पुरुषोत्तम मास उत्तर प्रतिपदा (3-7-2015ई.)

पुरुषोत्तम मास की कृष्ण प्रतिपदा का माहात्म्य लक्ष्मीनारायण संहिता में संक्षेप में इस प्रकार है – सबसे पहले तो कहा गया है कि प्रतिप्रदा व्रत से वैराज पुरुष की प्राप्ति हो सकती है। उसके पश्चात् सहस्राक्ष राजा का वृत्तान्त दिया गया है। सहस्राक्ष राजा ऐसा था कि वह विमान से सत्य, पाताल, भू लोकों में आता जाता था। वह व्योमतन्तु से सुनता था, वह क्षण भर में ही सब लोकों के व्यवहार कर लेता था। वह गृह में रह कर ही चारों दिशाओं की प्रजा से व्यवहार कर लेता था। वह सत्य लोक में ब्रह्मा की संसद में आया जाया करता था। उस संसद में दिक्पाल, मनु, सूर्य, शशि, ऋषि, बहुत से देवगण, सार्वभौम नृप आदि विराजमान होते थे। लेकिन उस संसद में विराजमान होने के लिए उसे प्रथम स्थान नहीं मिलता था। इससे उसके हृदय में आघात होता था। उसने ब्रह्मविज्ञानियों को बुलाकर अपने अभ्युदय का उपाय पूछा कि उसे परमेष्ठी पद से भी ऊंचा स्थान कैसे प्राप्त हो। विप्रों ने उत्तर दिया कि अग्निष्टोम, वाजपेय, राजसूय, वैष्णव, महारौद्र नरमेध, वाजिमेध, वृषक्रतु, सौत्रामणि, पुत्रेष्टि, अग्निहोत्र, जप आदि करो। इन यज्ञों को सौ वर्षों तक करो तो उसके पुण्य से तुम्हं परमेष्ठी से भी ऊपर पद मिल सकता है, तुम्हारा राज्य ध्रुव बन जाएगा। सौ वर्ष पूरे होने पर इन्द्रपद और हजार वर्ष पूरे होने पर आदित्य पद मिल जाएगा, अयुत वर्ष होने पर ध्रुवराज्य, लाख वर्ष होने पर ब्रह्मा का पद, करोड वर्ष होने पर ब्रह्मपद। उससे आगे वैराज पद प्राप्त होगा। और कहा कि किसी के पास न तो इतना समय है, न किसी कि इतनी आयु होती है कि इतना कर सके। इसलिए हे राजन्, जितना तुम्हें मिला है, उसे पाकर ही संतोष करो। तृष्णा पिशाची का तो भोग करने से कोई अन्त नहीं होता। मैं आनन्द से पूरित महानात्मा हूं, यह मानकर चलने से तृष्णादोष आदि जनित दुःख नहीं होता। अन्यों की अधिक प्रगति देखकर दुःखी न होवे। अपने पुरुषार्थ से जो प्राप्त हो गया है, उसी में सुख, शान्ति ले। इतना कह कर विप्रगण चुप हो गए। सहस्राक्ष राजा ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर बहुत से यज्ञ किए।इनसे उसने बहुत पुण्य अर्जित किया। फिर अधिकमास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को उसने दुन्दुभि सुनी कि प्रतिपदा का व्रत करने से कोटियज्ञों से भी अधिक फल प्राप्त होता है। दुन्दुभि ने व्रत में पुरुषोत्तम की अर्चना करने की विधि का भी वर्णन किया। इस विधि में नीराजन की विधि भी बताई कि शत या सहस्र वर्तियों से युक्त दीपक द्वारा कटि पर्यन्त सात आवर्त तथा मस्तक पर्यन्त सात आवर्त करे। फिर सात आवर्त, प्रत्येक सप्तचक्र वाला। फिर सात लहरी ऊर्ध्व व अधः करे इत्यादि। फिर वस्त्र से आवर्त करे। फिर शंखजल से आवर्त करे। फिर धूप से आवर्त करे। फिर वाद्य घोष करे आदि आदि। फिर पुरुषोत्तम को सर्वस्व दान करे। हरि तो भावना के भूखे हैं। वह निस्सन्देह ग्रहण करते हैं। राजा ने व्रत किया। उसने पत्नीव्रत द्विज को सत्यलोक में ब्रह्मा की संसद में बुलाकर उसे पुरुषोत्तम मानकर दान दिया और कहा कि उसकी इच्छा वैराजपद प्राप्त करने की है। पत्नीव्रत द्विज का रूप धारण कर रहे द्विज ने अचानक पुरुषोत्तम का रूप धारण कर लिया। उन्होंने नृप की मूर्धा का स्पर्श किया। राजा ने ब्रह्माण्ड दान किया। कालान्तर में राजा ने वैराज पद प्राप्त किया। वह नारायण बन गया जिनके नाभिकमल पर ब्रह्मा विराजमान होते हैं तथा जिनके ललाट से शिव का प्राकट्य होता है, जिनके हृदय से विष्णु, जिनके उदर से यह जगत् प्रकट होता है।

