पुरुषोत्तम मास पूर्वा त्रयोदशी( 30-6-2015ई.)

 त्रयोदशी तिथि को काम त्रयोदशी, धर्म त्रयोदशी आदि नाम दिए जाते हैं। पुरुषोत्तम मास पूर्वा त्रयोदशी का माहात्म्य लक्ष्मीनारायण संहिता में संक्षेप में इस प्रकार वर्णित है – कृतयुग में सृष्टि करते समय ब्रह्मा ने सनक, सनन्दन, सनातन व सनत्कुमार नामक चार बालक तथा दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के लिए उनकी चार शक्तियों के रूप में जया, ललिता, पारवती व प्रभा की सृष्टि की। फिर ब्रह्मा ने कहा कि हे सनक, तुम जया शक्ति को पत्नी रूप में ग्रहण करो। सनन्दन, तुम ललिता शक्ति को ग्रहण करो। सनातन, तुम पारवती को ग्रहण करो। सनत्कुमार, तुम प्रभा को ग्रहण करो। ब्रह्मा ने गृहस्थ धर्म की प्रशंसा की। दैनिक जीवन में इससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसके उदाहरण दिए। तब चारों बालकों ने कहा कि उनकी अभीप्सा तो केवल मोक्ष के लिए है। और ग्रहस्थ आश्रम में पडकर, कर्म द्वारा वह सिद्ध होने वाला नहीं है। हम तो केवल ब्रह्म की ही आराधना करेंगे। मोक्ष साधन से गृहस्थ धर्म के जो दानादि कर्म हैं, धर्म, अर्थ व काम हैं, वह स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं। जो पुरुषोत्तम संज्ञक धर्म है, हम तो उसी मार्ग से यात्रा करके परमात्मा तक पहुंचेंगे। इस प्रकार ब्रह्मा ने उन चारों के लिए जिन शक्तियों का सृजन किया था, वह अविवाहित ही रह गई। उन्होंने पुरुषोत्तम का स्मरण किया। उन्होंने दुन्दुभि की घोषणा सुनी कि जो ब्रह्मसम्पन्ना हो या ब्रह्मवियोगिनी, चाहे वह सद्योजात हो या कुमारी, सरागा या आत्मरागा, अनाथा या सनाथा, संस्कृता या असंस्कृता आदि, वह सब यदि पुरुषोत्तम मास की पूर्वा त्रयोदशी का व्रत करें तो उनकी कामनाएं पूर्ण हो सकती हैं। व्रत का चीर्णन चाहे तो १०८ उपचारों द्वारा किया जा सकता है, अथवा ५६ उपचारों द्वारा, अथवा ३२ उपचारों द्वारा, अथवा १६ उपचारों द्वारा आदि। चारों कन्याओं ने दुन्दुभि की घोषणा सुनकर कहा कि हम तो जन्म से ही असंस्कृत हैं। यदि हमें कृष्ण की संगति मिल जाए तो हम संस्कृत बन जाएंगी। उन्होंने व्रत किया। कृष्ण पुरुषोत्तम ने चार रूपों में प्रकट होकर उनका स्पर्श किया और गरुड पर बैठाकर अक्षरधाम में ले गए।

 

विवेचन

यद्यपि पुराणों में सनकादि का उल्लेख स्थान – स्थान पर आता है, लेकिन उनकी प्रकृति का प्रत्यक्ष उल्लेख कम ही आया है। गर्ग संहिता का कथन है कि कौमार सर्ग के सनकादि की शक्ति स्मृति है। यह कथन सनकादि को समझने की कुंजी बन जाता है। स्मृति का अर्थ है – ऊपर से प्राप्त होने वाली शक्ति का अवतरण अविच्छिन्न रूप से नहीं होता। जो कुछ शक्ति अवतरित हो चुकी है, उसको स्मृति के रूप में सुरक्षित रखना है। द्वादशी तिथि तक स्थिति यह होती है कि ऊपर से अवतरित होने वाली शक्ति अविच्छिन्न बनी रहती है। पुराणों में इसे अनिरुद्ध कहा गया है । अनिरुद्ध अर्थात् जो निरुद्ध नहीं है, जो रुका हुआ नहीं है। पुराणों की कथा में द्वादशी तिथि को उषा को अनिरुद्ध स्थिति कठिनता से प्राप्त होती है। अब त्रयोदशी तिथि को अनिरुद्ध की स्थिति नहीं रह गई है। अब निरुद्ध स्थिति आ गई है। मैत्रायणी संहिता में इसे इस प्रकार कहा गया है –

