पुरुषोत्तम मास दशमी उत्तरा (11-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास उत्तरा दशमी का जो माहात्म्य दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है – कृष्ण ने राधा के साथ रास उत्सव मनाया। उसमें करोडों – अरबों गोप गोपियां, उनकी कन्याएं आए। राधा ने देखा कि कन्याएं अपनी माताओं को माँ, अम्बा, जननी आदि पुकार रही हैं जिसे सुनकर उनकी माताओं को आनन्द होता है। जो स्त्री पुत्रीहीना है, पति से युक्त है, वह पूर्ण सुखी नहीं है। पुत्री मातृस्वरूपा होती है, माता के कार्य के लिए दासी स्वरूपा होती है। भोजन, उत्सव, यान, शयन, प्रवास, सहायता में सुता सेविका रूप होती है। नारी वर्ग के लिए तो नारी ही सहसेविका होती है। उसमें भी जैसी सेविका सुता है, वैसी न तो वधू हो सकती है, न भृत्यका, न कुटुम्बिनी। माता को प्रातःकाल पुत्री का मुख देखकर स्वर्ग से भी अधिक सुख होता है। जैसा सुख पुत्री का मुख देखकर होता है, वैसा पुत्र दर्शन से नहीं होता। पुत्री अबला, गो समान, माता की सेविका होती है। बाद में तो वह पति के साथ चली जाती है, अतः पुत्री का पूरी आयु का सुख कुमारी रहते हुए ही मिल सकता है। अतः पुत्री दस गुना श्रेष्ठ होती है। अपुत्री समाजादि में म्लान दिखाई पडती है। पुत्री से घिरी हुई माता प्रकाश में रहती है। अपुत्री तो ऐसे दिखाई देती है जैसे नींद से उठकर आई है। जिसकी बहुत पुत्रियां होती हैं, वह धनवानों में पूजी जाती है। जामाता भी बहुपुत्री वालों का धन होते हैं। राधा के न पुत्री है, न पुत्र, अतः राधा कैसे सुखी हो सकती है। विरजा, रुक्मिणी, लक्ष्मी आदि उसकी जितनी सपत्नाएं हैं, वह सब पुत्री वाली हैं। अतः राधा  ने महोत्सव के पश्चात् कृष्ण से अपने भाव को प्रकट किया। कृष्ण ने राधा को आनन्द प्रदान करते हुए उसे दिव्य, राधा के समान ही रूप वाली, संकल्पमात्र से उत्पन्न कन्या प्रदान की। उसे देखकर सारी गोपियां, सारी कृष्णपत्नियां मोहित हो गई, स्तब्ध हो गई, क्षण भर के लिए चित्र की भांति रह गई। उनकी वृत्तियां कुण्ठित हो गई। चूंकि वृत्तियों में कुण्ठा भाव उत्पन्न हुआ था, स्थिरता उत्पन्न हुई थी, अतः कृष्ण ने वात्सल्य से उसका नाम विकुण्ठा रखा। बडी होने पर वह नित्य पिता के साथ श्रीपुरुषोत्तम के दर्शन के लिए जाती थी। पिता कृष्ण प्रातःकाल श्वेत दिव्य पक्षयुक्त हस्ती पर बैठ कर प्रभु की पूजा करने जाते थे । विकुण्ठा यह सब देखती थी। वह भी पुरुषोत्तम का स्मरण, गान, पूजन करती थी। वह सदा ध्यान करती थी कि वह पुरुषोत्तम की पत्नी बन जाए। इतने में ही उसने दुन्दुभि का घोष सुना जो घोषणा कर रही थी कि आज अधिकमास की पर पक्ष की दशमी है । आज व्रत करने से अभीष्ट वस्तु प्राप्त होती है। उसने भी पुरुषोत्तम की प्राप्ति के लिए दशमी व्रत किया। पुरुषोत्तम प्रकट हुए। विकुण्ठा ने उनसे वर मांगा कि आप मेरे पति बन जाएं। पुरुषोत्तम ने स्वीकार कर लिया, लेकिन कहा कि मैं एक रूप में वास नहीं करता हूं। अक्षर धाम में मैं पुरुषोत्तम रूप में वास करता हूं। द्वितीय रूप में मैं महावैकुण्ठ धाम में वास करता हूं, तृतीय रूप में जल आवरण वाले वैकुण्ठ में, चतुर्थ रूप में श्वेतद्वीप नामक वैकुण्ठ में, पंचम रूप में क्षीरसागर वाले वैकुण्ठ में। अतः तुम भी दिव्य रूपों में वहां सर्वत्र बस जाओ। एक रूप में तुम अपनी माता राधा की सेवा करती रहो। इस प्रकार तुम्हारे छह रूप हो गए। चार वैकुण्ठों में विकुण्ठा ने दो – दो रूप धारण किए – एक व्यापक रूप, एक तेजोमय रूप। अतः कुल दस रूप हो गए। यह दशमी व्रत का फल है।