 

विवेचन

सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि प्रतिपदा तिथि का क्या अर्थ हो सकता है। हम जिस मार्ग से चल रहे हैं, उससे हटकर दूसरा मार्ग ग्रहण कर लेना प्रतिपद कहलाएगा। उदाहरण के लिए, हम सो रहे हैं और कोई हमें अचानक जगा दे तो यह आत्मा का प्रतिपद, जाग्रत अवस्था में आना होगा। अचानक जगाने से हो सकता है कि आत्मा एकदम शरीर में प्रवेश न कर पाए और मृत्यु हो जाए। यही स्थिति समाधि से व्युत्थान की भी समझनी चाहिए। इसी प्रकार यदि हम देवयान मार्ग से हटकर, त्वरित गति की साधना से हटकर पितृयान मार्ग में आ जाएं तो यह भी प्रतिपद होगा। लक्ष्मीनारायण संहिता के वर्तमान संदर्भ में सहस्राक्ष राजा का भूमि से वैराज पद पर आ जाना प्रतिपद कहा जा रहा है। माहात्म्य के आरंभ में ही प्रतिपद्यते शब्द का उल्लेख करके इसका संकेत कर दिया गया है। पुराणों में प्रतिपदा तिथि को मुख्य रूप से ब्रह्मा, अग्नि, अश्विनौ, काल देवों से सम्बद्ध किया जाता है। वर्तमान कथा में कहा जा रहा है कि राजा सहस्राक्ष में इतनी शक्ति है कि वह क्षण भर में ही सारी प्रजा की बात सुन लेता है। अतः वह कालजयी है। इसके विपरीत, पुराणों मे कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को राजा बलि की कथा आती है जिसे द्यूत प्रतिपदा कहते हैं, अर्थात् उस तिथि में जो भी घटनाएं घटित होंगी, वह द्यूत रूप में होंगी जिनका कारण अज्ञात होगा। लेकिन वर्तमान शुक्ल प्रतिपदा में ऐसी स्थिति नहीं है। कठिनाई यह है कि जब सहस्राक्ष प्रतिपद रखता है, ब्रह्मा की सभा में जाता है तो उसे वहां उपयुक्त पद प्राप्त नहीं हो पाता। ऐसा कौन सा कारण हो सकता है जो उसे उपयुक्त पद पाने से रोकता है। कथा संकेत करती है कि यह दोष तब दूर हुआ जब उसने पत्नीव्रत द्विज को दान दिया। पुरुष के लिए प्रकृति, उसकी देह, उसका व्यवहार उसकी पत्नी है। यदि हमारा भौतिक आधार, आचरण खराब हुआ तो हम देवों के लोक में पहुंचकर भी वहां उपयुक्त स्थान प्राप्त नहीं कर सकेंगे। श्री अरविन्द के शब्दों में इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि आध्यात्मिक प्रगति के साथ साथ भौतिक प्रगति भी आवश्यक है। जितना हमारा भौतिक आधार सुदृढ होगा, उतनी ही अच्छी आध्यात्मिक प्रगति होगी। कथा में यह नहीं बताया गया है कि सहस्राक्ष राजा के आचरण में क्या दोष हैं। सहस्राक्ष शब्द का अर्थ है जिसके अक्ष सह – स्रवण करते हैं, अर्थात् ऐसा नहीं है कि बुद्धि कुछ और कहती है, मन कुछ और, आत्मा कुछ और। वह जो भी काम करने बैठा है, अपने तन – मन – धन को पूरी तरह तैयार करके बैठा है। तभी वह कालजयी बन सकता है। अन्यथा प्रतिपदा तिथि में काल को भी खण्डित रूप में कहा गया है। प्रतिपदा पर टिप्पणी द्रष्टव्य है।