ऐन्द्रमेककपालं निर्वपेन्निरुद्धं याजयेद् आ प्रेहि परमस्याः परावतः(ऋ. ५.६१.१), इति याज्यानुवाक्ये स्यातां, परावतं वा एष गतो यो निरुद्धः, परावत एवैनमध्याप्त्वावगमयत्यै, इन्द्रं त्रयोदशकपालं निर्वपेन्निरुद्धं याजयेदतिरिक्तं वै त्रयोदशमतिरिक्तो निरुद्धो, अतिरिक्तादेवैनमतिरिक्तमाप्त्वावगमयती – मैत्रायणी संहिता 2.2.10

कहा जा रहा है कि जो त्रयोदश है, वह अतिरिक्त है। निरुद्ध भी अतिरिक्त है। इस स्थिति में जिस ऋचा का उल्लेख किया जा रहा है, वह है – के ष्ठा नरः श्रेष्ठतमा य एकएक आयय। परमस्याः परावतः।। अर्थात् वह श्रेष्ठतम मरुद्गण कौन से हैं जो एक – एक करके प्रकट हो रहे हैं और परावत के परम से आ रहे हैं।

सनकादि की प्रकृतियां क्या हैं, यह अभी तक प्रत्यक्ष नहीं है, परोक्ष रूप में ही उल्लेख है। लक्ष्मीनारायण संहिता में ही केवल प्रत्यक्ष रूप से उल्लेख किया गया है जिसकी पुष्टि नारद पुराण के आधार पर हो जाती है। नारद पुराण का पहला खण्ड चार पादों में विभाजित है। प्रथम पाद का वर्णन सनक ऋषि द्वारा किया गया है, दूसरे पाद का सनन्दन द्वारा, तीसरे पाद का सनत्कुमार द्वारा, चौथे पाद का सनातन द्वारा। लक्ष्मीनारायण संहिता में सनक की शक्ति जया का कथन है। पुराणों की भाषा में, जया का अर्थ है यह पृथिवी, हमारी देह जिसे जया बनाया जा सकता है। यदि इस पृथिवी रूपी देह के पाप दूर कर दिए जाएं तो यह रत्नों का भण्डार बन जाएगी, मृत्यु को भी जीत लेगी। नारद पुराण में सनक द्वारा पापों के प्रायश्चित्त का ही वर्णन है। तैत्तिरीय संहिता में सानग ऋषि के संदर्भ में कृत अयानः का उल्लेख है। यह संकेत करता है कि अपनी पृथिवी को ऐसी बनाना है जिसमें द्यूत तो रहे, लेकिन पांसों की जीत निश्चित रहे। हम हारें नहीं।

सनन्दन की शक्ति ललिता कही गई है। पुराणों में ललिता द्वारा उदयन को घोषमयी वीणा व अम्लान स्रज प्रदान करने का उल्लेख है। सनन्दन का अर्थ होगा कि अब साधना शुष्क नहीं रह गई है। अब वह आनन्द प्रदान करने वाली है। जब हम कोई पुण्य कार्य करते हैं तो उससे आनन्द मिलता है। वेद शुष्क हैं लेकिन जब वेदों के साथ वेदांग जुड जाते हैं तो वह सरस बन जाते हैं। अपने इष्ट देव का ध्यान शुष्क है लेकिन जब ध्यान में पार्श्ववर्ती लक्षण प्रकट होने लगते हैं तो वह सरस बन जाता है। इस प्रकार सनन्दन के साथ ललिता शक्ति को जोडा गया है। नारद पुराण में सनन्दन द्वारा जड भरत की कथा, शुक मुनि की कथा, निरुक्त आदि का वर्णन किया गया है।

