पूर्वा षष्ठी(22-6-2015)

षष्ठी तिथि को सार्वत्रिक रूप से स्कन्द षष्ठी कहा जाता है। स्कन्द का गुण ब्रह्माण्ड में विचरण करना है, जबकि गणेश का गुण केन्द्र की ओर अग्रसर होना है।

मल मास की पूर्वा षष्ठी के माहात्म्य में कहा गया है कि पितरों की तीन कन्याएं थी – मेना, धन्या व कलावती। तीनों ने विचार किया कि हम किसको पति बनाएं। सबसे उत्तम पति तो विष्णु ही होंगे। लेकिन विष्णु की तो पहले ही बहुत सी पत्नियां हैं। यदि हम विष्णु की पत्नियां बनती हैं तो केवल उसकी सपत्नियां बन कर रह जाएंगी। अतः उन्होंने निश्चय किया कि हम विष्णु को अपना पति नहीं, अपितु जामाता, पुत्री – पति बनाएंगी। कालान्तर में, मेना हिमवान् की पत्नी बनी और अपनी पुत्री गौरी का विवाह शिव के साथ किया। धन्या जनक की पत्नी बनी और अपनी पुत्री सीता का विवाह राम के साथ किया। कलावती वैश्य रापाण(?) की पत्नी बनी और अपनी कन्या राधा का विवाह कृष्ण के साथ किया। यह महत्त्वपूर्ण है कि किस प्रकार पुत्रियों के रूप में प्रकृति का रूपान्तरण इस प्रकार किया जाए कि परमात्मा का प्रकृति में अवतरण सम्भव हो सके।

     प्रतीत होता है कि उपरोक्त माहात्म्य में पितरों की तीन कन्याओं को तीन युगों के लिए चुना गया है- मेना को सत्ययुग के लिए, धन्या को त्रेता युग के लिए और कलावती को द्वापर युग के लिए। मेना की विशेषता यह है कि वह किसी भी कार्य में दक्षता लाती है, कोई भी कार्य सौ प्रतिशत दक्षता से करना चाहती है। जब कल्पवृक्ष की स्थिति होती है, तभी कोई कार्य सौ प्रतिशत दक्षता से हो पाता है। ऐसी स्थिति सत्ययुग में ही संभव है। जब ऐसी स्थिति में दोष आ जाता है, लगता है कि उस स्थिति में ओंकार की शक्ति उमा की कल्पना की गई है जिससे दक्षता यथावत् बनी रहे। मेना पर टिप्पणी पठनीय है। 

     धन्या को जनक की पत्नी बनाकर उससे सीता की उत्पत्ति कही गई है। धन्या का अर्थ है – अब प्रकृति धनात्मकता की ओर अग्रसर होने लगी है। आधुनिक विज्ञान के तापगतिकी के द्वितीय नियम के अनुसार सारे ब्रह्माण्ड की ऊर्जा ऋणात्मकता की ओर अग्रसर हो रही है। ऋणात्मकता का अर्थ है कि यद्यपि ऊर्जा का परिमाण उतना ही रहेगा, लेकिन उससे कोई उपयोगी कार्य नहीं किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए, जब तक वाष्प किसी पात्र में बंद है, उससे उपयोगी कार्य लिया जा सकता है। जब उस वाष्प को वायुमंडल में मुक्त कर दिया जाता है, तो उससे कोई कार्य नहीं लिया जा सकता। सीता के पति राम का अस्त्र धनुष है जिसमें धनु शब्द भी धनात्मकता का प्रतीक है। सीता में ऐसा कौन सा गुण है जिसके कारण उसे राम की पत्नी के रूप में चुना गया है। सीता का जन्म भूमि के कर्षण से हुआ है। इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि ब्रह्माण्ड की  ऊर्जा के ऋणात्मकता की ओर जाने का कारण यह है कि वह ऊर्जा लगातार फैलती जा रही है। यदि उस ऊर्जा का कर्षण किया जा सके तो इस ऋणात्मकता पर अंकुश लगाया जा सकता है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड की ऊर्जा फैल रही है, ऐसे ही हमारी ऊर्जा हमारी इन्द्रियों के माध्यम से फैलती जा रही है। यदि हम अपनी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करना जान जाएं तो हम भी धनात्मकता की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

