पुरुषोत्तम मास उत्तरा पञ्चमी(6-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास कृष्णपक्ष की पंचमी का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है – दक्षिण में वसुधान नाम का एक भक्त राजा था जिसकी पत्नी का नाम राध्यासा था। दोनों महादेव के भक्त थे। उस राजा के यहां दान कार्य पर कभी भी विराम नहीं लगता था। उसने ग्रामाधीशों को बुलाकर निर्देश दे रखा था कि शिवालयों में देवपूजा तथा घृत का अखण्ड दीप अवश्य जलना चाहिए। शिव की पूजा षोडश उपचार सहित होनी चाहिए, जो न्यूनता करेगा उसका सिर छेदन कर दिया जाएगा। अतः उसके भय से शिवालयों में पूजा होती थी। शिवरात्रि के दिन उसके यहां शिव व शिवा भिक्षुक वेश में आए। राजा ने उनको तुलसीपत्र से रहित भिक्षा दी तो शिव – शिवा ने कहा कि वह तो यह प्रसाद ग्रहण नहीं करेंगे जब तक यह पुरुषोत्तम को अर्पित नहीं होगा। आत्मनिवेदि भक्तों का यह सर्वदा धर्म है कि जो भोज्य, पेय, वस्त्र, पत्र, फल, पुष्प, पयः, अन्न, आसन, औषध, कणमात्र चूर्ण, चर्वण, स्वाद्य, खाद्य, भोग्य, धार्य सब कुछ ब्रह्म को अर्पित हो। चाहे जड हो या चेतन, जो कुछ अपना मानते हों, उसे भगवान् को देकर शेष अपने आप खाए। गृहस्तंभों में, जल के पात्रों में, सिल में, खाट में, पलंग में तुलसी की माला बांधकर तभी वह उपयोग करने योग्य बनती है। पशओं में, पक्षियों में, घर के ऊपर बैठने वालों में, वाहन के ऊपर स्थित पक्षियों में वैष्णवत्व के बिना उनका उपयोजन नहीं किया जा सकता। अन्नों में, वस्त्रों में, वान के चक्रों में, लोह पर जीविका चलाने वालों की धौंकनी में, उधार देने वालों के कोशों में वैष्णवत्व के बिना उपयोग करने योग्य नहीं हैं। वाद्यों में, शस्त्रों में, हेतियों में आत्मनिवेदि का कर्तव्य है कि भगवच्चिह्न देखे। सुत, सुता, धन, दारा, दास, दासी, गृह, पत्नी, पति, कुटुम्ब सबको हरि को अर्पित कर दे। अभक्ष्य, अभोग्य को हरि को अर्पित नहीं किया जा सकता। जो भक्ष्य है, भोग्य है, पेय है वह हरि को अर्पित किया ही जाना चाहिए। सुनो, मैंने बदरी आश्रम से नारायण से वैष्णव मन्त्र की दीक्षा ली थी। उसके पश्चात् मैंने पार्वती को भी समन्त्रक वैष्णवत्व की दीक्षा दी, गणेश को भी दी। मेरा पुत्र गणेश तो श्रीकृष्ण का अंश है, वैष्णव है। स्कन्द भी वैष्णव बन गया। रुद्रगण भी वैष्णव बन गए। देवियां भी वैष्णवी बन गई। कैलास जो मुझे सर्वथा अभीष्ट है, वह भी मैंने वैष्णव बना दिया है। बदरी आश्रम के योग से हिमालय भी वैष्णव है। पितर भी वैष्णव हैं, उनका कन्या मेना भी वैष्णवी है। क्षीरसागर भी विष्णु को धारण करने से वैष्णव है। क्षीरसागर की पुत्रियां श्री, रमा व लक्ष्मी तथा चन्द्रमा ये भी वैष्णव हैं। वामन के पदांगुष्ठ से स्पर्श होने के कारण गंगा भी वैष्णवी है। शेषनाग का बन्धु होने से वासुकि, जिसे मैंने धारण कर रखा है, वैष्णव है। त्रिशूल सूर्य से उत्पन्न हुआ है और द्वादश सूर्य का नाम विष्णु है, अतः वह भी वैष्णव है। जो वृषभ है, वह गोकुल से प्राप्त हुआ है, अतः वह भी वैष्णव है। सिंह नृसिंह वंश का है, अतः वह भी वैष्णव है। मेघ वैराज कुल के हैं, अतः वह भी वैष्णव हैं। मयूर मेघमित्र है, अतः वैष्णव है। मयूरपिच्छ का उपयोग कृष्ण के मुकुट में होता है, अतः इसलिए भी वह वैष्णव है। अधिक क्या कहें, जो नृसिंहमस्तक मैंने गले में धारण कर रखा है, वह भी वैष्णव है। विष्णु ही व्यापक ब्रह्म है जिसका तेज मैं सदाशिव हूं। अतः तुम मुझे आदरपूर्वक वैष्णव मन्त्र ग्रहण करो। तुम्हारी रानी को पार्वती दीक्षा देगी। ऐसा आदेश मिलने पर वसुधान राजा ने शंकर से अष्टाक्षर मन्त्र कृष्णनारायणोव्यान्माम् यह मन्त्र ग्रहण कर लिया। ऐसे ही रानी ने भी। उन्होंने तुलसीमाला कण्ठ में धारण की, ऊर्ध्वपुण्ड्र रूपी चन्द्र धारण किया। तब शिव – शिवा ने उनका भोजन ग्रहण किया व आशीर्वाद दिया कि तुम अखण्डित धनवान बनो। कालांतर में उन्होंने पुरुषोत्तम मास की दुन्दुभि की घोषणा सुनी कि पंचमी का व्रत करने से जो कुछ इच्छा है, वह सब प्राप्त होता है। उनको कांचन महत् पद प्राप्त करने की इच्छा हुई। उन्होंने विधिवत् पंचमी व्रत किया। मध्य रात्रि में कृष्ण प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा। राजा व रानी ने कहा कि हम 14 लोकों के धनाधिपत्य की कामना नहीं करते क्योंकि उससे संतुष्टि नहीं होती। पारमेष्ठ्य पद कुंभकार की क्रिया के समान है, अतः वह भी नहीं चाहते। इन्द्र पद पर दैत्य पीडा देते हैं। जो वैराज आदि ईश्वरों से भी परे, महाविष्णु से भी परे हिरण्याधिपति का पद है, जिसका तेज वैकुण्ठ से भी अधिक है, जो विष्णु के स्थान से भी श्रेष्ठ है, जिसे महाकौबेरक कोशमय पद कहते हैं, उस हिरण्य आधिपत्य की हम इच्छा करते हैं। उन्हें कालांतर में वह पद प्राप्त हो गया।

