पूर्वा अष्टमी(24व 25-6-2015)

लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास की पूर्वा अष्टमी का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है। तप से थके हुए ब्रह्मा के ललाट से रात्रि में पुत्र के रूप में रुद्र की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा ने रुद्र से कहा कि तुम अपनी सन्तान के रूप में रुद्रों को उत्पन्न करो। उन भयंकर रुद्रों से संसार को पूरित देखकर ब्रह्मा को संतोष नहीं हुआ और उन्होंने रुद्र को आज्ञा दी कि इन रुद्रों को समेट लो। रुद्र ने ऐसा ही किया। तब जगत प्राणियों से शून्य हो गया। बालकों से जगत को शून्य देखकर ब्रह्मा को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने बालकों की सृष्टि के लिए पुनः तप किया। तब उनकी 9 सन्तानें उत्पन्न हुई। पहली तीन के नाम हैं – दुन्दुभि, घण्ट व कम्बु। यह पुरुष जाति के हैं। दूसरी तीन के नाम हैं – नीराजना, घण्टा व झल्लरी। यह तीन स्त्री जाति के हैं। तीसरी तीन सन्तानों के नाम हैं – कांस्य, पंचपात्र व धूपध्र। यह नपुंसक जाति के हैं। इनमें से नीराजना, पञ्चपात्र व धूपध्र मौन वृत्ति वाले हैं। अन्य 6 शोर करने वाले हैं। एक दिन इन सन्तानों ने महादुन्दुभि की घोषणा सुनी कि पुरुषोत्तम मास की पूर्वा अष्टमी का व्रत करने से वैकुण्ठ लोक प्राप्त हो सकता है जहां की प्रजा चतुर्भुज है और स्वामी लक्ष्मीनारायण हैं। अथवा गोलोक प्राप्त हो सकता है जहां की प्रजा द्विभुज है तथा स्वामी राधाकृष्ण हैं। अथवा अक्षर ब्रह्मलोक प्राप्त हो सकता है जिसके स्वामी स्वयं श्रीपुरुषोत्तम हैं। ब्रह्मा की इन नौ सन्तानों ने कामना की कि हमें इन तीनों धामों में रहने का अवसर प्राप्त हो। पूर्वा अष्टमी के व्रत से इनको श्रीपुरुषोत्तम ने अपने पुत्र – पुत्रियों के रूप में स्वीकार करने के बदले इन्हें अपना सेवक बना लिया और इनको सायं – प्रातः की पूजा आदि में मंदिरों में स्थान दे दिया गया।

विवेचन

1. अद्वैतोपनिषद  के अनुसार अष्टमी निर्गुणावस्था है जिसमें ब्रह्म शरीर में ब्रह्मा  की ज्ञान लहरी स्पन्दन करती है । यह कथन लक्ष्मीनारायण संहिता के उपरोक्त माहात्म्य के बहुत निकट बैठता है। रुद्रों को उत्पन्न करने और फिर उन्हें समेटने की प्रक्रिया को निर्गुण अवस्था के अन्तर्गत रखा जा सकता है। यह ब्रह्म की, परब्रह्म की स्थिति है। फिर दुन्दुभि, कांस्य, नीराजना आदि का उत्पन्न होना ब्रह्मा की, सगुण अवस्था है। नवरात्र व्रतों में सप्तमी तक तो उपवास रखा जाता है। फिर अष्टमी को उपवास का पारण किया जाता है। सप्तमी तक उपवास करने की स्थिति रुद्रों को उत्पन्न करने की स्थिति है। रुद्र का अर्थ है वह प्राण जो रुलाने वाले हैं। यह एकान्तिक साधना है। फिर अष्टमी की स्थिति में सगुण अवस्था उत्पन्न हो जाती है जहां नाद आदि उत्पन्न होते हैं। इससे प्राणों की रौद्र स्थिति समाप्त हो जाती है।  

2. लक्ष्मीनारायण संहिता के माहात्म्य में अष्टमी को उत्पन्न होने वाले नादों में सर्वप्रथम स्थान दुन्दुभि को दिया गया है। फिर घण्ट व कम्बु या शंख का स्थान है। वाद्य के रूप में, दुन्दुभि एक अवनद् वाद्य है, अर्थात् एक पात्र पर चर्म चढा रहता है जिस पर आघात करने से नाद उत्पन्न होता है। कांस्य के सम्बन्ध में, श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन में यह स्पष्ट किया गया है कि कांस्य, घंटा आदि चेतना के उन अंगों को प्रभावित करते हैं जो सुप्त स्थिति में हैं। यह धातु से निर्मित होते हैं। धातु का अर्थ है – जो चेतन नहीं है, जड है। कांस्य को कंस से निर्मित के रूप में समझ सकते हैं। वैदिक कर्मकाण्ड में कंस का उपयोग सुराकंस के रूप में होता है, अर्थात् कंस पात्र का उपयोग सुरा के संग्रहण के लिए होता है, सोम के संग्रहण के लिए नहीं। शंख का नाद तब उत्पन्न होता है जब उसमें प्राण फूंके जाते हैं। अर्थात् जो चेतना बिल्कुल जड पडी है, उसमें प्राण फूंकने पडते हैं। जड हो या चेतन, कोई भी प्राण सुप्त अवस्था में न रह जाए, यही विभिन्न नादों का लक्ष्य हो सकता है। कम्बु ग्रीवा को श्रेष्ठ माना जाता है। हमारा उदर, फुफ्फुस, हृदय आदि ऐसे अंग हैं जिनमें दुन्दुभि के चर्म की भांति लगातार स्पन्दन हो रहा है।

