पुरुषोत्तम मास

पूर्वा एकादशी( 28-6-2015ई.)

 लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास पूर्वा एकादशी का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है। ब्रह्मा के वक्ष से धर्म और मूर्ति का एक साथ आविर्भाव हुआ। मूर्तिदेवी तिरोहित हो गई और धर्म के शरीर में समा गई। कालांतर में मूर्तिदेवी दक्ष की पुत्री बनी। दक्ष ने उसका विवाह धर्म के साथ कर दिया। जब मूर्ति धर्मदेव में अदृश्य रूप से अविवाहिता के रूप में रह रही थी तो वह अपने स्वामी ब्रह्मचारी धर्म की भक्ति द्वारा सेवा करती थी और सदैव तप में लीन रहती थी। वह धर्मदेव को अपना पति ही मानती थी और पति मानकर ही उसकी सेवा करती थी। धर्म भी उसकी सेवा से संतुष्ट था और आशीर्वाद देता था कि तुम लोकरीति से मेरे साथ विवाह कर पुरुषोत्तम को पुत्र रूप में प्राप्त करो। एक दिन मूर्ति ने दुन्दुभि की घोषणा सुनी कि पुरुषोत्तम मास में एकादशी का व्रत करने से क्या नहीं प्राप्त किया जा सकता। स्वर्ग जाने के लिए कोई ज्योतिष्टोम यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं है, कोई अग्निहोत्र करने की आवश्यकता नहीं है। पुत्र प्राप्ति के लिए एक वर्ष तक अपने सिर पर जलती अंगीठी रख कर नंगे पैर भीगे कपडों में महाकाली के मंदिर में जाने और केवल माष भोजन की कोई आवश्यकता नहीं है। पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ करने की, सहस्र कन्या दान करने की कोई आवश्यकता नहीं है। केवल पुरुषोत्तम मास में पूर्वा एकादशी व्रत करने से ही सब कुछ प्राप्त हो सकता है। मूर्ति ने दुन्दुभि से पूछा कि क्या वह श्रीहरि को पुत्र रूप में प्राप्त कर सकती है। दुन्दुभि ने उत्तर दिया कि हां, पूर्वा एकादशी के दिन पुरुषोत्तम की स्वर्णमयी मूर्ति की 108 उपचारों द्वारा अर्चना करो। मूर्ति ने कहा कि मेरे पास तो अर्चना की कोई सामग्री नहीं है। दुन्दुभि ने उत्तर दिया कि यदि भौतिक सामग्री नहीं है तो केवल भाव द्वारा अर्चना करो। मूर्ति ने भावावेश में रोकर अर्चना की तो पुरुषोत्तम प्रकट हो गए और कहा कि तुम दक्ष की पुत्री बनकर धर्म की पत्नी बनो। तब मैं अपने भ्राता सहित चार रूप (नर, नारायण, हरि, कृष्ण) धारण कर तुम्हारा पुत्र बनूंगा। मूर्ति ने ऐसा ही किया। वह दक्ष की अयोनिज पुत्री बनी। दक्ष ने श्रद्धा, मैत्री आदि 12 अन्य कन्याओं के साथ उसका विवाह धर्म से कर दिया। मूर्ति ने श्रीहरि को 4 पुत्रों के रूप में प्राप्त किया।

विवेचन

लक्ष्मीनारायण संहिता में मूर्ति के पूर्व जन्म की एक कथा मिलती है। पहले जन्म में वह वेदशिरा मुनि व शुचि अप्सरा की कन्या के रूप में धूतपापा नाम से उत्पन्न हुई थी। मुनि ने कन्या से पूछा कि तुम स्वयं ही बता दो कि किससे विवाह करना चाहोगी। कन्या ने जो उत्तर दिया वह इस प्रकार है – जो सबसे अधिक पवित्र हो, जो सबसे अधिक नमस्कार्य हो, जिससे सब सुखों का उदय होता हो, जो कभी नष्ट न होता हो, जो सदैव अनुवर्तन करता हो, जो इस लोक में और परलोक में भी महा आपदाओं से रक्षा करता हो, जिससे सब मनोरथ पूर्ण हो जाते हों, जिसका नाम ग्रहण करने मात्र से बाधाएं टल जाती हों, जिसको आधार बनाकर सृष्टि में ब्रह्माण्ड टिके हुए हैं, ऐसे गुण जिसमें हों, उससे मेरा विवाह करो। मुनि ने कहा कि ऐसे गुण तो केवल धर्मदेव में ही हो सकते हैं। वह आसानी से प्राप्त होने वाला नहीं है। उसके लिए तो तप करना पडेगा। तुम तप करने के पश्चात् दक्ष की पुत्री बन कर उसे प्राप्त कर सकोगी -

स्मै दद्यां वराय त्वां त्वमेवास्याहि ये शुभे । श्रुत्वा पितुः शुभं वाक्यं प्रोवाच भक्तिमानसा ।। १५।।

सर्वेभ्योऽतिपवित्रो यो यः सर्वेषां नमस्कृतः । सर्वे यमभिलष्यन्ति यस्मात् सर्वसुखोदयः ।। १६।।

कदाचिद्यो न नश्येद्वै यः सदैवानुवर्तते । इहामुत्रापि यो रक्षेन्महापद्भ्यः स्वरूपवान् ।। १७।।

सर्वे मनोरथा यस्मात् प्रपूर्णाः संभवन्ति मे । दिने दिनेऽतिसौभाग्यं वर्धते यस्य सेवया ।। १८।।

नैरन्तर्येण यत्पार्श्वे भयं कस्यापि नैव मे । यन्नामग्रहणाच्चापि बाधा लीयन्त उत्कटाः ।। १ ९।।

यदाधारेण तिष्ठन्ति ब्रह्माण्डान्यपि सृष्टिषु । एवमाद्या गुणा यत्र तस्मै मां देहि शर्मणे ।। २०।।

एतच्छ्रुत्वा मुनिश्चातिप्रसन्नो मुदमाप ह । धन्योऽस्मि यद्गृहे पुत्री धार्मिकी कुलतारिणी ।।२१ ।।

धूतपापा सार्थनाम्नी धन्येयं ज्ञानशेवधिः । अनया वर्णितः कोऽत्र भवेद्वै सद्गुणोदयः ।।२२।।

वरं तं धर्मदेवाख्यं मन्ये तस्मै ददामि ताम् । परं स सुखलभ्यो न सर्वसद्गुणमण्डनः ।।२३।।

तपःपणेन स क्रय्यो बहुपुण्येन वा क्वचित् । विचार्येत्थं सुतां प्राह कन्ये वरोऽस्ति तादृशः ।।२४।।

नार्थभारैः स सुलभो न कौलीन्येन कन्यके । न चैश्वर्यबलेनापि न बुद्ध्या न पराक्रमैः ।।२५ ।।

मनःशुद्ध्येन्द्रियशुद्ध्या तपसा दमनेन च । लभ्यते स महाप्राज्ञो नान्यथा सदृशः पतिः ।।२६ ।।

 