 

श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! ब्रह्मविष्णुमहेशजनकस्य वै । वैराजपुरुषस्यापि वैराज्ञ्याप्तिर्व्रताद्यथा ।। १ ।।

 प्राकृतपुरुषस्याऽस्ति पुत्रः प्रधानपूरुषः । तस्य हिरण्यगर्भाख्यो महाविष्णुः सुतोऽस्ति वै ।। २ ।।

 ततो विराडजायत वैराजो वेधसः पिता । तस्यायुः शतवर्षं वै तस्यैव वर्षसंख्यया ।। ३ ।।

 यदा पूर्णं भवत्येव तस्यास्ति निधनं ततः । वैराजोऽन्यश्च तत्पश्चाद् वैराज्यं प्रतिपद्यते ।। ४ ।।

 एवं वै क्रमशः सृष्टौ वैराजानामसंख्यता । पारम्पर्यप्रवाहेण महाविष्णोर्दिने दिने ।। ५ ।।

 एकैकस्य विनाशोऽस्ति वैराजस्येश्वरस्य वै । महाविष्णोर्वर्षमध्ये पञ्चषष्ट्यधित्रिंशतम् ।। ६ ।।

 वैराजानां भवंत्येव क्रमेण शतवर्षके । षटत्रिंशत्तु सहस्राणि तथा पञ्चशतानि वै ।। ७ ।।

 वैराजानां भवन्त्येव तत्सर्वं वेद्म्यहं प्रिये! । अस्य वै वर्तमानस्य वैराजस्य कथां शृणु ।। ८ ।।

 महाविष्णोस्तु साम्राज्ये ऐश्वरीसृष्टिके स्तरे । अष्टावरणपारे वै त्वस्मात्पूर्वो विराट् पुमान् ।। ९ ।।

 स्वस्याऽन्तिमस्य वर्षस्याऽन्तिमाह्नस्त्वन्तिमक्षणे । वर्तमानेऽन्तिमवेधोब्रह्माण्डेऽस्तमनक्षणे ।। १० ।।

 सम्राडासीत्सहस्राक्षाऽभिधश्चक्रप्रवर्तकः । भक्तिमान् स सहस्राक्षः सत्ये पातालके भुवि ।। ११ ।।

 विमानेन सदा याति शृणोति व्योमतन्तुना । स्वच्छद्रव्येण संचष्टे स्पृशति क्षिप्रवायुना ।। १ २ ।।

 क्षणेन सर्वलोकानां व्यवहारं करोति च । सर्वसाधनयुक्तस्य गन्तव्यं नाऽवशिष्यते ।। १३ ।।

 स्थित्वैकत्र गृहे तस्य प्रजाश्चतुर्दिशास्थिताः । व्यवहरन्तीव निकषा विदन्ति करगं यथा ।। १४।।

 सहस्राक्षः स्वयं - सत्यलोके संसदि वेधसः । यात्यायाति यथाकालं पूरितायां महाजनैः ।। १५।।

 दिक्पालैर्मनुभिश्चापि सूर्येण शशिना तथा । ऋषिभिश्च महादेवैः सार्वभौमैर्नृपैस्तथा ।। १६।।

 तत्रासनं स्वकीयं स न लेभे प्रथमे स्थले । इति वैषम्यदोषेण प्रेरितः स हृदन्तरे ।। १७।।

 आहूय ब्रह्मविज्ञानान् पप्रच्छाऽभ्युदयं प्रति । पारमेष्ठ्यादधिकं चोत्तमं स्थानं मिलेत् कथम् ।। १८ ।।

 विप्रा विज्ञापयामासुस्तमध्वरवरान् कुरु । अग्निष्टोमं वाजपेयं राजसूयं च वैष्णवम् ।। १९ ।।

 महारौद्रं नरमेधं वाजिमेधं वृषक्रतुम् । सौत्रामणिं सुतेष्टिं च वह्निहोत्रं जपादिकम् ।। २० ।।

 एतान् यज्ञान् महारंभान् शतसंवत्सरान् कुरु । तेन पुण्येन ते राजन् पारमेष्ठ्योत्तरं पदम् ।। २१ ।।

