहूर्तके । ध्याने स्थिता क्षणं यावत्तावद्ददर्श तं हरिम् ।।८३।।

 प्रत्यक्षं वीक्ष्य सा कृष्णं तुष्टाव जगतां पतिम् । स्थूल सूक्ष्मं यस्य वश्यं नौमि त्वां पुरुषोत्तमम् ।।८४।।

 नित्यानन्दं पावनानां पावनं त्वां नमाम्यहम् । श्रीदं स्वेष्टप्रदं कृष्णनारायणं नमाम्यहम् ।।८५।।

 प्रधानपुरुषौ यस्य कायत्वेन व्यवस्थितौ । तस्मै कृष्णाय हृद्याय वारं वारं नमोनमः ।।८६ ।।

 त्वं परः परमात्मा च परंब्रह्म पुमुत्तमः । स्त्रिया मया कथं वर्ण्यो भूयो भूयो नमोऽस्तु ते ।।८७।।

 इत्याश्रुत्य वचस्तस्याः प्रसन्नः पुरुषोत्तमः । अरुन्धत्याः शरीरं तु वल्कलाजिनशोभितम् ।।८८।।

 सजटं शान्तवदनं निरीक्ष्याऽऽह हरिः स्वयम् । प्रीतोऽस्मि तपसा चैव व्रतेन च स्तवेन ते ।।८९ ।।

 येन ते विद्यते कार्यं वरं वरय साम्प्रतम् । तत् करिष्ये तु भद्रं ते प्रसन्नोऽहं तव व्रतैः ।।९०।।

 इति श्रुत्वा सुप्रसन्ना सन्ध्योवाच प्रणम्य तम् । यदि देयो वरः प्रीत्या वरयोग्याऽस्म्यहं यदि ।।९ १ ।।

 यदि. शुद्धाऽस्म्यहं जाता कामविकृतिपातकात् । यदि कृष्ण प्रसन्नोऽसि व्रतेन मम साम्प्रतम् ।।९२।।

 वृत्तस्तदाऽयं प्रथमो वरो मम विधीयताम् । उत्पन्नमात्रास्ते सृष्टौ सकामा मा भवन्त्विति ।।९ ३ ।।

 द्वितीयश्च वरो मेऽस्तु प्रथिता सर्वसृष्टिषु । भविष्यामि यथाऽहं वै तथा माऽन्या भवेदिति ।।९४।।

 तृतीयश्च वरो मेऽस्तु सन्ध्यायां कामनावतः । पौरुषं नाशमायातु प्रजा पिशाचतां व्रजेत् ।।९५।।

 चतुर्थस्तु वरो मेऽस्तु मम रूपचतुष्टयम् । भवतु प्रथमं तत्र प्रातः सन्ध्यामयं शुभम् ।।९६ ।।

 द्वितीयं तु भवेत् सायं सन्ध्यारूपं सुपुण्यदम् । तृतीयं तु वशिष्ठस्य पत्नी स्वर्गे भवामि वै ।।९७।।

 चतुर्थे तु तव दासीरूपं भवतु धामनि । इति वरान् समभ्यर्थ्य मौनां तामाह माधवः ।।९८।।

 यद्यद् वृत्तं त्वया सन्ध्ये दत्तं तदखिलं मया । व्रतेन तपसा सन्ध्ये त्वत्पापं भस्मतां गतम् ।।९९।।

 प्रथमं तु वरं तत्र शृणु कामस्य रोधताम् । प्रथमं शैशवो भावः कौमाराख्यो द्वितीयकः ।। १०० ।।

 तृतीयो यौवनो भावश्चतुर्थो वार्धकस्तथा । तृतीये त्वथ संप्राप्ते यौवने कामना भवेत् ।। १० १।।

 इति मर्यादया सृष्टौ इत आरभ्य कामना । सम्पत्स्यते जातमात्राः सकामा स्युर्न देहिनः ।। १ ०२।।