विवेचन

चतुर्थी के माहात्म्य में कहा गया था कि समित्पीयूष नृप ने चतुर्थी व्रत के प्रभाव से चन्द्रमा की तथा उसकी 27 पत्नियों ने 27 नक्षत्रों के स्थानों की प्राप्ति की। यह कार्य उन्होंने सममिति को पूरा करके उसके प्रभाव से अमृत प्राप्त करके किया। अब पंचमी के व्रत में कहा जा रहा है कि उस चन्द्रमा को इस प्रकार का बनना है कि अपने निकट या दूर, सभी वस्तुओं पर उसका चिह्न अंकित हो जाए। अतः कहा जा रहा है कि वैष्णव का कर्तव्य है कि प्रत्येक वस्तु में वैष्णव चिह्न का दर्शन करने के पश्चात् ही उसको व्यवहार में लाए। गया श्राद्ध में पंचमी के दिन विष्णुपद मंदिर में विष्णुपद पर पिण्डदान किया जाता है। पद का अर्थ होता है इस जगत में स्थावर व जंगम सब द्रव्यों को पाद प्रदान करना, गतिमान बनाना। सूर्य का यही कार्य है। उसकी किरण रूपी पद सबको गति प्रदान करते हैं। अब कहा जा रहा है कि हमें