     द्वापर में कलावती के माध्यम से राधा की उत्पत्ति कही गई है जो कृष्ण की पत्नी बनती है। वर्णमाला के अ, आ, इ आदि 16 स्वरों को 16 कलाएं कहा जाता है। कहा गया है कि 15 कलाएं तो वित्त हैं और 16वीं कला आत्मा है। चन्द्रमा की 15 कलाएं तो नष्ट होती रहती हैं, लेकिन 16वीं कला अमृत है। राधा इसी अमृत कला का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है। वर्णमाला के व्यञ्जन इन्हीं कलाओं के स्थूल रूप हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार कलाओं की विशेषता यह है कि दो कलाएं परस्पर मिल कर एक दूसरे को नष्ट भी कर सकती हैं और परस्पर सहयोग करके आश्चर्यजनक परिणाम भी उत्पन्न कर सकती हैं। दो प्रेमी एक दूसरे के मन की बात जान जाते हैं। इसमें कला कारण है। दोनों की कलाएं सहयोग कर रही हैं। कला का विकृत पक्ष काल या कलि है । कृष्ण का अस्त्र कृष्ण की वंशी है जिसमें कृष्ण प्राण फूंक कर जड तत्त्व को चेतन बना रहे हैं। षष्ठी तिथि का एक गुण वंश वृद्धि  कहा गया है। वंश वृद्धि का अर्थ होगा कि किसी प्रकार से जो काल जरा आदि के रूप में हमारी देह को ग्रसित कर रहा है, उससे मुक्ति मिले। 

 

 श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! कथां दिव्यां सुखसम्पत्प्रदायिनीम् । कामनापूरिकां दैवीं पुरुषोत्तमयोगिनीम् ।। १ ।।

 सृष्ट्यारंभे तु पितॄणां कन्या आसन् सुसद्गुणाः । तिस्रो नाम्ना स्वधापुत्र्यो मेना धन्या कलावती ।। २ ।।

 सर्वसद्गुणसम्पन्ना योगिन्यः कामरूपगाः । विहरन्त्यः पितृगेहे शुश्रुवुर्दुन्दुभिं हरेः ।। ३ ।।

 पुरुषोत्तममासोऽयं मन्नाम्ना तु मयाऽऽदृतः । एककालं द्विकालं वा तद्व्रतस्थमनोरथान् ।। ४ ।।

 पूरयिष्याम्यहं नारायणो ब्रवीमि वै स्वयम् । पितृगेहे तिथौ षष्ठ्यां प्रातराकर्ण्य घोषणाम् ।। ५ ।।

 तिसृभिश्चिन्तितं त्वद्य व्रतं कार्यं हरेः खलु । येनाऽस्माकं स्वभीष्टं दास्यति नारायणः स्वयम् ।। ६ ।।

 पितॄणां नित्यसन्तोषस्तृप्तिर्वै शाश्वती भवेत् । तद्धेतुं मार्गयित्वाऽत्र याच्यः श्रीपुरुषोत्तमः ।। ७ ।।

 पतित्वेन तु विष्णुः स याचनीयो न वै क्वचित् । यतस्तस्य तु पत्नीनां बाहुल्यं विद्यते ततः ।। ८ ।।

 सापत्न्यं सर्वदा दुःखं सुखनिकृन्तनं हि तत् । पितृत्वेनाऽथवा भ्रातृत्वेनाऽध्येष्टव्य एव न ।। ९ ।।

 बालिकानां तदाऽस्माकमज्ञानां किं सुखेन वै । विवाहावधिवासस्तु तद्गृहे वै भवेत् ततः ।। १० ।।

 वियोगो बान्धवानां च पितुश्च दुःखमेव तत् । पुत्रत्वेनापि विष्णुः स याचनीयो न वै क्वचित् ।। ११ ।।

 ताडने शिक्षणेऽधिक्षेपादौ स्यादपराधिता । श्वशुरादिस्वरूपे तु मर्यादा दुःखदा भवेत् ।। १२।।

 अपराधोऽतिनैकट्येऽतिदूरे स्यादसेवनम् । अतियोगेऽतिमर्यादा विमर्यादाऽपि दुःखदा ।। १३ ।।