 द्वितीयं तु वरं ख्यातिं सतीभावेन यास्यसि । त्रिषु लोकेषु नान्यस्यास्तथा कीर्तिर्भविष्यति ।। १ ०३।।

 तृतीयं तु वरं सन्ध्याकाले त्वनंगसेविनः । पिशाचाः संभविष्यन्ति बलपौरुषवर्जिताः ।। १ ०४।।

 चतुर्थ तु वरं प्रातः सायं सन्ध्याद्वयं भव । पतिर्यस्ते वशिष्ठोऽस्ति भवताच्छाश्वतः पतिः ।। १०५।।

 सप्तकल्पान्तजीवी च तपोद्रव्यस्त्वया सह । स्वर्गे तेन सह वासो यथेष्टं ते भवेदिति ।। १ ०६।।

 अथ दिव्यस्वरूपेण ब्रह्मतन्वा मया सह । कुरु वैकुण्ठवासं मे भव दास्यरुणाऽभिधा ।। १ ०७।।

 इति ते ये वरा मत्तः प्रार्थितास्तेऽर्पिता मया । अन्यच्च शृणु कार्येऽस्मिन् कायाकल्पं समाचर ।। १ ०८।।

 एतच्छैलोपत्यकायां चन्द्रभागानदीतटे । मेधातिथिः ऋषियज्ञं करोति तापसाश्रमे ।। १०९।।

 तपसा तत्समो नास्ति न भूतो न भविष्यति । तस्य ज्योतिष्टोमयज्ञे वह्नौ जनैरलक्षिता ।। ११ ०।।

 सूक्ष्मरूपं समापन्ना कायापरिणतिं कुरु । तदग्नौ शोधितां वर्ष्मचतुष्टयं गृहाण वै ।। ११ १।।

 प्रातःसन्ध्या तथा सायंसन्ध्या भूत्वा स्थिरा भव । पतिं वशिष्ठं मां ध्यात्वा श्रेष्ठं कन्याद्वयं भव ।।१ १ २।।

 एका मेधातिथेः पुत्री वशिष्ठस्य प्रिया भव । द्वितीया मम दासी च अरुणाख्या प्रिया भव ।। ११ ३।।

 अयं तु पर्वतस्ते वै नाम्ना स्यादरुणाचलः । महत्तीर्थं पावनं वै लोकमान्य भविष्यति ।। १ १४।।

 इत्यभिधाय भगवान् करौ दत्वा तु मस्तके । प्रेम्णा निभाल्य तां तत्राऽन्तर्हितः संबभूव ह ।। १ १५।।

 सन्ध्याऽप्यगच्छत्तत्रैव मेधातिथिमखस्थले । स्मृत्वा कान्तं वशिष्ठं च तथा श्रीपुरुषोत्तमम् ।। १ १६।।

 सा विवेश समिद्धेऽग्नौ न केनाऽप्युपलक्षिता । शरीरं मलिनं तस्या वह्निना संस्कृतं तदा ।। १ १७।।

 शोधितं दिव्यतां प्राप्तं देवार्हं ह्रासवर्जितम् । शुद्धं प्रवेशयामास वह्निस्तत्सूर्यमण्डलम् ।। १ १८।।

 सूर्यस्त्वर्धं विभज्यैतच्छरीरं तु तदा रथे । स्वके संस्थापयामास प्रीतये पितृदेवयोः ।। १ १९।।

 तदूर्ध्वभागोऽत्यरुणः प्रातःसन्ध्याऽभवच्छुभा । अरुणोदयवेला सा देवानां प्रीतिकारिणी ।। १२०।।

 तच्छेषभागस्तस्यास्तु सायंसन्ध्याऽस्तमे रवौ । सूर्यास्तमनवेला सा पितॄणां मोदकारिणी ।। १२१ ।।

 तस्याः प्राणास्तदा ध्याता हरिणा तत्तु शाश्वतम् । ब्राह्मं वर्ष्म बभूवास्याः सा दिव्या कन्यकाऽभवत् ।। १२२।।