सूर्य से भी ऊपर सोम के पदों को, सोम की सममिति को प्राप्त करना है, उस सममिति के दर्शन प्रत्येक वस्तु में करने हैं। फलित ज्योतिष में इस पृथिवी पर जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सभी में किसी न किसी नक्षत्र की छाया का दर्शन करा दिया जाता है। ऐसे ही हमें यह प्रयत्न करना होगा कि हम प्रत्येक वस्तु में सोम की सममिति के दर्शन करना सीखें। वैदिक कर्मकाण्ड की दृष्टि से, चन्द्रमा बनना प्रवर्ग्य इष्टि है। अब प्रत्येक वस्तु में सोम के चिह्न खोजना उपसद इष्टि है। उपसद इष्टि का अर्थ होता है – सोम जिस आधार पर स्थित है, यह भूलोक आदि, उनको पुष्ट करना।

 

श्रीनारायण उवाच-

श्रूयतां च त्वया लक्ष्मि! कथा प्राक्सृष्टिसंभवा । वसुधानाख्यनृपतेः राध्यासायाश्च योषितः ।। १ ।।

 पूर्वसृष्ट्यन्तिमे काले नृपो बभूव दक्षिणे । वसुधानो महाभक्तो महादेवस्य सेवकः ।। २ ।।

 राध्यासा तस्य पत्नी च महादेवस्य सेविका । आराधनां महादेवात्मकस्य स्वामिनः सदा ।। ३ ।।

 करोत्यभिन्नभावेन पातिव्रत्यपरायणा । नित्यं प्रातः स्वयं स्नात्वा पतिं स्नापयति प्रभुम् । । ४ ।।

 महादेवं विविधैस्तु जलैर्दुग्धादिभिस्तथा । पत्रं पुष्पं फलं वस्त्रं सर्पं च शर्करां जलम् ।। ५ ।।

 आरार्त्रिकं चन्दनं च धूपं दीपं समर्प्य सा । वसुधानस्य सेवायां दासीव समतिष्ठति ।। ६ । ।

 राजाऽपि प्रातराज्ञाय त्यक्त्वा निद्रां मुहूर्तकम् । ध्यात्वा श्रीशंकरं ब्रह्म स्नानं पूजां करोति च ।। ७ ।।

 हृदि ध्यानं तथा पूजां शंभोः कृत्वा विभज्य च । अन्नादिकं त्वाश्रितेभ्यो भुंक्तेन्नं स्त्रीयुतो नृपः ।। ८ । ।

 राज्यकार्ये प्रजाकार्यं कुरुतस्तौ कृपान्वितौ । देवकार्यं दानकार्यं कुरुतो नित्यमात्मवत् ।। ९ ।।

 ददतोऽन्नं भिक्षुकेभ्यो वस्त्राणि तदपेक्षिणे । पात्राणि दानपात्राय धनानि च फलानि च ।। १० । ।

 दानशब्दस्तयोर्द्वारि विरामं याति नैव ह । दानक्रियापि च शान्ता नैव भवत्यहर्निशम् ।। ११ ।।

 यज्ञानां ब्राह्मणानां च साध्वीनां च सतामपि । तयोर्गृहेऽर्हणां शंभोरहर्निशं प्रजायते ।। १ २ । ।

 गवां दानं रसदानं मिष्टदानं पुनः पुनः । कुरुतस्तौ पतिपत्न्यौ तुष्टा यथाऽर्थिनस्तथा ।। १३ । ।

 न तद्राज्येऽवग्रहोस्ति वत्सरो  न क्रतुं विना । न चोत्सवा विना कृष्णं विना शंभुं न कीर्तनम् ।। १४ । ।

 प्रवर्तयामासतुस्तौ राज्ये धर्मान् शिवस्य वै । शिवालयेषु सर्वेषु पूजां कारयतश्च तौ ।। १५।।

 ग्रामाधीशान् समाहूय सर्वाँस्तौ विषयस्थितान् । आज्ञापयामासतुस्तौ पूजा देया शिवालये ।। १६।।

 अन्यथा सत्यमेवेदं स नौ दण्ड्यो भविष्यति । पूजादानाच्छिवस्तुष्टो भविष्यति शिवायुतः ।। १७।।

 घृतदीपास्त्वखण्डा वै तत्र देवाः शिवालये । यस्य यस्याभितो ग्रामं यावन्तश्च शिवालयाः ।। १८।।

 तत्र तत्राऽखण्डदीपो द्योतनीयो नृपाज्ञया । नृपाज्ञाभंगकर्तुस्तु शिरश्छेदो भविष्यति ।। १९।।

