पुरुषोत्तम मास पूर्वा चतुर्दशी (1-7-2015ई.)

 लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास पूर्वा चतुर्दशी के माहात्म्य का वर्णन संक्षेप में इस प्रकार किया गया है – अक्षरब्रह्मधाम की सीमा पर पहला श्रेष्ठ गृह वैकुण्ठ है जो गोलोक सदृश है। वहां पर कल्पशाखी युक्त स्वरूप में वास करते हैं। उनकी पुत्री श्री वहां सदैव कुमारी रूप में रहती है। दिव्य भूमि स्वरूपा दिव्या विभूति है जो चेतना की अधिष्ठिता देवी है, सर्व आधार स्वरूपिणी है। उसकी पुत्री माणिक्या है। वह भी कुमारी है। दिव्य दुग्ध वाला अमृताब्धि भी वैकुण्ठ में वास करता है। उसकी पुत्री कुमारी लक्ष्मी है। यह तीन कुमारियां हैं जो ब्रह्मवेत्ता हैं। यह ब्रह्मात्मज्ञान योगिनियां श्रीहरि की भक्त हैं। वह सदा कृष्णनारायण की प्रतिमा का ही गृह में नित्य ध्यान करती हैं। दिव्यविभूति, कल्पद्रुम व क्षीराब्दधि पुत्रियों की ध्यान सेवा आदि से बहुत तुष्ट हैं और उन्हें आशीर्वाद देते रहते हैं। अनन्त धामों में कृष्ण की अनेक पत्नियां हैं। तुम परब्रह्म प्रिया बनो, राजाधिराज की पत्नियां बनो जिससे परे कुछ नहीं है। इस प्रकार उन्हें पिताओं का आशीर्वाद मिलता रहता है। श्री अपनी नित्य पूजा में कृष्ण नारायण की मूर्ति को विभिन्न प्रकार के दिव्य फल समर्पित करती है। दिव्यविभूति की कन्या माणिक्या भगवान को विभिन्न प्रकार के रत्न अर्पित करती है। क्षीराब्धि की कन्या लक्ष्मी भगवान को क्षीर से निर्मित विभिन्न भोजन प्रस्तुत करती है। अधिमास की चतुर्दशी को मध्याह्न में उन्होंने दुन्दुभि को सुना कि अधिमास की चतुर्दशी का व्रत करने से जो गोलोक में रहते हैं अथवा जो वैकुण्ठलोक में रहते हैं, उनकी मनोकामना मैं पुरुषोत्तम पूरी करता हूं। उन्हें निवास के लिए अक्षरातीत परम धाम प्रदान करता हूं। तब कन्याओं ने रात्रि में जागरण किया। जागरण में श्री ने तो नृत्य किया, माणिक्या ने ताल से युक्त वाद्य बजाया और लक्ष्मी ने गायन किया। उन्होंने परमेश्वर की स्तोत्र द्वारा स्तुति की। कल्पद्रुम की पुत्री श्री अपने वल्लभ का ध्यान करती है, दिव्यविभूति की सुता माणिक्या अपने स्वामी की प्रार्थना करती है और दिव्यक्षीराब्धि की दुहिता लक्ष्मी अनघ पति की इच्छा करती है। उनकी स्तुति पर कृष्णनारायण प्रकट हो गए। उन्होंने उन तीनों को श्वेत हस्ति युक्त यान पर बैठा लिया। उनके पिताओं ने उन्हें विधिपूर्वक कृष्ण को समर्पित कर दिया और प्रार्थना की कि ऐसा करें जिससे हमारा अपनी कन्याओं से वियोग न हो। कृष्ण ने उनके दो – दो रूप कर दिए। एक छाया रूप में वह पिताओं के पास रह गई और दिव्य रूप में पुरुषोत्तम की पत्नियां बन गई।

 