 विष्णुस्तस्माद् याचनीयः केन रूपेण वै भवेत् । परस्परमिति कृत्वा संविदं तिस्र एव ताः ।। १४।।

 समादधुः क्षणं मौनं चिन्तयन्त्यो नरायणम् । तावद् व्योमगता वाणी ता जगाद् पुनः पुनः ।। १५ ।।

 कृष्णनारायणं जामातृत्वेन वृणुताऽबलाः । सर्वं सुखं भवेत् तस्मै पुत्रीदानेन शाश्वतम् ।। १ ६।।

 पुत्री माता स्वयं प्रोक्ता पुत्रीमुखेन नित्यदा । सुखिता मन्यते पुत्रीदानं स्वदानवद् भवेत् ।। १७।।

 जामाता पुत्रवत् स्याच्च दानपात्रं परं मतः । पूजनीयस्तोषणीयो विविधैः सेवनैरपि ।। १८ ।।

 पुत्र्या सेवा कृता या तत्फलं मातुर्भवेदपि । मात्राऽनुनीतया पुत्र्या सेवनं यद् विधीयते ।। १९ ।।

 शिष्यकृते गुरोर्भागस्तद्वन्मात्राऽपि लभ्यते । ऐहिकी सुखसम्पत्तिर्यशः ख्यातिर्ध्रुवा भवेत् ।।२ ० ।।

 श्रेयांसि बहुरूपाणि लोके जामातृवैभवात् । भवन्त्येवेति निश्चित्य जामातारं समीच्छत ।। २१ ।।

 पुत्री वैकुण्ठनाथस्य धाम्नि यस्या वसेत् सदा । तन्मातापितरौ पुण्यौ क्वचिद् वैकुण्ठगौ मतौ ।। २२।।

 सप्तकुलशतैकानां भवेदुद्धरणं तथा । माता मातामहाद्याश्च भवेयुर्मोक्षगास्तथा ।। २३ ।।

 पितॄणां सर्वदा वासो जामातृभवने भवेत् । तस्माद्भवत्यो याचन्तु जामातारं हरिं सदा ।।२४।।

 पुत्रीणां तत्र सापत्न्यं मा भवेदित्यपि ध्रुवम् । याचन्त्वधिकमासस्य व्रतं कृत्वा तथाऽर्चनम् ।। २५ ।।

 विररामेति सम्बोध्याऽऽकाशवाणी ततश्च ताः । चकिता अतिसंहृष्टा विनिर्णीय तथैव ताः ।। २६।।

 ब्रह्म भवताज्जामाता जामाता भवताद्धरिः । कृष्णो भवतु जामातेत्युक्त्वा वै चक्रिरे व्रतम् ।। २७।।

 षष्ठ्यां प्रातश्च ताः स्नात्वा व्यधुस्तिस्रोऽपि पूजनम् । तिस्रो मूर्तीः सुवर्णस्य मेना धन्या कलावती ।। २८।।।

 विधाय पूजयामासुः क्रमादावाहनादिभिः । देवान् पञ्चामृतैस्त्रींश्च स्नपयामासुरादरात् ।। २९ ।।

 चन्दनादिभिरामर्द्य स्नपयामासुरब्वरैः । सम्मार्ज्य वस्त्रभूषाभिरलंचक्रुर्द्रवादिभिः ।। ३० ।।

 कुंकुमाऽक्षतकस्तूरीसुगन्धिवस्तुपुष्पकैः । हारमालामुकुटाद्यैर्धूपदीपादिभिस्तथा ।। ३१ ।।

 नैवेद्यैर्विविधैर्मिष्टैः पानताम्बूलचूर्णकैः । सम्पूज्य त्रीन् छत्रशय्याचामरोपानहादिभिः ।। ३२।।

 फलैश्च शर्कराभिश्च त्रीन् देवानभिवर्ध्य च । अर्घ्यं रत्नादिसंयुक्तं कदलीफलसंयुतम् ।। ३३ ।।

 ददुस्ताश्च नमस्कृत्य ततः पुष्पाञ्जलीन् ददुः । क्षमां सम्प्रार्थ्य ववरुर्जामाता भव केशव ।। ३४।।

 भवद्दुन्दुभिनिर्घोषादस्माभिर्हृत्सु संधृतः । सर्वथा सुखदो देव पुत्रीद्वारा भवात्र नः ।। ३५। ।