उपरोक्त गुणों वाले धर्म को कोई भी नाम दिया जा सकता – परब्रह्म परमेश्वर, ओंकार आदि। कथा में यह कथन ध्यान देने योग्य है कि पहले मूर्ति धर्म की देह में अज्ञात रूप से वास करती थी। यद्यपि धर्म और मूर्ति दोनों अविवाहित थे, लेकिन मूर्ति धर्म को अपना पति मानकर सेवा करती थी। शतपथ ब्राह्मण में वर्णन आता है कि  ब्रह्म के दो रूप हैं - एक मूर्त है, एक अमूर्त। जो मूर्त है, वह मर्त्य है। जो अमूर्त है, वह अमृत है। वायु व अन्तरिक्ष, उनके विकसित रूप प्राण व अन्तराकाश अमर्त्य हैं। अन्य सभी मर्त्य हैं। सत्य शब्द का सत् भाग मर्त्य स्तर का सूचक है। त्यम् भाग अमर्त्य स्तर का। मर्त्य स्तर का रस चक्षु बनता है। चक्षु मूर्त है। अमर्त्य स्तर के रस से चक्षु के अंदर अमूर्त रूप में रहने वाले पुरुष का। यह कथन इस लोक में सभी वस्तुओं पर लागू होता है। मूर्ति में, जड व चेतन पदार्थ में किसी न किसी प्रकार से अदृश्य, अमूर्त प्राण की सत्ता है। जड पदार्थ अदृश्य सत्ता का घर, प्रतिष्ठा बना हुआ है। यह कथन लक्ष्मीनारायण की कथा के विपरीत है जहां धर्म तो मूर्त है, मूर्ति अमूर्त बनकर धर्म की देह में वास कर रही है। जब मूर्ति इस लोक में प्रकट होती है तो दक्ष की कन्या बनकर। इसका तात्पर्य यह लिया जा सकता है कि इस लोक की मूर्ति को, चक्षु, श्रोत्र आदि मूर्त रूपों को एक बार अपने को धर्म में, सर्वोच्च स्थिति में लीन करना पडेगा। वैदिक भाषा में इसे चिति बनाना कहते हैं और आधुनिक विज्ञान की भाषा में एण्ट्रांपी को, अव्यवस्था को कम करना। और कर्मकाण्ड की भाषा में दक्ष बनना। दक्ष बनने का कार्य बहुत से स्तरों पर किया जा सकता है – अपने आचरण को शुद्ध करना, ज्ञान, विद्या प्राप्त करना आदि। जब तक अव्यवस्था अधिक है, तब तक चक्षु अपने से  अधिक व्यवस्था वाली ज्योति का दर्शन नहीं कर सकते। पहले इन चक्षु आदि को दक्ष बनाना पडेगा। सोमयाग में यह कार्य वैश्वसृज दक्षिणा होम के माध्यम से प्रतीक रूप में किया जाता है। यजमान  अपने चक्षु आदि सभी अंगों को एक – एक करके निकाल कर ऋत्विज विशेष को दक्षिणा रूप में देता जाता है और ऋत्विज यजमान से एक गौ मूल्य रूप में प्राप्त करके उसके अंगों को वापस कर देते हैं। लेकिन वापस किए हुए अंग पहले जैसे नहीं होते, वह दक्षता से युक्त होते हैं। कथा में मूर्ति का दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेना कहा जा रहा है, उसका वैदिक दृष्टिकोण यह है। अब यजमान की इंद्रियां धर्म का निर्णय करने में, उसे अपना सर्वस्व बनाने में समर्थ होंगी।

     पुरुषोत्तम मास पूर्वा एकादशी की कथाओं को सार्वत्रिक रूप से पुत्रदा एकादशी कहा गया है। वर्तमान कथा में मूर्ति श्री हरि को पुत्र रूप में प्राप्त करती है। और वह भी चार रूपों में। हरि शब्द का निहितार्थ अभी तक बहुत स्पष्ट नहीं हो सका है। क्या हरि वनस्पति जगत की उस स्थिति का द्योतक है जहां वनस्पतियां सूर्य की किरणों का अवशोषण करके केवल हरित रंग की किरणों का ही उत्सर्जन करती हैं? और मूर्ति ने हरि को इकाई रूप में प्राप्त नहीं किया, अपितु चार रूपों में प्राप्त किया। सोमयाग में हारियोजन ग्रह के संदर्भ में कहा गया है कि ऋक् व साम इन्द्र के दो हरि हैं जिन्हें इन्द्र अपने रथ में जोडता है। रथ में जोडने का अर्थ होगा अपना जीवन हरिमय बनाना, ऋङ्मय व साममय बनाना। ऋक् का अर्थ है जहां किसी कार्य का निष्पादन करने से पूर्व कारण का ज्ञान हो जाए।

तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि ऋग्वेद मूर्ति का निर्माण करता है, वह प्राची दिशा, सूर्य के उदय होने की दिशा है। यजुर्वेद दक्षिणा प्राप्ति की, मध्याह्न की दिशा है। अथर्ववेद अस्त होने की दिशा है। सामवेद अस्त होने पर महिमा प्राप्त करने की, उत्तर दिशा है।

ऋचां प्राची महती दिग् उच्यते । दक्षिणाम् आहुर् यजुषाम् अपाराम् । अथर्वणाम् अङ्गिरसां प्रतीची । साम्नाम् उदीची महती दिग् उच्यते । ऋग्भिः पूर्वाह्णे दिवि देव ईयते । यजुर्वेदे तिष्ठति मध्ये अह्नः । सामवेदेनास्तमये महीयते   वेदैर् अशून्यस् त्रिभिर् एति सूर्यः । ऋग्भ्यो जाताम्̐ सर्वशो मूर्तिम् आहुः सर्वा गतिर् याजुषी हैव शश्वत् ।  सर्वं तेजः सामरूप्यम्̐ शश्वत् सर्वम्̐ _इदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम् ।

     उपरोक्त विवेचन में यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि एकादशी के संदर्भ में इस कथा का क्या औचित्य है। एकादशी प्रकृति की वह स्थिति है जहां वह असुरों से लडने में स्वयं समर्थ हो जाती है। उसे अब पुरुष के बल की आवश्यकता नहीं पडती। एकादशी की स्थिति से पहले प्राण दस दिशाओं में बिखरे रहते हैं। एकादशी को उन प्राणों के मिलने से कोई एक इकाई बनती है, ऐसा कहा जा सकता है।

श्रीनारायण उवाच--

 अधिमासैकादशिकाकथां दिव्यां हरिप्रदाम् । शृणु लक्ष्मि! समारंभे सृष्टेर्जाता तपोमयीम् ।। १ ।।

 ब्रह्मणो वक्षसो जातो धर्मदेवः समूर्तिकः । मूर्तिर्देवी तिरोभूता सदाऽऽस्ते धर्मवर्ष्मणि ।। २ ।।

 सा च धर्मे समुत्पन्ने सहैवोत्पद्यतेऽपि सा । लोकरीत्या तु संजज्ञे दक्षपुत्रीस्वरूपिणी ।। ३ ।।

 पुनर्धर्मस्य सा पत्नी लोकरीत्या तु जायते । यदा साऽभूद् धर्मदेवे ह्यदृश्या चाविवाहिता ।। ४ ।।

 तदा लक्ष्मि! कुमारी सा ब्रह्मचर्यसमन्विता । सेवते सर्वदा भक्त्या स्वामिनं ब्रह्मचारिणम् ।। ५ ।।

 सत्यलोके स्थिता वेधोगृहे धर्मसहायिनी । ब्रह्मा जानाति वै सर्वं नान्ये जानन्ति तां स्थिताम् ।। ६ ।।

 बाला बालस्वरूपाद्वै समारभ्यैव नित्यशः । स्नानं पूजां जपं होमं ध्यानं स्वामिप्रसेवनम् ।। ७ ।।