सनातन का अर्थ है जो ऊपर से प्राप्त होने वाली शक्ति से, परावत से लगातार जुडा रहे। उपनिषदों में सनातन को इस प्रकार कहा गया है कि जो ऊर्ध्वमूल, अवाक् शाखा वाला अश्वत्थ है, वह सनातन है। तथा कि अ, उ, म से युक्त ओंकार सनातन है। सनातन की शक्ति को पारावती नाम दिया गया है जो उपयुक्त ही है। नारद पुराण में सनातन द्वारा पुराणों की विषय वस्तु का वर्णन तथा विभिन्न मासों की तिथियों में किए जाने वाले व्रतों का वर्णन है। पुराण शब्द की परिभाषा इस प्रकार की जाती है कि जो ऊपर से अवतरित शक्ति से पुनः पुनः नवीन रूप धारण करता रहता है।

सनत्कुमार के विषय में कहा गया है कि जो स्कन्द है, वही सनत्कुमार है। सनत्कुमार कृष्ण – पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेते हैं। सनत्कुमार अपने को अपने तेज का संक्षेप करके निवास करते हैं, सनत्कुमार कामदेव से रक्षा करने वाले हैं आदि। नारद पुराण में सनत्कुमार दीक्षा विधि, कवच विधि, देवी – देवताओं के मन्त्रों की विधियों का वर्णन करते हैं। दीक्षा लेना अपने को संक्षिप्त करने का, अपने को अन्तर्मुखी करने का एक उपाय है। जहां सनत्कुमार अपना संक्षेप करते हैं, वहीं उनका अवतार प्रद्युम्न अपना विस्तार करता है। प्रद्युम्न भी कामदेव का अवतार है। सनत्कुमार का प्रद्युम्न के रूप में जन्म विष्णु के शाप से हुआ है क्योंकि सनत्कुमार ने अपने को इतना संक्षिप्त कर लिया था कि उन्होंने विष्णु के आगमन का भी स्वागत नहीं किया। वर्तमान संदर्भ में सनत्कुमारी की शक्ति का नाम प्रभा लिया गया है। यह प्रभा बहिर्मुखी रूप में रहने पर हमारी चेतना से प्रकट होने वाली शक्ति और अन्तर्मुखी रहने पर हमारी शक्ति दोनों हो सकती है।

अब प्रश्न यह है कि यदि जया, ललिता, पारवती, प्रभा यह चारों सनकादि की ही शक्तियां हैं तो सनकादि ने इनसे विवाह क्यों नहीं किया। इसका उत्तर नारद पुराण के अनुसार दिया जा सकता है –

त्रिविधा भावना रूपं विश्वमेतत्त्रिधोच्यते ब्रह्माख्या कर्मसंज्ञा च तथा चैवोभयात्मिका ।२४।
कर्मभावात्मिका ह्येका ब्रह्मभावात्मिका परा। उभयात्मिका तथैवान्या त्रिविधा भावभावना ।२५।
सनकाद्यासदा ज्ञानिन् ब्रह्मभावनया युताः कर्मभावनया चान्ये देवाद्याः स्थावराश्चराः - नारद पुराण 1.47.२६

कहा जा रहा है कि भावना तीन प्रकार की है – ब्रह्मात्मक, कर्मात्मक और एक इनका सम्मिलित रूप। स्मृति की स्थिति में ऊर्जा का भण्डार अपिरिमित नहीं है। यदि इस ऊर्जा को कर्म में लगाया जाएगा तो यह नष्ट हो जाएगी। अतः सनकादि ने केवल ब्रह्मात्मक भावना का ही मार्ग अपनाया।

     वैदिक साहित्य में सानग व सनातन ऋषियों का नाम अपानभृद इष्टका स्थापना के संदर्भ में आया है। अतः वैदिक साहित्य का अपान स्मृति की स्थिति का परिचायक हो सकता है। शिव पुराण में कंक नामक शिव के पुत्रों के रूप में भी सनकादि का उल्लेख है। कंक स्थिति  प्रतिध्वनि का, मयूर के केका शब्द का, आनन्द की स्थिति का परिचायक हो सकती है। यह स्मृति से तादात्म्य रखते हैं।