 नृपपूजा प्रदातव्या षोडशोपसुवस्तुभिः । न्यूनकर्तुस्तथा राजा शिरश्छेत्स्यत्यसंशयम् ।।।२०।।

 इति सर्वत्र ताभ्यां वै लक्ष्मि! पूजा विनिर्मिता । तयोस्तु भयतो दीपा दीप्ता प्रतिशिवालयम् ।।२१।।

 जग्मतुस्तौ महाशंभु रात्र्यां दर्शनहेतवे । व्योमयानेन सर्वत्र राज्ये यत्र शिवालयाः ।।।२२।।

 आप्रातस्तौ तु सर्वत्र विधायाऽर्चनदर्शनम् । पुनरायात आवासं कुरुतः स्नानपूजनम् ।।।२३।।।

 चिकीर्षतः पारणा तौ निषीदत स्म यावता । तावत्तत्र समायातौ भिक्षुक तु शिवाशिवौ ।।२४।।

 ज्ञात्वा वै क्षुधितौ साधू ददतस्तौ सुभोज्यकम् । रिक्तं तुलसीपत्रेण वीक्ष्याऽऽहतुस्तु तावुभौ ।।२५।।

 नारायणप्रसादश्चेद् भोक्ष्यावहे पवित्रकम् । वैष्णवौ वैष्णवश्रेष्ठौ शिवाशिवौ न भोक्ष्यतः ।।।२६।।

 यदि प्रासादिकं न स्याच्छ्रीपुरुषोत्तमाऽर्पितम् । वैष्णवः परमो धर्मो वैष्णवत्वं परं तपः ।।२७।।

 वैष्णवैस्तु कृतं दत्तं गृह्णीवोऽतीव भावतः । यदि वैष्णवदत्तं न गृह्णीवो न तु वै क्वचित् ।।२८।।

 युवाभ्यामर्प्यते नित्यं पूजाभोजनदीपकम् । पश्यावो न तु गृह्णीवो गृह्णीवो ब्रह्मणेऽर्पितम् ।।२९।।

 आत्मनिवेदिभक्तानां धर्मोऽयं सर्वदा मतः । ब्रह्मणेऽनर्पितं यत् तद्भोज्यं पेयं न वै क्वचित् ।।३०।।

 वस्त्रं पत्रं फलं पुष्पं पयश्चान्नं तथाऽऽसनम् । औषधं कणमात्रं वा चूर्णं चर्वणमित्यपि ।।३ १।।

 अद्य स्वाद्यं तथा खाद्यं भोग्यं धार्यं ममाऽर्घ्यकम् । मर्द्यं देयं तथाऽर्प्यं च सर्वं यद् ब्रह्मणेऽर्पितम् ।। ३२।।

 तद् गृह्णीवो न चाऽन्यद्वै धर्मोऽयं त्वावयोः सदा । सर्वं ब्रह्मार्पणं ग्राह्यं गृहवस्त्रधनादिकम् ।।।३३ ।।

 जडं यद्वा चेतनं वा स्वकीयं यद्धि मन्यते । तद्वै भगवते दत्वा शिष्टं भुञ्जीत भक्तराट् ।। ३४।।

 गृहस्तंभेषु वै वारि कुंभीषु मञ्जुलासु च । पेषणीषु च खट्वासु पर्यंकादिष्वपि गृहे ।।३५।।।

 तुलसीकण्ठिकां बद्ध्वा तूपयोक्तव्यमेव तत्। पशूनां पक्षिणां हर्म्यशाखिनां शकटस्य च ।। ३६।।।

 वैष्णवत्वं विना नैव कर्तव्यमुपयोजनम् । अन्नानां त्वथ वस्त्राणां चक्राणां वाहनस्य च ।। ३७।।

 जीविकालोहभस्त्राणां कोशानां पण्यकस्य च । वैष्णवत्वमृते नैव कर्तव्यमुपयोजनम् ।। ३८।।

 वाद्यानां चापि शस्त्राणां हेतीनां वस्तुनामिनाम् । आत्मनिवेदिना कार्या भगवच्चिह्नयोगिता ।। ३९।।

 सुतः सुता धन दारा दासा दास्यो गृहाणि च । पत्नी पतिः कुटुम्बं च सर्वं वै हरयेऽर्पयेत् ।।४० ।।