 भविष्यति ध्रुवं राज्यं स्थानं कारय तान्मखान् । शते पूर्णे त्विन्द्रपदं सहस्रे तु रवेः स्थलम् ।। २२।।

 ध्रुवराज्यमयुते तु लक्षे तु वेधसः स्थलम् । कोटियज्ञेषु पूर्णेषु शतास्यब्रह्मणः पदम् ।। २३ ।।

 यज्ञपरार्धे सम्पूर्णे वैराजपदमाप्यते । न तथाऽऽयुश्च समयः कस्याऽप्यत्र तु गोलके ।। २ ४।।

 तस्माद् राजँस्तेन दत्तं भुञ्जीथा भव शान्तिमान् । तृष्णायास्तु पिशाचिन्या अन्तो भोगेन नाप्यते ।। २५ ।।

 अत्रैवाप्तान् प्रभोगाँश्च संप्राऽनुभूय सर्वथा । रागद्वेषौ महादोषौ क्षपयित्वा हितं कुरु ।। २६।।

 श्रेयं मत्तो महानस्ति लक्ष्म्या बुद्ध्या  जनैश्च वा । इति चिन्तयितुर्नैव सुखप्राप्तिर्भवेत् क्वचित् ।।२७।।।

 अहमस्मि महानात्माऽऽनन्देन पूरितो हरेः । इति मन्तुर्न वै दुःखं तृष्णादोषादिजं भवेत् ।।२८।

 अन्येषामधिकं दृष्ट्वा दुःखं मन्तव्यमेव न । स्वोपार्जितेन यत्प्राप्तं तत् सुखं शान्तिदं मतम् ।।२९।

 यदृच्छयोपपन्ने तु वस्तुनि तूद्यमार्जिते । अलंबुद्धिर्भवेद्यस्य स सदात्र सुखी भवेत् ।। ३०।

 त्रैलोक्याऽहतशास्तिसाम्राज्यं तवास्ति वै दृढम् । यदि नाप्ता ततः शान्तिरधिकात् का भविष्यति ।।३ १।

 अयं मम परश्चेति द्रष्टुर्नास्ति क्वचित् सुखम् । तारतम्यं तु सर्वत्र मायालोकेऽस्ति सर्वथा ।। ३२

 प्रकृतौ विकृतौ कार्ये निरतिक्रमवर्जिते । नहि क्वापि परा शान्तिर्लब्धा केनापि भूपते ।।३३।

 न कश्चिल्लप्स्यते शान्तिं यदि स्यात्प्रकृतेः पतिः । प्रधानस्य पतिर्वापि काऽन्यस्यात्र कथा नृप ।।३४।।

 तस्माच्छान्तिं लभ राजन् मा तृष्णां वर्धय प्रभो । विरेमुश्चेति सन्दिश्य ब्राह्मणाः पारदर्शिनः ।।३५।।

 सहस्राक्षस्तु कर्णौ तानदत्वैव मखान् बहून् । कारयामास विधिवत् प्रत्यब्दं तु महत्तमान् ।।३६।

 एतैः पुण्यं शतब्रह्मार्जितं प्राप्तं च तेन वै । अथाऽऽयुषोऽन्तिमे वर्षेऽधिमासेऽपरपक्षके ।।।३७।

 दिने प्रतिपदि प्रातर्हरेः शुश्राव दुन्दुभिम् । यज्ञेषु वर्तमानस्य सहस्राक्षस्य भूपतेः ।।३८।

 पुरुषोत्तममासस्य दुन्दुभिः श्रवणं गतः । अधिमासे द्वितीये तु पक्षे वै प्रतिपद्गते ।। ३९।

 कृष्णनारायणः सर्वेश्वरः श्रीपुरुषोत्तमः । यदिष्टं यस्य तद् दास्ये कोटिकल्पैरलभ्यकम् ।।४०।

 कोटियज्ञैः कोटिदानैर्यदलभ्यं ददाम्यहम् । अत्र व्रते प्रकर्तव्यं राज्ञा दानं यथाबलम् ।।४१।

 पूजनं मे प्रकर्तव्यं यथालब्धोपचारकैः । भोजनं मे च दातव्यं यथायोग्यान्नसद्रसैः ।।४२।