विवेचन

 पुराणों में वैकुण्ठ का वर्णन सार्वत्रिक रूप से प्रकट हुआ है। लेकिन वैकुण्ठ की जैसी व्याख्या लक्ष्मीनारायण संहिता में प्रस्तुत की गई है, वैसी अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती। कहा गया है कि जिस घटना से इन्द्रियों की सारी वृत्तियां कुंठित हो जाएं, वह वैकुण्ठ है। हम कोई संगीत सुनते हैं, कोई रूप देखते हैं, वह सब विकुण्ठा का रूप हैं। बस, यह विकुण्ठा एक क्षण के लिए ही होती है, सार्वकालिक नहीं। लक्ष्मीनारायण संहिता में विकुण्ठा को राधा की पुत्री बनाकर एक नया अध्याय खोला गया है। राधा शब्द स्वयं ही आनन्द का सूचक है। और कोई सामान्य आनन्द नहीं, दिव्य आनन्द, जिसकी कोई परिभाषा उपलब्ध नहीं होती। ऋग्वेद 10.48 से 10.50 सूक्तों का ऋषि वैकुण्ठ इन्द्र है और देवता इन्द्र है। इन सूक्तों की व्याख्या के लिए वैदिक साहित्य में कुछ स्थानों पर आख्यानों के रूप में छोटी – मोटी व्याख्याएं मिलती हैं। बृहद्देवता नाम ग्रन्थ में कहा गया है कि विकुण्ठा असुर – पुत्री थी। उसने इन्द्र जैसा पुत्र प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया। तब उसे वरदान मिला कि इन्द्र ही तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेगा। उसका पुत्र वैकुण्ठ इन्द्र हुआ। कुछ दिन तक तो वैकुण्ठ इन्द्र का राज्य ठीक चला, उसने असुरों का संहार किया। फिर वैकुण्ठ इन्द्र में विकार आ गए। तब ऋषि सप्तगु ने अपने सखा वैकुण्ठ इन्द्र का सूक्त 10.47 के रूप में प्रबोधन किया,  धन प्राप्ति आदि की कामना की। प्रबोधन प्राप्त होने पर वैकुण्ठ इन्द्र ने ऋग्वेद के सूक्तों के रूप में इन्द्र की स्तुति की। वैकुण्ठ इन्द्र के स्वरूप का एक अनुमान नहुष की कथा से लगाया जा सकता है जिसे ऋषियों ने शाप देकर स्वर्ग से नीचे गिरा दिया था। लक्ष्मीनारायण संहिता के माहात्म्य में यह संशोधन किया गया है कि विकुण्ठा की, इन्द्रियों की वृत्तियों को कुण्ठित करने की जो शक्ति उत्पन्न हुई है, उसका उद्गम आसुरी नहीं, अपितु भक्ति की पराकाष्ठा से है। आसुरी रूप वह है जब हम अपनी चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए व्रतों का, योग का, नीरस जप – तप का आश्रय लें – योगश्चित्त वृत्ति निरोधः।

     इन्द्रियों की वृत्ति के कुंठित हो जाने के रूप में विकुण्ठा को दशमी में स्थान क्यों दिया गया है। इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि नवमी के दिन राम का अवतरण हो गया है। अब साधना का अगला चरण यह होगा कि इस राम रूपी परमात्मा का प्रभाव हमारे आचरण पर इतना पडे कि हमारी इन्द्रियों की वृत्तियां कुंठित हो जाएं। पुराणों में विकुण्ठा के एक और रूप की कल्पना भी की गई है – वह है मोहिनी। मोहिनी को दशमी में स्थान दिया गया है, एकादशी में नहीं।