3. ब्रह्मा की 9 सन्तानों में से एक नीराजना कही गई है। नीराजना का दूसरा नाम आरार्त्रिक कहा जाता है जिससे लोकभाषा में आरती शब्द बना है। पुराणों में नीराजना द्वादशी व्रत का वर्णन आता है जिसके पारण से राजा को निरोगता आदि की प्राप्ति होती है। नीराजना शब्द की व्युत्पत्ति नी – रज के आधार पर की जा सकती है। रज शब्द को पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है – किसी कार्य को करने से किसी तन्त्र में जो अव्यवस्था उत्पन्न होती है, उसे रज कहते हैं। उदाहरण के लिए, हम अपना दैनिक कार्य करते हैं। इससे हमारे अंदर जरा उत्पन्न होती है। यह जरा रज का रूप है। इसे रोग, व्याधि कहा गया है। नीराजना का अर्थ होगा कि वह कार्य जिसको करने से तंत्र को व्याधि से मुक्त रखने में सहायता मिले। यह उल्लेखनीय है कि नीराजना द्वादशी व्रत में पहले सात दिन तो यज्ञ आदि होते हैं, फिर आठवें दिन मुख्य कृत्य सम्पन्न किए जाते हैं जिनमें हय और गज भी सम्मिलित होते हैं।

4. पुरुषोत्तम अष्टमी माहात्म्य में तीन धामों का उल्लेख है – वैकुण्ठ धाम जहां की प्रजा चतुर्भुज होती है। गोलोक जहां की प्रजा द्विभुज

होती है और पुरुषोत्तम धाम जो अक्षर धाम है। डा. फतहसिंह के अनुसार चतुर्भुज रूप का अर्थ है – आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय व अन्नमय, इन पांच कोशों में से जिसकी गति अन्तिम चार में हो, सर्वोच्च आनन्दमय कोश में नहीं, वह वैकुण्ठ धाम है। जहां समाधि में आरोहण – अवरोहण हो, अर्थात् कभी तो मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय में स्थित होना और कभी मनोमय, प्राणमय व अन्नमय में स्थित होना, वह गोलोक की स्थिति है। केवल आनन्दमय लोक में ही रहना पुरुषोत्तम की स्थिति है। कहा गया है कि ब्रह्मा की इन 9 सन्तानों की पहुंच इन तीनों लोकों में है। और इन 9 को पुत्र – पुत्री बनकर नहीं रहना है, अपितु सेवक बन कर रहना है। यह हमारे उत्थान में हमें सहयोग दें, यह अपेक्षित है।

5. शिव पुराण 5.26.40 में नाद का विभाजन 9 प्रकारों में किया गया है

घोष

आत्मशुद्धिकर, सर्वव्याधिहर, वशी, आकर्षण

कांस्य

प्राणियों की गति का स्तम्भन

शृङ्ग

अभिचार हेतु, विद्वेषि-उच्चाटन, शत्रुमारण

घण्टा

सर्वदेवों, मनुष्यों, यक्षगन्धर्वकन्याओं का आकर्षण

वीणा

दूरदर्शन

वंश

सर्वतत्त्व प्रजनन

दुन्दुभि

जरामृत्यु विवर्जन

शंख

कामरूप

मेघगर्जन

विपत्ति से संगम न होना

 

6. स्वच्छन्द तन्त्र 11 पटल में नादों का वर्गीकरण 8 प्रकार से किया गया है तथा इन नादों को परिभाषित भी किया गया है

  1.घोष, 2.राव, 3.स्वन, 4.शब्द, 5.स्फोट, 6.ध्वनि, 7.झाङ्कार, 8.ध्वङ्कृति।

7.हंसोपनिषद  में दस नाद तथा उनके गुण निम्नलिखित हैं

चिणि

चिञ्चिणीगात्र

चिञ्चिणी

गात्रभञ्जन

घण्टानाद

खेदन

शंखनाद

शिरःकम्पन

तन्त्रीनाद

तालुस्रवण

तालनाद

अमृतनिषेवण

वेणुनाद

गूढविज्ञान

मृदङ्गनाद

परावाक्

भेरीनाद

अदृश्यदेह तथा अमल दिव्यचक्षु

मेघनाद

परमब्रह्म

 

1.      चिणिचिञ्चिणीगात्र, 2.चिञ्चिणी-गात्रभञ्जन, 3.घण्टानाद- खेदन, 4.शङ्खनाद-शिरकम्पन, 5.तन्त्रीनाद-तालुस्रवण, 6.तालनाद-अमृतनिषेवण, 7.वेणुनाद-गूढविज्ञान, 8.मृदङ्गनाद-परावाक्, 9.भेरीनाद-अदृश्यदेह तथा अमल दिव्यचक्षु, 10.मेघनाद-परमब्रह्म।