 अरुणा सा ब्रह्मधामगता गरुडगामिनी । अथ यज्ञावसाने तु मुनिना वह्निकुण्डतः ।। १२३ ।।

 प्राप्ता पुत्री वह्निजन्या तप्तकांचनसन्निभा । अरुन्धतीति तस्यास्तु नाम चक्रे स वै मुनिः ।। १२४।।

 न रुद्धणि यतो धर्मं सा कस्मादपि कारणात् । अस्य विष्णोः सदा धर्मं रुणद्धीति ह्यरुधन्ती ।। १२५ ।।

 अथ सा  ववृधे कन्या गुणैर्वर्षैर्मुनेर्गृहे । वशिष्ठेन विवाहं कारयामास पिता ततः ।। १२६।।

 अस्या विवाहसत्कार्ये सुराश्च मुनयो ययुः । ब्रह्मविष्णुमहेशाश्चाऽभवन्नाशीर्वचःपराः ।। १ २७।।

 अरुन्धती महासाध्वी रेजे वशिष्ठसंगता । इति सन्ध्याचरित्रं ते कथितं लक्ष्मि! पावनम् ।। १२८।।

 धर्मदार्ढ्यकरं दिव्यं सर्वकामफलप्रदम् । अधिमासस्य चान्तस्य सप्तम्यास्तु व्रतेन वै ।। १२९ ।।

 तपसा च प्रसन्नः श्रीकृष्णनारायणः प्रभुः । ददौ ययेष्टं रूपाणि त्वरुणायै पुमुत्तमः ।। १३ ०।।

 येदं संशृणुयान्नारी नरो वा दृढमानसः । सर्वान् कामानवाप्नोति पुरुषोत्तमतोषणात् ।। १३ १।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सृष्ट्यारंभे दक्षादीनां सन्ध्याया ब्रह्मणश्च कामेन पराभवे विकृतिभावोत्तरं धर्मदेववचनैः सन्ध्यायाः श्वपचपुत्रीत्वं, भिक्षामिषेण वशिष्ठादिसप्तर्षिभिः सन्ध्याया ग्रहणं, कामधेनुमुखे निक्षिप्य मूत्रद्वारेण निष्कासनं, तपोऽर्थे चन्द्रभागातीरेऽवस्थानं, गौरीप्राविर्भावः, सप्तमी- व्रतेन पुरुषोत्तमप्राविर्भावः, कामदेवस्य यौवने उत्पत्तिरिति नियमनं, प्रातःसायंसन्ध्याद्वयभवनं, मेधातिथिऋषिकृतयज्ञ- कुण्डेऽदृश्यतया प्रवेशनं, कायाशोधनं, दिव्याऽरुणायाः स्वरूपेण ब्रह्मधामगमनं, अरुन्धत्याख्याया वह्निकुण्डोत्पन्नसुता- त्मिकाया वशिष्ठेन विवाहोत्तरं स्वर्गगमनं, चेत्यादिनिरूपण-नामा चतुर्दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।।१.३१४।।

सन्ध्या

यदात्मा प्रज्ञयाऽऽत्मानं सन्धत्ते परमात्मनि । तेन सन्ध्या ध्यानमेव तस्मात्सन्ध्याभिवन्दनम् ॥  निरोदकाध्यानसन्ध्या वाक्कायक्लेशवर्जिता । सन्धिनी सर्वभूतानां सा सन्ध्या ह्येकदण्डिनाम् ॥ - ब्रह्मोपनिषद

मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः । सूतकद्वयसम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १३॥  हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति । नास्तमेति न चोदेति कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १४॥ मैत्रेय्युपनिषद

त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्तिस्रः सन्ध्यास्त्रयः स्वराः ॥ १३४॥– योगतत्त्वोपनिषद

