पुरुषोत्तम मास मध्य पूर्णिमा(2-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास की मध्य पूर्णिमा का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है – कृत युग में धर्म व भक्ति की दो पुत्रियां हुई – प्रेयसी व श्रेयसी। दोनों माता – पिता की सेवा करती थी। प्रातः स्नान करके माता – पिता के पादों में नमन करती थी। माता  - पिता के स्नानादि के लिए जल देती थी, स्नान के पश्चात् धारण के लिए वस्त्र देती थी,चन्दन, अक्षत, पुष्प, कुंकुम आदि से पूजती थी, मिष्ट नैवेदय, फ, ताम्बूल जल समर्पित करके, शरीर दबाकर माता पिता का जो भी अभीष्ट था, वह सब करती थी। शयन, आस्तरण, पात्रों का मांजना, गृह का मार्जन, वस्त्रों का प्रक्षालन, अन्नपाचन, जलाहरण, कामधेनुओं का दोहन, अन्नों का शोधन, पूजा पुष्पों का लाना, कृष्णनारायण मन्त्र का जप, देवपूजा, पितृसंतर्पण, भूतयज्ञ, अतिथिपूजन, दान, ज्ञान, आत्मबोध, ब्रह्मविज्ञान आदि सभी गृहकार्य करती थी। वह दोनों माता पिता के आशीर्वाद की पात्र बन गई। उनमें प्रेयसी अपनी देह के कष्ट को भूलकर सर्वस्व भोग प्रदान करती थी,

अतः वह प्रेयसी या भुक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुई। दूसरी कन्या माता – पिता का सदा श्रेय करती थी, दुःखीजनों को मोक्ष समान सुख पहुंचाती थी, अतः वह श्रेयसी मुक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुई। यदि पुत्रहीन माता – पिता के लिए पुत्री तोषदायक हो तो वह पुत्र समान है। वह दायभाग में अधिकारिणी है। उसके द्वारा दिया गया जल व अन्न दान पितरों को पहुंचता है। जिसके पुत्र नहीं हैं, पुत्री उनकी क्रिया करे। यश, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण आदि पुत्री सब करे, उपवीत धारण करे। पितरों की सेवा तक वह ब्रह्मचर्य धारण करे।

पुत्र हो जाने पर अथवा पिता की आज्ञा से वह ब्रह्मचर्य समाप्त कर विवाह कर ले। ब्रह्मचर्य में स्थित होते हुए रजस्वलादि जो दोष हैं, वह ब्रह्मचर्य के तप की प्रबलता से दूषित नहीं करते। चार दिन तक अशुद्धि का पालन करना है। लेकिन उसके लिए वृषली दोष या अन्य दोष नहीं होता। ब्रह्मचर्य की अग्नि से देह का सारा दोष भस्म हो जाता है। प्रातःकाल वह कन्याएं सत्यलोक में स्वर्नदी में स्नान करने के लिए आई तो उन्होंने दुन्दुभि को सुना कि अधिक मास की मध्य तिथि को व्रत करने से पुरुषोत्तम का सान्निध्य, रूप, ऐश्वर्य, साम्य, राज्य, लोक प्राप्त होता है। मेरा भाव, मेरा तेज, मेरा सिंहासन, मेरी व्यापकता, मदात्मकता, तादात्म्य प्राप्त होता है। कुमारियों ने स्वर्ण मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा – अर्चना की और प्रार्थना की हमारा कुमारीत्व ब्रह्मधाम के योग्य सदा बना रहे, दिव्यावस्था से शोभित मुक्तत्व, ब्रह्मचर्य, ब्रह्मरूप सदा बना रहे, ब्रह्म परमेश्वर ही हमारा रक्षक हो। कृष्ण हमारा हाथ पकड कर अक्षर धाम में शीघ्र ले जाएं। तब कृष्ण ने दिव्य युवक का रूप धारण करके गजपृष्ठ पर आरूढ होकर दर्शन दिया और कहा कि मैं तुम्हें अक्षर धाम ले जाऊंगा। उन दोनों ने मध्याह्न में तथा फिर रात्रि में भी वैसे ही पूजा की। रात्रि में हरि प्रकट हुए। माता पिताने पुत्रीद्वय को अपने धाम ले जाने की आज्ञा दी। धर्म व भक्ति की सेवार्थ कृष्ण ने उनके दो रूप करके एक पिता के गृह में रथ दिया।