     त्रयोदशी में ऐसी क्या विशेषता है कि ऊर्जा की निरुद्ध स्थिति में वह सहायक बन सकती है, यह भविष्य में अन्वेषणीय है। अश्वमेध में जो अश्व मुक्त किया जाता है, उसके भी निरुद्ध होने जाने का भय बना रहता है। अश्व को बांधने की रस्सी को 13 अरत्नि लंबा लिया जाता है।

श्रीनारायण उवाच- -

शृणु लक्ष्मि! ब्रह्मणस्तु पुत्रीणां प्राक् चतसृणाम् । त्रयोदश्या अधिमासे व्रतेन पुरुषोत्तमः ।। १ ।।

 स्वयं पतिरभूत् ताभ्यो ददौ धामाक्षरं गृहम् । भुक्तिं मुक्तिं ददौ ताभ्यः शाश्वतीं कृपया प्रभुः ।। २ ।।

 आद्ये कृते युगे लक्ष्मि! सृष्ट्यर्थं ब्रह्मणा पुरा । बालाः सनकसनन्दसनातनसनद्भिधाः ।। ३ ।।

 सृष्टाश्चत्वार ऐश्वर्यबलतेजःसमन्विताः । दाम्पत्यर्थे च तेषां वै चतस्रः शक्तयः कृताः ।। ४ ।।

 नाम्ना जया च ललिता पारवती प्रभा शुभाः । सदृशास्ते सदृश्यस्ताः मानस्यो मानसाश्च ते ।। ५ ।।

 कृत्वा चतुर्युगलानि प्रसन्नोऽभूदतीव सः । जातमात्राणि चैतानि विज्ञानवन्ति वीक्ष्य वै ।। ६ ।।

 नियोक्तुं सृष्टिकार्ये तान् प्रत्येकं प्राह विश्वसृट् । सनक त्वं गृहाणैनां जयां त्वदर्थकल्पिताम् ।। ७ ।।

 सनन्दन गृहाणैनां ललितां ते प्रकल्पिताम् । सनातन गृहाणैनां दत्ता पारवतीं च ते ।। ८ ।।

 सनत् गृहाण ते दत्तां प्रभां सहचरीं कुरु । युगलं युगलं भूत्वा चत्वारि युगलानि वै ।। ९ । ।

 सृजन्तु मानसीं सृष्टिं सर्वा युगलरूपिणीम् । गोलोकादीदृशी प्राप्ता गृहधर्मपरम्परा ।। १० ।।

 वैकुण्ठेऽपि तथा दृष्टा गृहधर्मपरम्परा । वयं कृष्णाज्ञया गृह्यान् धर्मान् गृह्णीम आदरात् ।। १ १।।

 तथा पुत्रा! भवन्तोऽपि गृहीत्वा पितृसम्मतान् । गृहधर्मान् पालयित्वा भवन्तु सुखिनोऽत्र वै ।। १२।।

 नियुज्य भवतः सृष्टिकार्येऽप्यहं मनाक् पुनः । सृष्टिभारेण रहितो भवामीति कृतार्थकः ।। १३।।

 गृहधर्मे सदा पुत्रा वंशा भवन्ति तारकाः । गृहधर्मे योषितोऽपि भवन्ति सुखदायिकाः ।। १४।।

 गृहधर्मे यज्ञयागक्रिया जायन्त आदरात् । अतिथेः पूजनं देवपूजनं साधुपूजनम् ।। १५।।

 सत्कारोऽन्याश्रमिणां द्युप्रदं दानं च जायते । कामधर्मोऽप्यवितः स्यादर्थश्चोपार्जितो भवेत् ।। १६ ।।

 पुरुषार्थत्रयं मोक्षः पश्चाल्लभ्येत शाश्वतः । गृहधर्मं विना गुणप्रवाहविरमो न वै ।। १७।।

 बाल्ये वा यौवने ज्ञानं जायते न विरामदम् । तस्माद् भोगं प्रदायैव मानसं वै प्रशान्तयेत् ।। १८।।