 दक्षिणा मे प्रदातव्या यथाश्रद्धा तथा धनैः । परोपकारः कर्तव्यः पुरुषोत्तमतुष्टये ।।।४३।

 यदि सम्राट् सार्वभौमश्चतुर्दशभुवां पतिः । यथाविभवं कृष्णं मां पूजयेदुत्तमोत्तमैः ।।४४।

 प्रातः स्नानं स्वयं कृत्वा पञ्चरत्नजलेन माम् । सुगन्धसारवार्भिश्च दन्तशुद्धिं प्रकारयेत् ।।४५।

 सुगन्धं मञ्जनं दद्यान्नूतनं दन्तधावनम्। सुगन्धजलगण्डूषैर्जिह्वाशुद्ध्यादि कारयेत् ।। ४६ ।।

 पुष्परसाग्र्यसारैश्च सुगन्धिभिर्जलैश्च मे । शौचादि कारयेद् राजा हस्तशुद्ध्यादि कारयेत् ।।४७।

 चन्दनाक्तसुमृद्भिश्चाऽवयवानां पवित्रताम् । सुगन्धवारिभिश्चाऽद्भिः कारयेत् स्नापयेत्ततः ।।४८।।

 दुग्धेन दध्ना चाप्येकाक्षरेण मधुना तथा । शर्कराभिश्चामृतैश्च स्नापयेद् वारिभिस्ततः ।।४९ ।।

 सुगन्धितैलसारैश्च मर्दनं कारयेन्नृपः । तीर्थवार्भिः स्नापयेच्च वस्त्रैश्च मार्जयेज्जलम् ।।५ ० ।।

 अतिसूक्ष्मातिमूल्यैः सत्सुवर्णतारचन्द्रकैः । मृदुचित्रैश्चातिसूक्ष्मवस्त्रैर्मा शोभयेत् ततः ।।५ १ ।।

 राज्यासनार्हसौवर्णैर्मुकुटैः कटकादिभिः । स्वर्णोर्मिका शृंखलाद्यैः कुण्डलैर्हारशेखरैः ।।५ २।।

 कोट्यधिकैर्मणिरत्नैर्मौक्तिकैर्नद्धभूषणैः । पुष्परागप्रवालैश्च वैदूर्यैः सूर्यकान्तकैः ।।५ ३ ।।

 चन्द्रकान्तैर्मारकतैर्माणिक्यैः स्फटिकैस्तथा । वज्रैर्गारुत्मतैर्मुक्ताभिश्च सत्पद्मरागकैः ।।५४।।

 इन्द्रनीलैः पुष्पराजैः कर्केतनैश्च भीष्मकैः । पुलकैः रुधिरैः स्वर्णै राजतैर्भूषणैस्तथा ।।५५ ।।

 सामुद्रिकैः खनिजैश्च वह्निैः स्वर्भवैस्तथा । रत्नमालाविभूषाभिः पूजयेत्परमेश्वरम् ।।५६ ।।

 ऊर्णावस्त्रोत्तमैश्चान्यैः कार्पासकैश्च कौशुकैः । वार्क्षैः सुवर्णजैश्चान्यैः रसजैस्त्वक्कृतैश्च वै ।।५७।।

 वस्त्रैः संशोभयेत् कृष्णं तैलैः सुगन्धसारकैः । कज्जलैर्नवनीतैश्च मर्द्यद्रव्यैः सुगन्धकैः ।।५ ८।।

 सगन्धं कारयेत् कृष्णं कस्तूरीचन्दनादिभिः । कर्पूरैः केसरैर्मिश्रैः पूजयेत् तिलकादिभिः ।।५ ९ ।।

 कुंकुमाऽक्षतपुष्पैश्च स्वर्णचम्पककुन्दकैः । पारिजातस्थलपद्मैः कमलैस्तुलसीदलैः ।।६ ० ।।

 कल्पपुष्पैः स्वर्णवल्लीकुसुमैः पूजयेत्प्रभुम् । स्वर्णाक्षतैर्वर्धयेच्च हारमालाः समर्पयेत्। ।।६ १ ।।

 करपादतले गण्डौ कपोलौ कर्णसीमकौ । भुजौ जंघे नखानोष्ठौ रंगैः संरंजयेद्धरेः ।।६२।।

 सुवर्णमणिरत्नादिनद्धोपानद्युतौ पदौ । नक्तकयष्टिकागुच्छशृंखलासहितौ करौ ।।६ ३ ।।

 शोभयेत् तिलकं पीतं रक्तं चन्द्रं प्रकारयेत् । धूपं दीपं कारयेच्च भोजनं शतमष्ट च ।।६४।।