विवेचन

जैसा कि सर्वविदित है, पूर्णिमा तिथि को आकाश में पूर्ण चन्द्रमा का दर्शन करके ही भोजन किया जाता है। चन्द्रमा मन का प्रतीक है। जितना मन अचेतन मन के रूप में देह में निहित रहेगा, बाहरी चन्द्रमा उतना ही अपूर्ण दिखाई देगा। अतः यह कहा जा सकता है कि जब हमारी देह में हमारा अचेतन मन अचेतनता से पूरी तरह मुक्त होकर चेतन मन का रूप धारण कर ले, तब वह पूर्णिमा तिथि होगी। चेतन मन की पहचान यह होगी कि उसका वाक् पर नियन्त्रण होगा। जो मन सोचेगा, वही हो जाएगा। ऐसी स्थिति लाने के लिए तैयारी चतुर्दशी से ही चल रही थी। चतुर्दशी को सभी इन्द्रियों की श्री को, सर्वाधिक विकसित कोशिकाओं को सिर में एकत्रित कर लिया गया था। लक्ष्मी को, हमारे विभिन्न अंगों से निकलने वाले विचारों को मिलाकर एक बना लिया गया था जिसमें से पापयुक्त विचारों को हटा दिया गया था। अब पूर्णिमा तिथि को सारे शरीर में न सही, कम से कम सिर में जो मन विद्यमान है, वह तो अचेतनता से मुक्त बनाया ही जा सकता है। बाकी देह के लिए भुक्ति और मुक्ति उपाय किए जाएंगे।

     बाहर दिखाई देने वाले चन्द्रमा को साधना का फल भी कहा जा सकता है। जिन लोगों को किसी शोध में व्यस्त होने का अवसर मिला है, उनके लिए शोध में प्राप्त कोई सफलता चन्द्रमा के प्रकट होने जैसी है। मन के किसी छोटे से भाग ने अचेतन स्थिति से निकल कर चेतनता प्राप्त की है, यही शोध का फल है। भक्ति शोध रूपी तप है। आजकल तो छोटे – छोटे शोधों का लक्ष्य रखा जाता है। गुरुकुल प्रणाली में ऐसा नहीं था। उदाहरण के लिए, स्कन्द पुराण में एक कथा आती है कि एक बढई का लडका गुरु के पास गया। गुरु ने उससे कहा कि वर्षाकाल आने वाला है, मेरे लिए एक ऐसा घर बना दो जो न तो ढहे, न पुराना पडे। गुरु-पत्नी ने कहा कि मेरे लिए ऐसे वस्त्र बना दो जिनकी चमक कभी समाप्त न हो।  गुरु-पुत्र ने कहा कि मेरे लिए ऐसी पादुका बना दो जिनसे जल पर भी चल सकते हों, स्थल पर भी। गुरु-कन्या ने कहा कि घर के उपकरण उलूखल – मुसल आदि ऐसे बना दो जो कभी टूटें नहीं। रसोई के पात्र भी ऐसे बना दो जिनको मांजने की आवश्यकता न पडे। मुझे पाक विद्या भी सिखा दो जिससे अंगुलि आदि जलें नहीं। शिष्य को सबकी इच्छा पूरी करने के लिए हां कहना पडता है। और इन सब इच्छाओं की पूर्ति बिना दिव्य सिद्धियां प्राप्त किए नहीं हो सकती। उसके लिए तो पूर्णिमा के चन्द्रमा रूपी मन की आवश्यकता पडेगी ही।