 

लक्ष्मीनारायण संहिता का पुरुषोत्तम मास माहात्म्य युनिकोड देवनागरी फोंट में निम्नलिखित वैबपृष्ठ पर उपलब्ध है –

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य

पूरी लक्ष्मीनारायण संहिता पीडीएफ फाईलों के रूप में निम्नलिखित वैबपृष्ठ पर उपलब्ध है -

http://sanskritdocuments.org/sanskritupload/

श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! युगारंभे सृष्ट्यादौ यदभूत्पुरा । षट्कं जातमपत्यानां ब्रह्मणो मानसान्निशि ।। १ ।।

 तपसा क्लेशितस्याऽस्य ललाटादभवन्महान् । रुद्रः सोऽप्याज्ञयाऽजस्य रुद्रैर्जगदपूरयत् ।। २ ।।

 तांस्तु भयंकरान्क्रूरान् जगद्विप्लवकारकान् । दृष्ट्वा तोषं न वै लेभे ब्रह्माऽऽज्ञामकरोत्पुनः ।। ३ ।।

 संहारार्थं तु रुद्राणां सृष्टेस्तदा सुतेन वै । रुद्रेण संहृताः सर्वे जगच्छून्यमभूत्ततः ।। ४ ।।

 सत्यलोकं गृहं स्वस्य शून्य विलोक्य विश्वसृङ् । औदासीन्यं जगामाऽति बालकाकलिकां विना ।। ५ ।।

 यत्र गृहे न वै बालो बालानां रोदनं न वा । क्रीडनं कलहो नो न श्रूयते बालभाषितम् ।। ६ ।।

 तद्गृहं कालरात्रेर्वै फेरुराजगृहोपमम् । विना पुत्रं विना पुत्रीं स्वर्गं तु नरकायते ।। ७ ।।

 हीश्वराणां भवनानि रणायन्ते प्रगर्तवत् । जीर्णवृक्षायते सौधः केवलवृद्धमण्डलः ।। ८ ।।

 अनपत्यं कुटुम्बं च शुष्कपर्वतशृंगवत् । अनपत्यः पिता दग्धज्वालामुखिस्थलीसमः ।। ९ ।।

 अबालकाकलीशब्दं महाप्रलयवद्ग्रहम् । रसा अप्यरसाः सौधे जायन्ते बालकं विना ।। १० ।।

 भोज्यान्यपि कवोष्णानि जायन्तेऽतृप्तिदानि च । उत्सवा यद्विना नैव भवन्त्येव नवा नवाः ।। ११ ।।

 यदुन्नतिकृतोत्साहा अपि नश्यन्ति यद्विना । शुष्कायन्ते मुखचन्द्रा ग्रीष्मे कर्दमपिण्डवत् ।। १ २।।

 रूक्षायन्ते मानसानि तापे बर्बुरकाष्ठवत् । तिक्तायन्ते च पेयानि ज्येष्ठे निम्बरसादिवत् ।। १३ ।।

 सुखदानि त्वपत्यानि जायन्ते पुण्यशालिनाम् । दुःखदानि दरिद्राणि जायन्ते दुष्प्रकर्मिणाम् ।। १४।।

 ऋणानुबन्ध एवात्र कारणं प्राग्विसर्गजः । नूतनं चापि कर्तव्यं स्वपत्यदायकं तपः ।। १ ५।।

 इति संकल्प्य च ब्रह्मा संयम्येन्द्रियमण्डलम् । तपश्चचार घटिकामात्रं समाधिसंस्थितः ।। १ ६।।

 अपत्यार्थी स्वपत्यार्थी सस्मार तानि वै हृदि । तावत् तन्मानसा जाता दुन्दुभिघण्टकम्बवः ।। १७।।

 त्रयः पुत्राः सुतास्तिस्रो घण्टा नीराजना तथा । झल्लरी चेति मानस्यः पश्चाज्जातं त्रिकं पुनः ।। १८ ।।

 कांस्यं च पञ्चपात्रं च धूपध्रं चेति मानसम् । तिस्रः पुत्र्यस्त्रयः पुत्रास्त्रयं षण्ढं प्रजापतेः ।। १९।।

 संकल्पान्नवसंख्यानि त्वपत्यानि प्रजज्ञिरे । निषेके वाथ संकल्पे भावना यादृशी भवेत् ।। २० ।।

 तादृशं जायतेऽपत्यं तथा जातानि पद्मजे । तत्र षट् खलु वाचालान्याक्रोशकारकाणि हि ।। २१ ।।

 कम्बुर्घण्टो दुन्दुभिश्च घण्टा च झल्लरी तथा । कांस्यं च जातमात्राणि चक्रुः कोलाहलं गृहे ।। २२ ।।

 औदासीन्यं गतं तेन शून्यतापि गता विधेः । गृहं क्रीडदपत्यैश्च सोत्सवं समजायत ।।२ ३ ।।

 ब्रह्मा तेन प्रसन्नोऽभूत् संसक्तो लालनेऽवने । गृहं सापत्यकं मंगलायतनं त्वमन्यत ।। २४।।