 करोत्येव च वृद्धेभ्यो नमनं वन्दनं तथा । दयाशान्तिप्रसन्तोषाऽऽर्जवोपकारकादयः । । ८ ।।

 सत्यातिमार्दवकृच्छ्रगुणा मूर्तौ वसन्ति हि । सिद्धदेहा तु सा मूर्तिस्तपस्सु वर्ततेऽति वै ।। ९ ।।

 वृष्टौ तिष्ठति वर्षासु शैत्ये शीतजलादिषु । आतपे पञ्चवह्निस्था निराहारा व्रतेषु च ।। १० ।।

 आर्द्राम्बरान्विता नित्यं स्वर्णदीतो गृहं स्वकम् । समागत्य पतिं नत्वा करोति कृष्णपूजनम् ।। ११ ।।

 पतिं जलादिभिः पूर्वं स्नपयित्वा समर्च्य च । ददाति भोजनं चास्मै जलं खाद्यं फलादिकम् ।। १ २ ।।

 स्वयं तु तुलसीपत्रैः कमलैः पारिजातकैः । पतिं नित्यं पूजयति दिव्यज्ञानातिभक्तितः ।। १३ ।।

 एवं प्रातः सदा स्नानं देवपूजां धवाऽर्चनम् । पतिसेवा भोजनादि कारयित्वा विधाय च ।। १४।।

 पत्युर्देहे विलीना सा मूर्तिर्भवति सर्वदा । एवं नित्यानुवृत्त्या सा प्रेमपात्रोत्तमोत्तमा ।। १५ ।।

 धर्मदेवस्य वै जाता सुखदाऽपि कुमारिका । धर्मदेवोऽप्यनुवृत्तिसेवाभक्त्याऽतितोषणम् ।। १६ ।।

 प्रत्यहं समवाप्नोति ददात्यस्यै शुभाशिषः । पतिसेवापरा नित्यं सुखिनि मूर्तिके भव ।। १ ७।।

 लोकरीत्याऽऽप्तदेहेन विवाह्य सेविका भव । ततः सौभाग्यसत्पुत्रस्मृद्ध्यादिसंभृता भव ।। १८ ।।

 नित्यभक्तिफलरूपः साध्यस्ते केशवो भवेत् । हरिः कृष्णः परब्रह्म श्रीपतिः पुरुषोत्तमः ।। १९ ।।

 इत्याशीर्वादभूमिः सा महापुण्याधिवासनी । अधिमासैकादशिकाप्रातरुत्थाय नित्यवत् ।। २० ।।

 स्नातुं सा स्वर्णदी याता तत्र शुश्राव दुन्दुभिम् । अद्याऽस्त्येकादशी देव्यः पुरुषोत्तममासगा ।। २ १ ।।

 अस्या व्रतेन सन्तुष्टः कृष्णनारायणः प्रभुः । यथेष्टं दास्यते सौख्यमैहिकं पारलौकिकम् ।। २२ ।।

 यद् ददाम्यधिमासस्य दिनेष्वन्येषु वै व्रतान् । ततः कोटिगुणं दास्ये फलमेकादशीव्रते ।। २३ ।।

 एकादशीनामन्यासां व्रतेन यत्फलं भवेत् । ततोऽर्बुदगुणं पुण्यं दास्या ह्यस्या व्रतेन वै ।।२४।।

 अहं ब्रह्मेश्वरश्चाधिमासस्यास्म्यधिदैवतः । तत्राप्येकादशीनाथोऽस्म्यहं श्रीपुरुषोत्तमः ।।२५।।

 मासोऽपि पुण्यश्च दिनं च पुण्यं देवोऽस्मि पुण्यश्च व्रतं कृपालोः ।

 ममाऽऽज्ञया येऽनुचरन्ति भक्त्या तेभ्यो यथेष्टं वितरामि सर्वम् ।।२६ ।।

 यथा यथा स्यान्मनसीषणात्रयम् व्रतस्य कर्तुश्च तथातथाऽन्वहम् ।

 परार्धतुल्यं तु ददामि तत्फलं लक्ष्मीं च मां चापि च धाम मामकम् ।।२७।।

 सिंहासनं मेऽपि ददामि तस्मै ददामि सिद्धीश्च चमत्कृतिं च ।

 ऐश्वर्यसर्वस्वमथापि भूतिं सकौस्तुभं मे मुकुटं च भूषा ।।२८।।

 यथाऽधिमासे कृपया प्रवर्षये जनार्थितं पूरयितुं च वर्षितुम् ।

 तथा न कुत्रापि तु नैजवाञ्च्छया प्रवर्षयिष्येऽधिकमासमन्तरा ।।२९।।

 व्रतं प्रकुर्वन्तु नराः स्त्रियश्च बालाश्च वृद्धाश्च सुतोषणाय ।

 फलं प्रदास्ये मम शाश्वतं वै पदं सुदिव्यं तु परात्परं यत् ।। ३० ।।

 गोलोकं चापि वैकुण्ठं धामाऽव्याकृतमेव वा । श्वेतद्वीपं च वा सौर्यं त्वन्ये भौमं तथाऽपरम् ।।३ १।।

 यद्यदिच्छेद् व्रतं कृत्वा प्रदास्यामि कृपावशः । अल्पायासे फलानन्त्यं गृह्णन्तु व्रतीनो मम ।। ३२।।

 नात्र यज्ञाः पृथक् कार्या नात्र तप्यं तपः पृथक् । तीर्थं नात्र पृथक् कार्यं ह्येकाहस्य फले हि तत् ।। ३३।।

 पयोव्रतं च पुत्रेष्टियजनं नेष्यते पृथक् । एकादश्या व्रतेनात्र दास्यामि पुत्रमित्यपि ।।३४।।

 ज्योतिष्टोमेन यजनं पृथक् साध्यं न वेष्यते । स्वर्गं ददामि तस्मै य एकादश्या व्रतं चरेत् ।। ३५ ।।

 न तस्य राजसूयेन साध्यं किमपि शिष्यते । एकादशीव्रतेनाऽत्र सार्वभौमं ददाम्यहम् ।।३६।।

 अग्निहोत्रेण किं तस्य दास्ये वैराजकं पदम् । एकादश्यां तु मे येनार्पितं फलजलादिकम् ।।३७।।

 श्राद्धैर्विविधकल्पैश्च विविधैर्देवपूजनैः । या तृप्तिस्त्विष्यते तां वै दास्ये चैकादशीव्रते ।।३८।।

 यां मुक्तिं यां च सम्पत्तिं यां सिद्धिं योगमैश्वरम् । यद्यद् वाञ्च्छति यत् कृत्वा तद् दास्येऽत्र दिने व्रते ।। ३ ९।।

 यावज्जीवं फलाहारैर्यत् सुपुण्यं समर्ज्यते । तत्पुण्यं यान्तु वै चैकादशीव्रतेन मे जनाः ।। ४० ।।

 एकभुक्तं कृतं येनाऽऽजीवनं तत्फलं त्वहम् । ददाम्यधिकमासैकादशीव्रतेन मेंऽजसा ।।४ १ ।।

 मस्तके ज्वलदङ्गाराङ्गिष्ठिकां मध्यरात्रिके । काले उदूह्य या नारी ह्येकार्द्रवस्त्रसंवृता ।।।४२।।

 अनुपानच्चरणाभ्यामसहायाऽप्यरण्यके । गत्वा कालीं प्रपूज्यैव प्रत्यहं वार्षिकं व्रतम् ।।४ ३ ।।