     एक बार शोध रूपी तप से कोई सिद्धि प्राप्त हो जाए तो अगला प्रश्न यह उठता है कि उसका उपयोग अपने हित के लिए किया जाए या समाज के हित के लिए किया जाए। यदि अपने हित के लिए किया जाना है तो हरेक व्यक्ति के जीवन के अलग – अलग लक्ष्य होते हैं। एक गृहस्थ का लक्ष्य होगा कि वह एक महल खडा करे, उसे मान सम्मान मिले। एक साधु का लक्ष्य होगा कि उसे मोक्ष मिले। लक्ष्मीनारायण की कथा में इसे भुक्ति या प्रेयसी नाम दिया गया है। अर्थात् प्राप्त फल का भोग अपने हित के लिए कैसे किया जाना है। भागवत पुराण आदि में एक कथा आती है कि प्रियव्रत ने देखा कि सूर्य आधी पृथिवी पर तो उजाला करता है, आधी अंधकार में रहती है। कैसे इस पृथिवी को भी अमर्त्य बनाया जाए। उसने अपने रथ पर बैठकर पृथिवी के सात चक्कर लगाए। रथ के पहियों से पृथिवी सात समुद्रों व सात द्वीपों में बंट गई। इन सात द्वीपों के अलग – अलग अधिपति नियुक्त हो गए। प्रियव्रत की धारणा का उल्लेख यहां इसलिए किया जा रहा है क्योंकि प्रियव्रत का संकल्प प्रेयसी भुक्ति का सर्वश्रेष्ठ रूप है। हमें जो भी सिद्धि प्राप्त हो रही है, उसका उपयोग अपनी देह रूपी पृथिवी को अमर्त्य बनाने के लिए होना चाहिए। यहां यह ध्यान में रखना होगा कि पूर्णिमा के चन्द्रमा का विकास केवल सिर की श्री के कारण हुआ है, सारी देह की श्री के कारण नहीं। सारी देह को अभी भी पवित्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है।

     भक्ति व धर्म की दूसरी कन्या का नाम श्रेयसी या मुक्ति है। सार्वत्रिक रूप से, मुक्ति के चार प्रकारों का उल्लेख आता है – सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य व सायुज्य। यह भविष्य में अन्वेषणीय हैं। कृष्णो बुद्ध्या युतः सत्यो भुक्त्या मुक्त्याथ सात्वतः ९४

     दर्शपूर्ण मास याग में साधक को दस युग्मित उपकरण प्रदान किए जाते हैं जिनकी सहायता से उसे चन्द्रमा रूपी चेतन मन का निर्माण करना है - शम्या - कृष्णाजिन, उलूखल - मुसल, दृषद- उपल, शूर्प - अग्निहोत्रहवनी और स्फ्य - कपाल एक धान्य से भरी शकट दी जाती है जिसके धान्य को स्वच्छ करके उपरोक्त दस आयुधों की सहायता से चन्द्रमा का रूप देना है। इसके विस्तार के लिए पूर्णिमा पर टिप्पणी पठनीय है।

 

श्रीनारायण उवाच-

कृष्णो बुद्ध्या युतः सत्यो भुक्त्या मुक्त्याथ सात्वतः ९४

 शृणु लक्ष्मि! धर्मपत्न्या भक्तेः पुत्र्यो कथां शुभाम् । अधिमासे मध्यतिथौ जातां वै पावनोत्तमाम् ।। १ ।।

 आदौ कृते युगे भक्तेर्मानस्यौ द्वे कुमारिके । प्राविर्भूते सुते नाम्ना प्रेयसी श्रेयसी ह्युभे ।। २ ।।

 सेवेते पितरौ नित्यं यत्र तौ तत्र ते ह्युभौ । पितरौ ते परित्यज्य प्राणान् धर्तुं न शेकतुः ।। ३ ।।

 पितृसेवापरे नित्यं स्वकर्तव्यपरायणे । प्रातः स्नात्वा च ते पित्रोः पादयोर्नेमतुः सदा ।। ४ ।।

 पित्रोः स्नानादिविध्यर्थं ददतुश्च जलादिकम् । स्नापयित्वा च वस्त्राणि ददतुर्धारणाय ते ।। ५ ।।

 चन्दनाऽक्षतसुमनः कुंकुमाद्यैः पुपूजतुः । सुमिष्टमृष्टनैवेद्यं फलं ताम्बूलकं जलम् ।। ६ ।।

 समर्प्य चक्रतुश्चोभे वर्ष्मसंवाहनादिकम् । मातापित्रोर्यदिष्टं चक्रतुश्चान्यद्विहाय ते ।। ७ ।।

 शयनास्तरणाद्यं च पात्राणां मंजनं तथा । गृहस्य मार्जनं वस्त्रक्षालनं त्वन्नपाचनम् ।। ८ ।।

 जलस्याऽऽहरणं कामधेनूनां दोहनादिकम् । अन्नानां शोधनं पूजापुष्पाद्यानयनं तथा ।। ९ ।।

 कृष्णनारायणमन्त्रजपनं देवपूजनम् । पितृसन्तर्पणं भूतयज्ञं चातिथिपूजनम् ।। १ ०।।

 दानं ज्ञानं चात्मबोधं विज्ञानं ब्राह्ममित्यपि । एवं सर्वे गृहकार्ये पित्रोः सेवां मुहुस्तथा ।। १ १।।