 पुरुषोत्तममासस्य षष्ठीयं पालिता व्रते । करिष्यामो वयं नक्तं पुनः पूजां विधायते ।। ३ ६।।

 ततो विसर्जयामासुस्तान्देवान्प्रातरेव ह । दिवाव्रतं कृतं ताभिर्विप्रद्वाराऽनले घृतैः ।। ३७।।

 मध्याह्ने हवनं कारयित्वा पुपूजुरादरात् । पितॄन् ऋषींस्तथा देवान्मुनीन् जनतपःस्थितान् ।। ३८ । ।

 पायसैर्दुग्धसारैश्च पिण्डकैः शाकपत्रकैः । रसैर्नानाविधैर्मिष्टैस्तर्पयामासुरीश्वरान् ।। ३९ ।।

 प्रसन्नास्ते शुभाशीर्भिर्युयुजुस्तिसृकन्यकाः । ब्रह्म नारायणः कृष्णो भवद्व्रतफलप्रदाः ।।४० ।।

 भवन्तु भवतीनां च यथेष्टसुखकारिणः । अथ सायं पुनस्ताभिर्दीपमालां प्रकाश्य च ।।४१ ।।

 मण्डपं कदलीस्तम्भपत्रतोरणराजितम् । कारयित्वा स्वर्णपात्रदर्पणोल्लेखशोभितम् ।।।४२ ।।

 वस्त्रविद्युद्विचित्रं सच्चित्रौज्ज्वल्यमनोहरम् । कारयित्वा च मध्ये सद्रत्नखचितकानकम् ।।४३ ।।

 मखमल्लकशिप्वाद्यैरास्तृतं शोभनं महत । सिंहासनं कारयित्वा ब्रह्म कृष्णं नरायणम् ।।४४।।

 मूर्तित्रयं प्रतिष्ठाप्य गीतवादित्रपूर्वकम् । चक्रुः सुपूजनं तत्र सुवर्णाक्षतकुंकुमैः ।। ४५ ।।

 हरिद्रारक्तसद्द्रव्यैः सौभाग्यार्हसुवस्तुभिः । नर्तनं गायनं चक्रुः किंकिणीनादमिश्रितम् ।।४६ ।।

 आरार्त्रिकं धूपदीपौ जलमर्घ्यं विधाय च । पूरिका दुग्धपानं च शाकं सर्षपपत्रजम् ।।४७।।

 भोजयित्वा त्रयं वारिपानमर्पय्य सत्फलम् । प्रदत्वा च क्षणं ध्याने स्थितवत्योऽभवँश्च ताः ।।४८ ।।

 तत्र ध्याने समायाता ब्रह्मकृष्णनरायणाः । एतासु मेनया दृष्टः कट्यम्बरोऽतिपुष्टिमान ।।४९ ।।

 निहारधवलो व्याघ्रचर्मधृक् चन्द्रशेखरः । सजटः परितो व्याप्त ब्रह्मतेजोऽतिभासुरः ।।५ ० ।।

 युवा मनौहारिमूर्तिर्ब्रह्म निर्गुणमेव यत् । सगुणत्वं समापन्नं नररूपं स एव सः ।।५ १ ।।

 निर्मलान्तर्वृत्तिगम्यः शंकरो भावपूरकः । प्रसन्नताप्रवर्षा प्रख्यापयन् स्मितहास्यतः ।।५२।।

 तावत्तदङ्कमासीनां पुत्रीं स्वां भाविनीं शुभाम् । अपश्यन्नाह्वयन्तीं च ह्यम्बे माऽम्बेति वै मुहुः ।।५३ ।।

 शंकरो ब्रह्मरूपोऽयं भगवान् प्राह मेनकाम् । मेनके त्वं ममांशस्य हिमाद्रेः संभविष्यसि ।। ५४।।

 पत्नी तत्र च कन्येयं पार्वती ते भविष्यति । तां त्वं दास्यसि मह्यं वै मत्तः सुखमवाप्स्यसि ।।५५। ।