 अम्ब्लं मधुरं लवणं कटु तिक्तं कषायकम् । यथारुचि यथापेक्षं स्वादु सुगन्धि चार्पयेत्। ।।६५।।

 भक्ष्यं भोज्यं चोष्यलेह्ये पेयं चास्वाद्यमित्यपि । अन्नं शाकद्विदलाश्चौदनानि सुफलानि च ।।६६।।

 पायसान्नं सुवर्णैः संस्कृतानि सद्रसानि च । अमृताढ्यानि मिष्टानि मृष्टानि दापयेन्नृपः ।।६७।।

 मुखवासानि चूर्णानि ताम्बूलं चान्यचर्वणम् । उत्तेजकानि चान्यानि त्वर्पयेद्धरये नृपः ।। ६८ ।।

 शीतलान्यपि पेयानि चूर्णितरसवन्ति च । मादकानि विविधानि त्वर्पयेद्धरये नृपः ।।६ ९।।

 गायनानि तु राज्ञीभिस्तालवाद्यस्वरान्वितैः । नर्तनैर्हावभावाद्यव्यंग्यरसप्रपूरितैः ।।७० ।।

 सखीभिः कारयेद्राजा वर्धयेद् बहुभावनैः । लाजाभिश्चन्दनकणैरक्षतैः स्वर्णतण्डुलैः ।।७ १ ।।

 मणिरत्नादिभिर्देवं वर्धयेत्तु पुनः पुनः । जयकारान् कारयेच्च नीराजयेत्प्रगे निशि ।।७२ ।।

 शतैः सहस्रकैर्वर्तिकर्पूरादिभिरादरात् । आकटि सप्त चावर्तान् सप्त त्वामस्तकं तथा ।।७३ ।।

 ततः सप्ताऽऽवर्तकाँश्च प्रत्येकसप्तचक्रकान् । ततश्च सप्तलहरीरूर्ध्वाऽधःप्रसृताश्चरेत् ।।७४।।

 व्यावर्तान्पादयोश्चैवाऽऽवर्तयेत् क्रमशो हरिम् । ततो वस्त्रेण चावर्तांस्त्रीन् हरिं समवर्तयेत् ।।७५ ।।

 ततः शंखजलेनापि व्यावर्तानवतारयेत् । आरार्त्रिकं तज्जलेन त्रिवारं समवर्धयेत् ।।७६ ।।

 धूपं ततस्त्रिवारं चावर्तयेत्परमेश्वरम् । घण्टावादनमन्येषां वाद्यानां चापि वादनम् ।।७७।।

 दुन्दुभिझल्लरीघण्टापटहानतिवादयेत् । ततः स्तुतिं नमस्कारं दण्डवत् प्रार्थनां चरेत् ।।७८ ।।

 प्रदक्षिणादिकं कृत्वा पुष्पाञ्जलिमथार्पयेत् । एवं प्रातश्च मध्याह्ने निशि सम्राट् प्रपूजयेत् ।।७९ ।।

 शृंगारयित्वा सत्सैन्यं विमाने च गजे रथे । स्थापयित्वा राजधान्युद्यानादौ भ्रामयेद्धरिम् ।।८ ० ।।

 जनता वर्धयेत् कृष्णनारायणं पुमुत्तमम् । पुनस्त्वानीय च राजसौधं जलादि चार्पयेत् ।।८ १ ।।

 विश्रामयेत् पादसंवाहनाद्यं वर्तयेन्नृपः । भगवत्तोषणार्थे च भूरिदानानि वै ददेत् ।।।८२ ।।

 हस्तिदानं वाजिदानं चोष्ट्रघोटकदानकम् । वृषभाऽजप्रदानं च गोगरुडप्रदानकम् ।।८ ३ ।।

 शुकदानं सारिकाया मेनाया दानमित्यपि । नराणां दासदासीनां कन्यानां दानमित्यपि ।।८४।।

 यानानां वाहनानां च पशूनां दानमित्यपि । कम्बलाम्बरवेषाद्युत्कृष्टवस्तूनि दापयेत् ।।८५ ।।