 प्रशान्तमानसानां तु मोक्षो भवति शाश्वतः । तस्मात् कुर्वन्तु कार्याणि सृष्टिध्रौव्याणि पुत्रकाः! ।। १९।।

 इति वै ब्रह्मणः श्रुत्वा वचो विश्वसृजः सुताः । चत्वारः पूर्वत एव ज्ञानिनो योगिनस्तथा ।।२० ।।

 ब्रह्मवेत्तार एवैते मोक्षमर्थे विनिश्चिताः । न कर्मणा भवेन्मोक्षः कर्म वै बन्धनं पितः ।।२१।।

 तत्रापि गृह्यकर्माणि बन्धनान्येव सन्ति वै । नारीधर्मो विनिवृत्तेः कारणं जायते नहि ।। २२।।

 कर्मोत्तरं पुनः कर्म कारयत्येव रागतः । धर्मार्थकामनास्तत्र सान्ता भवन्ति नैव हि ।।२३।।

 विना ज्ञानं पितस्तस्माद् गृहधर्मो भयावहः । गृहधर्मो भाररूपो यथा त्यक्तुं त्वयेष्यते ।।२४।।।

 तथाऽस्माभिश्च तं वोढुमाद्यतो नैव चेष्यते । पुत्रा यत् तारकाः प्रोक्तास्तारकं ज्ञानमेव ह ।।२५ ।।

 तद्वै पुत्राभिधानं स्यात् ज्ञानिनां योगिनां तथा । कर्मिणां तु सुताः पुत्रा न चिकीर्षालयात्मनाम् ।।२६ ।।

 वंशस्तु ब्रह्मविज्ञानि मुक्ताः सन्तो भवन्तु नः । ब्रह्ममार्गप्रदेष्टारो ब्रह्मलोकनिवासिनः ।।२७।।

 अध्रुवस्याऽन्वयस्याऽर्थे करिष्यामो न गृह्यकम् । योषित्संगो बही रम्यः परिणामेऽन्तरेऽसुखः ।।२८।।।

 कस्तां सेवेत तत्त्वज्ञः सुखं नैजं विहाय वै । आत्मसुखं परं प्रोक्तं तदन्यत्सुखमन्तकृत् ।।२९ ।।

 गृहधर्मे यज्ञयागा ये तु प्रोक्ताः पितामह । ब्रह्माराधनकार्यस्य कूलयाऽपि समा न ते ।।३०।।

 ब्रह्माराधनमेवात्र क्रतुर्नो ज्ञानिनां मतः । कृते ब्रह्माराधने तु कृतमातिथ्यपूजनम् ।।३ १।।

 कृतं च देवपूजादि कृतं साधुप्रपूजनम् । सत्कृते तु हरौ नित्यं सत्कृतं सर्वमेव ह ।।।३२।।

 दानं तु ब्रह्मविज्ञानं कृतं स्याच्छाश्वतं पितः । स्वर्गे तल्लभ्यमेवाऽन्यन्मोक्षस्थानं तदेव ह ।।३३।।

 यन्न दुःखादिसंभिन्नं न चान्ते ग्रस्यते तु यत् । सत्यसंकल्पलब्धिकृत् तत्स्वर्गे शाश्वतं पदम् ।। ३४।।

 कालधर्मः सतृष्णस्य नाऽऽत्मारामस्य कस्यचित् । अर्थश्चान्नजलवस्त्रैर्नान्यैरर्थैः प्रयोजनम् ।।३५।।

 एवं वै वर्तमानस्य मोक्षः करतले स्थितः । गृहधर्मेण गुणकृत्प्रवाहस्य विसर्जनम् ।।३६।।

 आशामात्रं प्रबोद्धव्यं मग्ना वै गुणधर्मिणः । येषां बाल्यं न वै चास्ति यौवनं त्वागतं नहि ।।३७।।

 सर्वदात्मनि चास्त्येव विरामो भोगवर्जितः । मानसं ब्रह्मणा सम्यग् रञ्जितं शान्तिविग्रहम् ।।३८।।