विवेचन

डा. फतहसिंह कहा करते थे कि विज्ञानमय कोश की स्थिति इस प्रकार की है कि वहां अनेकता होते हुए भी एकता होती है। यही स्थिति उपरोक्त माहात्म्य में युक्ता शब्द का प्रयोग कर वैकुण्ठ लोक की कही जा रही है। कल्पवृक्ष बहुत सारे हैं, लेकिन उन सबका मिलकर एक कल्पवृक्ष रह जाता है। उनकी एक ही कन्या रह जाती है – श्री। उपरोक्त माहात्म्य को समझने के लिए हमें श्री व लक्ष्मी का तात्पर्य समझना होगा। वैदिक साहित्य के अनुसार श्री का एक अर्थ यह है कि जहां भी चित्त अचेतन, अर्धचेतन स्थिति में है, उसे चेतन स्थिति में रूपांतरित किया जाए। हमारे सिर में जो इन्द्रियां हैं – चक्षु, श्रोत्र, रसना, नासिका आदि, वह सब सारी देह का अधिकतम चेतन भाग है। ऐसा नहीं है कि चक्षु, श्रोत्र आदि देह में अन्यत्र नहीं हैं। वैदिक साहित्य में पैर के टखने से लेकर गले तक कईं स्तरों पर चक्षु आदि की गणना कराई गई है। लेकिन कमी यही है कि इन स्थानों की कोशिकाएं अर्धविकसित स्थिति में हैं। यही कोशिकाएं शिर में जाकर पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाती हैं। अतः शिर को श्री कहा जाता है। लक्ष्मीनारायण संहिता में श्री को एक नया ही रूप दिया गया है – कल्पवृक्ष की कन्या। कल्पवृक्ष का जन्म तब होता है जब हमारे अंदर से अचेतन, अर्धचेतन चित्त समाप्त हो जाए।  तभी हम जो कुछ विचार करेंगे, वह तुरंत मूर्त रूप धारण कर लेगा। वैदिक साहित्य में इस स्थिति को इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि श्री वाक् है। प्रजापति ने विचार किया कि कैसे मैं इस वाक् रूपी श्री को ग्रहण करूं। वह मन में प्रवेश कर गए। जो कुछ मन विचार करता है, वही वाक् कहती है। वैदिक साहित्य में अचेतन, अर्धचेतन चित्त को पृष्ठ कहा जाता है।

     वैदिक साहित्य में श्री के अचेतन रूप की उपेक्षा नहीं की गई है, अपितु उसके महत्त्व को उजागर किया गया है। कहा गया है कि श्री रात्रि है। अस्थि रात्रि का रूप है जो अह रूपी मज्जा की रक्षा करती है, उसका गृह बनती है। ऐसे ही योनि है जो रेतः की रक्षा करती है, उसका गृह बनती है। श्री को परिश्रित् नाम दिया गया है – जो फैली हुई है। और श्री का एक रूप नहीं है, बहुत से रूप हैं। कहा गया है कि जो अन्न की श्री है, वह अन्नाद्य बनने में है जिसे अग्नि देवताओं के लिए ग्रहण करता है। सोम देवता श्री को राज्य के रूप में ग्रहण करता है, वरुण साम्राज्य के रूप में, मित्र क्षत्र के रूप में, इन्द्र बल के रूप में, बृहस्पति ब्रह्मवर्चस के रूप में, सविता राष्ट्र के रूप में, पूषा भग के रूप में, सरस्वती पुष्टि के रूप में, त्वष्टा रूपों के रूप में। इन सबकी व्याख्या अपेक्षित है।

     प्रश्न यह है कि जब कल्पवृक्ष बन गया, सारी श्री विज्ञानमय कोश में या वैकुण्ठ लोक में एक स्थान पर एकत्रित हो गई, तो अब उससे आगे श्री को विकसित करने से, उसे अक्षर धाम में भेजने से क्या तात्पर्य हो सकता है। इसका उत्तर यह हो सकता है कि श्री का सर्वाधिक विकसित रूप सर्वदा उपयोगी नहीं है। सारी देह की रक्षा के लिए श्री के जिस अर्धविकसित रूप की आवश्यकता पडती है, उसे परिश्रित् नाम दिया गया है। श्री के इस रूप को क्षत्र रूप नाम दिया गया है। जब विकिसित रूप का प्रयोग अन्यत्र किया जाएगा तो वह अक्षर नहीं रह जाएगा, अपितु क्षर हो जाएगा। अतः यह अपेक्षित है कि किसी प्रकार से ऐसी व्यवस्था उत्पन्न की जाए कि श्री का क्षत्र रूप में उपयोग करते रहने पर भी उसका क्षय न हो। शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर उल्लेख आता है कि श्री शीर्ष में एकत्रित है। उस शीर्ष से ध्रुवा नामक यज्ञपात्र का स्पर्श कराया जाता है। आत्मा ही ध्रुवा है। परिश्रित का अन्य उल्लेख वैदिक साहित्य में प्रवर्ग्य के सम्बन्ध में आता है। एक ब्रह्मोदन होता है, एक प्रवर्ग्य। प्रवर्ग्य से परिश्रित् बनता है। यह विचारणीय है कि क्या श्री को अक्षरधाम में ले जाने से अभिप्राय उसको ब्रह्मोदन की श्रेणी में रखना है अथवा कोई और अभिप्राय है।