 एकभुक्तं माषमात्रादनं कुर्यादखण्डितम् । वर्षायां शीतकाले चातपकालेऽपि सर्वदा ।।४४।।

 गत्वाऽऽपूज्य पुनरायाद् गृहं स्वं मध्यरात्रिके । ततो रन्धितमाषान्नं गृह्णीयाच्च जलं सदा ।।४५।।

 एवं कष्टतरं पुत्रप्राप्त्यर्थं यन्महद्व्रतम् । तद्वै पृथङ् न कर्तव्यमेकादश्या व्रते कृते ।। ४६।।

 महाकालीव्रतं तद् यद् वार्षिकं प्रतिरात्रिकम् । यद् ददाति फलं पुत्रात्मकं तत्तु विनश्वरम् ।।४७।।

 एकादशीव्रतं त्वेतत्पुत्रस्वर्गप्रमुक्तिदम् । एकेन दिवसेनैव तद्व्रताधिकपुण्यदम् ।।४८ ।।

 सहस्रवर्षपर्यन्तं वाय्वाहारं व्रतं तु यत् । पृथक् तन्नास्ति कर्तव्यं ह्येकादश्या व्रते कृते ।।४९।।

 सहस्रकन्यकादानं यत्र कन्या विभूषिताः । प्रत्येकं स्वर्णसाहस्रमुद्राश्च दक्षिणास्तथा ।। ५ ० ।।

 प्रतिकन्यं तु दासीनां शतं स्वर्णविभूषितम् । प्रतिदासि च हस्तीनां शतं त्वम्बालिकायुतम् ।। ५ १ ।।

 प्रतिहस्ति तुरगाणां शतं स्वर्णविभूषितम् । प्रत्यश्वं गोवृषभाणां शतं द्वन्द्वं रथान्वितम् ।। ५२।।

 रथं रथं प्रति दोग्ध्रीगवा चापि शतं शतम् । गां गां प्रति ह्यजानां च शतं शतं ददेत्तु यः ।।५३ ।।

 अजां अजां प्रति वृत्तिं क्षेत्रं गृहं ददेच्च यः । तस्य दातुः कुरुक्षेत्रे फलं सूर्यग्रहे तु यत् ।।।५४।।।

 तस्माल्लक्षगुणं पुण्यं ददाम्येकादशीव्रते । अहं नारायणश्चास्मि शाश्वतः पुण्यशेवधिः ।।५५ ।।

 नाऽन्तोऽस्ति मयि पुण्यानां गृह्णन्तु वृष्टिवज्जनाः । संकल्पो मे पुण्यभूमिर्भक्तिर्मे मोक्षभूमिका ।।५६ ।।

 संकल्पस्य च भक्तेश्चाऽक्षयवार्धिरहं हरिः । ददाम्येव ददाम्येव रिक्तताभयवर्जितः ।।५७।।

 पुरुषोत्तममासस्यैकादश्यां व्रतकारिणे । सर्वं ददामि चोन्मत्तत्यागिवत् कमलामपि ।।५८ ।।

 अहं स्वयं तु मां समर्पये किमुत चापरम् । वृणुताऽतो यथेष्टं वै वदामि दुन्दुभिर्हरेः ।।५९।।

 एतल्लाभं न चेदीयुर्नेदृशः शास्यते पुनः । इति श्रुत्वा दुन्दुभिं तु पुरुषोत्तमघोषणाम् ।।६० ।।

 चिन्तयामास मूर्तिः सा जन्म लग्नं सुतं हरिम् । दुन्दुभीशं समपृच्छन्नत्वा नम्रा विधिं व्रते ।।६ १ ।।

 दुन्दुभिस्तु तदा प्राह मूर्तिं त्वेकादशीविधिम् । स्नात्वा ब्राह्मे मुहूर्ते च ध्यात्वा श्रीपुरुषोत्तमम् ।।६२।।

 सर्वोपचारैरन्यूनैः पूजयेत्परमेश्वरम् । मूर्तिं तु पौरटीं लक्ष्मीनारायणस्य शोभिताम् ।।६३ ।।

 सत्पात्रे पञ्चपात्रे वै निधाय सोपचारिकाम् । ततो व्रती जलपात्रं स्थापयेज्जलसद्धटम् ।।६४।।

 पञ्चामृतादि सन्न्यस्य पूजां मूर्तौ समाचरेत् । प्रथमं देहशुद्ध्यर्थं त्र्याचमनानि कल्पयेत् ।।६५ ।।

 ततः पूर्वे मुखं कृत्वा निषद्य च शुभासने । मूर्तावावाहयेत् कृष्णनारायणं समन्त्रकम् ।।६६ ।।

 घण्टां प्रवादयेदावाहनकाले शुभस्वराम् । आसनं पट्टिकां स्थालीं स्वर्णां दद्यात्तु शार्ङ्गिणे ।।६७।।

 पादप्रक्षालनार्थाय पाद्यं दद्याज्जलं शुभम् । ततस्तीर्थजलं दद्यादर्घ्यं पूजानिमित्तकम् ।।६८ ।।

 ततस्तीर्थजलमाचमनार्थं च ददेच्छुभम् । पुनश्चाऽथ प्रशुद्ध्यर्थं दद्याद् दर्भजलं शुभम् ।।६ ९।।

 ततो दन्तप्रशुद्ध्यर्थं दद्याद्वै दन्तधावनम् । जिह्वोल्लेखनकार्यार्थं दद्यात् स्वर्णशलाकिकाम् ।।७० ।।

 ततः शुद्धं जलं दद्याद् गण्डूषार्थे ततः पुनः । मुखप्रक्षालनार्थाय जलं दद्यात्पुनर्नवम् ।।७ १ ।।

 अथ शौचं प्रकल्प्यैव दद्याज्जलघटं तथा । मृदं वापि प्रदद्याच्च करादिशुद्धिहेतवे ।।७२।।

 जलं शुद्धं तथा दद्याद्धस्तप्रक्षालनाय वै । ततः शुद्धं जलं दद्यान्मुखादिक्षालनाय च ।।।७३ ।।

 स्वर्णासनं शुभं दद्यात् स्नानार्थं पट्टिकात्मकम् । तैलेन तु सुगन्धेन मर्दयेत्परमेश्वरम् ।।७४।।

 आमलकैस्तिलचूर्णैस्तथा संमर्दयेद्धरिम् । तत उष्णोदकेनापि स्नापयेत्पुरुषोत्तमम् ।।७५।।

 ततो दुग्धेन दध्ना च घृतेन मधुना तथा । स्नापयेच्छर्करा वार्भिः समृद्य पुरुषोत्तमम् ।।७६ ।।

 ततः शुद्धजलैरुष्णैः स्नापयेत्परमेश्वरम् । ततो नैर्मल्यकारिण्या प्रोष्णोदकेन मिश्रया ।।७७।।

 हरिं गूटिकयाऽऽमृद्य स्नापयेदभिषेचनम् । कस्तूरिकाचन्दनादिपुष्पसारादि लेपयेत् ।।७८ ।।

 वस्त्रेण मार्जयेत् कृष्णं धौत्राम्बराणि धारयेत् । केशप्रसाधनं तैलं दत्वा कुर्याच्च दन्तकैः ।।७९ ।।

 ललाटे तिलकं चन्द्रं कुर्याच्चन्दनकुंकुमैः । नेत्रयोः कज्जलं दद्यादोष्ठयोः रंगरञ्जनम् ।।८० ।।