वैकुण्ठ के निवासी चतुर्भुज होते हैं, जबकि गोलोक के द्विभुज। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि चतुर्भुज होना विज्ञानमय कोश का सूचक है क्योंकि विज्ञानमय कोश यद्यपि पांच कोशों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय में से चौथा कोश है। लेकिन यह नीचे के तीन कोशों अन्नमय, प्राणमय और मनोमय से भी जुड सकता है और ऊपर के आनन्दमय कोश से भी। जब यह नीचे के तीन कोशों से जुडेगा तो यह चतुर्भुज कहलाएगा। विज्ञानमय की विशेषता यह है कि यहां सारी वृत्तियां सूक्ष्म रूप में एकत्रित रहती हैं। यहीं से मनुष्य को शकुन आदि प्राप्त होते हैं। विज्ञानमय कोश तान्त्रिक भाषा का शब्द है। वैकुण्ठ पुराणों की भाषा का।  

 

श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! विकुण्ठा या गोलोके राधिकासुता । संकल्पमात्रजा कन्या तस्या वृत्तं व्रतान्वितम् ।। १ ।।

 अधिमासस्य देवोऽभूद् भगवान् पुरुषोत्तमः । राधया सहितः कृष्णो रासं चक्रे तदुत्सवे ।। २ ।।

 तत्राऽऽयाता गोपगोप्यः कन्याः कोट्यर्बुदार्बुदाः । कुटुम्बिनीः सकन्याश्च रूपलावण्यसम्पदः ।। ३ ।।

 गोपीर्वीक्ष्य स्वयं राधा त्वपुत्रीयेषु पुत्रिकाम् । गोपीनां कन्यका दिव्या आह्वयन्ति स्वमातृकाः ।। ४ ।।

 माँ अम्बे जननि चैवं ह्यानन्दयन्ति मातृकाः । पुत्रीहीना पतियुक्ता न पूर्णा सुखिनी हि सा ।। ५ ।।

 पुत्री मातृस्वरूपाऽस्ति मातुर्वै कार्यदासिका । सर्वथा साहचर्येण सेवते मातरं सुता ।। ६ ।।

 भोजने चोत्सवे याने रहस्याप्लवने गृहे । शयने वा प्रवासे वा साहाय्ये सेविका सुता ।। ७ ।।

 नारीवर्गस्य नार्यैव शारीरसहसेविका । तत्रापि स्वसुता तुल्या न स्नुषा नापि भृत्यका ।। ८ ।।

 न वा कुटुम्बिनी तद्वद् यथा पुत्री तु सेविका । तस्मात् सुतां बिना नारी त्वर्धसौभाग्यशालिनी ।। ९ ।।

 प्रातः पुत्रीमुखं दृष्ट्वा स्वर्गादप्यधिकं सुखम् । जननी विन्दति लोके न तथा पुत्रदर्शनात् ।। १ ०।।

 पितुः पुत्रे यथा स्नेहो मातुः पुत्र्यां ततोऽधिकः । अबला गोसमा पुत्री कुमारी मातृसेविका ।। ११ ।।

 पश्चात् पतिपरा सा स्यात्तस्मान्मातुर्विशेषतः । पूर्णायुष्यसुखं पुत्र्याः कौमार्ये लभ्यमेव ह ।। १२।।

 अतः पुत्री दशगुणा प्रेष्ठा भवति सर्वथा । मातुः कलासुकौशल्यं गृहकार्यादिशिक्षणम् ।। १३।।

 पुत्र्यात्मके निजपात्रे वसत्येव सदा चिरम् । सत्पुत्र्या जायते माता यशस्विनी कुलद्वये ।। १४।।

 पुत्री कीर्तिर्यशः पुत्री पुत्री पिण्डस्तु मातृजः । स्वात्मिकां पुत्रिकां दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा हृष्यन्ति मातरः ।। १५।।