 नीराजना पञ्चपात्रं धूपध्रं मौनवृत्तितः । षड्भिस्तानि रमन्ते वै नर्तनाद्यैस्तदा क्षणे ।।२५।।

 नित्यं प्रातस्तथा सायं मिलित्वा नव तानि वै । कुर्वन्ति कीर्तनं स्वस्व कर्तव्यार्थैः प्रपूजनम् ।। २६।।

 कृष्णनारायणस्यैव बभूवुर्भक्तिमन्ति वै । ब्रह्मा जहर्ष चातीव स्वपत्यलाभतः खलु ।।२७।।

 एवं प्रयाते समयेऽधिमासस्याऽष्टमी प्रगे । महादुन्दुभिरेतैस्तु श्रुतो विष्णुपदीतटे । । २८ ।।

 प्रातः स्नानं प्रकुर्वद्भिः श्रुतं तत्र शुभावहम् । शृण्वन्तु चेतनाः सर्वे स्थावराश्च जडा अपि ।।२९।।

 मूर्तिमन्तो ह्यमूर्ताश्च बाला वा बालिकास्तथा । बालकान्यपि शृण्वन्तु स्वल्पायास फलोत्तमम् ।। ३० ।।

 पुरुषोत्तमवाद्योऽहं याथातथ्येन वच्म्यहम् । पुरुषोत्तममासोऽयं पुरुषोत्तम एव सः ।। ३१ ।।

 सर्वमासातिगः प्रापयति श्रीपुरुषोत्तमम् । मनसा कर्मणा वाचा त्वादृतः पुरुषोत्तमः ।। ३५।।

 येन स त्वादृतः स्याच्छ्रीपुरुषोत्तमशार्ङ्गिणा । अद्य मौनं विधातव्यं भोजनं चैककालिकम् ।। ३३ ।।

 प्रातः संपूजनं कार्यं मध्याह्ने च तथा निशि । कृष्णनारायणस्याऽद्य रूपं ध्यातव्यमैश्वरम् ।। ३४।।

 प्रातः स्नात्वा हरिं नत्वा पूजासामग्रीरानयेत् । सुवर्णप्रतिमां विष्णोः स्थापयेन्मण्डले घटे ।। ३५।।

 पञ्चामृतेन दुग्धेन दध्ना क्षौद्रेण सर्पिषा । शर्करया शुद्धवार्भिः स्नापयेत् पुरुषोत्तमम् ।। ३६ ।।

 वस्त्रैः सम्मार्ज्य धौत्रादि धारयेत् पुरुषोत्तमम् । आभूषणानि कटककिरीटादीनि धारयेत् ।। ३७।।।

 चन्दनात्तरकस्तूरी कुंकुमादिभिरर्चयेत् । भोजयेद् दुग्धपाकादि ताम्बूलादि समर्पयेत् ।। ३८ ।।

 धूपदीपनमस्काराऽऽरार्त्रिकाद्यैर्विवर्धयेत् । प्रदक्षिणा दण्डवद्भिः प्रार्थयेन्मनसेप्सितम् ।। ३९ ।।

 जलं पेयं तथाऽर्घ्यं च फलं पुष्पाञ्जलिं ददेत् । प्रार्थयेच्च कृपानाथ पुरुषोत्तम केशव ।।४० ।।

 व्रतं तव कृते चाद्य पुरुषोत्तममासिकम् । अष्टम्यां पालितं चाहर्निशं कृत्वा ह्युपोषणम् ।।४१ ।।

 एकभक्तं च वा कृत्वा यथाशक्ति कृतं प्रभो । क्रियते वा करिष्ये वा निर्विघ्नं तत् समाप्यताम् ।।।४२।।

 यथेष्टं च फलं देहि कृपासिन्धो जनार्दन । इति संप्रार्थ्य देवेशं लभन्तां मनसेप्सितम् । ।४ ३ ।।

 महादुन्दुभिं श्रत्वैवं वेधोबालानि तत्क्षणम् । स्नात्वाऽऽश्चर्यभराण्येवाऽऽययुस्तस्याऽन्तिकं मुदा । ।४४। ।

 पप्रच्छ दुन्दुभिः स्वल्पो महादुन्दुभिमुत्सुकः । कोऽसि कस्मात् समायातः किं प्रवक्षि ददासि किम् । ।४५। ।

 क्व ते वासश्च किं कार्यं करोषि त्वत्प्रभुश्च कः । इति दुन्दुभिना पृष्टो महादुन्दुभिराह तम् । । ४६ । ।

 अहं वैकुण्ठपुत्रोऽस्मि वैकु्ण्ठादागतोऽस्मि च । वैकुण्ठे मे सदा वासो नारायणस्य मन्दिरे । ।४७। ।

 कार्यं नारायणनीराजनकाले प्रवादनम् । मम स्वामी कृष्णनारायणः श्रीपुरुषोत्तमः ।।४८ ।।

 यस्याऽऽज्ञया जनको मे वैकुण्ठधामरूपधृक् । भूत्वा नित्यं वर्तते तु सेवायामपि सेवकः ।। ४९ ।।