 हस्तपादतलादीनि रञ्जयेद् रंगसुद्रवैः । स्वर्णकिरीटसद्रत्नमालिकाकुण्डलादिकम् ।।८ १ ।।

 मणिमौक्तिकहारादि रशनाकंकणादिकम् । ऊर्मिकाशृंखलासत्किंकिणीनुपूरकादिकम् ।।८ २।।

 आभूषणानि सर्वाणि यथास्थानं प्रधारयेत् । पादयोः पादुके दद्याद्धस्तयोर्यष्टिमालिके ।।८३ ।।

 कण्ठे सत्पुष्पहाराँश्च तुलसीपत्रमालिकाम् । पुष्पाणां शेखरान् गुच्छानर्पयेत्परमादरात् ।।८४।।

 पवित्रं त्वर्पयेद् यज्ञोपवीतं योगपट्टकम् । तुलसीमणिमालां च दद्यान्मंगलसूत्रकम् ।।८५।।

 कौस्तुभं च मणिं दद्यात् तथा रक्षां प्रकोष्ठके । नक्तकं हस्तके दद्यात् प्रोक्षयेद् गन्धसारकम् ।।८६।।

 राजाधिराजसद्वेषं शृंगारं कारयेत्परम् । छत्रं च चामरे दद्याद् व्यजनं वायुदं तथा ।।८७।।

 दर्पणं मुखलोकार्थं दद्यात् पर्यंकमित्यपि । गेन्दुकं प्रच्छदपटीं कशिपुं गुप्तदोरकम् ।।८८।।

 कपोलकशिपुं दद्यात् दंशमशकरोधिनीम् । धूपं सुगन्धं कृत्वा च दीपं प्रज्वालयेत्तथा ।।८९।।

 श्वेतचूर्णं रक्तचूर्णं कुंकुमं चाक्षतान् ददेत् । नैवेद्यं लड्डुकान् मिष्टं विविधान्नं सुपायसम् ।।९ ० ।।

 शाकानि चारनालानि दधि दुग्धं सशर्करम् । सूपौदनादिकं दद्यात् क्वथिकां चटनीं तथा ।।९ १ ।।

 भक्ष्यं भोज्यं लेह्यचोश्ये पेयं दद्याज्जलं तथा । चुलुकं कारयेत्ताम्बूलकं चूर्णं समर्पयेत् ।।९२।।

 एलालवंगधानात्वग्वरीयः पूगिकाफलम् । दद्याच्च फलमाम्रस्य जम्बूपनसकादलम् ।।९३ ।।

 द्राक्षाश्रीफलदाडीम नवरंगादिकं ददेत् । शुष्कफलान्यपि दद्याद् बदामकाजुखारिकाः ।।९४।।

 एवं समर्पणं कृत्वा हरिं सन्तर्प्य भावतः । कदलीस्तम्भवशादिकृते वस्त्रादिशोभिते ।।९५।।

 अशोकाऽऽम्रदलपुष्पफलतोरणराजिते । मण्डपे मध्यदेशे वै सप्तधान्यैः कृते शुभे ।।९६।।

 सर्वतोभद्रके तत्र मण्डले मध्यवर्तिनि । सुवर्णस्य घटे ताम्रे तीर्थवारिप्रपूरिते ।।९७।।

 मणिमौक्तिकसौवर्णरूप्यताम्रादिकान्विते । वस्त्रेण वेष्टिते चाम्राशोकादिपल्लवान्विते ।।९८।।

 सुशोभितेऽक्षतचन्दनाक्तकुंकुमपूजिते । तत्र घटे स्थापिता या स्थाली ताम्रा च कानकी ।।९९।।

 खारिकाम्रफलैः पूगीश्रीफलैः शर्करातिलैः । पूरितायां तु तस्यां वै स्थापयेत् पुरुषोत्तमम् ।। १० ०।।

 नीराजयेन्नववारं घृताक्तपञ्चवर्तिभिः । वस्त्रं च भ्रामयेत् पश्चाच्छंखोदकेन वर्तयेत् ।। १० १।।

 धूपं संभ्रामयेच्चापि स्तुतिं कुर्याद् यथेष्टदाम् । नमेच्च दण्डवत् कुर्यात् पञ्चवारं प्रदक्षिणम् ।। १ ०२।।

 क्षमां याचेत चार्घ्य वै सफलं पुनरर्पयेत् । पुष्पांजलिं साक्षतं वै दद्याच्छ्रीहरये ततः ।। १ ०३।।

 दक्षिणां कानकीं मुद्रां राजतं चाप्युपायनम् । इष्टं वस्तु प्रदद्याच्च हरये त्वभिवाञ्च्छितम् ।। १ ०४।।

 आन्दोलय्रेच्च दोलायां पर्यंके शयनं ददेत् । पादसंवाहनं कुर्याद् ददेद् यानं सवाहनम् ।। १०५।।

 नृत्यं कुर्यात् तथा गीतं वादित्रं वादयेत् तथा । चरणामृतदानं च भक्तेभ्यस्तत्र वर्तयेत् ।। १०६ ।।

 अथापि जलपानं च कारयेत्पुनरादरात् । ताम्बूलकं पुनर्दद्यादेलालवंगकादिकम् ।। १ ०७।।

 मिलेत् संश्लिष्य बाहुभ्यां समापीड्य हरिं मुदा । प्रस्थापयेत् ततो देवं दूरं गत्वा विसर्जयेत् ।। १ ०८।।

 आगन्तव्यमिति ब्रूयान्नत्वा त्वायात्पुनर्गृहम् । इत्यष्टोत्तरशतकोपचारैः परमेश्वरम् ।। १ ०९।।

 पूजयेद्बहुभक्त्यैकादश्यां प्रातर्व्रती जनः । यदि सम्पदधिका स्याद्धोमयज्ञादि कारयेत् ।। ११ ०।।

 द्वादश्यां भोजयेद्विप्रान् सतीः साध्वी सतो जनान् । ततः स्वः पारणा कुर्यात् संभोज्याश्रितवर्गकान् ।। ११ १।।

 दद्याच्छ्रेष्ठानि दानानि भजेत श्रीहरिं मुदा । एवं मध्याह्नके कुर्यात् सायं कुर्यात्तथैव ह ।। ११ २।।

 रात्रौ जागरणं कुर्यान्नृत्यगीतपुरःसरम् । कीर्तनं श्रीहरेः कुर्यान्निरुन्ध्यादिन्द्रियाणि च ।। १ १३।।

 एवं त्वधिकमासस्यैकादशीव्रतमत्र यः। कुर्यात् तेन कृतं सर्वं कर्तव्यं नावशिष्यते ।। १ १४।।

 अधिमासश्चातिपुण्यः पुण्याः त्वेकादशी तिथिः । तद्देवः पावनश्चाहं किं तस्मादतिरिच्यते ।। १ १५।।

 अधिमासो मम शाला वसामि पुरुषोत्तमः । एकादशी मदुत्पन्ना किं तस्मादतिरिच्यते ।। १ १६।।

 एतत् त्रिकं महापुण्यं सर्वेभ्यः श्रेष्ठतां गतम् । तत्रापि मत्कृपा प्राप्ता किमस्मादतिरिच्यते ।। १ १७।।

 तस्मादष्टोत्तरशतवस्तुभिर्मां प्रपूज्य च । गृह्णन्तु भवपारं वा गृह्णन्तु भवसाम्यताम् ।। १ १८।।

