पुरुषोत्तम मास नवमी उत्तरा(10-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास कृष्ण पक्ष की नवमी का जो माहात्म्य दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है – पूर्व कल्प में द्युमेरुजित् नाम का इन्द्र हुआ। उसके पुण्यों का क्षय होने पर वह त्रेतायुग में सम्राट् शतमख के रूप में उत्पन्न हुआ। उसके हाथ में वज्र, छत्र, खङ्ग दिव्य चिह्न थे। उसकी पत्नी का नाम द्युवर्णा था। वह सदा स्त्रीजाति की रक्षिका थी। गान्धर्वी, नागकन्या, देवियां, दानवियां, किन्नरियां आकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए वहां आकर वास करती थी। सावित्री, गायत्री, संज्ञा, स्वाहा, अरुन्धती, महेन्द्राणी, सती, लक्ष्मी, रोहिणी, पार्वती, स्वधा, प्रभा, माणिकी, श्री, जया, भक्ति, दिशाएं, कृत्तिका आदि अन्य नदियां उसकी सखियां बन गई थी। चम्पा, दया, रमा, हेम्नी, मुक्ता, गोदा, जयन्तिका, शान्ति, शान्ता, प्रेमपात्रा, दीपोत्सवी, नन्दिनी, ओजस्वती, सुरत्ना, दमयन्ती, चतुर्मती, देविका, कान्तिका, रेवा, सविता, मूलयोगिनी, कस्तूरिका, मंगला, हंसा, रुचि, मंजुला, निर्मला, अमृता, रालिजटिनी, पानपुत्तली, वनिता, मिष्टिका, पुष्पा, मनु, कृष्णा उसकी दासियां थी। कान्ता, सरस्वती, पद्मा, शारदा उसकी उपदासियां थी। कल्पद्रुम, मणियां उसकी कामधेनुएं थी। प्राग्ज्योतिष नाम के उसके राज्य में कल्पद्रुम व मणियां, कल्पवल्लियां कामधेनुएं थी। दैवयोग से उसका राज्य शीताद्रि दुर्गवत् हो गया। उन्होंने सरयू के किनारे साकेता को अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने प्रधान को वहां का रक्षक बनाकर स्वयं बद्रीयात्रार्थ जो यात्रा के नियम होतें हैं, उनका पालन करते हुए  प्रस्थान किया।उन्होंने तीर्थ रूपी मुनियों और तीर्थों का दर्शन किया। उन्होंने नर-नारायण का दर्शन करके, उनकी पूजा करके, साधुओं, विप्रों व अतिथियों को भोजन कराया। नर –नारायण को प्रसन्न करने के लिए वहां उनकी मूर्ति के निकट नृत्य गायन आदि किया, बहुत से आभूषण यह कह कर अर्पित किए कि यह सब तुम्हारा स्व ही तो है। तब उन्हें पुत्र प्राप्त होने का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।तभी उन्होंने दुन्दुभि की घोषणा सुनी कि अधिक मास की नवमी को व्रत करने से हृदय की कामनाएं पूरी होती हैं। दम्पत्ति ने यह सुनकर नर-नारायण का ध्यान किया और उनमें लीन हो गए। उन्हें हृदय में दिव्य रूप – द्वय के दर्शन हुए। यह रूप देखकर उन्होंने संकल्प लिया कि हमारे पुत्र भी ऐसे ही हों। अब राजा – रानी ध्यान से बाहर आए। उन्हें नर – नारायण ने कहा कि तुम्हारा संकल्प फलित होगा। इसके पश्चात् वह पूजा आदि करके विमान से साकेत नगरी को वापस लौट आए। वहां उन्होंने वाटिका में एक दिव्य मण्डप बनवाया और वहां पुरुषोत्तम की स्वर्णमयी मूर्ति रखकर उसका दोलारोहण आदि क्रियाओं समेत पूजन किया। तब वहां मध्याह्न समय में मूर्ति से मध्याह्न काल के आदित्य के समान उज्ज्वल पुरुषोत्तम प्रकट हो गए। उनका नाम रामादित्य हुआ जो शतमख के पुत्र थे। उन्होंने कहा कि मेरे साथ मेरा भ्राता नरादित्य भी यहां दर्शन देने के लिए प्रकट हुआ है। तुरन्त वरदान मांगो, अन्यथा मैं जाता हूं। राजा – रानी ने कहा कि बैठो, बैठो, जाओ मत। यहां सर्वदा अपने दर्शन दो। भोजन ग्रहण करो। रम्य पेय, ताम्बूल ग्रहण करो। इतनी जल्दी क्या है। तुम मेरे पुत्र हो, जाओ मत। इतना कहकर रानी के स्तनों में दुग्ध उतर आया। राजा भी प्रेमपूर्ण अंग हो गया। तब वह दोनों बालक रूप होकर स्तनपान करने लगे। वह दोनों रामादित्य और नरादित्य हुए। राम का आविर्भाव मध्याह्न काल में  पुरुषोत्तम मास की नवमी तिथि में हुआ।