 पुत्रः पितृस्वरूपोऽस्ति पुत्री मातुस्वरूपिणी । सुपुत्री जननी पुत्रीमत्सु मान्या भवत्यपि ।। १६।।

 अपुत्री तु समाजादौ म्लानेव दृश्यते खलु । पुत्रीमण्डलमध्यस्था माता तत्र प्रकाशते ।। १७।।

 अपुत्री तु यथा निद्रोत्थिता तद्वद्धि दृश्यते । बह्वयः सुपुत्रिका यस्याः सा धनाढ्यासु पूज्यते ।। १८।।

 पुत्र्यात्मकं धनं तस्याः सर्वश्रीभ्यो विशिष्यते । जामातारोऽपि बहवो बहुपुत्र्या धनं महत् ।। १९।।

 पुत्रीपुत्राश्च तत्पुत्रा धनं विस्तृतमेव तत्। । बहुशाखश्च वृक्षस्य छायां श्रयन्ति लक्षशः ।।२०।।

 अशाखस्य न वै छाया नाश्रिता नहि मान्यता । परोपकारो नाप्यस्ति तथाऽपुत्री विगण्यते ।।२ १।।

 पुत्रीसुखं परं दृष्ट्वा माता तोषं प्रयाति वै । न मे पुत्री न वा पुत्रः कथं राधा सुखाश्रया ।। २२।।

 सपत्नीदुःखमापन्ना यदि पुत्रीमती भवेत् । तदा सापत्न्यदुःखं वै पुत्रीं दृष्ट्वा निवर्तते ।।२३ ।।

 विरजा रुक्मिणी लक्ष्मीः रमा श्रीः पार्वती प्रभा । जया च विजया भामा मंगला माणिकी यमी ।।२४।।

 अन्याश्चाऽसंख्यकोट्यश्च सपत्न्यः सान्ति मे सदा । सपुत्र्यस्ताः सदा दृश्या मया पुत्रीविहीनया ।। २५।।

 तस्मात् पुत्री मया प्रार्थ्या कृष्णाछ्रीपुरुषोत्तमात् । यया पुत्रीमतीनां मौर्धन्यं मम यथा भवेत् ।।२६।।

 इति संचिन्त्य राधा सा महोत्सवोत्तरं निजम् । भावं प्रकाशयामास रहः श्रीकृष्णसन्निधौ ।।२७।।

 पुत्री मे दयितां नाथ विना पुत्रीं मृतिर्वरा । पुत्रीमतीषु सर्वासु न शोभेऽहं समुत्सवे ।।२८।।

 अपत्यानि विना नारी शोभते नैव चैकला । कदली शोभते नैव पार्श्वापत्यानि यत्र न ।।।२९।।

 विरुल्लता न शोभन्ते क्वचिच्छाखालतामृते । हरिणी शोभते नैव बालापत्यानि वै विना ।। ३०।।

 विद्युत्तु शोभते तत्र यत्र वृष्टिः प्रवर्तते । कुल्या विना महत्त्वं न नद्याः क्वापि प्रसिद्ध्यति ।।३ १।।

 विनाऽङ्गुलीः फणा नैव शोभते शोभिताऽपि वै । शान्तिं विना न वा विद्या शोभते सा महत्यपि ।।३२।।

 मुक्तिं विना पराविद्या शोभते न पराऽपि सा । तृप्तिं विना यथा भुक्तिर्निष्फलेव प्रजायते ।।३३।।

 पत्नीं विना यथा शय्या यौवनोद्वेगदायिनी । पुत्रीं विना तथा माता वार्धक्ये दुःखदर्शिनी ।।३४।।

 तस्मात् पुत्रीं समिच्छामि सर्वसद्गुणशालिनीम् । मात्राज्ञापालयित्रीं च कुलधर्मानुयायिनीम् ।। ३५।।

 मातृसेवाकरीं दिव्यां गृहकार्यसहायिनीम् । अन्नवारिसमित्पत्रशाकपुष्पादिरक्षिणीम् ।।३६।।