 यथापेक्षं तथाऽन्यच्च चक्रतुश्च दिवानिशम् । तेनाऽऽशीर्वादपात्रे ते बभूवतुर्बहुप्रिये ।। १२।।

 यथा नाम तथा तत्र गुणा वासं प्रचक्रिरे । यथाबलं यथाशक्ति सर्वभावेन सुन्दरी ।। १ ३।।

 अनादृत्यैव देहं स्वं कष्टं यत्र दिवानिशम् । सर्वस्वभोगदानेन सेवया प्रेयसी सदा ।। १४।।

 अतिप्रिया ह्यतिप्रेमपात्रं पित्रोर्बभूव सा । प्रेयसी तेन सा भुक्तिरिति ख्यातिं जगाम सा ।। १५।।

 पित्रोः श्रेयः परेषां च श्रेयःकर्त्री सदाऽपरा । कन्यकाऽऽर्तिजनानां च विधूयाऽऽर्तीन् मुहुर्मुहुः ।। १६।।

 सुखं मोक्षसमं सम्यक् करोतीति सुकर्मभिः । श्रेयसी तेन सा मुक्तिरिति ख्यातिं ययावपि ।। १७।।

 प्रेयसीश्रेयसीपुत्र्यौ धर्मभक्त्योः कृपाकणात् । भुक्तिर्मुक्तिश्चेति दिव्ये नाम्नी दध्यतुरर्थवत् ।। १८।।

 ययोः पिता स्वयं धर्मो जननी भक्तिरैश्वरी । निधानं परमं दिव्यं किमाश्चर्यं तयोर्गुणे । । १९। ।

 पित्रोः पवित्रयोः सेवा कं न धत्ते गुणोत्तमम् । पितरौ तोषितौ येन तोषितस्तेन माधवः ।।२०। ।

 तोषिताश्च सुराः सर्वे तोषितं सकलं जगत् । अथाऽपुत्रवतोः पित्रोस्तोषदा स्यात् सुता यदि ।।२१।।

 सा वै पुत्रसमा प्रोक्ता पितरौ तारितौ तया । यया त्वत्र स्वकौ वृद्धौ पितरौ तोषितौ धिया ।।।२२।।।

 सास्ति पुत्रनिभा पुत्री दायभागाधिकारिणी । देहे यद्यपि कन्या सा हृदये सुत आत्मनि ।।२३ ।।

 सुतवत् सा सदा रक्ष्या तया स्वर्गे तयोर्ध्रुवम् । तया दत्तं जलं चान्नं दानं पित्रोः प्रयाति हि ।।२४।।

 यस्य सन्ति न वै पुत्राः पुत्री तस्य क्रियाश्चरेत् । यशं दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् ।।२५।।

 सर्वं कुर्याद् विधिं पुत्री धारयेदुपवीतकम् । तिष्ठेच्च ब्रह्मचर्ये सा यावत् पित्रोः प्रसेवनम् ।।२६।।

 जाते पुत्रेऽथवाऽऽदत्ते पश्चात् पित्राज्ञयाऽपि सा । ब्रह्मचर्यं प्रसमाप्य विधिना स्याद् विवाहिता ।।२७।।

 ब्रह्मचर्यस्थितौ जाते राजस्वल्याद्यशुद्धिके । ब्रह्मचर्यस्य तपसः प्राबल्येन न दूषणम् ।।२८।।

 अशुद्धिः पालनीया स्याद् यावद्दिनचतुष्टयम् । वार्षल्यं वान्यदोषो वा पापं वा नास्ति तत्कृते ।।२९।।।

 ब्रह्मचर्याग्निना सर्वं दैह्यं संयाति भस्मताम् । ब्रह्मचर्यसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति ।।३ ०।।

 कन्यां वा लग्नयुक्तां वा ह्यधवां वा धवान्विताम् । अयोगां वा सयोगां वा पावयेद् ब्रह्मचर्यकम् ।।३ १।।

 ब्रह्मचर्ये ब्रह्मभक्तिर्ब्रह्मव्रतं च यत्र वै । तत्र ब्रह्मातिरिक्तं वै भस्मसाद् याति वैशसम् ।।।३२।।

 बीजघ्नत्वं रजोघ्नत्वं ऋतुघ्नत्वादि दूषणम् । ब्रह्मचर्ये भूषणं तद् बीजादि मोक्षकृद्धि तत् ।।३३ ।।