 मूर्ते त्वं चाद्य दिवसे तथाविधि कुरु व्रतम् । येन ते दास्यते कृष्णो दुन्दुभ्यात्मा यथेप्सितम् ।। १ १९।।

 मूर्तिः प्राह तदा ह्येनं दुन्दुभिं विनयेन वै । न मदग्रेऽस्ति सामग्र्यः प्रच्छन्नाऽहं वसामि च ।। १२० ।।

 कथंकारं त्वदुक्तं वै पूजनं तु मया भवेत् । इच्छाम्यहं शुभं जन्म विवाहं च सुतं हरिम् ।। १२१ ।।

 दुर्लभं तद्विना पूजा तादृशी स्यान्न चेप्सितम् । इत्युक्त्वा भग्नहृदया साश्रुकण्ठा बभूव सा ।। १ २२।।

 एकादश्या व्रतं कार्यमिति संकल्प्य शोचति । स्मृत्वा नारायणं कृष्णं बाला त्वश्रूणि मुञ्चति ।। १२३।।

 तावत् कृपानिधिस्तत्र हरिर्नारायणः स्वयम् । कृपां कृत्वा दुन्दुभेरग्रतः सुप्रकटोऽभवत् ।। १ २४।।

 प्रमार्ज्याऽश्रूणि कन्यायाः प्राह मातर्नमाम्यहम् । शोकं मा कुरु पूज्यासि यथेष्टं प्रददाम्यहम् ।। १ २५।।

 भावेनास्मि सदा तुष्टो नाऽभावे तु कदाचन । तव भावेन सन्तुष्टो ददामि वृणु तद्वरम् ।। १ २६।।

 अर्च्यते भावहीनेन सहस्रवस्तुभिर्यदि । न सन्तुष्टो भवाम्यत्र भावहीनेऽर्थसाधके ।। १२७।।

 पत्रपुष्पजलैश्चापि भावभक्त्या मदर्चनम् । मम सन्तोषकृत् तत्स्याद् भावस्य क्षुधितोऽस्म्यहम् ।। १२८।।

 अष्टोत्तरशतसंख्योपचारैरपि हार्दिकैः । मातः सम्पूजय त्वं मां ध्यानमात्रेण चान्तरे ।। १ २९।।

 मानसं पूजनं तेऽहं स्वीकरिष्येऽतिभावतः । फलं यथेष्टं ते दास्ये ह्यद्यतनव्रतस्य वै ।। १ ३ ०।।

 इत्युक्त्वा श्रीकृष्णनारायणः श्रीपुरुषोत्तमः । ननाम पादयोर्मूर्तेर्मातृभावेन पुत्रवत्। ।। १३१ ।।

 माता शोकं विहायैव प्रसन्नाऽभूत् हृदन्तरे । प्रोवाच शनकैः कृष्ण जन्म चेच्छामि लौकिकम् ।। १३ २।।

 धर्मेण पतिना साकं लग्नमिच्छामि वैदिकम् । अंके लालयितुं पुत्रं सुतं चेच्छाम्यलौकिकम् ।। १३३ ।।

 अलौकिकस्त्वमेवासि वक्तुं नोत्सहते मनः । निवेदितं हृदय्य मे यथेच्छसि तथा कुरु ।। १ ३४।।

 इत्यादिष्टो हरिः स्वाभिलषितं प्रियमुत्तमम् । मूर्तेर्मुखात्समाकर्ण्य जहर्ष भाविजन्मधृक् ।। १ ३५ ।।

 उवाचाऽतिप्रसन्नः सन् सर्वं मातर्भविष्यति । इष्टं सर्वं करिष्येऽहं ददामि वचनं तु ते ।। १३६ ।।

 गच्छ दक्षगृहं मूर्ते धर्ममापृच्छ्य सत्पतिम् । भव पुत्री तु दक्षस्य स ते धर्माय दास्यति ।। १ ३७।।

 अहं बालस्वरूपेण सह भ्रात्रा त्वदंकके । ग्रहीष्यामि जनु मातः श्वो याहि त्वं व्रतोत्तरम् ।। १३८ ।।

 मानसी त्वं हि दक्षस्य पुत्री वै भाविनी ततः । धर्मो विवाह्य मातस्त्वां हिमशैले निवत्स्यति ।। १३ ९।।

 अहं ते मानसस्तत्र चतुरात्मा सुतः स्वयम् । नरो नारायणश्चेति हरिः कृष्णश्च ते गृहे ।। १४० ।।

 रमिष्ये सुखदो ब्रह्मव्रतं संधारयन् सदा । लोककल्याणसंकल्पं पूरयस्तव सन्निधौ ।। १४१ ।।

 इत्युक्त्वा च पुनर्नत्वा तिरोऽभूत्पुरुषोत्तमः । मूर्तिश्चापि व्रतं कृत्वाऽर्चनं तत्र च मानसम् ।। १ ४२।।

 द्वादश्यां पारणं कृत्वा प्रातः कृत्वाऽर्चनं हृदि । धर्मदेवस्य संगृह्य शुभाज्ञां दक्षसद्ग्रहम् ।। १४३ ।।

 ययौ जज्ञे च संकल्पादसिक्न्यां मानसी सुता । श्रद्धामैत्र्यादिकाश्चान्या द्वादशापि प्रजज्ञिरे ।। १४४।।

 त्रयोदशापि दक्षेण दत्ता धर्माय पुत्रिकाः । मूर्तेर्जाता नरो नारायणः कृष्णो हरिस्तथा ।। १४५।।

 लोकानां रक्षणार्थाय कुर्वन्तस्तप उत्तमम् । इति ते कथितं लक्ष्मि मासे वै पुरुषोत्तमे ।। १४६ ।।

 व्रतसंकल्पमात्रेण पूर्णं व्रतफलं भवेत् । किं पुनः सांगविधिना कर्तुः फलेऽवशिष्यते ।। १४७।।

 तस्मादेकादशीतुल्यं व्रतं नान्यद् भविष्यति । शाश्वताऽक्षयसत्पुण्यप्रदं मोक्षप्रदं तथा ।। १४८ ।।

 यथालब्धोपचारैस्तु प्रातः संकल्प्य पूजनम् । व्रतं चापि करिष्यन्ति तेषां गृहेष्वहं सदा ।। १४९।।

 वत्स्याम्येव न सन्देहस्तद्भक्त्या वश्यतां गतः । सुखयिष्ये सुतो भूत्वा व्रतिनौ दम्पती कुलम् ।। १५०।।

 

इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये धर्मदेवस्य भाव्यंगनया मूर्त्याधिमासैकादश्यामष्टोत्तरशतमानसोपचारैर्नारायणपूजन व्रते कृते सति मूर्तेर्दक्षगृहे जन्म धर्मेण सह विवाहस्ततो हिमालये नरो नारायणः कृष्णो हरिश्चेति- पुत्रचतुष्टयफललाभश्चेत्यादिनिरूपणनामा त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३०३ ।।

 

पुरुषोत्तम मास की पूर्वा एकादशी के माहात्म्य की एक अन्य कथा भी लक्ष्मीनारायण संहिता में प्रकट हुई है जिसका नाम धामदा एकादशी है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है – पुण्डरीक नाम के राजा की पतिव्रता पत्नी का नाम कुमुद्वती था। एक बार ज्वरग्रस्त होने पर कुमुद्वती ने उद्यान से फल तोडकर अपने पति को समर्पित किए बिना खा लिया जिससे उसके ज्वर में और वृद्धि हो गई। राजा पुण्डरीक को पता लगा तो उसने धामदा एकादशी व्रत को समाप्त करके रानी का कुशल – क्षेम पूछा। रानी के प्राण अटके हुए थे। राजा ने धामदा एकादशी के अपने पुण्य के फल को रानी को अर्पित किया जिससे रानी के प्राण छूट गए। रानी पहले तो विमान में बैठकर वैकुण्ठलोक को गई और वहां से दूसरे विमान में बैठकर अक्षर लोक को गई।