 पित्राज्ञया तथा नारायणाज्ञयाऽप्यहं सदा । विचरामि त्रिलोक्यां वै प्रेष्यकार्यकरोन्वहम् । ।५ ० । ।

 या त्वाज्ञा जायते तस्य नारायणस्य तामहम् । प्रवदामि घोषयामि पुनर्गच्छामि तत्र च । ।५ १ । ।

 स्वरूपे द्वे मम स्तो वै चतुर्बाहुस्तु पार्षदः । सेवायां सर्वदा वर्ते द्वितीयोऽस्मि सुदुन्दुभिः । ।५२ ।।

 घोषयामि हरेराज्ञां दण्डेन ताडितो मुदा । अनेकानि स्वरूपाणि धर्तुं शक्तोऽस्म्यनुग्रहात् ।।५३ । ।

 सेवया मत्कृपया च सन्तुष्टो भगवान् स्वयम् । ददाति भोजनं श्रेष्ठं सर्वं प्रासादिकन्तु मे । ।५४। ।

 उद्यानानि भवनानि दिव्यान्युपस्कराणि च । यथा नारायणस्येव मेऽपि सन्ति च तान्यपि । ।५५ ।।

 सर्वे नारायणतुल्यं न्यूनं किञ्चिन्न मेऽस्ति तत् । आनकः पटहो भेरी ढक्का रूपाणि सन्ति मे । ।५६। ।

 यथापेक्षं निवसामि सेवायां मन्दिरेषु वै । दुन्दुभिस्तं समाकर्ण्य तत्सुखाकृष्टमानसः । ।५७। ।

 पप्रच्छ दुन्दुभिश्रेष्ठं कथं वै प्राप्यते हरेः । वैकुण्ठं वा तदीयं च स्मृद्धं धाम तु मादृशैः । ।।९८ । ।

 महादुन्दुभिराहैनं जिज्ञासुं स्वल्पदुन्दुभिम् । अधिमासेऽप्येककालं द्विकालं वा त्रिकालिकम् । ।५९ । ।

 यस्मिन् कस्मिन् दिने कृष्णपूजनं तस्य चाप्तिदम् । उपवासाऽयाचितादिव्रतेनैकाऽदनेन वा । । ६०। ।

 नक्तेन वा पयसा वा कृतव्रतेन चाप्यते । कृतेनाऽल्पेन बहु तत् फलं वै लभ्यते जनैः ।। ६१ ।।

 जलमात्रप्रदानेन हरये लभ्यतेऽपि तत् । यस्याऽग्रे किंचन नास्ति भक्त्या तेनापि लभ्यते ।।६ २।।

 देवाग्रे नर्तनं कार्यं गायनं सुस्वरान्वितम् । तुष्टस्तेनापि भगवान् वैकुण्ठं प्रददाति वै ।। ६३ ।।

 वैकुण्ठं चापि गोलोकं ब्रह्मधामाऽक्षराह्वयम् । तदुत्तरोत्तरं श्रेष्ठं यदिच्छति ददाति सः ।।६४।।

 एतच्छ्रुत्वाऽऽह वै स्वल्पदुन्दुभिर्दुन्दुभीश्वरम् । किं वैकुण्ठात्परं चास्ति गोलोकं वै स्थलान्तरम् ।।६५ ।।

 गोलोकात् किं परं व्रह्मधामाऽस्त्यन्यत् स्थलं किमु! । कस्तत्र वसति स्वामी वयं तं प्राप्नुमो न वा ।।६६।।

 महादुन्दुभिराह श्रीलक्ष्मीनारायणः प्रभुः । स्वामी वैकुण्ठलोकस्य यदीष्येताऽऽप्यते स वै ।।६७।।

 स्वामी गोलोकधाम्नः श्रीराधाकृष्णो महान् प्रभुः । यदीष्येताऽऽप्यते सोऽधिमासे कृतव्रतेन वै ।।६८।।

 स्वामी च ब्रह्मलोकस्याऽक्षरेशः पुरुषोत्तमः । यस्मात्परो न वै कश्चिन्न च येन समोऽस्त्यपि ।।६९।।

 अनादिश्रीकृष्णनारायणः सोऽस्ति परेश्वरः । यस्याऽऽज्ञां मस्तके धृत्वा घोषयामि व्रतार्चनम् ।।७० ।।

 अधिमासस्य स स्वामी ददाति व्रतिने हि तत् । व्रती यदीहते दिव्यं सर्वं ददात्यनुग्रहात् ।।७१ ।।

 वः समिच्छा तु यस्यास्ति कार्यं तन्मूर्तिपूजनम् । वैकुण्ठात् कोटिगुणकं सुखं गोलोकधामनि ।।७२।।

 गोलोकादप्यसंख्यं च परे धाम्न्यक्षरे सुखम् । आनन्दानां तथाऽऽनन्त्यमैश्वर्याणामसंख्यता ।।७३ ।।

 नान्यद् वै तादृशं श्रेष्ठं भवतीत्यवगम्यताम् । ब्रह्मविष्णुमहेशानां लोकास्तन्निरयोपमाः ।।७४।।