बाह्यात्प्राणं समाकृष्य पूरयित्वोदरे स्थितम् । नाभिमध्ये च नासाग्रे पदाङ्गुष्ठे च यत्नतः ॥ ४३॥  धारयेन्मनसा प्राणं सन्ध्याकालेषु वा सदा । सर्वरोगविनिर्मुक्तो भवेद्योगी गतक्लमः ॥ ४४॥  नासाग्रे वायुविजयं भवति । नाभिमध्ये सर्वरोगविनाशः । पादाङ्गुष्ठदारणाच्छरीरलघुता भवति । रसनाद्वायुमाकृष्य यः पिबेत्सतततं नरः । श्रमदाहौ तु न स्यातां नश्यन्ति व्याधयस्तथा ॥ ४५॥  सन्ध्ययोर्ब्राह्मणः काले वायुमाकृष्य यः पिबेत् । त्रिमासात्तस्य कल्याणी जायते वाक् सरस्वती ॥ ४६॥  एवं षण्मासाभ्यासात्सर्वरोगनिवृत्तिः । जिह्वया वायुमानीय जिह्वामूले निरोधयेत् । यः पिबेदमृतं विद्वान्सकलं भद्रमश्नुते ॥ ४७॥ - शाण्डिल्योपनिषद

 

सायं पाशुपतीं संध्यां कुर्यां पशुपतीश्वरे ।। विभूतिधारणात्तत्र पशुपाशैर्न बध्यते ।। ९३ ।।

प्रातःसध्या करोम्येव सदोंकारनिकेतने ।। तत्रैकापि कृता संध्या सर्वपातककृंतनी ।। ९४ ।। काशीखंड 4.2.79.

प्रज्ञप्ति कथासरित् ५.२.२५८( प्रज्ञप्तिकौशिक नामक गुरु द्वारा अशोकदत्त व विजयदत्त भ्राताद्वय को उनके विद्याधरत्व का बोध कराना तथा विद्या प्रदान करना ), ९.१.४५( प्रज्ञप्ति नामक विद्या द्वारा अलंकारवती कन्या के पति के विषय में भविष्यवाणी ), १६.१.५२( नरवाहनदत्त द्वारा प्रज्ञप्ति विद्या से स्वप्न के फल की पृच्छा ) prajnapti

 