 

     लक्ष्मी के विषय में पुराणों में कहा गया है कि उसका प्राकट्य क्षीर समुद्र के मन्थन से हुआ है। लक्ष्मी शब्द का पूर्व रूप रश्मि हो सकता है। हमारी देह के विभिन्न अंगों से विभिन्न प्रकार की रश्मियां निकलती हैं। आजकल की भाषा में इसे आभा मण्डल या अंग्रेजी में औरा कहा जा सकता है। इस आभामण्डल की किरणें एक दूसरे का सहयोग भी कर सकती हैं और एक दूसरे से असहयोग कर नष्ट भी हो सकती हैं। फिर, कुछ किरणें हमारे पाप के कारण, अव्यवस्था के कारण उत्पन्न हो सकती हैं जो रोग की वृद्धि में सहायक होंगी। कुछ किरणें ऐसी होंगी जो रोग का नाश करेंगी। वैदिक साहित्य में इन्हें पाप लक्ष्मी और पुण्य लक्ष्मी कहा गया है। यह अपेक्षित है कि पुण्य लक्ष्मी की स्थिति लगातार पुष्ट होती जाए। कहा गया है कि 101 लक्ष्मियां हैं। इनमें से जो हानिकारक हैं, उनको रोकना है। वैदिक साहित्य में यह कार्य सविता देव करते हैं। जैसे विचार होंगे, वैसी ही लक्ष्मियां निकलती रहेंगी। लक्ष्मीनारायण संहिता में लक्ष्मी की कामना है कि उसे अन - अघ, पाप से रहित पति प्राप्त हो। लक्ष्मी का एक रूप लक्ष्म भी हो सकता है। पौराणिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से वर्णन आता है कि विष्णु 32 लक्षणों या लक्ष्मों से युक्त हैं। अन्य सभी देवताओं के लक्ष्म 32 से कम हैं। वैदिक साहित्य में उल्लेख है कि लक्ष्मी गोष्ठ बन जाती है जिसमें आकर पशु बैठ जाते हैं। डा. फतहसिंह गोष्ठ शब्द की व्याख्या भी विज्ञानमय कोश के रूप में किया करते थे।

     तीसरी कन्या माणिक्या की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है। चतुर्दशी तिथि और तीनों कन्याओं के सम्बन्ध की व्याख्या भी अपेक्षित है।

 

 श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! परे त्वाद्ये वैकुण्ठे प्रथमे तु यत् । सञ्जातं वै चतुर्दश्यां चरित्रं दुन्दुभेस्तु यत् ।। १ ।।

 अक्षरब्रह्मधाम्नस्तु सीम्नि संविद्यते तु यत् । वैकुण्ठं प्रथमं श्रेष्ठं गृहं गोलोकसदृशम् ।। २ ।।

 तत्र युक्तस्वरूपा वै वसन्ति कल्पशाखिनः । तत्पुत्री श्रीः सदा तत्र वर्तते वै कुमारिका ।। ३ ।।

 दिव्यभूमिस्वरूपा च दिव्या विभूतिरस्ति च । चेतनाधिष्ठिता देवी सर्वाधारस्वरूपिणी ।। ४ ।।

 तस्या विभूतेः पुत्री च माणिक्याऽस्ति कुमारिका । दिव्यदुग्धाऽमृताब्धिश्च वैकुण्ठे तत्र वर्तते ।। ५ ।।

 तस्य पुत्री कुमारी च लक्ष्मीस्त्वदात्मिकाऽस्ति च । ता एतास्तिस्र ईश्वर्यो राजन्ते धाम्नि तत्र वै ।। ६ ।।

 सख्यस्तिस्रः सवयस्याः कुमार्योऽतीव कोमलाः । माणिक्या श्रीश्च लक्ष्मीश्च ब्रह्मवेत्र्योऽभवन् सदा ।। ७ ।।