 पुरुषोत्तममासस्यैकदिनस्य व्रतस्य च । तवेष्टं तु फलं सर्वसुखदं संभविष्यति ।।५६ ।।

 इत्युक्त्वाऽन्तर्हितो देवः शंकरो ब्रह्म यत्परम् । अथैव धन्यया दृष्टः स्वयं वै सधनुर्हरिः ।।५७।।

 जटावल्कलशोभाढ्यः पुनः सद्राज्यचिह्नवान् । युवा मनोहरो देवो वासुदेवो गुणातिगः ।।५८ ।।

 तेजःपरिधिसंव्याप्ताननहास्यान्वितः प्रभुः । चतुर्भुजो द्विभुजोऽयं सिंहासनविराजितः ।।५९ ।।

 तस्य पार्श्वे सुरूपां स्वां कन्यां सीतां ददर्श सा । आह्वयन्तीं च मो हेऽम्ब! इति मिष्टगिरा मुहुः ।।६ ० ।।

 श्रीरामो भगवाँश्चायं प्रसन्नः प्राह धन्यकाम् । धन्ये त्वं वै जनकस्य गृहिणी भाविनी ततः ।।६ १ ।।

 इयं तु ते सुता सीता महालक्ष्मीर्भविष्यति । तां त्वं दास्यसि मह्यं वै मत्तः सुखमवाप्स्यसि ।। ६२।।

 पुरुषोत्तममासस्यैकस्याऽह्नस्तु व्रतस्य वै । तवेष्टं तु फलं स्निग्धं भविष्यति सुखात्मकम् ।। ६३ ।।

 इत्युक्त्वाऽन्तर्हितो वासुदेवो नारायणः प्रभुः । अथ दृष्टः कलावत्या कृष्णः सुदर्शनान्वितः ।।६४।।

 मयूरपिच्छमुकुटः पीतवस्त्रौष्ठवेणुकः । गोपालबालकः पश्चात् स एव नृपतीश्वरः ।।६५।।

 राजाधिराजो भगवान् सर्वशोभातिसुन्दरः । नवजीमूतसत्कान्तिर्युवा भूषाविभूषितः ।।६६ ।।

 दिव्यसिंहासनश्रेष्ठस्थितो राजाधिराजकः । द्विभुजो मन्दहास्येन दर्शयन्सुप्रसन्नताम् ।।६७।।

 तस्य पार्श्वे स्थितां दिव्यां रूपानुरूपशेवधिम् । पुत्रीं राधां भाविनीं तां सा ददर्श कलावती ।। ६८ ।।

 कृष्णकण्ठे निजं हस्तं ददती प्रेमविह्वलाम् । आह्वयन्तीं च मो अम्बे हेऽम्बेति सद्गिरा मुहुः ।।६ ९ ।।

 श्रीकृष्णः सुप्रसन्नः सन् स्पृशन् राधां कलावतीम् । प्राहेयं तव वैश्यत्वे पुत्री राधा भविष्यति ।।७०।।

 तां त्वं दास्यसि मह्यं वै भाण्डीरवटसन्निधौ । मदीया सा सदा पत्नी मूर्धन्या स्याद्धि शाश्वती ।।७१।।

 मत्तः सर्वे सुखं पुत्रीद्वारा त्वं समवाप्स्यसि । पुरुषोत्तममासस्यैकदिनस्य व्रतस्य वै ।।७२।।

 फलं चाभिलषितं ते भविष्यति सुखात्मकम् । इत्यभिधाय कृष्णस्तत्स्थलादन्तर्हितोऽभवत् ।।७३।।

 अथाऽचिरात्तु तिस्रस्तास्ततो ध्यानात्समुत्थिताः । प्रसन्नास्याः कृतकृत्या नत्वा नारायणं मुहुः ।।७४।।

 व्यसर्जयन् सुकुसुमांजलीन् दत्वाऽथ तन्निशि । पारणां समकुर्वंस्ता भोजयन्त्योऽपि कन्यका ।।७५।।

 ब्रह्मनारायणकृष्णमूर्तिदानं प्रचक्रिरे । अथाऽचिरादाद्ययुगे पितृभिस्ताः क्रमान्ननु ।।७६।।

 हैमजनकगोपेभ्यो मेना धन्या कलावती । विवाहिता तु विधिना तासां पुत्र्योऽभवँश्च ताः ।।७७।।