 गन्तव्यं यदि चेत् तत्राऽर्चयन्तु पुरुषोत्तमम् । अद्याऽष्टम्यां यथाशक्ति यथाभावं स पूज्यताम् ।।७५।।

 नृत्यं विधीयतां चापि गायनं च विधीयताम् । इष्टं फलं हरिः सर्वं भावानुगं प्रदास्यति ।।७६।।

 निवासार्थं यदा सर्वधामसु गोलकेषु च । प्रत्यच्युतग्रहं चापीष्यते सोऽपि ददाति तत् ।।७७।।

 श्रुत्वा त्वहो ह्यहो कृत्वा महाश्चर्ययुतानि वै । वेधोऽपत्यानि तत्रैव नृत्यं चक्रुश्च गायनम् ।।७८।।

 पुपूजुर्दुन्दुभिश्रेष्ठमर्थयामासुरादरात् । वयं तत्राऽऽगमिष्यामो यत्र श्रीपुरुषोत्तमः ।।७९।।

 त्वया तस्मै कथितव्यमस्माकं व्रतपूजनम् । व्रतं कुर्मो वयं त्वद्याऽष्टम्यामुपोषणान्वितम् ।।८० ।।

 पूजनं त्वक्षरेशस्य गोलोकेशस्य चापि वै । वैकुण्ठेशस्य वै कुर्मो येन सर्वत्र नो गतिः ।।८ १।।

 दुन्दुभीशः सत्कृतस्तैर्नीत्वा वेधो गृहान्तरे । यथा नारायणः पूज्यः सर्वैस्तैः पूजितस्तथा ।।८२।।

 शृंगारितः सेवितश्च विभूषाभिरलंकृतः । भोजितो मर्दितश्चैव दक्षिणाभिरलंकृतः ।।८३।।

 पादसंवाहितो देहे मर्दितो विश्रमीकृतः । स्वापितश्च क्षणं पश्चाद् बोधितः संविसर्जितः ।।८४।।

 सेवयाऽतिप्रसन्नः स परावृत्य पुनः पुनः । दुन्दुभिप्रभृतीन् प्राह कुर्वन्तु व्रतमादरात् ।।८५।।

 ब्रह्माण्डे घोषणां कृत्वा सायमागत्य चात्र वै । मिलित्वा भवतः पश्चाद् यास्ये वैकुण्ठमेव ह ।।८६।।

 इत्युक्त्वा दुन्दुभिश्रेष्ठो लोकान् बोधयितुं ययौ । दुन्दुभिप्रभृतयश्च प्रातर्मध्याह्नके निशि ।।८७।।

 स्नानं कृत्वा त्रिषवणं त्रिकालं पूजनं तथा । लक्ष्मीनारायणस्यापि राधाकृष्णस्य वस्तुभिः ।।८८।।

 अक्षराधिपतेश्चापि दिव्यैः षोडशकोत्तमैः । दुग्धपाकादिभिर्देवान् भोजयित्वा ततो मुदा ।।८९।।

 निर्णयं स्म प्रकुर्वन्ति भगवन्मूर्तिसन्निधौ । कृष्णनारायणब्रह्मेश्वराः शृण्वन्तु निर्णयम् ।।९० ।।

 भगवत्सदनेऽस्माभिः स्थातव्यं सर्वदा ध्रुवम् । पूजायां च प्रसेवायां सर्वसृष्टौ हरेः पुरः ।।९१ ।।

 यथास्वाभिलषितं स रक्षत्वस्मान् स्वसन्निधौ । सेवामुक्तिः सदाऽस्माभिर्ग्रहीतव्या नहीतरा ।।९२।।

 दास्यं वै सर्वतः श्रेष्ठं तत् किं न रोचयामहे । नियोजनं हरिर्विनिमयं स्वामी करोतु नः ।।९ ३ ।।

 इति ते प्रार्थनां कृत्वा सवाद्यनृत्यगायनम् । कुर्वन्ति स्म नवैवैवं हावभावस्वरान्वितम् ।।९४।।

 कृष्णनारायणब्रह्माधिपास्तुष्टा दयालवः । पुरुषोत्तममासोऽपि तत्र पश्यति भावनाम् ।।९५।।

 तावत्तत्र समायातो दुन्दुभीशो हरेर्निशि । दृष्टवन्तः श्रुतवन्तो भक्तिं सर्वातिशायिनीम् ।।९६।।

 नवानां वेधसोऽपत्यानां परप्रेमयुञ्जताम् । प्रसन्नाश्चातितुष्टाश्च सर्वे ते परमेश्वराः ।।९७।।

 साक्षाद् दिव्यसुरूपास्ते प्रादुर्बभूवुरन्तिके । सर्वे दिव्यकिरीटास्ते दिव्यमालाद्यलंकृताः ।।९८।।

 कोटिविद्युल्लतातुल्यलक्ष्मीराधाप्रभायुताः । दिव्याम्बरधराः छत्रिचामरिभिः सुसेविताः ।।९९।।

 कोटिकन्दर्पलावण्यसौन्दर्यमृदुतान्विताः । दिव्यैश्वर्यमहावीर्याऽऽनन्दसंभृतमूर्तयः ।। १० ०।।