 ब्रह्मात्मज्ञानयोगिन्यो भक्तिमत्यश्च वै हरौ । कुर्वन्ति सेवनं नित्यं कृष्णनारायणस्य ताः ।। ८ ।।

 तस्यैव प्रतिमां नित्यं गृहे ध्यायन्ति भावतः । दिव्यविभूतिः कल्पद्रुः क्षीराब्धिश्चेति ते त्रयः ।। ९ ।।

 पुत्रीणां ध्यानसेवादि दृष्ट्वा तुष्यन्ति वै मुहुः । वितरन्त्याशिषस्ताभ्यो भवन्त्यानन्दमूर्तयः ।। १० ।।

 अनन्तधामसु कृष्णपत्न्यः सन्ति त्वनेकशः । भवत्यश्च भवन्त्येव परब्रह्मप्रियाः पराः ।। १ १।।

 राजाधिराजरूपिण्यो याभ्यो नान्याः पराः क्वचित् । इति पित्राशिषः प्राप्ता दीव्यन्ति नित्यवर्धिताः ।। १२।।

 प्रातः स्नान्ति हरिं स्मृत्वा ध्यायन्ति च हरिं ततः । कुर्वन्ति मण्डपं दिव्यं विद्युत्तोरणसूज्ज्वलम् ।। १ ३।।

 विचित्ररत्नमणिभिर्नद्धस्तंभादिमण्डितम् । कृत्रिमोद्यानसंव्याप्तं दिव्याम्बरविभूषितम् ।। १४।।

 कृष्णनारायणमूर्तिशोभितं सर्वतो दिशि । मध्ये सिंहासनं रम्यं मणिस्वर्णादिराजितम् ।। १५।।

 स्थापयन्ति च तास्तत्र तूलिकाश्च सुखावहाः । मूर्तिं विन्यस्य तन्मध्ये कृष्णनारायणस्य ताः ।। १६।।

 स्नापयन्ति क्षीरधाराभिश्चाद्भिः स्नापयन्ति च । सुगन्धं चन्दनं तैलं मर्दयन्ति च ता मुहुः ।। १७।।

 स्नापयित्वा च वस्त्राणि दिव्यानि ददति प्रगे । धारयन्ति विभूषाश्च शृगारं धारयन्ति च ।। १८।।

 पत्रैः पुष्पैः फलैस्तोयैः पूजयन्ति मुहुर्मुहुः । धूपं दीपं सुगन्धं च कुर्वन्ति कृष्णसन्निधौ ।। १ ९।।

 संवाहयन्ति चरणौ गृह्णन्ति चरणामृतम् । जिघ्रन्ति ता भक्तिमत्यो गन्धं कृष्णप्रसादजम् ।।२०।।

 पश्यन्ति ता हरेः रूपं स्पृशन्ति कृष्णपत्कजम् । आस्वादयन्ति पूजायां दत्तं फलादिकं तु यत् ।।२१ ।।

 शृण्वन्ति भगवत्स्तोत्रं गीतं परस्परेण यत् । वदन्ति गुणचारित्र्यं कृष्णनारायणस्य ताः ।।२२।।

 आददति हरेः कार्ये गच्छन्ति च प्रदक्षिणम् । विलासं हावभावादि तथाऽऽनन्दं च मानसम् ।।२३।।

 चिन्तनं निर्णयं स्वत्वं कुर्वन्ति कृष्णयोगजम् । मिष्टान्नामृतपात्राणि जलपात्राणि तत्पुरः ।।२४।।

 स्वर्णस्थालानि नैवेद्यपूरितानि ददुश्च ताः । भोजयन्ति भावपूर्णं रामयन्ति हरिं पुनः ।।२५।।।

 वारिपानं कारयन्ति रमन्ते ता हरेः पुरः । वादयन्ति प्रवाद्यानि कुर्वन्त्यारार्त्रिकं मुदा ।।२६।।।

 नमन्ति हरये ताश्च प्रशंसन्ति च तद्गुणान् । वर्णयन्ति चरित्राणि कथयन्ति कथानकम् ।।।२७।।

 भावयन्ति कृष्णहृच्चार्पयन्ति हृदयं हरौ । पुष्पांजलिप्रदानैश्च तोषयन्ति नरायणम् ।।२८।।