 अभक्ष्यं तदभोग्यं यद्धरये नाऽर्पितं भवेत् । भक्ष्यं भोग्यं तथा पेयं हरयेऽर्पितमेव यत् ।।४१ ।।

 निबोधत युवां तद्वै बदर्याश्रममुत्तमम् । प्रागहं प्राप्तवाँस्तत्र नारायणात्समन्त्रकम् ।।४२ ।।

 वैष्णवत्वं ततो देव्यै पार्वत्यै च समन्त्रकम् । वैष्णवत्वं मया दत्तं गणेभ्यश्चापि सर्वथा ।।४३।।

 मम पुत्रो गणेशस्तु श्रीकृष्णांशोऽस्ति वैष्णवः । स्कन्दोऽपि वैष्णवो जातो रुद्रा अपि च वैष्णवाः ।।४४।।

 देव्यश्च वैष्णवीश्रेष्ठा नारायणपरायणाः । कैलासः सर्वथाऽभीष्टो वैष्णवोऽस्ति मया कृतः ।।४५।।

 बदर्याश्रमयोगेन हिमालयोऽपि वैष्णवः । पितरो वैष्णवास्तेषां कन्या मेनाऽपि वैष्णवी ।।४६।।

 क्षीरोऽपि सागरो विष्णुधारको वैष्णवः सदा । तत्पुत्री श्रीः रमा लक्ष्मीश्चन्द्रश्चैतेऽपि वैष्णवाः ।।४७।।

 वामनस्य पदांगुष्ठस्पर्शा गंगापि वैष्णवी । वासुकिः शेषबन्धुश्च वैष्णवोऽस्ति मया धृतः ।।४८।।

 त्रिशूलं सूर्यतो जातं द्वादशो विष्णुरर्कराट् । वृषभो गोकुलात्प्राप्तो गोलोके कृष्णभक्तराट् ।।४९ ।।

 सिंहो नृसिंहवंशो यः स चास्ति वैष्णवो महान् । मेघा वैराजकेशाश्च वैष्णवा यज्ञपोषिताः ।।५० ।।

 मयूरो मेघमित्रं च पिच्छं मुकुटसंश्रितम् । कृष्णयोगान्मेघयोगाद् वैष्णवत्वं सदाऽस्ति वै ।।।५१  ।।

 किम्वधिकं प्रवक्ष्ये वै नृसिंहमस्तकं गले । दधन् वै वैष्णवश्चास्मि विष्णुभक्तोऽस्मि सर्वथा ।।५२।।

 विष्णुर्वै व्यापकं ब्रह्म यत्तेजोऽहं सदाशिवः । बाणरूपोऽस्मि सञ्जातो ध्यायँस्तं मूर्तिमानपि ।।५३।।

 सर्वात्मकं परब्रह्म नारायणः परात्परः । तस्मादहं तथा सर्वं जायते तत्र लीयते ।।५४।।

 ततो राजन् गृहाण त्वं वैष्णवं मनुमादरात् । अहं शंभुः प्रददामि राज्ञ्यै दास्यति पार्वती ।।५५ ।।

 इत्यादिष्टो वसुधानो जग्राहाऽष्टाक्षरं मनुम् । कृष्णनारायणोऽव्यान्मामिति जग्राह शंकरात् ।।५६ ।।

 तं च जग्राह राध्यासा राज्ञी वै पार्वतीमुखात् । जगृहतुश्च तुलसीकण्ठीं चन्द्रार्ध्वपुण्ड्रकम् ।।५७।।

 नारायणार्चनवारि प्रसादं चाच्युतस्य वै । आददति तु तौ तत्र प्रजातौ वैष्णवौ ततः ।।५८।।

 विष्णवे भोजनं पेयं तुलसीपत्रमिश्रितम् । निवेदयामासतुश्च ददतुश्चापि शंभवे ।।५९ ।।

 पार्वत्यै ददतुश्चाऽथ जगृहतुश्च तौ मुदा । आदतुर्वारिपानं च चक्रतुर्वै सुखान्वितौ ।।६ ० ।।

 तृप्तौ बभूवतुश्चाति हर्षितौ वै शिवाशिवौ । आशीर्वादान् ददतुश्च धनवन्तावखण्डितौ ।।६ १ ।।