विवेचन

नवमी तिथि के उपरोक्त माहात्म्य में शतमख राजा का नाम ध्यान देने योग्य है जो राम का पिता बनता है। अन्यथा पुराणों में सार्वत्रिक रूप से राम के पिता के रूप में दशरथ का नाम आता है। शतमख का अर्थ है जिसने सौ अश्वमेध पूरे कर लिए हों। पुराणों में उल्लेख आते हैं कि इन्द्र किसी के भी सौ अश्वमेध पूरे नहीं होने देता, इस भय से कि सौ अश्वमेध करने  वाला इन्द्र बन जाएगा और उसका राज्य छिन जाएगा। राजा पृथु सौ अश्वमेध करने का प्रयत्न कर रहा था कि इन्द्र ने उसके अश्व का अपहरण करवा दिया। अश्वमेध में अश्व सभी दिशाओं में निर्बाध घूमना चाहिए। अश्व द्वारा पृथिवी का भ्रमण करने से एक केन्द्रीय शक्ति का जन्म होता है, वैसे ही जैसे आधुनिक विज्ञान में विद्युत जब एक गोल तार में घूमती है तो गोले के केन्द्र पर एक शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इसी शक्ति से आजकल के मोटर घूमते हैं। यह केन्द्रीय शक्ति राम हो सकती है या अन्य कुछ नाम दिया जा सकता है। राम का जन्म नवमी तिथि को ही क्यों रखा गया है, इस संदर्भ में कहा गया है कि आठ तो दिशाएं तिर्यक् दिशाएं हैं, और नवीं दिशा ऊर्ध्व दिशा है। जब अश्व भ्रमण करता है तो वह तिर्यक् दिशाओं में करता है। उससे नवीं ऊर्ध्व दिशा की शक्ति का जन्म होता है।

     नवमी तिथि की जो व्याख्या ऊपर दी गई है, वह पर्याप्त नहीं है। इन्टरनेट पर नवमी तिथि के सम्बन्ध में एक लोककथा दी गई है जिसका वाचन रामनवमी पर किया जाता है। वन में राम, सीता और लक्ष्मण जा रहे थे। सीता जी और लक्ष्मण को थका हुआ देखकर राम जी ने थोडा रुककर आराम करने का विचार किया और एक बुढिया के घर गए। बुढिया सूत कात रही थी। बुढिया ने आवभगत की और बैठाया, स्नान-ध्यान करवाकर भोजन करवाया. राम जी ने कहा- बुढिया माई, पहले मेरा हंस मोती चुगाओं, तो में भी करूं। बेचारी के पास मोती कहां से आवें, सूत कात कर गरीब गुजारा करती थी। पर अतिथि को ना कहना भी वह ठिक नहीं समझती थी। दुविधा में पड गई। अत: दिल को मजबूत कर राजा के पास पहुंच गई. और अंजली मोती देने के लिये विनती करने लगी। राजा अपना अचम्भे में पडा कि इसके पास खाने को दाने नहीं है। और मोती उधार मांग रही है। इस स्थिति में बुढिया से मोती वापस प्राप्त होने का तो सवाल ही नहीं उठता। पर आखिर राजा ने अपने नौकरों से कहकर बुढिया को मोती दिला दिये़। बुढिया लेकर घर आई, हंस को मोती चुगाए, और मेहमानों को आवभगत की। रात को आराम कर सवेरे राम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी जाने लगे। जाते हुए राम जी ने उसके पानी रखने की जगह पर मोतियों का एक पेड लगा दिया। दिन बीते पेड बडा हुआ, पेड बढने लगा, पर बुढिया को कु़छ पता नहीं चला। पास-पडौस के लोग चुग-चुगकर मोती ले जाने लगे। एक दिन जब वह उसके नीचे बैठी सूत कात रही थी, तो उसके गोद में एक मोती आकर गिरा। बुढिया को तब ज्ञात हुआ। उसने जल्दी से मोती बांधे और अपने कपडे में बांधकर वह किले की ओर ले चली़। उसने मोती की पोटली राजा के सामने रख दी। तो इतने सारे मोती देख राजा अचम्भे में पड गया। उसके पूछने पर बुढिया ने राजा को सारी बात बता दी। राजा के मन में लालच आ गया। वह बुढिया से मोती का पेड मांगने लगा। बुढिया ने कहा की आस-पास के सभी लोग ले जाते है। आप भी चाहे तो ले लें। मुझे क्या करना है। राजा ने तुरन्त पेड मंगवाया और अपने दरबार में लगवा दिया। पर रामजी की मर्जी, मोतियों की जगह कांटे हो गये और आते -जाते लोगों के कपडे उन कांटों से खराब होने लगे। एक दिन रानी की ऐडी में एक कांटा चुभ गया और पीडा करने लगा। राजा ने पेड उठवाकर बुढिया के घर वापस भिजवा दिया। तो पहले की तरह से मोती लगने लगे। बुढिया आराम से रहती और खूब मोती बांटती।