 मार्जनं मञ्जनं वस्तुरक्षणं क्षालनं तथा । पाचनं संस्करणं च जलाहरणप्रभृति ।।३७ ।।

 कुर्यात् स्निग्धा सुता या स्यान्मातृवात्सल्यशोभिता । तस्मान्मया सुपुत्र्यत्र कृष्ण कान्त गुणालया ।।३८।।

 सर्वश्रेष्ठा च विख्याता मातापितृसहायिनी । दृष्ट्वा स्मृत्वा च यां शान्तिर्भवेत् समिष्यते हरे ।।३९।।

 यद्यहं ते प्रिया पत्नी मयि तुष्टो भवान् यदि । यद्यहं ते प्रिया दासी प्रियः कान्तोऽसि मे यदि ।।४०।।

 तदा राधा वृणुतेऽत्र कृष्णात्पुत्रीं सुलक्षणाम् । सर्वपुत्रीमतीपुत्रीर्विस्मारयेत्तु या नु माम् ।।४ १ ।।

 इत्यभ्यर्थ्य प्रिया राधा कृष्णनारायणं प्रभुम् । कृत्वा वक्षसि संश्लिष्टं सेवयामास भावतः ।।४२।।

 कृष्णस्त्वानन्दयित्वा तां ददौ तस्यै सुपुत्रिकाम् । दिव्यां राधासमाकारां राधारूपातिरूपिणीम् ।।४३ ।।

 संकल्पमात्रजन्यां च जातमात्रा सुयौवनाम् । दिव्यां दिव्यसहस्राब्जगोपीरूपाऽतिरूपिणीम् ।।।४४।।।

 यथा राधा तथा सास्ति यथा सा राधिका तथा । आन्तरं नैव सर्वात्मतुल्यतया विभासते ।।४५।।

 मुमुहुर्गोपिकाः सर्वाः कृष्णपत्न्यश्च मोहिताः । स्तब्धाश्च चित्रिता यद्वत् तदानीमभवन् क्षणम् ।।४६ ।।

 एतादृशी दर्शनार्हा वृत्तीनां कुण्ठिता परा । तत्रैव पुत्र्यां सर्वासां सर्वेषां चाऽभवत्तदा ।।४७।।

 कृष्णोऽपि रूपसम्पन्नां सुतां दृष्ट्वा जहर्ष वै । वृत्तीनां कुण्ठितो भावो जातं स्थैर्यं यतोऽत्र वै ।।४८।।

 पित्रा कृष्णेन वात्सल्याद् विकुण्ठेति समादरात् । समाहूता सुता तद्वत् समाहूता हि राधया ।। ४९ ।।

 विकुण्ठाख्या च सा कार्ष्णी राधेयीनामतोऽभवत् । गोलोकवसतिः सर्वा द्रष्टुं कन्यां समाययौ ।।५ ० ।।

 प्रशंसन्ति स्त्रियस्तां ता अहो राधा महोदया । अहो पुत्री दिव्यराधारूपाऽतिरूपभाजना ।।५ १ ।।

 अहो भाग्येन कस्यापि जातेयं सुमनोहरा । कृष्णादप्युत्तमं भाग्यं तस्य स्याद् यस्य सा भवेत् ।।५२।।

 विवाहविधिना भार्या भवेद्यस्य तु कन्यका । स वै कृष्णोत्तमः कृष्णो भवेद्वै पुरुषोत्तमः ।।५३ ।।

 इत्युक्त्वाऽऽशिष आयुज्य जग्मुः स्वस्वालयं जनाः । राधा तां पाययामास स्तन्यं तत्कालसंभवम् ।।५४।।

 कृष्णः संस्कारयामास विधिना भोजनं ददौ । रमयामास माता तां लालनैः पालनादिभिः ।।५५ ।।

 अथ सा राधिकासेवां करोति स्माऽतिभावतः । गृहकार्याणि सर्वाणि निर्वर्तयति शिक्षिता ।।५६।।

 एवं विवर्तमाना सा वरारोहाऽतियौवना । नित्यं पित्रा समं याति द्रष्टुं श्रीपुरुषोत्तमम् ।।५७।।

 अक्षराधिपतिं ब्रह्मपरं श्रीपरमेश्वरम् । अनन्तकृष्णसंसेव्यं नारायणाब्जवन्दितम् ।। ५८ ।।