 तेषां मोक्षः सदेहे वा विदेहे वा न शिष्यते । सदा मुक्तः स वै प्रोक्तः सदा मुक्तः स वै मतः ।।३९।।।

 हर्षाऽमर्षभयोद्वेगैरस्पृष्टो मुक्त एव सः । तस्मान्नार्हा वयं सृष्टौ वयं ब्रह्माधिकारिणः ।।४०।।

 निर्द्वन्द्वा द्वन्द्व शून्याँश्च करिष्यामोऽपरानपि । अयं वै पितृतत्पितृपितृपितृपितुः पितुः ।।४१ ।।

 पुरुषोत्तमसंज्ञस्य धर्मोऽस्त्युपनिषन्मयः । यास्यामो येन पुरतस्तस्यैव परमात्मनः ।।४२।।

 यद्वै पश्चात्प्रकर्तव्यं तदद्यैव विधीयताम् । यदि स्यात् तद्विधानस्य साधनं स्वीयकोशगम् ।।४३।।

 अस्माकं तु पितुश्चानुग्रहेणाऽऽत्मनि संयमः । सहोत्थ एव सुखदो वर्तते मोक्षसाधकः ।।४४।।

 तस्मादाबाल्यतो मोक्षे वत्स्यामो नान्यथा पितः । अस्मन्मोक्षे तव मोक्षो भविष्यति न संशयः ।।४५।।

 वयं पुत्रास्तारकाः स्मो यथार्था इति विद्धि वै । इमाः कन्यास्तु योगिन्यो ज्ञानविज्ञानमूर्तयः ।।४६।।

 ब्रह्मैव संप्रपत्स्यन्ते स्वल्पकालेन मा शुचः । इति संभाष्य पुत्रास्ते ययुर्विष्णुपदीं प्रति ।।४७।।

 जया च ललिता पारवती प्रभेति कन्यकाः । अध्यात्मयोगसम्पन्नाः सस्मरुः पुरुषोत्तमम् ।।४८।।

 कृष्णनारायणं त्वाराधयामासुः सदाऽऽदरात् । जपं चक्रुः ओंश्रीकृष्णनारायणाय ते नमः ।।४९।।

 एवं वै वर्तमानाभिर्घोषणा दुन्दुभेः श्रुता । सत्यलोके त्रयोदश्यां प्रातरेव कृपामयी ।।५ ० ।।

 या काचिद् ब्रह्मसम्पन्ना यद्वा ब्रह्मवियोगिनी । सद्योजाता कुमारी वा वरारोहा विरागिणी ।।५ १ ।।

 स्थवीरा वा सुभगा वा सुवासिनी विवासिनी । सरागा वाऽऽत्मरागा वा कैवल्येहावती च वा ।।५ २ ।।

 अनाथा वा सनाथा वा संस्कृता वाऽप्यसंस्कृता । सुस्थाना वाऽकृतस्थानाऽथवा प्रस्थानशालिनी ।।५३ ।।

 वाग्दाना वाऽप्यदाना वा दानार्हा दानवर्जिता । दानार्थे निर्मिता चापि कुर्यात् त्रयोदशीव्रतम् ।। ५४।।

 तासामभीष्टदाताऽस्मि श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः । अधिमासेऽत्र यस्यै यन्नवं नवमपेक्ष्यते ।।५५ ।।

 अगम्यं वा सुगम्यं वा लभ्यं चालभ्यमित्यपि । पुण्यलभ्यं द्रव्यलभ्यं लभ्यं यत्साधनैरपि ।।५६।।

 अतर्क्यं वा प्रतर्क्यं वा शाश्वतं चाऽध्रुवं तथा । भोग्यं चाऽभोग्यमेवाऽन्यद् यद्यद् वाञ्छति या हृदि ।।५७ ।।

 तत्तत्सर्व प्रदास्येऽहं प्रसन्नः पुरुषोत्तमः । त्रयोदश्यां कृतेनैकभुक्तेन च व्रतेन वै ।।५८।।