यह कहा जा सकता है कि सौ अश्वमेध यज्ञ करने का उद्देश्य यह है कि मोती चुगने आ जाएं। आधुनिक विज्ञान की भाषा में, जो ऊर्जा अव्यवस्थित हुई पडी है, उसको स्वच्छ करना हम सीख जाएं। वैदिक साहित्य में तो प्रत्यक्ष रूप से यह ज्ञात नहीं हो पाता कि शतक्रतु बनने के क्या लाभ हैं, यद्यपि ऋग्वेद की लगभग 66 ऋचाओं में शतक्रतु शब्द प्रकट हुआ है। एक ऋचा में कहा गया है कि वाम और दक्षिण मिलकर एक हो जाते हैं।

युक्तस्ते अस्तु दक्षिण उत सव्यः शतक्रतो ।

तेन जायामुप प्रियां मन्दानो याह्यन्धसो योजा न्विन्द्र ते हरी ॥ - ऋ. 1.82.5

यह हमारे मस्तिष्क के वाम और दक्षिण पक्षों का मिलकर एक हो जाना है या कुछ और, विचारणीय है।

     लक्ष्मीनारायण संहिता के माहात्म्य में अयोध्या का उल्लेख साकेत नगरी के रूप में किया गया है। साकेत नगरी क्या है, यह अधिक स्पष्ट नहीं है। तैत्तिरीय संहिता में केत, सकेत, सुकेत आदित्यों का उल्लेख आया है।

 

श्रीनारायण उवाच-

शृणु लक्ष्मि! नवम्याश्चाधिकमासाऽन्तितमे दले । व्रतस्य पूर्वकल्पीयां कथां पापप्रणाशिनीम् ।। १ ।।

 पूर्वात् पूर्वतरे कल्पे बभूवेन्द्रो द्युमेरुजित् । सायं तस्य लये जाते पुण्यशेषेण वै पुनः ।। २ ।।

 सत्यलोके निशां भुक्त्वा कल्पाऽऽरंभे प्रगे तु सः । सृष्टौ त्रेतायुगे चाद्ये सम्राट् शतमखोऽभवत् ।। ३ ।।

 दानधर्मदयायुक्तो लोकरक्षणतत्परः । देवदानवमर्त्यानां मानकृद् विजितेन्द्रियः ।। ४ ।।

 व्योमयानेन विहरन् त्रिलोक्यां विचचार सः । गोभूतीर्थद्विजन्यासिसतीसाधुप्रपूजकः ।। ५ ।।

 यस्य हस्ततले वज्रच्छत्रखङ्गांककानि वै । विद्योतन्ते स्म दिव्यानि देवत्वावेदकानि वै ।। ६ ।।