विवेचना

लोकभाषा में पुण्डरीक कमल को कहते हैं। योग की भाषा में, पुण्डरीक का निर्माण उदान प्राण से, हमारी चेतना की अतिरिक्त शक्ति से होता है। यह देह में अलंकारों का रूप लेता है – मुख पर तेज, चक्रवर्तियों के 32 लक्षण आदि। जब भोजन कर लिया जाता है तो यह उदान प्राण अपान प्राण में बदल कर भोजन को पचने की सामर्थ्य देता है। अतः उदान प्राण स्थिर, अक्षर नहीं है। इसको अक्षर बनाने की आवश्यकता है जो धामदा एकादशी के माध्यम से सूचित किया गया है। 

 

 

श्रीलक्ष्मीरुवाच-

 श्रोतॄणां परमं श्राव्यं पवित्राणामनुत्तमम् । दुःस्वप्ननाशक दिव्यं श्रोतव्यं यत्नतो मया ।। १ ।।

 मासानां परमो मासः पुरुषोत्तमसंज्ञकः । यस्य देवः स्वयं साक्षात्पुरुषोत्तम एव वै ।। २ ।।

 स्वर्गीया निर्जराः सर्वे भूतले जन्म लिप्सवः । तमर्चयन्ति पुरुषं तूत्तमं तु नरायणम् ।। ३ ।।

 ये जपन्ति सदा भक्त्या देवं नारायणं प्रभुम् । तानर्चयन्ति सततं ब्रह्माद्या देवतागणाः ।। ४ ।।

 तस्य ते देवदेवस्य मासस्य पुरुषोत्तम । शुक्लपक्षैकादशी किंनाम्नी भवति मे वद ।। ५ ।।

 को विधिः किं फलं दानं को देवो वद मे प्रभो । यद्व्रतं मनुजः कृत्वा प्राप्नुयात्स्वर्गमक्षरम् ।। ६ ।।

 श्रीनारायण उवाच-

 पुरुषोत्तममासस्य शुक्लपक्षे तु धामदा । भवत्येकादशी नाम्ना यद्व्रतं ब्रह्मधामदम् ।। ७ ।।

 विधिर्ब्रह्ममयश्चात्र फलं ब्रह्ममयं स्मृतम् । ब्रह्मधामेश्वरः कृष्णनारायणः पतिर्मतः ।। ८ ।।

 अक्षरातीत एवायं भगवान्पुरुषोत्तमः । अक्षरया स्वपत्न्या तु सहितो धामदायुतः ।। ९ ।।

 पूजनीयो मुक्तलताकुसुमैश्चामृतैः फलैः । दानमुपनिषद्विद्याश्च वै मोक्षदानकम् ।। १० ।।

 दीक्षादानं ब्रह्मदानं वेददानं निजार्पणम् । सर्वस्वार्पणमेवाऽत्र दानानामुत्तमं मतम् ।। ११ ।।

 भगवद्धामदानाग्रे दानमन्यत् समल्पकम् । धामप्राप्तिकरं दानं श्रेष्ठं दानं मतं प्रिये ।। १ २ ।।

 दशम्यामेकभुक्तः स्याद् भूशायी ब्रह्मचर्यवान् । प्रातरुत्थाय संध्यायेदक्षरां पुरुषोत्तमम् ।। १३ ।।

 धामदां चापि संस्मृत्य कुर्यात्स्नानं यथाविधि । नैत्यकं पूजनं कृत्वा महापूजां समाचरेत् ।। १४।।

 मण्डपं कारयेद् रम्यं सर्वतोभद्रमण्डलम् । कारयेच्चाऽव्रणं कुंभं रत्नगर्भं सकांचनम् ।। १५।।

 वस्त्रवारिफलयुक्तं स्थापयेन्मण्डले ततः । विशालं ताम्रजं पात्रं कुंभोपरि निधापयेत् ।। १६ ।।

 कमलं द्वादशपत्रं कुंकुमैस्तत्र दर्शयेत् । तत्रार्चयेदक्षरया सहितं पुरुषोत्तमम् ।। १७।।

 तथा कमलयोपेतं स्थापयित्वा यथाविधि । उपचारैः षोडशभिर्महापूजां समाचरेत् ।। १८।।

 दिव्यं दिव्यमहामुक्तैः सेवितं च प्रभादिभिः । राधालक्ष्म्यादिभिर्युक्तं ध्यायामि सुन्दरं वरम् ।। १९ ।।

 भक्तकृपाकरं कृष्णं मनसाऽऽवाहयाम्यहम् । स्वर्णसिंहासने कृष्ण निषीद पुरुषोत्तम ।। २० ।।

 गंगोदकं जलं पाद्यं गृहाणाऽक्षरया सह । गन्धपुष्पादिसंयुक्तं जलमर्घ्यं गृहाण वै ।। २ १ ।।

 गालितं तीर्थसलिलं गृह्णीष्वाचमनीयकम् । दुग्धं दधि घृतं क्षौद्रं शर्करां च जनार्दन ।। २ २।।

 पंचामृतं स्नपनार्थं कृपया प्रतिगृह्यताम् । वारिधेः सरिता तोयं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ।। २ ३ ।।

 धौत्रं प्रावरणं कंचुकादिकं प्रतिगृह्यताम् । शाटीं घर्घरिकां कंचुक्यादिकं प्रगृहाण वै ।। २४।।

 पट्टसूत्रं ब्रह्मसूत्रं गृहाण पुरुषोत्तम । केयूरं कटकेंऽगुलीयकं मुकुटनूपुरे ।। २५।।

 रशनां तन्तिकां नत्थीं झंझिरैराणि गृह्यताम् । रत्नं स्वर्णं पुष्पहारान् शृंगारादि प्रगृह्यताम् ।। २६ ।।

 कस्तूर्यगुरुकर्पूरैश्चन्दनैर्लेपनं कुरु । कदम्बं चम्पकं पद्मं कुन्दं जातीं च गृह्यताम् ।। २७।।

 धूपं सुगन्धदं नारायण गृहाण भावतः । दीपं घृतकृतं रम्यं गृहाण पुरुषोत्तम ।। २८ ।।

 कुंकुमाबीरगूलाल कज्जलात्तरमावह । आरार्त्रिकं सुप्रकाशं गृहाण पुरुषोत्तम ।। २९ ।।

 अन्नं च पायसं शष्कुल्यादि गोघृतपोलिकाः । दधि दुग्धं घृतं मिष्टं गृहाण कमलापते ।। ३ ०।।

 जलं तैर्थ्यं सुगन्धाढ्यं शीतलं पिब माधव । पूग्येलाखदिराढ्यं तु ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ।।३ १।।

 कदलाऽम्राऽमृतदाडिमश्रीफलं प्रगृह्यताम् । दक्षिणां कांचनीं कृष्ण गृहाण हीरकादिकम् ।।३२।।

 अंजलिस्थानि पुष्पाणि ह्यक्षताँश्च गृहाण वै । नमस्ते कमलाकान्त नमोऽक्षराधिनायक ।।३३।।