 क्रमात्तु पार्वती सीता राधा ब्रह्मपरात्मिकाः । सृष्ट्यारंभे साधिकायामाद्यावताररूपिणे ।।७८।।

 शिवाय रामरूपाय कृष्णाय त्वर्पिताश्च ताः । जामातॄँस्तान् परब्रह्मावताराँश्चाभिपद्य वै ।।७९।।

 सर्वान्कामानवापुस्ता मेना धन्या कलावती । एवं लक्ष्मि! व्रतं नक्तमधिमासे प्रपूजनम् ।।८०।।

 षष्ठ्यां कालत्रये कृत्वा पुराणपुरुषोत्तमात् । प्राप्तं व्रतफलं प्राप्ता जामातारो हरिः स्वयम् ।।८ १।।

 पुत्र्यस्ताः शंभुना रामेण च कृष्णेन शाश्वते । कैलासे चाथ वैकुण्ठे गोलोके च रमन्ति हि ।।८२।।

 तन्मातापितरश्चापि नित्यं मुक्तास्तदीयकम् । सुखं त्वत्यन्तमाप्ताश्च यथेष्टं कीर्तिमित्यपि ।।८३।।

 किम्वधिकं च ते वक्ष्ये लक्ष्मि! लोके परत्र च । माता स्वीयां सुपुत्रीं वै सुखिनीं कर्तुमिच्छति ।।८४।।

 तदा तया प्रकर्तव्यं व्रतं चाधिकमासिकम् । षष्ठ्यां व्रतं पूजनं च यथा मेनादिभिः कृतम् ।।८५।।

 कृष्णनारायणं जामातरं प्राप्स्यति वै ततः । भुक्तिं मुक्तिं तथा चान्यत् सर्वे प्राप्स्यंत्ययत्नतः ।।८६।।

 पुत्रीदानस्य सत्पात्रं कृष्णनारायणो यदि । तत्र प्राप्तं परां काष्ठां पुरुषार्थचतुष्टयम् ।।८७।।

 कर्तव्यं लौकिकं वाऽन्यलौकिकं नाऽवशिष्यते । सर्वशेषी हरिर्यत्र रमते सुतया सह ।।८८।।

 सुतया तुष्यति देवस्तस्य तोषे नु किं  पुनः। दुर्लभं त्वथवाऽप्राप्यं भवेत् कृष्णस्य सन्निधौ ।।८९।।

 एवं ते कथिता लक्ष्मि! कृपा नारायणस्य सा । अधिमासे व्रतिनां मानसानि पूरयत्यजः ।। ९० ।।

 यदीच्छेद्गुणसामर्थ्य रूपविद्यादिभिः समः । कृष्णेन तुल्यो जामाता स्यादिति चेत्तथा भवेत् ।।९१।।

  यदीच्छेल्लोकविख्यातो राजसत्ताप्रवर्तक । जामाता मे भवेच्चेति तदा वै तादृशौ भवेत्। ।९२।।

 यदीच्छेद्भगवद्भक्तो धनधान्यसमृद्धिमान् । जामाता मे चिरंजीवी भवेदिति तथा भवेत् ।।९३।।

 यदीच्छेद् ब्राह्मणगुणो यद्वा क्षत्रियधर्मवान् । जामाता मे भवेदेव व्रतकर्त्र्यास्तथा भवेत् ।।९४।।

 यदीच्छेद् गृहजामाता सुखदो मे भवेदिति । पुत्रपौत्रादिमान् स्याच्च व्रतकर्त्र्यास्तथा भवेत् ।।९५।।

 यथा तु यादृशं जामातारं वाञ्छति तं तथा । तादृशं समवाप्नोति श्वश्रूः श्रीहर्यनुग्रहात् । । ९६ । ।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तम मासमाहात्म्ये पितृ मानस कन्याभिः मेनाधन्या- कलावतीभिः अधिकमासदुन्दुभिश्रवणेन षष्ठ्यां त्रिकाल-व्रतेन क्रमात् पार्वतीसीताराधाऽभिधपुत्रीलाभे जामा-तृत्वेन शंकररामकृष्णानां सम्बन्धोपलब्धिरूप-फलप्राप्तिप्रभृतिनिरूपतानामाऽष्टनवत्यधिक-द्विशततमोऽध्यायः ।। १.२९८।।