 एवं ते कन्यके पित्रोः सेवां चक्रतुरादरात् ।। ब्रह्मचर्यस्थिते नित्यं धर्मभक्तिगृहे शुभे ।। ३४।।

 प्रातस्ते सत्यलोके वै स्वर्णद्यां स्नातुमागते । ताभ्यां तु दुन्दुभिः कृष्णनारायणस्य संश्रुतः ।। ३५।।

 धाम्नां धाम्न्यवताराणामवतारी पुमुत्तमः । अत्राधिके महामासे ददामि पुरुषोत्तमः ।। ३६।।

 मध्यतिथेर्व्रतकर्त्रेऽक्षरं धाम च सम्पदः । मत्सान्निध्यं मम रूपं मदैश्वर्यं ददामि च ।। ३७।।

 मम साम्यं मम राज्यं मम लोकं ददामि च । मम योगं मम शक्तिं दिव्यतां मे ददामि च ।।३८।।

 मदंकं मम मूर्तिं च मत्समख्यातिमित्यपि । मत्समा पूज्यतां चैव श्रेष्ठतां च ददामि वै ।।३९।।

 मद्भावं मम दिव्यत्वं मम तेजो ददामि च । मम सिंहासनं दिव्यं मद्वद् व्यापकतां तथा ।।४० ।।

 मदात्मकत्वं तादात्म्यं मध्याव्रते ददामि च । अहं पूर्णोऽर्धमासेऽत्र व्रतं पुष्टफलप्रदम् ।।४ १ ।।

 शाश्वतं सत्फलं दास्ये गृह्णन्तु चार्जयन्तु च । पुरुषोत्तममासोऽयं मम मासोऽस्ति चोत्तमः ।।४२।।

 तदेकदिनजं पुण्यं सर्वेभ्योऽप्यतिरिच्यते । अशाश्वतानि चान्यानि ह्येतत्पुण्यं तु शाश्वतम् ।।४३।।

 अहं वै शाश्वतो देवो मासोऽपि मम शाश्वतः । व्रतं च शाश्वतं मेऽस्ति पुण्यं गृह्णन्तु शाश्वतम् ।।४४।।

 माता सन्तोषिता येन भक्त्या संतोषितः पिता । मातापितृप्रसादेन फलं गृह्णन्तु शाश्वतम् ।।४५।।

 यथेष्टं कल्पयित्वैव कुर्वन्तु मध्यमाव्रतम् । पूरयिष्यामि संकल्पान् योग्यान् योग्येतरानपि ।।४६।।

 दुन्दुभिः श्रावयित्वैवं क्षणं मौनं दधार च । कन्यादत्तं पत्रपुष्पफलं त्वादाय निर्ययौ ।।४७।।

 कन्यके कृतसंकल्पे मध्यातिथेर्व्रताय वै । गत्वा गृहं च विधिवत् पूजयामासतुः प्रभुम् ।।४८।।

 सौवर्णी प्रतिमां कृष्णनारायणस्य शोभनाम् । कारयित्वाऽऽवाहनं चक्रतुः षोडशवस्तुभिः ।।४९।।

 क्रमेण पूजनं योग्यं प्रथमं पयआदिना । पञ्चामृतेन संस्नाप्य कारयामासतुस्ततः ।।५० ।।

 तीर्थोदकेन संस्नानं मार्जयामासतुस्ततः । वस्त्रेणाऽङ्गं  च धौत्रादि धारयामासतुस्ततः ।।५ १ ।।

 भूषयामासतुराभूषणैश्चन्दनकज्जलैः । शृंगारयामासतुश्च पुष्पहारादिभिस्ततः ।।५२।।

 शोभयामासतुः कृष्णनारायणं द्रवोत्तमैः । नुगन्धयामासतुश्च गन्धसारादिभिश्च ते ।।५३।।

 कुंकुमाऽक्षततुलसीपत्रादि शेखरादिकम् । अर्पयामासतुस्तस्मै पुरुषोत्तमरूपिणे ।।५४।।

 धूपं दीपं सुनैवेद्यं मिष्टान्नं पायसादिकम् । निवेदयामासतुश्च फलं ताम्बूलचूर्णकम् ।।।५५।।

 प्रदक्षिणां दण्डवच्च नमस्कारं क्षमापनम् । आरार्त्रिकं स्तुतिं पुष्पाञ्जलिं ददतुरादरात् ।।५६।।