 भवनानि नगराणि क्षेत्राणि पर्वतांस्तथा । सरोवराणि खनिजान् खनींश्चारण्यकानि च ।।८६।।

 दद्याद् दाने द्विजातिभ्योऽनाथेभ्योऽन्नाम्बराणि च । वृक्षान् वल्लीः प्रदद्याच्च क्षेत्राणि वाटिकास्तथा ।।८७।।

 दद्यान्नदीर्नदाँश्चैवाऽखातान् स्वर्ग महस्तपः । सत्यं लोकं प्रदद्याच्च पातालान्ततलानि च ।।८८।।

 देशं प्रदेशं खण्डं च राज्यं द्वीपं च दापयेत् । दाता ब्रह्माण्डनेता चेद् ग्रहीताऽपि तथा भवेत् ।।८९ ।।

 मिलेन्नैव ग्रहीता चेत् संकल्प्य हरये ददेत् । विश्वंभरो विश्वपोष्टा विश्वरक्षाकरः प्रभुः ।।९० ।।

 गृह्णात्येव न सन्देहो भावनाक्षुधितो हरिः । साम्राज्यमुकुटं दद्याद् दद्याद् राज्ञीं सुतास्तथा ।।९ १ ।।

 र्वे दद्याच्छर्मदाय कृष्णाय परमात्मने । कोशं सैन्यानि राष्ट्राणि दद्याच्छ्रीकेशवाय वै ।। ९२।।

 यथाश्रद्धं प्रदद्याच्च सकामायाऽधिकारिणे । सत्पात्राय प्रदद्याच्च नारीभ्योऽपि ददेद् बहु ।। ९३ ।।

 बालाभ्यो विधवाभ्यश्च साध्वीभ्यो जीविकां ददेत् । सतीभ्यो योगिनीभ्यश्च रंकाभ्यो भोजनं ददेत् ।।९४।।

 सन्तर्पयेद् यज्ञभागैस्त्रिलोकसुरमानवान् । काश्यपान् प्राणिनः सर्वांस्तोषयेदन्नवारिभिः ।।९५ ।।

 एतत्सर्वं प्रदद्याद्वा दद्यादेकं च वा नृपः । वित्तशाठ्यं न चेत् कुर्याद् दद्याच्च श्रद्धया यदि ।।९६।।

 कांस्यपात्रपुटदानं सुवर्णपुटदानकम् । अष्टावरणसंयुक्तं चतुर्दशदलान्तरम् ।।९७।।

 सुवर्णरत्नसंव्याप्तं पुटं दद्यात्पुटानि च । तत्फलं सर्वथा कृष्णनारायणो यथेष्टकम् ।। ९८ ।।

 ददाति मास्यधिके वै शाश्वतं बहुतृप्तिदम् । सकामं चापि निष्कामं दास्यामि पुरुषोत्तमः ।। ९९।।

 कुर्वन्तु दानं वितरन्तु लक्ष्मीं क्षिपन्तु पात्रे भगवत्प्रबुद्ध्या ।

 श्रीकृष्णनारायण एव दाता वैराजकं चापि ददामि राज्यम्।। १०० ।।

 इत्येवं दुन्दुभिर्वक्ति मासि श्रीपुरुषोत्तमे । सहस्राक्षः शृणोत्येव श्रीदं तं प्रतिपत्तिथौ ।। १०१ ।।

 प्रातरेव तु राजाऽसौ कृष्णनारायणं प्रभुम् । श्रुत्वा तं दुन्दुभिं  नत्वाऽपूजयच्छुद्धिमान्नृपः ।। १० २।।

 दुन्दुभिना यथाप्रोक्तं राज्ञः श्रद्धा च यादृशी । तथा राज्ञा कृतं सर्वं पूजनं सविसर्जनम् ।। १ ०३।।

 अथ दानं ददौ प्रातः पत्नीव्रतद्विजन्मने । आहूय ब्रह्मणः सत्ये लोके संसदि तं द्विजम् ।। १०४।।

 ब्राह्ममूर्ते! द्विजश्रेष्ठ! त्वमेव पुरुषोत्तमः । अधिमासाधिदैवात्मन्! फलदाताऽसि मूर्तिमान् ।। १ ०५।।

 अहं वै दुन्दुभिं श्रुत्वा करोम्यद्य दिने व्रतम् । वैराजपदलब्ध्यर्थ दानं गृहाण सार्थकम् ।। १ ०६।।