 तस्य पत्नी महाराज्ञी द्युवर्णाऽभूत् पतिव्रता । पतिसेवापरा नित्यं देवसेवापरा तथा ।। ७ ।।

 आतिथ्यधर्मिणी दीनाऽनाथदारिद्यनाशिनी । कन्यानामुन्नतिकर्त्री सदा स्त्रीजातिरक्षिका ।। ८ ।।

 गान्धर्व्यो नागकन्याश्च देव्यो दानव्य एत्य च । किन्नर्यश्चापि मानुष्यः शिक्षार्थं स्म वसन्ति वै ।। ९ ।।

 सावित्री चापि गायत्री संज्ञा स्वाहाऽप्यरुन्धती । महेन्द्राणी सती लक्ष्मीः रोहिणी पार्वती स्वधा ।। १० ।।

 प्रभा च माणिकी श्रीश्च जया भक्तिर्दिशस्तथा । अन्या नद्यः कृत्तिकाद्यास्तस्याः सख्योऽभवँस्तदा ।। १ १।।

 चम्पा दया रमा हेम्नी मुक्ता गोदा जयन्तिका । शान्तिः शान्ता प्रेमपात्रा दीपोत्सवी च नन्दिनी ।। १२।।

 ओजस्वती सुरत्ना च दमयन्ती चतुर्मतिः । देविका कान्तिका रेवा सविता मूलयोगिनी ।। १३।।

 कस्तूरिका मंगला च हंसा रुचिश्च मंजुला । निर्मला चामृता रालिजटिनी पानपुत्तली ।। १४।।

 वनिता मिष्टिका पुष्पा मनुः कृष्णा च दासिकाः । कान्ता सरस्वती पद्मा शारदा उपदासिकाः ।। १५।।

 कल्पद्रुमाश्च मणयः कामधेनव इष्टदाः । कल्पवल्ल्योऽभवंस्तस्या राज्ये प्राग्ज्योतिषाह्वये ।। १६।।

 एवं शतमखो राजा राज्ञी द्युवर्णिका तथा । स्त्रीनरौ राज्यधर्मेण वर्तेते स्म भुवस्तले ।। १७।।

 दैवयोगेन तद्राज्यमभूच्छीताद्रिदुर्गवत् । राजधानी कृता ताभ्यां साकेता सरयूमनु ।। १८।।

 प्रधानं रक्षकं कृत्वा यात्रार्थं कृतनिश्चयौ । ततस्तौ संप्रयातौ वै बद्रीयात्रार्थमादरात् ।। १९।।

 परिमेयचरचारभृत्यदासीजनौ शुभौ । तीर्थस्य नियमान्सर्वान्पालयन्तौ प्रजग्मतुः ।।२० ।।

 प्रातः स्नानं ब्रह्मचर्यं सत्यव्रतं फलादनम् । भूशायित्वं परित्यक्तशृंगारासनादिकम् ।।।२१।।

 अहिंसनं परिवादराहित्यं मालिकाजपम् । रागद्वेषविहीनत्वं दानं देवादिपूजनम् ।।।२२।।

 तीर्थवृद्धार्चनं तीर्थगुरुसाहाय्यकारिताम् । गोदर्शनं हरेः पादामृतपानं कथाश्रवम् ।।२३।।

 विषयाणां परित्यागं साधुवद्वर्तनं तथा । रात्रौ नारायणध्यानं दिवा तीर्थाटनं शुभम् ।।२४।।

 सायं नीराजनास्तोत्रकीर्तनस्मरणादिकम् । जंगमान्स्थावरान्प्रत्यनुद्वेजनं तितिक्षणम् ।।२५।।

 पालयन्तौ तापसौ तौ भूत्वा बदरिका गतौ । देवनद्यां तदाचम्य स्नात्वा पीत्वा जलं ततः ।।२६।।

 ददृशतुर्मुनींस्तीर्थात्मकाँस्तीर्थानि चांजसा । नरनारायणौ दृष्ट्वा पूजां कृत्वोपचारकैः ।।२७।।

 साधुविप्रानतिथींश्च भोजयामासतुस्तदा । राज्ञा राज्ञ्या नरनारायणयोस्तोषणाय वै ।।।२८।।

 तत्रैव तु कृतं नृत्यं गायनं मूर्तिसन्निधौ । अर्पितं कानकच्छत्रयुगलं मुकुटद्वयम् ।।२९।।