 प्रसन्नवदनाः प्रोचुः किमपत्यानि चेष्यते । युष्मद्भक्त्या दुन्दुभीशपूजनेन च सेवया ।। १०१ ।।

 अतितुष्टाः स्म पुत्रा वो यदिष्टं ब्रूत तच्च नः । दृष्ट्वा श्रुत्वा ततोऽपत्यान्यतिहृष्टानि वेधसः ।। १०२।।

 प्राहुर्युष्मद्गृहाण्यस्मान्नयत श्रीपरेश्वराः । नियोजयत सेवायां पादयोर्वः सुसन्निधौ ।। १ ०३।।

 प्रतिगृहं प्रतिलोकं युष्माकं भवनं च यत् । तत्र तत्र सदा सेवां करिष्यामो नवैव ह ।। १०४।।

 वयं समप्रजन्मानः स्वसारो भ्रातरस्तथा । परस्परं ततोऽस्माकं वियोगो मा भवेत् क्वचित् ।। १ ०५।।

 यत्र युष्मत्सु सेवायां रक्षन्त्वस्मान् दिवानिशम् । तत्राऽस्मान् संहतानेव रक्षन्तु परमेश्वराः ।। १ ०६।।

 युष्मत्सेवां परां मुक्तिं लब्ध्वा स्यामः सुखालयाः । विज्ञापितं यदस्माभिस्तदावहत यन्मतम् ।। १ ०७।।

 वयं तु किंकरा दासा दास्ये तुष्टा न चाऽर्थने । स्वामी तुष्टो यथा स्यात्तत्कर्तव्यं. किंकरस्य वै ।। १ ०८।।

 इति तेषां भावगर्भं श्रुत्वा ते परमेश्वराः । पप्रच्छुर्दुन्दुभीशं किमेभ्यो देयं वदाऽऽज्ञया ।। १ ०९।।

 महादुन्दुभिराहाऽत्र दायादाः सुलभा ननु । किंकरा दासवर्गाश्च लोके सर्वत्र दुर्लभाः ।। ११ ०।।

 दासवर्गाय सर्वस्वं स्वामिनो भवति ध्रुवम् । एतादृशेभ्यो दासेभ्यः किं किं देयं न विद्यते ।। १११ ।।

 देयश्चाऽक्षरलोको वै देयो गोलोक इत्यपि । देयो वैकुण्ठ एवापि धामान्यन्यानि यान्यपि ।। १ १२।।

 मन्दिराणि तथान्यानि ब्रह्माण्डेषु भवन्ति च । यत्र यत्र तु वो मूर्तिरवतारादिमूर्तयः ।। १ १३।।

 तत्र तत्र तु सर्वत्र वास एभ्यः प्रदीयताम् । मयापि सह वस्तव्य ह्येते भक्ता हि मादृशाः ।। १ १४। ।

 एषां रूपाण्यसंख्यानि भवन्तु भवतां यथा । भवद्भिः सह तिष्ठन्तु जयगायननर्तनैः ।। १ १५। ।

 आरार्त्रिके च पूजायां भ्रामणैरुत्सवेषु च । घोषणैरर्घ्यदानेन सुगन्धाद्यर्पणेन च ।। १ १६।।

 सायं प्रातस्तु पूजायां प्रत्येके मन्दिरे तु वः । नीराजना नर्तनं भ्रामणं करोतु साग्निका ।। ११७ ।।

 दुन्दुभिः पटहात्माऽयं जयध्वानं करोतु वै । घण्टी ह्यनुजयं तस्य करोतु वश्च मन्दिरे ।। १ १८।।

 कांस्यं करोतु मोक्षस्य घोषणां सुमनोहराम् । नीराजनादिवेलायां भजन्तां देहिनो हरिम् ।। १ १९।।

 अभजन्तो निन्दकाश्च नास्तिकाश्च विरोधिनः । भविष्यन्ति यमैर्दण्ड्याः करोत्वित्यपि घोषणाम् ।। १२०।।

 घण्टा करोतु गीतिं च नृत्यं वै सुस्वरा करे । झल्लरी गायनं लोकाऽऽह्वानं करोतु मन्दिरे ।। १२१ ।।

 कम्बुस्तीर्थजलेनैव करोतु भ्रामणं पुरः । पञ्चपात्रं पादजलं रक्षत्वर्घ्यं ददात्वपि ।। १२२।।

 धूपध्रं तु सुगन्धं वै धूपं करोतु मन्दिरे । दुन्दुभीशस्त्वहं सर्वान् दूरस्थानाह्वयामि ह । । १२३ । ।

 आगच्छन्तु महाभागा दर्शनार्थं हरेरिह । मुमुक्षवो नरा नार्यो दुष्टास्तु यान्तु दूरतः ।। । १२४ । ।

 एवं सर्वे वयं युक्ताः करिष्यामः प्रसेवनम् । व्रतस्याऽस्य फलं त्वेभ्यो ददत श्रीपरेश्वराः ।। १२५ । ।

 किं च मद्वत् किलैतेषां ब्रह्माक्षरे द्विहस्तता । गोलोके द्विभुजत्वं वैकुण्ठे करचतुष्टयम् ।। १ २६।।