 अर्घ्यं दत्वा च संकल्पं पुरुषोत्तमलब्धिकम् । विज्ञापयामासतुश्च हृदा प्रार्थनया मुहुः ।।५७।।

 कुमारीत्वं सदाकालं योग्यं वै ब्रह्मधामनि । मुक्तत्वं तत्र योग्यं वै दिव्यावस्थादिशोभितम् ।।५८।।

 ब्रह्मचर्यं ब्रह्मरूपं ब्रह्मैव परमेश्वरः । आवयोः रक्षकश्चाऽस्तु कृष्णनारायाणो हरिः ।।५९।।

 रक्षकः प्रेरको धाता विधाता धारको हि सः । पोषकः सहजो नाथः सर्वेश्वरेश्वरेश्वरः ।।६० ।।

 अक्षराधिपतिः कृष्णो ब्रह्मेशः पुरुषोत्तमः । नाथः पाता तं विनाऽन्यः कश्चित्पाताऽस्ति नाऽऽवयोः ।।६ १।।

 कृपानाथ क्रियानाथ यत्ननाथ फलप्रद । वर्ष्मनाथाऽऽत्मनोर्नाथ सर्वनाथाऽक्षरं नय ।।६२।।

 त्वं स्वो दासिके कृष्णनारायण हृदिस्थित । अन्तर्यामिन् व्रतपुण्यप्रदातर्हृदयंगम! ।।६३।।

 हृन्निवास हृदयज्ञ भावज्ञ पूरयाऽऽन्तरम् । करौ संगृह्य नौ कृष्ण शीघ्रं नयाऽक्षरं प्रभो ।।६४।।

 इति स्तुत्वा ददतुस्ते स्वक्षतान् मूर्तये यदा । तावत्तत्र दयालुः स आविर्बभूव सुन्दरः ।।६५।।

 किशोरो दिव्यरूपश्च कृष्णनारायणो हरिः । गजपृष्ठे स्थितो दिव्यरूपानुवयवः पुमान् ।।६६।।

 यत्केशानां प्रान्तभागाः कोटिविद्युत्समोज्ज्वलाः । आमूलात् स्निग्धकृष्णाभा मञ्जुलाश्च तरंगिताः ।।६७।।

 चमत्कृतिंभरा भंगीशोभितास्तस्य मूर्धजाः । पश्चात्तु कर्णयोर्मध्ये प्रान्तेऽप्याकर्षकाः शुभाः ।।६८।।

 ललाटफलकं चोर्ध्वरेखाचन्द्रविराजितम् । भ्रूधनुःकोटिकामानां शुभं गर्वापहारकम् ।।६९।।

 भालेऽविच्छिन्नसद्रेख ब्रह्ममार्गप्रसूचिका । कर्णयोर्निकषा गत्वा लोकद्वयविबोधिका ।।७०।।

 शष्कुलीद्वयशोभाढ्यौ कर्णौ मोहकरावुभौ । सुरक्तपुण्डरीकाभे नेत्रे द्वे सुदलायते ।।७१।।

 विद्युत्समातिसूक्ष्माभा रेखाः सन्ति मनोहराः । आकर्णान्तं सकोणं च भावगर्भं च कामिनम् ।।७२।।

 एह्यागच्छेति हृदयस्थितस्य व्यञ्जकं हि तत् । सुरक्त प्रोन्नतं हास्यबोधकं नेत्रगण्डकम् ।।७३।।

 तस्यासीन्नासिका रम्या तिलपुष्पसमाकृतिः । ओष्ठौ पक्वसुरक्ताढ्य बिम्बतुल्यौ बभूवतुः ।।७४।।

 सूक्ष्म रम्या नातिगम्या श्मश्रुरेखा स्म राजते । कम्बुकण्ठः पुष्टवक्षाः स्कन्धौ पुष्टौ तथा हरेः ।।७५।।

 भुजंगभोगवद्धस्तौ नखचन्द्रावलिश्रयौ । ध्वजधनुर्महामीनबाणस्वस्तिकराजितौ ।।७६।।

 शूलचक्राब्धिजरेखान्वितौ कराञ्जली हरेः । रोमराजिमयौ शुभ्ररक्तरंगौ करावुभौ ।।७७।।

 श्रीवत्सकौस्तुभलक्ष्मीरेखाहारमुरःस्थलम् । उदरं त्रिवलीशोभं नाभौ ब्रह्मासनं शुभम् ।।७८।।