 युगकुण्डलयुगलं चामराणां चतुष्टयम् । यष्टिकायुगलं हाराश्चोर्मिकाविंशतिस्तथा ।।३० ।।

 कटकद्वययुगलं शृंखलारशनाद्वयम् । पादुकाद्वययुगलं तथा सिंहासनद्वयम् ।।।३ १ ।।

 दक्षिणा भूयसी चैव स्वर्णपात्रोत्तमानि च । वल्कलाऽजिनवस्त्राणि फलानि दैशिकानि च ।।३२।।

 समर्पितानि सर्वाणि तव स्व इति शब्दितम् । पादौ स्पृष्टौ जलं पीतं चरणामृतमित्यपि ।।३३।।

 स्वर्णमालापादयोश्चार्पिता नरनरेशयोः । चन्दनादिसुवस्त्वाद्यैः पूजितौ परमेश्वरौ ।।३४।।

 आशीर्वादास्तदा लब्धा पुत्रवान् भव पार्थिव! । राज्ञी पुत्रवती भूयादिति श्रुत्वा प्रशं गतौ ।।३५।।

 तावत्तत्राऽधिकमासनवम्यां प्रातरेव ह । संश्रुतो दुन्दुभिः सम्यङ्मनोवाच्छाप्रपूरकः ।।३६।।

 अद्य व्रतं प्रकुर्वन्तु गृह्णन्तु वाञ्च्छितं फलम् । पुरुषोत्तममासोऽयं फलदः पुरुषोत्तमः ।।३७।।

 हृदि स्थितान् शुभान् कामान गृह्णन्तु पुरुषोत्तमात् । मां च धाम विभूतिं च दास्ये स्मृद्धिं व्रतार्थिने ।।३८।।

 अगम्यं बुद्धिगम्यं स्यादलभ्यं लभ्यमेव च । अतर्क्यं चापि तर्क्यं स्यान्नवमीव्रतकारिणः ।।३९।।

 सर्वसंकल्पसिद्धिः स्यात् प्राप्तिः पुमुत्तमस्य च । दुन्दुभिश्चेत्यभिधाय दृष्ट्वा नरं नरेश्वरम् ।।४० ।।

 पूजयित्वा ऋषिवर्यौ जगामोत्तरदिग्भुवम् । दम्पती प्रसमाकर्ण्य ध्यात्वा नरनरेश्वरौ ।।४१ ।।

 तल्लीनौ चाऽभवतां द्राङ् नरो नारायणस्तदा । तयोर्हृदोर्ददृशाते दिव्यरूपौ सुशोभनौ ।।४२।।।

 मनोहरौ मञ्जुवाक्यौ मञ्जुलकेशसज्जटौ । पुष्टौ युवानौ दिव्यौ च तापसौ श्रीनिषेवितौ ।।४३ ।।

 मुनिभिर्वन्दितपादौ वैकुण्ठवासिनावुभौ । राजभवनयोग्यौ तौ लालनपालनार्हणौ ।।४४।।

 पद्मपत्रायतनेत्रौ सुचन्द्रास्यौ गुणालयौ । घनश्यामौ हृदयंगमौ मनोज्ञसुन्दरौ ।।४५।।

  वीक्ष्य संकल्पितं पुत्रावीदृशौ भवता तु नौ । अथ ध्यानाद् बहिर्यातौ राज्ञीनृपौ विलोक्य च ।।४६।।

 नरनारायणः प्राह संकल्पः फलतात्तु वाम् । श्रुत्वा तृप्तौ चाति जातौ तीर्थविधिं विधाय तौ ।।४७।।

 निवर्तितौ ततः स्थानादाययतुर्नदीतटे । आचम्य कानकीं मूर्तिं स्नात्वा पुपूजतुस्तदा ।।४८।।

 गंगाजलैर्हरिं तौ संस्नाप्य प्रमृज्य चाम्बरैः । पञ्चामृतं समर्प्यथाऽभिषेकं चक्रतुर्जलैः ।।४९।।

 संप्रमृज्य सुवस्त्राण्याभूषणानि समर्प्य च । शृंगारशोभां संक्लृप्त्वा धूपदीपौ समर्प्य च ।।५० ।।