 तत्तत्स्वामिस्वरूपैश्च साम्यं भवतु दिव्यता । असंख्यरूपधारित्वं स्यादेषा प्रतिमन्दिरम् । । १२७ ।।

 युष्मादृशं च पावित्र्यं सत्कार्यता भवादृशी । पूज्यता रक्ष्यता चापि सर्वदाऽस्तु भवादृशी । । १२८ ।।

 एषां निन्दाप्रकर्तारो भवन्तु निरयं गताः । एषां नाशं तथा चौर्यं भर्त्सनं भञ्जनादिकम् ।। १२९ ।।

 करिष्यन्ति जना ये ते भवन्तु निरयं गताः । एषां त्वंगप्रघातेषु सन्धानादिप्रकारिणाम् ।। १३० ।।

 एषां प्रतिमाकर्तृणां प्रतिमादानिनां तथा । प्रतिमापुष्टिकर्तॄणां जीर्णोद्धारादिकारिणाम् ।। १३१ ।।

 पुरुषोत्तमलोकस्य प्राप्तिर्भवतु सेविनाम् । एतद्वाद्यनिनादादीन् कुर्वाणानां तु देहिनाम् ।। १३२।।

 भगवद्धामसम्प्राप्तिर्भवत्विति वृणे ह्यहम् । महादुन्दुभिना दुन्दुभ्यादिकृते तथाऽर्थितम् ।। १३३ ।।

 भगवद्भिश्च तत्रैव तथास्त्विति समर्पितम् । नवाऽपत्यानि चाऽऽकृष्य संश्लिष्य परमेश्वराः ।। १ ३४।।

 दत्वा दिव्यस्वरूपाणि चतुर्द्विहस्तकानि वै । निषाद्य वाहने नैजे निन्युर्धाम स्वकं स्वकम् ।। १३५ । ।

 नीराजना तथा घण्टा झल्लरी दिव्यरूपिणी । तत्र लक्ष्मीसमा जाता हरिसेवापरायणा ।। १३६ ।।

 अन्यत्र तु यथापेक्षाकृतयस्ता विरेजिरे । कम्बुर्घण्टो दुन्दुभिश्च कांस्यं च पञ्चपात्रकम् । । १३७ ।।

 धूपध्र चेति षट् सौम्या दिव्यरूपधराः प्रभोः । मुक्तरूपाश्च सेवायां समवर्तन्त धामसु ।। १३८ ।।

 अन्यत्र तु यथापेक्षाकृतयस्ता विरेजिरे । एव लक्ष्मि! प्रदिव्या वै जाता विधातृबालकाः ।। १३९ ।।

 पुरुषोत्तममासस्याऽष्टमीव्रतेन वै खलु । एवं ये व्रतकर्तारस्तेऽपि यास्यन्ति धाम तत् ।। १४० ।।

 एवं वै मलमासेऽत्र कृतं स्वल्पं फलेद् बहु । अल्पादानन्त्यलाभो यः कृपा सा पारमेश्वरी ।। १४१ ।।

 यावज्जीविष्यति ब्रह्मा यावत् स्थास्यति मेदिनी । तावत् दुन्दुभिघण्टाद्याः स्थास्यन्त्यच्युतमन्दिरे ।। १४२ ।।

 मुक्तौ तु सर्वदा दिव्याः स्थास्यन्ति केशवालये । तस्माद् व्रतं प्रकर्तव्यं नैतादृक् स्यात् प्रवर्षणम् । । १४३। ।

 ब्रह्मा विचारमकरोत् पुत्रा मे मुक्ततां गताः । अथान्यानुत्पादयेयं गृहं शून्य न मे भवेत् ।। १४४। ।

 योगेश्वराः सनकाद्याः ऋषयश्चापि मानसाः । उत्पादिता ब्रह्मणा हि ततो वै ब्रह्मवादिनः । । १४५। ।

 एवं सृष्टिप्रकर्तारश्चान्येऽपि प्रकटीकृताः । शान्तोऽभवत्प्रजा वीक्ष्य प्रवाहोऽप्यभवत्तथा ।। १४६ । ।

 एतदाख्यानकं ये वै श्रोष्यन्ति मानवादयः । पठिष्यन्ति च तेऽष्टम्याः फलं प्राप्स्यन्ति वै ध्रुवम् । । १४७। ।

इति श्रीलक्ष्मीनारायणीय संहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये ब्रह्मणो मानसानां दुन्दुभिघण्टकम्बुनाम्नां पुत्राणां घण्टानीराजनाझल्लर्याख्यानां पुत्रीणां कांस्यपंचपात्रधूपध्राख्यानामपत्यानां च महादुन्दुभिघोषणाश्रवणोत्तरमष्टम्यां अधिकमासे व्रतकरणेनाऽक्षरेशगोलोकेश वैकुण्ठेशदर्शनं, तत्तद्धामसु सृष्टिषु च प्रति-मन्दिरमनेकरूपैः स्थापनं मुक्तिराशीर्वादाश्चेत्यादिनिरूपणनामा त्रिशततमोऽध्यायः । । १.३०० । ।