 स्तुवन्ति परमात्मानं स्मरन्त्यप्यभिधा हरेः । दास्यं कुर्वन्ति सततं सख्यं चात्मनिवेदनम् ।।२९।।

 एवं भक्तिमयं दिव्यं कर्तव्यमाचरन्ति ताः । मध्याह्नेपि प्रपूज्यैनं श्रीः फलान्यर्पयत्यपि ।।।३०।।

 कल्पद्रुकन्यका कल्पपादपेभ्यो नयंत्यपि । उत्तमं चोत्तमं रम्यं सुरसं मिष्टमम्ब्लकम् ।।३ १।।

 नवं नवं फलं वृक्षपुत्री श्रीरर्पयत्यपि । कदलानि सुपक्वानि कदलीभ्योऽभिगृह्य सा ।।।३२।।

 आहृत्य चाम्रवृक्षेभ्यश्चाम्राणि तूत्तमानि च । कर्मदेभ्यः कर्मदानि चाम्ब्लमिष्टान्यवाप्य च ।।३३।।

 कर्कटिकाश्च वल्लीभ्य आहृत्य पक्वसद्रसाः । कलिंगानि सुपक्वानि शैत्यावहानि यान्यपि ।।।३४।।

 कपित्थानि च तद्द्रुभ्यः पक्वान्यानीय चाप्यथ । काजूफलानि मिष्टानि काजू द्रुभ्योऽभिहृत्य च ।।३५।।

 कटीङ्गुदीभ्य आहृत्य कटीङ्गुन्दीफलानि च । इङ्गुदानि महान्त्येव पक्वस्निग्धरसानि च ।।३६।।

 आहृत्याऽर्पयति श्रीश्च भुंक्ते नारायणः स्वयम् । अंजीराणि सुमिष्टानि द्राक्षाणि सुरसानि च ।।३७।।

 खर्जूरखारिकादीनि तालानि श्रीफलानि च । भूफलानि सुमिष्टानि चिक्कणानि फलानि च ।।३८।।

 क्षीरिकाणि पिशंगानि पनसानि महान्ति च । गर्जराणि विविधानि घृतघटानि चैव ह ।।३९।।

 शिङ्गवः पक्वास्तथा जम्बूफलानि रावणानि च । अमृतानि सुमिष्टानि टिटीमा मिष्टसद्रसाः ।।४० ।।

 दाडिमानि चेक्षुदण्डान् बदराणि नवानि च । टिम्बूरवाँश्च मधुकान् बदामान् बहुबीजकान् ।।४१।।

 रामफलानि च सीताफलानि मधुराणि च । स्पतीन सन्तराँश्चापि जम्बीराणि च पुप्पिनान् ।।४२।।

 चिर्भटानि च सफलजनानि टिम्टिमानि च । नवरंगानि चान्यानि फलान्याहृत्य श्रीर्ददौ ।।४३।।

 कृष्णनारायणाय श्रीपुरुषोत्तममूर्तये । भगवानपि भावेन समत्तिश्र्यर्पितानि वै ।।४४।।

 दिव्यविभूतिकन्या तु माणिक्या भगवत्कृते । समानयति रत्नानि धारयत्यच्युतं स्वयम् ।।४५।।

 रत्नमालास्तथा मुक्ताहारान् मौक्तिककंकणान् । वज्रमणीन् पद्मरागमणीन् मरकतान् मणीन् ।।४६।।

 इन्द्रनीलमणींश्चापि कौस्तुभान् भीष्मकाँस्तथा । वैदूर्यान्पुष्परागाँश्च कर्केतकान् सुवर्णकान् ।।४७।।

 हारितान् पुलकाँश्चैव रुधिरान् स्फटिकाँस्तथा । विद्रुमाँश्च प्रवालाँश्च माणिक्यान् चित्रकाँस्तथा ।।४८।।

 गोमेदाँश्च महानीलान् कूप्याँश्चादाय सन्ददौ । कृष्णनारायणस्तानि मणिरत्नमयानि च ।।४९।।

 भूषणानि धृतवाँश्च प्रसन्नोऽभूदतीव सः । अथ क्षीराब्धिकन्या वै लक्ष्मीः क्षैराणि भावुकी ।।५०।।

 भोजनं कारयामास पाययामास तानि वै । दुग्धसारं पायसान्नं दुग्धपाकं सतण्डुलम् ।।५ १।।