 सुस्मृद्धौ  शाश्वतराज्यौ भवतां भृत्यकोटिकौ । इति कृत्वा कथयित्वाऽदृश्यौ जातौ शिवाशिवौ ।।६ २।।

 राज्ञा रात्र्या च नित्यं श्रीकृष्णनारायणः प्रभुः । शिवात्माऽयं चेति भक्त्या पूज्यते वैष्णवीदिशा ।।६ ३ ।।

 एवं ताभ्यां सदा कृष्णे पूजिते पुरुषोत्तमः । मासोऽतिदिव्यसमयः प्राप्तो व्येति दिनाद्दिनम् ।।६४।।

 तावत् ताभ्यां परपक्षपञ्चम्यां दुन्दुभिः श्रुतः । शृण्वन्तु देवतनवो राजदेहाश्च मानवाः ।।६५ ।।

 सुरा दिव्यसमृद्धाश्च स्थावरा जंगमाश्च ये । पुरुषोत्तममासस्याऽस्मि दुन्दुभिर्हरेः प्रियः ।।६६ ।।

 हर्याज्ञयोद्धोषयामि मणिं कपर्दिकाफलम् । मासेऽत्रैकदिनकृच्छ्रात् प्राप्नुवन्तु वसुन्धराम् ।।६७।।

 अलकां हेमनगरीं तथा भूमिं च कांचनीम् । गोलोकस्थां तथाऽन्येषां दिक्पालानां तु हाटकीम् ।।६८।।

 राजधानीं तथा स्वर्णपुरीं हिरण्मयीं तनुम् । साम्राज्यं चापि वाऽन्यद्वै यथेष्टं यान्तु वै हरेः ।।६९।।

 रसाधिपत्यं सौर्यं वा चान्द्रं गौर पदं च वा । बार्हस्पत्यं तथैशानं त्वाग्नेयं वान्यदेव वा ।।७०।।

 येषामिष्टं तु यद्वै स्याद् दास्ये तन्नात्र संशयः । अधिमासे तु सम्पूर्ण पाक्षिकं दैनिकं च वा ।।७१ ।।

 व्रतं प्रपूजनं कृत्वाऽर्जयन्तु परमं सुखम् । परमेष्ठिपदं वापि वैराजं सत्यमित्यपि ।।७२।।

 रौद्रं शैवं च वा ब्राह्मं वैष्णवं धाम चैत्यपि । गृह्णन्तु कृपया मेऽ पञ्चमीव्रतमात्रतः ।।७३।।

 इत्युक्त्वा दुन्दुभिस्तत्र विररामाऽथ तावुभौ । नत्वा तं दुन्दुभिं ध्यात्वा श्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम् ।।७४।।

 पुपूजतुस्तं वाद्यं वै पुष्पाक्षतैस्तु कानकैः । अर्थयामासतुस्तत्र कांचनेयं पदं महत् ।।७५।।

 तथास्त्वेवं दुन्दुभिश्च विचिन्त्य हृद्ये तदा । अन्यत्र प्रययौ तौ पञ्चमीव्रतं प्रचक्रतुः ।।७६।।

 प्रातः स्नात्वा हरिं ध्यात्वा शंभुं नत्वा तथाऽऽदरात् । गुरुं प्रपूज्य विधिवच्चक्रतुर्नैत्यकार्चनम् ।।७७। ।

 मूर्तिं विधाय सौवर्णीं पुरुषोत्तमिरूपणीम् । आवाह्य तत्र च कृष्णनारायणं पुमुत्तमम् ।।७८ ।।

 आचमनं प्रदायैव पञ्चामृतेन वारिणा । स्नापयामासतुस्तौ च मार्जयामासतुस्तथा ।।७९।।

 मर्दयामासतुश्चैतौ चन्दनार्द्रसुगन्धिभिः । धारयामासतुश्चैव वस्त्राणि कानकान्यपि ।।८ ० ।।

 भूषयामासतुश्चापि मुकुटादि विभूषणैः । शृंगारयामासतुश्च कज्जलैः केसरादिभिः ।।८ १ ।।

 सुगन्धयामासतुश्च पुष्पधूपादिसारकैः । प्रकाशयामासतुश्च दीपनीराजनादिभिः ।।८२।।

 प्रसादयामासतुश्च स्तुतिप्रदक्षिणादिभिः । क्षमापयामासतुश्चापराधानर्घ्यकार्पणैः ।।८३ ।।