 कटिः कृशा तथा गुप्तां सच्चिदानन्दपूरितम् । हस्तिकरोपमे रम्ये सक्थिनी रोमराजिते ।।७९।।

 जानू च वर्तुलौ तस्य जङ्घे पुष्टोत्तरे कृशे । गुल्फत्रयं प्रतिपादं मध्योन्नतं प्रकाशकृत् ।।८०।।

 षोडशांकसुरेखाभी राजन्नखमणिप्रभम् । सर्वं द्व्यष्टसमं पुष्टं तेजःपूरितविग्रहम् ।।८१।।

 सुरूपं श्रीकृष्णनारायणस्य परमाद्भुतम् । अपश्यतां च ते कन्ये प्रेयसीश्रेयसी ह्युभे ।।८२।।

 जहर्षतुश्च वै तत्र प्राप्य श्रीपुरुषोत्तमम् । पुष्पमाले धारयामासतुः कण्ठे हरेरुभे ।।८३ ।।

 उभे च ' सन्निधौ तस्य स्थिते भावाऽऽर्द्रतां गते । हरिस्ते प्राह भक्त्या मे व्रतेनाऽथ च भावतः ।।८४।।

 वां नयामि मम धामाऽक्षरं सुखसुपूरितम् । मयि तादात्म्यभावेन वां नयामि च वर्ष्मणी ।।८५।।

 इत्युक्त्वा भगवाँस्तत्र तिरोबभूव तत्क्षणम् । ते ह्युभे चाति संविग्ने ह्यभूतां तद्वियोगतः ।।८६।।

 मध्याह्ने तादृशीं पूजां सायं चापि तथा निशि । चक्रतुर्विधिना कृष्णनारायणस्य जागरम् ।।८७।।

 नर्तनं गायनं दिव्यं चक्रतुर्मध्यरात्रिके । तावत्पुनः समायातो द्रुतं रात्रौ महाप्रभुः ।।८८।।

 स्वज्योत्स्नाव्याप्तधवलः सर्वेषां श्रेयसांकरः । यथा प्राप्तस्तथा रात्रौ राजते स्म हरिः स्वयम् ।।८९।।

 गृहे तत्रोत्सवे प्राप्तं ज्ञात्वा श्रीपुरुषोत्तमम् । धर्मो भक्तिश्च तं नत्वा ज्ञात्वा श्रीहरिमागतम् ।।९० ।।

 पुत्रीद्वयं स्वकं धाम नेतुमाज्ञां प्रचक्रतुः । प्रेयसी श्रेयसी प्राप्य हरिं श्रीपुरुषोत्तमम् ।।९ १ ।।

 कृतकृत्येऽतिसम्पन्नेऽक्षरे धाम्नि विराजिते । भुक्तिर्मुक्तिश्च ते ख्याते दिव्ये धामनि तत्र वै ।। ९२।।

 धर्मभक्त्योश्च सेवार्थं कृष्णनारायणेन च । द्वेधा रूपे च ते कृत्वाऽर्पिते पित्रोर्गृहेऽपि च ।।९३।।

 यत्र धर्मश्च भक्तिश्च तत्र भुक्तिश्च मुक्तिका । लोकेऽपि द्वे च वर्तंते वर्तेते चापि धामनि ।। ९४।।

 तेऽश्नुवाते सर्वकामान् ब्रह्मणा सह शाश्वतान् । एवं ते प्राप्तवत्यौ वै धाम श्रीपरमात्मनः ।। ९५।।

 यश्चात्र धर्मवान् भक्तिमाँश्च स्यात्परमेश्वरे । भुक्तिं मुक्तिं स चासाद्य मोदते ब्रह्मणा सह ।।९६ ।।

 प्रेयसीं श्रेयसीं प्राप्य मोदतेऽक्षरधामनि । श्रोता वक्ताऽस्य लभते पूर्णं व्रतफलं प्रिये ।। ९७।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये धर्मभक्त्योर्मानसीपुत्र्योः प्रेयसी-श्रेयस्योः पितृसेवा, मासमध्यमायास्तिथेर्व्रतेनाऽक्षरधाम्नि श्रीपुरुषोत्तमप्राप्तिः, भुक्तिमुक्तिरिति ख्यातिश्चेत्यादि-निरूपणनामा सप्ताधिकत्रिशत-तमोऽध्यायः ।। १.३०७।।