 दुग्धस्तरं दुग्धमन्थं दुग्धघट्ट पयोबलिम् । दुग्धक्वाथं दुग्धपिण्डान् दुग्धमल्लयिनीं शुभाम् ।।।५२।।।

 दधि सर्पिर्वृतं तक्रं नवनीतं पयःपुटम् । क्षीरौदनं पयोमिश्रं पयःपानादिकं ददौ ।।।५३।।।

 कृष्णनारायणस्तत्तद् भुक्तवान् पीतवाँश्च वै । क्षीरोत्पन्नानि रत्नानि ददौ सा विविधानि च ।।५४।।

 श्रिया माणिक्यया लक्ष्म्या यान्यर्पितानि भावतः । कृष्णनारायणस्तानि जग्राह भावपूरितः ।।५५।।

 फलानि रत्नानि च पायसानि भुंक्ते दधात्यत्ति च भावगर्भम् ।

 श्रियं च मणिक्यवरां च लक्ष्मीं सेवापरां वीक्ष्य हरिस्तुतोष ।।५६।।

 सायं च ताः पूर्ववदेव पूजनं चक्रुः समाराधनतत्पराः सुताः ।

 नीराजनं भोजनमन्यदर्पणं सदैव चक्रुर्बहुभक्तिभावतः ।।५७।।

 चतुर्दश्यामधिमासे मध्याह्ने पूजनोत्तरम् । श्रुतस्ताभिर्दुन्दुभिश्च कृष्णनारायणस्य हि ।।५८।।

 कुर्वन्तु पूजनं नित्यं कुर्वन्त्वाराधनं मम । अर्पयन्तु च मे किञ्चित्प्राप्नुवन्तु मम गृहम् ।।५९।।

 पुरुषोत्तमसंज्ञोऽहं ब्रह्मधामाधिपः पुमान् । अधिमासाधिदैवोऽहं वदामि तद् ददामि वै ।।६ ०।।

 गोलोकस्था अपि याश्च वैकुण्ठस्था अपि व्रतम् । अधिमासे चतुर्दश्यां कुर्वन्ति याश्च येऽपि च ।।६ १ ।।

 तासां तेषां मनोलभ्यं करिष्ये भगवानहम् । दास्यामि परमं धामाऽक्षरातीतनिवासनम् ।।६२।।।

 फलैः रत्नैः पायसान्नैः पूजयिष्यन्ति मां जनाः । प्राप्स्यन्ति परमं धाम यत्रास्मि पुरुषोत्तमः ।।६ ३ ।।

 अन्येभ्यो धामवासिभ्यः स्थितिं श्रेष्ठां ददाम्यहम् । गृह्णन्तु भक्तिमत्यो मे भक्ताश्च परमं पदम् ।।६४।।

 नेदृशं त्वस्ति वैकुण्ठं गोलोकश्चापि नैव ह । मम धाम्ना समं त्वन्यद् विद्यते नैव नैव च ।।६५ ।।

 न मत्समो वाऽप्यधिकोऽस्ति कश्चित्, न ब्रह्मणा सन्निभमस्ति किञ्चित् ।

 नान्यत्सुखे मत्सुखसाम्यमस्ति, स्वल्पप्रदानेन लिहन्तु चार्याः ।।६६।।

 भवन्तु दास्यः प्रभवन्तु भक्ता, आनन्दमात्रां मम मूर्तिलब्धाम् ।

 भुञ्जन्तु नित्यं मयि संरमन्तु, चतुर्दशीसद्व्रतकल्पनेन ।।६७।।

 मानव्यो मां समाराध्य भवन्तु दिवि देवताः । देव्यश्च मां समाराध्य भवन्त्वार्षिण्य एव च ।।६८।।

 आर्षिण्यो मां समाराध्य भवन्त्वीशान्य एव वा । त्वीशान्यो मां समाराध्य भवन्त्वीश्वर्य एव च ।।६९।।

 ईश्वर्यो मां समाराध्य नारायण्यो भवन्तु च । नारायण्यः समाराध्य गोप्यो भवन्तु मां मुदा ।।७०।।

 ताश्च सर्वाः समाराध्य मां वरं पुरुषोत्तमम् । भवन्तु पुरुषोत्तम्यो नित्यमुक्तान्य एव ह ।।७ १ ।।