 सन्तर्पयामासतुश्च मिष्टान्नपायसादिभिः । सन्तोषयामासतुश्च ताम्बूलैलादिचर्वणैः ।।८४।।

 एवं मध्याह्नसमये पूजयामासतुस्तथा । भोजयामासतुश्चापि निश्यप्येवं प्रचक्रतुः ।।८५।।

 मण्डपं कदलीस्तंभैः पाल्लवैस्तोरणैस्तथा । सुमनोहारकैश्चापि कलशैर्दीपकैस्तथा ।।८६ ।।

 रचयामासतू रम्यं पूरयामासतुश्च तौ । मण्डलं सर्वतोभद्रं मध्ये धान्यैर्नवैर्नवैः ।।८७।।

 संस्थापयामासतुश्च सौवर्णं कलशं ततः । तत्र घटे पञ्चरत्नं जलं फलं तथाऽम्बरम् ।।८८ ।।

 विन्यस्य तिलपूर्णां च स्थालीं दध्यतुरादरात् । तत्र मूर्तिं प्रतिष्ठाप्य पुपूजतुः सुवस्तुभिः ।।८९।।

 स्नानं वस्त्रं चन्दनं कुंकुमं पुष्पाणि चाक्षतान् । विभूषणानि हाराँश्च धूपं दीपं फलानि च ।। ९० ।।

 आरार्त्रिकं स्तुतिं प्रदक्षिणां मिष्टान्नभोजनम् । जलं ताम्बूलकं पुष्पांजलिं चक्रतुरर्थनाम् ।।९१ ।।

 नर्तनं गीतिकां वाद्यसहितां चक्रतुस्तदा । ततो जागरणे तत्र मध्यरात्रौ पुमुत्तमः ।।९२।।

 कृष्णनारायणः साक्षाल्लक्ष्मीश्रीराधिकापतिः । पार्वतीमाणिकीस्वामी प्रभेशः पुरुषोत्तमः ।।९३।।

 प्रेयसीश्रेयसीपाता श्रीजयाललितापतिः । अक्षराऽधिपतिर्मुक्तपतिर्गोपीपतिः प्रभुः ।।९४।।

 सर्वपतिश्चान्तरात्मा मंगलायतनो हरिः । प्रादुर्बभूव सहसा विहसन् काशयन् दिशः ।।९५।।

 प्राहाऽस्म्यतिप्रसन्नोऽहं पञ्चम्या व्रतवर्तनात् । वरदानं प्रयच्छामि वृणुत यद्यथेप्सितम् ।।९६ ।।

 भक्तौ मे वैष्णवौ जातौ तेनाऽस्म्यतिप्रतोषितः । ददामि मम सर्वस्वं किमन्यन्यत् सुदुर्लभम् ।।९७।।

 श्रुत्वा नत्वा दण्डवच्च प्राहतुः पुरुषोत्तमम् । वसुधानश्च राध्यासा प्रभो नाऽविदितं तव ।।९८।।

 चतुर्दशानां लोकानां धनाधिपत्यमल्पकम् । कांक्षावहे न तत्स्वामिन् रंकतुष्टिकरं हि तत् ।।९९।।

 पारमेष्ठ्यपदं स्वामिन् कुंभकारक्रियामयम् । नेच्छावस्तत्पदं तस्मादैन्द्रं दैत्यप्रपीडनम् ।। १०० ।।

 तत्पदानि न कांक्षावः कांक्षावस्तत्परं तु यत् । यावतामीश्वराणां वैराजादीनां परं तु यत् ।। १० १।।

 महाविष्णोः परं यच्च हिरण्याधिपतेः पदम्। श्रीपुराख्यात्परं यच्च तेजो वैकुण्ठतः परम् ।। १०२।।

 विष्णोर्वै स्थानतः श्रेष्ठं हिरण्याधिपतेः पदम् । माहाकौबेरकं पुंसो भूम्नः कोशमयं तु यत् ।। १ ०३।।

 ईश्वराणां तु कोटौ तद् वर्तते यन्महत्तमम् । अनन्ताऽण्डकुबेराणां तृप्तिस्तस्य कणेन वै ।। १ ०४।।