 चन्दनाऽक्षतकुंकुमकज्जलद्रवसारकैः । सुगन्धयित्वाऽऽरार्त्रिकं कारयामासतुस्ततः ।।५१ ।।

 भोजयामासतुर्देवं वर्धयामासतुः स्तवैः । पुष्पांजलिं समर्पयामासतुश्च फलादिकम् ।।५२।।

 ताम्बूलचर्वणं दत्वा याचयामासतुः क्षमाम् । एवं सूर्योदयात् पश्चात् पञ्चघटीगते पुनः ।।५३।।

 समये चापि तौ कृत्वा स्नानार्चनस्तवादिकम् । नैवेद्यपानताम्बूलदक्षिणादिसमर्पणम् ।।५४।।

 ऋषिदेवक्षितिदेवभोजनं दक्षिणां तथा । निर्वर्त्याऽर्घ्यं कुसुमानामञ्जलिं चाऽक्षताँस्तथा ।।५५।।

 दत्वा स्तुतिं चक्रतुश्च विसर्जनं प्रचक्रतुः । एवं प्रपूज्य देवेशं श्रीकृष्णपुरुषोत्तमम् ।।५६ ।।

 नरं नारायणं नत्वा तीर्थविधिं समाप्य च । पूर्वं मध्याह्नसमयाद् राजधानीं नवीकृताम् ।।५७।।

 विमानेन समागत्य साकेतां सरयूमनु । उद्याने महती सौधे वृक्षवल्लीसुशोभिते ।।५८।।

 मण्डपं कारयामासतुस्तौ स्वर्णादिशोभितम् । कलशैर्हारशृंगारैर्वस्त्रभूषाध्वजादिभिः ।।५९।।

 शोभितं रंगवल्लीभिः सिक्तं गन्धजलादिभिः । वह्निकुण्डसमायुक्तं वेदिकासुविराजितम् ।।६ ०।।

 कटपर्यंकबृसिकासूर्णास्तरणशोभितम् । कम्मानिकातोरणाढ्यं कदलीस्तंभसंधृतम् ।।६ १।।

 आदर्शचन्द्रकडंका निशान भेरिकाऽऽनकैः । जलतरंगयन्त्रैश्च शीतवायुप्रवाहकैः ।।६२।।

 शोभितं मण्डितं चित्रैरवतारसुरादिभिः । जलस्थलव्यत्ययेन दृष्टिर्जालैर्विलक्षितम् ।।६३।।

 दूरश्रवणयन्त्रैश्च दूरदर्शनदर्पणैः । दूरग्रहणसिद्ध्याद्यैरलंकृतं विमानवत् ।।६४।।

 तत्र मण्डपमध्ये तु सहकारतरू कृतौ । पार्श्वकोणेषु चत्वारोऽशोकवृक्षा विनिर्मिताः ।।६५।।

 शाखासु दिव्यदोला च बन्धयामासतुश्च तौ । तत्र मूर्तिमयान्देवान् शृंखलासु तु देविकाः ।।६६।।

 संक्लृप्तयामासतुश्च कोमलास्तरणानि च । तत्र मूर्तिं कानकीं वै पुरुषोत्तमरूपिणीम् ।।६७।।

 आरोप्याऽऽन्दोलयामासतुश्च राज्ञी नृपस्तथा । तत्र देवस्य निकषा सर्वतोभद्रमण्डलम् ।।६८।।

 सप्तधान्यैः स्बर्णरत्नहीरकादिसुमिश्रितम् । रचयामासतुर्मध्ये सुवर्णकलशं शुभम् ।।६९।।

 पंचरत्नजलपुष्पफलद्रव्याम्बरान्वितम् । स्थापयामासतुस्तस्योपरि स्थालीं तिलान्विताम् ।।७०।।

 श्रीफलमुद्रिकायुक्तां धारयामासतुस्ततः । स्वर्णमूर्ति द्वितीयां श्रीपुरुषोत्तमसंज्ञिताम् ।।७१ ।।

 तत्स्थाल्यां स्थापयामासतुश्च षोडशवस्तुभिः । पूजयामासतुरारार्त्रिकं चक्रतुरादरात् ।।।७२।।।

 नृत्यगीतानि तत्रैव कारयामासतुस्तदा । होमं त्वग्नौ कुण्डमध्ये कारयामासतुस्तथा ।।७३।।