 कृष्णनारायणं मां वै संराध्य पुरुषोत्तमम् । ममाऽक्षरं परं धाम गृह्णन्तु मद्व्रतार्थिनः ।।७२।।

 चतुर्दश्यामधिमासे व्रतं श्रीपुरुषोत्तमे । कृतं येनाऽर्जितं तेन मामकं सर्वमेव ह ।।७३ ।।

 वच्मि वच्मि पुनर्वच्मि ह्यागच्छन्तु मया सह । भवने त्वक्षरे मे वै निवसन्तु मया सह ।।७४।।

 तुष्टोऽस्मि गर्जनां कृत्वा कथयामि पुनः पुनः । अधिमासे चतुर्दश्यां यान्तु व्रतेन मद्गृहम् ।।७५।।

 वैकुण्ठे दुन्दुभिं श्रुत्वा कृष्णनारायणस्य ताः । सहर्षाः सत्वरं तत्र ययुर्यत्राऽस्ति घोषकृत् ।।७६ ।।

 श्रीश्च हृष्टा च माणिक्या लक्ष्मीर्हृष्टा हृदन्तरे । नत्वा नत्वा पुनर्नत्वा प्राहुस्तं दुन्दुभिं हरेः ।।७७।।

 नारायणस्य वैकुण्ठे वसामोऽत्र महासुखे । ततोऽतिश्रेष्ठसौभाग्यं प्रयच्छति यदि प्रभुः ।।७८।।

 कन्यका स्मो वयं कुर्मोऽर्चनं तस्य हरेः सदा । अद्य व्रतं चतुर्दश्याः कुर्मोऽधिमासि निर्णयात् ।।७९।।

 कदाऽक्षराधिपः कृष्णनारायणो मिलिष्यति । कदा नेष्यति परमः पुराणः पुरुषोत्तमः ।।८० ।।

 दुन्दुभिस्तु तदाकर्ण्य प्राह ताश्चाऽद्य वै प्रभुः । निशि पूजोत्तरं त्वायास्यति कुर्वन्तु जागरम् ।।८ १ ।।

 स्तुवन्तु परमात्मानं हृदयस्थं जनार्दनम् । भवतीनां सफलाश्च प्रभवन्तु मनोरथाः ।।८२।।

 इत्युक्त्वाऽक्षतपुष्पैश्च पूजितो दुन्दुभिर्ययौ । कन्याः पुपूजुः श्रीकृष्णं निशीथे प्रतिघस्रवत् ।।८३।।

 जागरं तत्र कुर्वन्त्यः श्रीश्चकार सुनर्तनम् । वाद्यं त्ववादयत्तत्र माणिक्या तालसंयुतम् ।।८४।।

 लक्ष्मीस्तु गायनं चक्रे तिस्रश्च मिलिता जगुः । सुस्वरैश्च नद्धकिंकिणिका नूपुरकंकणैः ।।८५।।

 सत्य ब्रह्माऽक्षरपरमपरं लोकेशं परलोकेशं, नित्यं ज्ञानमनन्तमपारमनेकाकारं कमलेशम् ।

 शान्तं भास्करकान्तमघनुतं ब्रह्मानन्दमहानन्दं, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।८६।।

 धाम्नि ब्रह्माऽक्षरमुक्तेश्वरपार्षदवृन्दार्चितचरणं, चैतन्यामृतधामविराजितमुक्तेशैकसुधाकरणम् ।

 श्रीवत्सांकविरंचिगिरीशनतांऽघ्रितलं सुहृदानन्दं, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।८७।।

 दिव्याऽखण्डमनन्तमुनीश्वरमण्डलमध्यगताकारं, निगमागमपटलैरभिवेद्यं साकारं परमाकारम् ।

 दिव्यविहारमनुद्भवरूपमनादिं दिव्यगुणागारं, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।८८।।

 सौम्याभं चिन्मालाकुण्डलमुकुटपिशंगसुचेलधरम्, सर्वज्ञामितशक्तियुतं हरिकृष्णमचिन्त्यानन्दकरम्।

 निगमागमवन्दितयशसं शंसन्तं धर्मं वेदमतम्, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।८९।।

 लोकालोकविभासिविभूतिमलोकनिवासमनिर्वाच्यं, जन्माद्यस्य यतो भगवन्तमशरणाधारं वृषलालम् ।

 कृष्णं करुणारसमयरूपं दीनदयालुं देववरं, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।९० ।।