 जायते तन्महाराज्यं भूम्नः कोशाधिपात्मकम् । सर्वेशानां तु वै दिव्यहिरण्याऽऽत्तिर्यतोऽस्ति वै ।। १०५।।

 तद्धिरण्याधिपत्यं वै समिच्छावः कृपाऽस्तु ते । भक्तानां तु कृते किञ्चिदधिकं स्वामिनोऽस्ति न ।।१० ६।।

 यद्ययुक्तं वाञ्च्छितं चेत् क्षम्यतां पुरुषोत्तम । नान्यत् कांक्षावहे कृष्ण तुष्टो यत्पुरुषोत्तमः ।। १०७।।

 इत्यभ्यर्थ्य पादयोस्तौ पतितौ श्रीहरेस्तदा । तथास्त्विति हरिः प्राह प्राहापि पुनरेव तौ ।। १०८।।

 वर्तमानस्य हैरण्याधिपतेरायुषः क्षये । सर्गान्तरे भवन्तो वै भविष्यथस्तथाविधौ ।। १०९।।

 इत्युक्त्वा भगवान् कृष्णस्तिरोबभूव तत्स्थलात् । अनन्तानां हिरण्याधिपतीनां तत्र संक्षयः ।। ११ ०।।

 जायते वासुदेवस्य दिने दिने न संशयः । तत्रैकस्य हिरण्याधिपतेर्नाशोऽभवत्तदा ।। १११ ।।

 वसुधानं च राध्यासां निनाय तत्पदं प्रभुः । महाकौबेरकं चैशं पदं ताभ्यां ददौ हरिः ।। १ १२।।

 हिरण्याधिपतिर्भूत्वा राजते वसुधानकः । राध्यासाऽपीश्वरी श्रेष्ठा कुबेराणी विराजते ।। १ १३।।

 यदस्य ब्रह्मणश्चतुर्मुखस्य पद्मजस्य वै । पिता विराट् तस्य पिता महाविष्णुस्ततः परः ।। १ १४।।

 यो नाम पूरुषश्च भूमनारायणाभिधः । तस्य कोशेश्वरो भूत्वा वसुधानो नराधिपः ।। १ १५।।

 वर्ततेऽयं भूमकोशाधिपः सर्वाधिपो यथा । प्राकृतप्रलयं यावद् वर्तिष्यते धनाधिपः ।। १ १६।।

 साक्षात्प्रत्यक्षदर्शित्वाद् वेद्म्यहं पुरुषोत्तमः । लक्ष्मि! प्रिये! न चान्योऽस्ति सर्वज्ञो मां विना यतः ।। १ १७।।

 परब्रह्मस्वरूपोऽहं वेद्मि सर्वज्ञसर्ववित् । इत्येवं वै मया ताभ्यां पूर्वसृष्ट्यन्तकालिकम् ।। १ १८।।

 पञ्चम्यास्तु व्रतस्यान्ते फलं दत्त हि शाश्वतम् । इदृग्विधं फलं दातुं शक्तः कः स्याद्धि मां विना ।। १ १९।।

 सर्वे वै कालकवलाः ऋते नारायणं खलु । सर्वं सृष्ट्वा प्रविशामि वसामि विरमामि च ।। १२० ।।

 तथाऽप्यकुण्ठविज्ञानो भवाम्येको न चापरः । तदत्र कथितः पूर्वसृष्टिवृत्तान्त एव ते ।। १२१।।

 पञ्चम्यां व्रतकर्तुर्हि नरस्यापि स्त्रियास्तथा । श्रोतुर्वक्तुः फलं तादृगस्य वै भवते ध्रुवम् ।। १२२।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये द्वितीयपक्षस्य पञ्चम्यां व्रतकर-णेन शिवभक्तयोः पूर्वसृष्टिस्थयोः राध्यासाराज्ञीवसुदान-नृपयोः शिवप्रदत्तवैष्णवत्वोत्तरं वेधःपितृवैराजा-दप्यूर्ध्वमीश्वरसृष्टौ वर्तमानसृष्टौ हिरण्यकोशाधि-पतित्वात्मकमहाकौबेरपदप्राप्तिवर्णननामा द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३१२।।