 भोजयामासतुर्विप्रान्देवान्साध्वीः सतस्तथा । दीनाऽनाथाऽबलावर्गान्दरिद्रान् भिक्षुकादिकान् ।।७४।।

 दक्षिणा दापयामासतुश्च पुष्पाऽक्षताऽञ्जलीन् । अर्पयामासतुर्यावत् तावत्तत्र - सुमण्डपे ।।७५।।

 दिव्यरूपो युवा नूत्नजीमूतवर्णसुन्दरः । श्यामलः सजटो देवः सानुजः समदृश्यत ।।७६।।

 मध्याह्नसमये दिव्यो मूर्तो वै पुरुषोत्तमः । दिब्यतेजःपरिध्याढ्याननहास्यसुरञ्जनः ।।७७।।

 दिव्यनेत्रस्नेहपूर्णः पुष्टः पुष्टानुजान्वितः । पीताम्बरधनुश्चर्मखड्गशंखजटाधरः ।।७८।।

 सुवर्णमुकुटाढ्यश्च सुवर्णकुण्डलान्वितः । आशीर्वादपरहस्तः सेवाकृपाढ्यमानसः ।।७९।।

 स्थितिवाञ्च्छाभिसंचेष्टश्चारामशान्तिदः प्रभुः । आरामे मण्डपे जज्ञे मध्यादित्यसमुज्जलः ।।८०।।

 रामादित्येत्यनुजेनाऽऽहूतस्तत्र मुहुर्गिरा । रमन्ते योगिनो यत्राऽऽदित्योज्ज्वलपरेश्वरे ।।८ १ ।।

 रामादित्यो ह्ययं शातमखी जातोऽत्र केशवः । अयं रामावतारो वै प्रथमः परिकीर्तितः ।।८२।।

 दृष्ट्वा तं जातमात्रं च युवानं केशवं प्रभुम् । आश्चर्यचकितौ राज्ञी राजा चोभौ बभूवतुः ।।८३।।

 रामस्तु भगवान् दिव्यौ पितरौ प्राह तोषणात् । प्रसन्नोऽस्मि वरं याचत यथेष्टं ददाम्यहम् ।।८४।।

 मूर्तिरूपेण सेवा वामंगीकृता मया ततः । प्रादुर्भूय वरं दातुं प्रत्यक्षोऽस्मि पुमुत्तमः ।।८५।।

 यो बदर्यां हरिर्दृष्टो नरेण सह तापसः । हृदि यौ ददृशाते च दिव्यरूपी सुशोभनौ ।।८६।।

 सोऽहं त्वत्र समायातः स्वभ्रात्रा पुरुषोत्तमः । नरादित्यो मम भ्राता तापसोऽपि मया सह ।।८७।।

 दातुं नैजं दर्शनं चात्रागतोस्ति कृपावशः । प्रवृणुत वरदानं मा चिरं न्वेष याम्यहम् ।।८८।।

 इति श्रुत्वा शतमखो नृपो राज्ञी द्युवर्णिका । बभूवतुश्चातिसंभ्रमौ संव्यग्रमानसौ ।।८९।।

 वन्दन्तौ तिष्ठतं तिष्ठतं मा यातं न गच्छतम् । सर्वदा ददतं त्वत्र दर्शनं भवने प्रभू ।।९०।।

 दर्शनीयौ कमनीयौ प्राप्स्येथे न पुनर्हरी । गृह्णीतं भोजनं रम्यं पेयं ताम्बूलमर्चनम् ।।९१।।

 रमतं सर्वदा त्वत्रोद्याने ददतमीप्सितम् । वत्सौ किं वर्तते शैघ्र्यं यातं मा पुत्रकौ मम ।।९२।।

 इत्युक्त्वा राजमहिषी निसर्गस्नेहसंभृता । सुतौ द्वौ निकटे कृत्वा स्पृष्ट्वा नेत्रजलाऽभवत् ।।९३।।

 स्नुतदुग्धस्तनी जाता त्यक्तुं नोत्सहते स्म सा । राजाऽपि प्रेमपूर्णांगश्चाऽन्येऽपि मुमुहुर्हरौ ।।९४।।