 भास्वरकार्तस्वरविद्युन्मणिभास्करचन्द्रविशेषाभं, सद्रूपं घनवर्णमतर्क्यमजं हृत्स्थं त्रिभुवननाभम् ।

 श्यामसरोरुहदलसमनयनं स्मेरास्यं सर्वानन्दं, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।९ १।।

 श्यामं व्यापकमुत्तमपुरुषं परमात्मानं सुखकन्दं, स्वांघ्रिसरोजसमुद्भवकान्तिद्योतितयावज्जनवृन्दम् ।

 सत्यं नारायणपरमेश्वरमायेशेश्वरमुक्तवरं, परमेश्वरमभिवन्दे प्राविर्भावेश्वरपरमानन्दम् ।।९२।।

 कल्पद्रुमदुहिता श्रीर्नित्यं ध्यायति वल्लभमात्मा, दिव्यविभूतिसुता माणिक्या प्रार्थयति स्वाम्यात्मानम् ।

 दिव्यक्षीराब्धिदुहिता लक्ष्मीरपि चेच्छति पतिमनघं, पुरुषोत्तममक्षरधामस्थं स त्वं भवसि भवार्थकरः ।।९३।।

 करान् गृहाण चास्माकं मा वै मुञ्च कदाचन । यावद्वै तेऽक्षरं धाम तावत्पत्न्यो भवामहे ।।९४।।

 शीघ्रं कुरु कृपानाथ कृष्णनारायण प्रभो । वरमाला गृहाणाऽस्मद्धस्तेभ्यश्चैककालिकाः ।।९५।।

 इति स्तुत्वा च तास्तिस्रो विमुस्तावदेव तु । प्राविर्बभूव भगवान् कृष्णनारायणः प्रभुः ।।९६।।

 सर्वाविर्भावहेतुर्यः सर्वकारणकारणम् । सर्वेशेशेश्वरः श्रेष्ठब्रह्म श्रीपुरुषोत्तमः ।।९७।।

 श्वेतहस्तियुतं यानं विमानाख्यं चिदम्बरे । वाहयन् योजनकोटिविस्तृतं मुक्तपूरितम् ।।९८।।

 तिस्र आश्वास्य वैकुण्ठे कल्पद्रून् दिव्यभूतिकम् । क्षीराब्धिं च नमस्कृत्य विधिना तैः समर्पिताः ।।९९।।

 पितृभिस्त्वर्थितः कृष्णे जग्राह तिसृकन्यकाः । किन्त्वस्माभिर्वियोगो मा स्यात्तथा कुरु केशव ।। १०० ।।

 करे करान् समादाय ग्रहीता हरिणा तदा । श्रीश्च लक्ष्मीश्च माणिक्या कृष्णातुल्या विरेजिरे ।। १० १।।

 तासां द्वेद्वे स्वरूपे च कारयित्वा पुमुत्तमः । छायारूप त्रयं तासां पित्रधीनं सुरक्ष्य च ।। १ ०२।।

 दिव्यरूपं त्रयं तासां पुरुषोत्तमयोग्यकम् । अक्षरधामवासार्हं पत्नीरूपं प्रगृह्य च ।। १०३।।

 तिस्र आरोहयित्वैव विमाने पुरुषोत्तमः । ययौ दिव्याक्षरं धाम पत्नीयुक्तः स्वयं हरिः ।। १ ०४।।

 एवं चाधिकमासस्य चतुर्दश्या व्रतेन ताः । श्रीश्च लक्ष्मीश्च माणिक्या तिस्रः पत्न्यो हरेः सदा ।। १ ०५।।

 बभूवुः शाश्वते धाम्नि किमत्र खलु दुर्लभम् । श्रोतुर्वक्तरपि त्वेवं फलं स्यान्नात्र संशयः ।।  १ ०६।।

इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये वैकुण्ठे दुन्दुभिश्रवणेन कल्पद्रुम- पुत्र्याः श्रियः दिव्यविभूतेः पुत्र्या माणिक्यायाः, दिव्यक्षीरोदधिपुत्र्या लक्ष्म्याश्च, अधिकमासस्य चतुर्दश्या व्रतेनाऽक्षरधाम्नि परब्रह्मपुरुषोत्तम-श्रीकृष्णनारायणपत्नीत्वप्राप्त्यादिनिरूपणनामा षडधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। १.३०६ ।।