प्रज्ञा पद्म २.८.६०( प्रज्ञा की परिभाषा, प्रज्ञा की माता संज्ञा का उल्लेख ), २.१२.९५( दुर्वासा के समक्ष प्रकट प्रज्ञा का रूप ), २.५६.३१( प्रज्ञा द्वारा शकुनी रूप धारण करके कृकल - पत्नी सुकला को शकुन रूप में पति के आगमन की सूचना देना ), २.९७.९९( राजा सुबाहु को स्वमांस भक्षण करते देख प्रज्ञा व श्रद्धा के हास्य का कथन ), ब्रह्म १.११७.४४( उमा - महेश्वर संवाद के अन्तर्गत प्रज्ञा प्रापक कर्मों का कथन ), ब्रह्माण्ड १.२.३६.५३( प्रज्ञ : अमिताभ संज्ञक देवों के गण में से एक ), २.३.१२.३३( प्रज्ञार्थी को पिण्ड जल में देने का निर्देश ), लिङ्ग १.७०.२१( प्रज्ञा की निरुक्ति ), वायु ४.३६/१.४.३४( प्रज्ञा की परिभाषा : ग्रहों को जन्म देने वाली ), स्कन्द ४.१.२९.११०( गङ्गा सहस्रनामों में से एक ), महाभारत शान्ति २३७.३( प्रज्ञा द्वारा धर्म के प्रवृत्ति लक्षण अथवा निवृत्ति लक्षणात्मक होने का निश्चय ), २७३.१३( प्रज्ञा द्वारा कुशल धर्म को प्राप्त करने का कथन ), २९७.२१( प्रज्ञावान् के द्विजों से श्रेष्ठ होने व आत्मसम्बुद्धों से हीन होने का कथन ), ३०१.६५( दुःख रूपी जल में व्याधि, मृत्यु रूप ग्राह, तम: कूर्म व रजो मीन आदि को प्रज्ञा से तरने का कथन ), आश्वमेधिक २७.१५( प्रज्ञा वृक्ष पर मोक्ष फल लगने का कथन ), ४३.३४( प्रज्ञा द्वारा मन के ग्रहण का उल्लेख ), महाप्रस्थानिक २.१०(सहदेव द्वारा स्वयं को प्राज्ञ मानने के कारण सहेदव का स्वर्ग से पूर्व पतन),  योगवासिष्ठ ३.२३+ ( प्रज्ञा का आकाशगमन ), ५.१२.३४( प्रज्ञा का चिन्तामणि के रूप में उल्लेख ), ६.१.१२०.१( प्रज्ञा वृद्धि : योग की प्रथम भूमिका ), लक्ष्मीनारायण २.२२१( बालकृष्ण द्वारा अन्त:प्राग~ नगरी की प्रजा को प्रज्ञा के महत्त्व का उपदेश ), २.२२४.३६( प्रज्ञा पुराणी द्वारा शोधन के महत्त्व का कथन ), २.२४५.४९( जीव रथ में प्रज्ञा को मार्ग बनाने का निर्देश ), ३.७.७९( राजा थुरानन्द के गर्व के खण्डन के लिए श्रीहरि का सम्प्रज्ञान द्विज के पुत्र रूप में जन्म लेने का वर्णन ), ३.८.१( लक्ष्मी की अवतार ज्योत्स्ना कुमारिका द्वारा स्वयंवर में द्विज प्राज्ञ नारायण का वरण, द्विज का अन्य राजाओं से युद्ध आदि ), ३.१२.५२( प्राज्ञायन ऋषि का भक्ति व धर्मव्रत विप्र के पुत्र के रूप में जन्म ), ३.१३.१+ ( प्रज्ञात नामक वत्सर में पृथिवी पर ब्रह्मचर्य की पराकाष्ठा का वर्णन, सती सुदर्शनी द्वारा ब्रह्मचर्य में विघ्नकारकों को शाप से स्त्री बनाना, श्रीहरि द्वारा स्त्रीपुं नारायण अवतार लेकर पुरुषों को स्त्रीत्व से मुक्त करना ), ३.१४.४३( अप्रज्ञात वत्सर में मानवों को माकरासुर के कोप से त्राण देने के लिए श्रीहरि के जल नारायण रूप में प्राकट्य का वर्णन ), ३.५१.१२१( राजा सुबाहु द्वारा स्वर्ग में स्वशव भक्षण पर श्रद्धा व प्रज्ञा स्त्रियों द्वारा राजा के उपहास का कथन ), कथासरित् ८.२.२४४( सूर्यप्रभ के सचिव प्रज्ञाढ्य द्वारा सूर्यप्रभ को राज्ञी के आगमन की सूचना देने का वृत्तान्त ), ८.२.३७७( वातापि दैत्य के प्रज्ञाढ्य मन्त्री रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख ), ८.७.२२( प्रज्ञाढ्य द्वारा युद्ध में चन्द्रगुप्त के वध व चन्द्रमा से युद्ध का कथन ), १२.५.३१९( प्रज्ञा पारमिता के द्रष्टान्त के रूप में सिंहविक्रम चोर द्वारा काल के वंचन की कथा ), १२.२२.४( मन्त्री प्रज्ञासागर के पुत्र के स्त्री रूप धारी द्विज - पुत्र से विवाह का वृत्तान्त ), १२.३५.१३४( मृगाङ्कदत्त राजा के मन्त्री प्रज्ञाकोष द्वारा स्वामी का संदेश राजा कर्मसेन तक पहुंचाना ), वास्तुसूत्रोपनिषद ६.२१टीका(सरस्वती प्रज्ञारूपा, सावित्री मेधारूपा),  द्र. सुप्राज्ञ prajnaa