 करोमि दण्डवत् त्वक्षरेश स्वामिन् गृहाण च । त्वां विना शरणं नान्यस्त्वमेव शरणं मम ।।३४।।

 व्रतं पूर्णं कुरु श्रीश रक्ष मामक्षरेश्वर । अन्न वस्त्रं सुवर्णं च शाकं शय्यां घृतादिकम् ।।३५।।

 अर्पयामि हरेर्बुद्ध्या द्विजायैतद् गृहाण वै । इति संपूज्य सद्भक्त्या दिवाशेषं नयेद् व्रती ।।३६।।।

 दानं दद्याद् यथाशक्ति कुर्वीताऽवश्यकीं क्रियाम् । मध्याह्नेऽपि सुमिष्टान्नं नैवेद्यं च जलादिकम् ।।३७।।

 सायं चापि महापूजां कारयेद् बहुवस्तुभिः । कुर्यान्नीराजनं त्वाज्यपञ्चवर्तिसमन्वितम् ।।३८।।

 नैवेद्यं जलपानं च ताम्बूलं पादमर्दनम् । दत्वा कृत्वा कीर्तनैश्च रात्रौ जागरणं चरेत् ।।३९।।

 हर्यालयं जागरार्थं सतां वा तु मठं प्रति । गच्छतोऽस्त्यश्वमेधस्य फलं पुंसः पदे पदे ।।४०।।

 प्रातः स्नात्वा पुनः पूजां नित्यां नैमित्तिकीं तथा । कुर्याच्च भोजयेद् देवं ततो भक्ताँस्तु भोजयेत् ।।४१।।

 गुरवे स्वर्णमूर्तीनां दानं कुर्यात् व्रती ततः । बहूनि त्वन्यदानानि कुर्याच्चाभिमतानि वै ।।४२।।

 साधूँश्च वैष्णवान् साध्वीर्भोजयेन्मृष्टभोजनम् । हविष्यान्नेन कुर्वीत पारणा च ततो व्रती ।।४३।।

 दिवानिद्रां परान्नं च पुनर्भोजनमैथुने । द्वादश्यां वर्जयेत् तैलं तामसं चापि भोजनम् ।।४४।।

 पारणाहे तु लभ्येत स्वल्पापि द्वादशी यदि । तत्रैव पारणा कुर्यान्न तामुल्लंघयेद् व्रती ।।।।४५।।

 द्वादश्याः प्रथमः पादो हरेर्वासर उच्यते । तत्र नैव हि भोक्तव्यं पुण्यास्याऽक्षयमिच्छता ।।४६ ।।

 एवं धामप्रदायाश्च व्रतं कार्यं विधानतः । विमानेन च तं भक्तं ह्यन्ते धाम नयेत् प्रभुः ।।४७।।

 शृणु लक्ष्मि! पुरा जातं वृत्तान्तं धामदाव्रते । आसीत् कृतयुगे राजा पुण्डरीकसमाह्वयः ।।४८।।

   विष्णुभक्तश्चक्रवर्ती सर्वत्र समदर्शनः । साधुवत्सर्वथा देहे दैहिके निष्परिग्रहः ।।४९।।

 अर्धं दिनं तु पूजायां शेषं न्यायप्रदापने । यापयति व्रताहे तु पूजामात्रं करोति वै ।।५० ।।

 राज्ञी कुमुद्वती नाम्नी तस्य त्वासीत्पतिव्रता । पत्याज्ञामेव शास्त्राज्ञां मत्वा संसेवते पतिम् ।।५१ ।।

 अपृष्ट्वा स्वपतिं किंचिन्नैव करोति मानसम् । एकदाऽऽसीत्पुण्डरीको धामदाव्रतपूजने ।।५२।।

 राज्ञी ज्वराऽभिभूताऽऽसीदन्तःपुराधिवासिनी । सायं स्वास्थ्यप्ररक्षार्थं विना पृष्ट्वा तु तत्पतिम् ।।।५३।।

 दासीभिः सह वाटिकायामुद्यानं प्रजगाम सा । क्षुधया चानुकूलं तु ज्वरानुत्तेजकं फलम् ।।५४।।

 नवरंगं गृहीत्वा तद्रसं पपौ पतिव्रता । पतिं त्वपाययित्वाऽसौ पपौ पतिव्रता यतः ।।५५।।

 पातिव्रत्येऽभवद्भंगो ज्वरश्चातिव्यवर्धत । तृषया च जलं पीत्वा रात्रौ तत्रैव संस्थिता ।।५६।।

 प्रातः पत्युर्नित्यसेवा न जाताऽद्य दिने तथा । प्रातर्भर्तुर्मुखदर्शनं न जातं तथा परम् ।।५७।।

 पत्यंगुष्ठजलपानं प्राप्तं नैव च नैव च । पारवश्यं गता रुग्णा पातिव्रत्यं क्षतिं गतम् ।।५८।।

 ज्वरश्चातिप्रबलोऽभूद् वर्ष्म शुष्कायितं तदा । पातिव्रत्यस्य भंगेन राज्ञी त्वपुण्यभागिनी ।।५९।।

 मरणस्योन्मुखी जाता पीड्यतेऽतीव शोषिता । दुरिताच्च कुमुद्वत्याः प्राणाः प्रयान्ति नैव च ।।६० ।।

 पुण्डरीकश्च शुश्राव राज्ञ्या आमयमित्यपि । व्रते पूर्णे समागत्य सेवां तस्याश्चकार ह ।।६ १ ।।

 आयुष्यं पूर्णतां यातं प्राणा निर्यान्ति नैव च । तदा राज्ञा जलं दत्वा धामदाफलमर्पितम् ।।६२।।।

 शीघ्रं प्राणास्तु निर्याता विमानं दिव्यमागतम् । विष्णुना च तथा लक्ष्म्या पार्षदैश्च सुशोभितम् ।।६३।।

 अक्षरासहितश्रीमत्पुरुषोत्तमशोभितम् । द्वितीयं च विमानं त्वागतमक्षरधामदम् ।।६४।।

 प्रथमं विष्णुना नीता विमाने सा रमायुते । वैकुण्ठं प्रापिता पश्चादारूढाऽन्यविमानके ।।६५।।

 अक्षरं धाम नीता श्रीपुरुषोत्तमधामिना । एवं वै धामदायाः सा पुण्यलाभेन धामगा ।।६६।।

 अभवच्च किमु तर्हि धामदाव्रतिनः पुनः । तस्माद्धामप्रदायास्तु व्रतं कार्यं विशेषतः ।।६७।।

 पुरुषोत्तममासस्य शुक्लैकादशिका व्रतम् । परं धामप्रदं मोक्षप्रदं सम्पत्प्रदं तथा ।।६८ ।।

 श्रुत्वा चापि पठित्वापि व्रततुल्यं फलं भवेत् । सकामानां महास्मृद्धपारमैष्ठ्यादि संभवेत् ।।६९।।

 यथाबलं प्रकर्तव्यं तदिदं शुभकांक्षिणा । अक्षरा धामदा चास्मै भुक्तिं मुक्तिं प्रदास्यति ।।७० ।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासस्य शुक्लधामदैकादशीव्रतमाहात्म्यं पुण्डरीकनृपस्य कुमुद्वतीपत्न्याः किंचित्पतिसेवालाभशून्याया अपि व्रतेनाऽक्षरधामप्राप्तिरित्यादिनिरूपणनामा चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। २६४।।