 निशीथभोजनेनैव फलाहारेण वा व्रतम् । कुर्याद्वै श्रद्धया युक्त मम पूजनपूर्वकम् ।।५९।।

 तस्या नेता गमयिता त्राता पोष्टा च भद्रकृत् । आश्रयदस्तथा त्वानन्दयिताऽस्मि परेश्वरः ।। ६० ।।

 नरा नार्योऽथवा चान्ये पूजयन्त्यधिमासके । त्रयोदश्यां चन्दनाद्यैर्यथेष्टं वितराम्यहम् ।। ६१ ।।

 अष्टोत्तरशतेनापि षट्पंचाशद्भिरेव वा । द्वात्रिंशद्भिश्चोपचारैः षोडशाद्यैश्च वस्तुभिः ।।६ २ ।।

 यथालब्धैश्च वा पत्रपुष्पजलान्नतण्डुलैः । मानसैर्वा पूजयन्तु प्रेमोपायनकैश्च माम् ।।६ ३ ।।

 पुष्पांजलिं च वा प्रेमांजलिं ददतु मे जनाः । तेषामपि करिष्यामि मानसं दानपूरितम् ।। ६ ४।।

 मा संकोचं प्रकुर्वन्तु वदन्तु धारयन्तु वा । संकल्पयन्तु हृद्ये वितरिष्याम्यधिव्रते ।। ६५ ।।

 श्रुत्वैवं दुन्दुभिं प्रातस्त्रयोदश्यां हरिश्रितम् । जया च ललिता तत्राऽऽययुः पारवती प्रभा ।।६ ६ ।।

 नेमुस्तं दुन्दुभिं चाथ पप्रच्छुः किं ददासि वै । दुन्दुभिः प्राह नाकं वा ददामि पुरुषोत्तमम् ।। ६७।।

 त्रयोदशीव्रतमूल्यं कृष्णनारायणं पतिम् । ददामि संपदस्तस्य धामाऽप्यक्षरसंज्ञितम् ।।६८ ।।

 अधिमासेऽधिकदाता भवामि स्वल्पके व्रते । प्रकटोऽहमधिमासात्मकोऽस्मि सृष्टिमण्डले ।। ६ ९।।

 स्वर्गे सत्यं पारमेष्ठ्यं वैराजं भौमनं ध्रुवम् । गोलोकं चापि वैकुण्ठं ददामि ब्रह्मशाश्वतम् ।।७ ० ।।

 भवत्यः किन्नु वाञ्छन्ति ददामि व्रतसत्फलम् । श्रुत्वा तदा चतस्रस्ताः प्राहुस्तं दुन्दुभिं मुदा ।।७ १ ।।

 जातमात्रा वयं सर्वा असंस्कृताः स्म वै ततः । संस्कृताः स्याम कृष्णेन संगता धाम संगताः ।।७२।।

 कृष्णनारायणः सोऽस्मानवाप्नोतु परेश्वरः । दास्यस्तस्य भवामोऽद्य व्रतेनेच्छाम एव तत् ।।७३ ।।

 दुन्दुभिश्च तदा प्राह भवत्यश्चाद्य वै मुदा । स्नात्वा प्रातश्चार्चयन्तु सौवर्णं पुरुषोत्तमम् ।। ७४।।

 यथालब्धोपचारैश्च मानसैर्भावगर्भितैः । प्रेमक्षुधाश्रयः कृष्णनारायणो ग्रहीष्यति ।।७९।।

 कृष्णनारायणयोग्या यूयं स्थ दिव्यविग्रहाः । कृत्वा व्रतार्चने त्वद्य प्राप्नुवन्तु हरिं वरम् ।।७६।।

 इत्युक्त्वा दुन्दुभिस्तस्मात् स्थानादन्यत्र वै ययौ । जया च ललिता चक्रुः पारवती व्रतं प्रभा ।।७७।।

 तास्तु स्नात्वा गृहं गत्वा कृत्वा मण्डपमुत्तमम् । त्रयोदश्यां प्रातरेव पुपूजुः पुरुषोत्तमम् ।।७८।।