 भगवन्तौ प्राहतुश्च तथास्त्विति सुमण्डपे । क्षणं बालौ तदा जातौ स्तन्यपानकरावुभौ  ।।९५।।

 द्युवर्णा तां पाययित्वा स्तन्यं प्राप्ता कृतार्थताम् । रामादित्यनरादित्याभिधपुत्रवती सती ।।९६।।

 सुखिनी संबभूवाऽत्रानन्दोत्सवो महाँस्तदा । रामाविर्भावरूपो वै मध्याह्ने भूभृता कृतः ।।९७।।

 ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च मुनयः सनकादयः । नारदाद्याश्च ऋषयो भक्ता वैकुण्ठवासिनः ।।९८।।

 सत्यलोकादिवसतिः स्वर्गदेवाश्च मानवाः । पातालादिस्थिताश्चान्ये जडाश्च चेतनाः प्रजाः ।।९९।।

 तीर्थानि सरितः शैला अरण्यानि वनानि च । कल्पाश्च पादपाश्चिन्तामणयः कामधेनवः ।। १०० ।।

 तत्रोत्सवे समायाता मन्त्रा वेदाश्च वित्तयः । तत्त्वानि चेतरा सर्वे ब्रह्मपुत्राश्च मानसाः ।। १० १।।

 पितरो देवराजाश्च पार्थिवा लक्षकोटयः । समायाता नवम्यां वर्धयितुं चाशिषाऽऽशिषा ।। १० २।।

 अधिमासाऽपरपक्षनवम्यां मध्यगे रवौ । रामादित्यजयन्त्यां ते राम वीक्ष्य नरं तथा ।। १० ३।।

 कृतार्थाश्चाऽभवन् लब्ध्वा सत्कारं भोजनादिकम् । रामप्रसन्नतां प्राप्य चक्रुर्गानं सुनर्तनम् ।। १ ०४।।

 दानं शतमखः कोट्यर्बुदानि च गवां ददौ । वर्धका लोकपालाश्च दिक्पालाश्च सुरादयः ।। १ ०५।।

 ययुर्निजस्थलं सर्वे स्वस्वलोकान् ययुर्जनाः । मध्याह्नपूजनं राज्ञ्या नृपेण तत्र मण्डपे ।। १०६।।

 समाप्तं वै कृतं तद्वत् सायं निशि प्रपूजनम् । रात्रौ जागरणं चाथ प्रातः स्नानादिकं कृतम् ।। १ ०७।।

 मूर्तेः संपूजनं पात्रभोजनं दक्षिणादिकम् । कृतं सर्वं सुविधिना व्रतं पूर्णं कृतं ततः ।। १०८।।

 पारणा च कृता तेन पत्न्या सह सुपुत्रिणा । आनन्दः समभूत् तस्याऽतर्क्यो वै नवमीतिथेः ।। १ ०९।।

 पुरुषोत्तममासस्य व्रतेन पुत्रदायिना । इति ते कथितं लक्ष्मि! व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।। ११ ०।।

 रामादित्यजयन्त्याख्यं व्रतपुण्यं महत्तमम् । इदं प्राग्रामचरितं पठेत् संशृणुयात्तु यः ।। १११ ।।

 श्रावयेत्परया भक्त्या स भवेद् व्रतपुण्यभाक् । स्वेष्टं लभेल्लभेद्राज्यं लभेत् पुत्रं धनादिकम् ।। १ १२।।

 लभेत् तीर्थफलं चापि साकेतसरयूकृतम् । लभेच्च बलवत्पुत्रं पुरुषोत्तमसन्निभम् ।। १ १३।।

 भुक्तिं मुक्तिं सुखं स्वर्गं धाम वैकुण्ठमित्यपि । यद्यदिष्टं लभेत् सर्वं कृपया परमात्मनः ।। १ १४।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये साकेतनगर्याः शतमखराज्ञः द्युवर्णा राज्ञ्याश्च बदरिकाश्रमयात्रायां नरनारायणदर्शनो-त्तरं द्वितीयपक्षनवमीव्रतकरणेन साकेतनगर्यां श्रीरामादित्यनरादित्यनामानौ प्रथमौ पुरुषोत्तमा-वतारौ दिव्यपुत्रौ बभूवतुरित्यादिनिरूपणनामा षोडशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३१६।।