 चतुर्दशभुवनानां राजाऽस्मि च ददाम्यहम् । स्वर्णदीजलसाक्ष्येऽत्र वेधसः संसदि द्विज ।। १ ०७।।

 चतुर्दशभुवनानि ददामि फललब्धये । दत्तानि च गृहीतानि प्रत्युवाच द्विजोत्तमः ।। १ ०८।।

 तावत्पत्नीव्रतरूपे भगवान् पुरुषोत्तमः । प्राविर्बभूव सहसा कोटिभास्करकान्तिमान् ।। १ ०९।।

 प्रहसंस्तं सहस्राक्षं प्रोवाच पुरुषोत्तमः । दानं प्राप्तं मया राजन् द्विजरूपेण सर्वथा ।। ११ ०।।

 मया दत्तं फलं तस्य ते वैराजपदं ध्रुवम् । आयुषोऽन्ते तु लब्धाऽसि वैराजं पदमैश्वरम् ।। ११ १।।

 इति कृत्वा प्रसादं तं नृपं प्रदर्श्य विग्रहम् । तिरोबभूव सहसा स्पृशन् मूर्ध्नि नृपस्य सः ।। १ १२।।

 राज्ञा व्रतं तथा पूजां सर्वं वै श्रद्धया कृतम् । ददौ ब्रह्माण्डदानं स यत्र किञ्चिन्न शिष्यते ।। १ १३।।

 स्वयं दासोऽभवत्तस्य किंकरो ब्राह्मणस्य वै । वर्षान्तः पूर्णतां प्राप्तः सहस्राक्षः समाधिना ।। १ १४।।

 पश्यति स्वकृते चाग्रे वैराजं पदमस्ति यत् । पूर्ववैराजविगमे नैकट्ये दृश्यते हि तत् ।। १ १५।।

 इत्येवं वर्तमानेन राज्ञा तेन महात्मना । क्रमयोगाद् दैवयोगात् त्यक्तं देहं नृपात्मकम् ।। १ १६।।

 सहस्राक्षशरीरं च विहायेमं तु गोलकम् । दिव्यमार्गे ययौ चेशसृष्टौ यत्रास्ति तत्स्थलम् ।। १ १७।।

 प्राप्तवान् स सहस्राक्षो वैराजं पदमैश्वरम् । योऽद्यास्ति नाभिकमलः पिता वै वेधसः प्रभुः ।। १ १८।।

 सोऽयं वैराजसाम्राज्यं प्राप्तवान् प्रतिपद्व्रतात् । भूम्ना हैरण्यगर्भेण तथाऽन्यैरीश्वरैरपि ।। १ १९।।

 तत्राभिषिक्तो राजा सः योऽसौ नारायणोऽभवत् । यत्कमलेऽभवद् ब्रह्मा यल्ललाटाच्छिवापतिः ।। १ २०।।

 यस्य वै हृदयाद्विष्णुर्यस्योदरे त्विदं जगत् । सोऽयं व्रतप्रभावेण सहस्राक्षो नृपः खलु ।। १ २१।।

पुरुषोत्तमसद्भक्त्या जातो नारायणो विराट् । एवं त्वधिकमासस्य मध्योऽर्ध्वप्रतिपद्दिने ।। १ २२।।

 व्रतपूजनदानेन फलं ते कथितं प्रिये । प्रसन्नः श्रीहरिस्तत्र किं न ददाति पद्मजे ।। १२३।।

 अस्य श्रावयिता चापि पाठकर्तापि तादृशम् । फलं संलप्स्यते लक्ष्मि! वदामि पुरुषोत्तमः ।। १२४।।

 नास्तिकश्चाऽश्रद्दधानो मृषावादी प्रदूषकः । न प्रसादं फलं वापि लभते मम निन्दकः । । १२५।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये प्राक्सृष्टौ सार्वभौमेन सहस्राक्ष-नामकराज्ञा सहस्रेषु यज्ञेषु कृतेषु ततोऽधिकमासोत्तर-पक्षीयप्रतिपद्व्रतदानादिना प्राप्तं वैराजनारायण-पदमित्यादिनिरूपणनामाऽष्टाधिकत्रिशत-तमोऽध्यायः ।। १.३०८ ।।