 मध्ये सिंहासनं कृत्वा कानकीं प्रतिमां हरेः । तत्र विन्यस्य चावाह्य ददुर्जलादिकं मुदा ।।७९।।

 पञ्चामृतजलैः स्नानं कारयित्वाऽम्बराणि च । आभूषणानि सर्वाणि कुंकुमचन्दनादिकम् ।।८ ० ।।

 धूपदीपसुनैवेद्यजलपुष्पफलादिकम् । ताम्बूलव्यजनच्छत्रचामराऽऽरार्त्रिकादिकम् ।।८ १ ।।

 प्रदक्षिणं स्तुतिं क्षान्तिं चार्घ्यं पुष्पांजलिं ददुः । देवदेव हरे कृष्णनारायण जगत्प्रभो! ।।८२।।

 दासीनां ते कराऽऽदानं कुरु स्मो दास्य एव ह । एवं संकल्प्य कुसुमाञ्जलीन् सगद्गदा ददुः ।।८३ ।।

 मध्याह्नेप्येवमेवेश प्रपूज्याऽभोजयन् हरिम् । सायं चापि समर्च्यैव चक्रुर्नीराजनं हरेः ।।८४।।

 ददुश्च भोजनं मिष्टं तृप्तस्तुष्टौऽभवद्धरिः । चक्रुस्ता जागरं रात्रौ नक्त कृत्वा हरेः पुरः ।।८५।।

 ननृतुस्ता जगुर्गीतिं मधुरां तालमिश्रिताम् । तावत् प्राविर्बभूवेशः श्रीकृष्णपुरुषोत्तमः ।।८६।।

 चतुःस्वरूपो भगवान् प्रत्येकां तामुपाददे । चतूरूपैश्चतस्रस्ता वामे निधाय मालिकाः ।।८७।।

 ताभिर्दत्ता नामयित्वा कंधरां समुपाददे । प्रसन्नश्च मुहुस्ताश्च पस्पर्शाऽऽश्लिष्टवान् मुदा ।।८८।।

 अगम्यं चाऽवितर्क्यं चाऽभूतं चावर्ण्यमेव च । ताभ्यो दत्वा सुखं शीघ्रं निधाय गरुडोपरि ।।८९।।

 नत्वा तु वेध प्राप्य यौतकं चाशिषस्तथा ।। विधिना ब्रह्मणा ताश्च नारायणाय चार्पिताः ।।९०।।

 विवाहयित्वा प्रययौ कृष्णकान्तः स्वमन्दिरम् । यदक्षरं परं धाम ब्रह्म व्यापकमुत्तमम् ।।९१।।

 अन्यधामानि यस्माद्वै प्राविर्भूतानि तद्वरम् । ययौ ताभिस्तु पत्नीभिः श्रीकृष्णपुरुषोत्तमः ।।९२।।

 जया च ललिता पारवती प्रभाऽम्बरे परे । व्योम्नि मुक्तान्य एवैता जाताः पत्न्यो हरेश्च ताः ।।९३।।

 दिव्या दिव्यप्रियतुल्या मोदन्तेऽक्षरधामगाः । एवं कृत्वा त्रयोदश्यां व्रतं श्रीपुरुषोत्तमे ।।९४।।

 मासि श्रीकृष्णपूजां च कृत्वाऽवापुः परं पदम् । स्वल्पस्यापि फलं नित्यं दिव्यं वै चाप्यनन्तकम् ।।९५।।

 श्रोष्यन्तीमं पठिष्यन्त्यध्यायं ये कृष्णमानसाः । तेषामपि फलं तद्वद् भविष्यति न संशयः ।।९६।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये चतुःसनकादिकाद्यर्थमुत्पादितानां ब्रह्मपुत्रीणां जयाललितापारवतीप्रभाभिधानानां पुरुषो-त्तममासत्रयोदशीव्रतेनश्रीपुरुषोत्तमधाम्नि श्रीकृष्ण-नारायणस्य पत्नीत्वप्राप्तिः, सनकादीनां तु वैराग्य-वृत्तिरित्यादिनिरूपणनामा पञ्चाधिक-त्रिशततमोऽध्यायः ।। १.३०५ ।।