 यत्कान्त्या लेशमात्रेण कान्ताः कृष्णादयो मताः । तमनादिब्रह्मयुक्तैः सेवितं पुरुषोत्तमम् ।।५९।।

 प्रातः कृष्णः  सदा याति परं पूजयितुं प्रभुम् । श्वेतदिव्यमहायुक्तसपक्षहस्तिसंस्थितः ।।६ ० ।।

 उपायनादिकं नीत्वा भगवान् राधिकापतिः । निवर्तते तु सम्पूज्य तद्वा कृष्णसुता तु सा ।। ६१ ।।

 चकमे राधिकापुत्री दृष्ट्वा श्रीपुरुषोत्तमम् । तस्या मनः समाकृष्य स्वस्मिन् स्थापयति प्रभुः ।।।६२।।

 विकुण्ठा ध्यायति दृष्टं कृष्णनारायणं हरिम् । सर्वक्रियासु चानादिकृष्णानारायणं प्रभुम् । ।६३ ।।

 गायति स्मरति पश्यत्यपि श्रीषुरुषोत्तमम् । एवं नित्यं तया सार्धं समायाति च पूजनम् ।।।६ ४। ।

 कृत्वा कृष्णः स्वकं धाम गच्छति नित्यमेव ह । विकुण्ठाऽपि तन्मयाऽभूत् सर्वक्रियासु सर्वदा । । ६५। ।

 पुरुषोत्तमपत्नीत्वं प्राप्तुं ध्यायत्यहर्निशम् । तावत्तत्र तदाऽवादीद् दुन्दुभिः श्रीहरेर्महान् ।। ६६।।

 अद्याऽस्ति दशमी रम्या पुण्यदाऽधिकमासिकी । परे पक्षेऽत्र व्रतकृल्लभते स्वेष्टवस्तुकम् ।।६७। ।

 अपि कन्या च वा नारी नरो वा दीनमानवः । अद्य व्रतेन वै स्वेष्टं प्राप्स्यत्येव न संशयः । । ६८ । ।

 अक्षराधिपत्यनादिश्रीकृष्णपुरुषोत्तमः । यद्यदिच्छति तत्सर्वं प्रदास्ये वै व्रतार्थिने । । ६९ । ।

 मा संकोचं प्रकुर्वन्तु प्रार्थनाकरणे जनाः । गोप्यं रक्ष्यं चाऽनिवेद्यं दास्ये संकल्पितं खलु । ।७० । ।

 इत्याश्रुत्य विकुण्ठा सा चक्रे वै दशमीव्रतम् । पुरुषोत्तमलब्ध्यर्थं सजागरं दिवानिशम् । ।७ १ । ।

 प्रातस्तया कृता पूजा शुभा षोडशवस्तुभिः । पुरुषोत्तममूर्तेश्च भोजनारार्त्रिकादिकम् । ।७२। ।

 खानपानसुनैवेद्यफलपुष्पजलादिकम् । प्रातर्मध्ये तथा सायं रात्रौ चकार पूजनम् । ।७३ । ।

 कृष्णचन्द्रशीतरश्मितेजोमयेऽतिसूज्ज्वले । विरामाख्ये निशावाच्ये समये पुरुषोत्तमः ।।७४।।

 समायात् तत्र मूर्त्याख्ये स्वरूपेऽक्षरधामतः । कोटिकृष्णसमः कान्तो विकुण्ठाभाग्यनिश्चितः ।।७५ ।।

 प्रहसन् तां प्रभुः प्राहाऽऽगतोऽस्मि व्रतपुण्यदः । तव भक्त्या प्रसन्नोऽस्मि वृणु कृष्णसुतेऽनघे ।। ७६ ।।

 अदेयं नास्ति ते किञ्चित् स्मृतवत्यै सदा तु माम् । अनन्यायै भक्तिमत्यै कार्ष्ण्यै देयं यथेप्सितम् ।।७७।।

 तदा प्राह विकुण्ठा तं प्रसन्ना लज्जिता तथा । हृदये प्राणनाथ त्वं वर्तसेऽविदितं न ते ।।७८ ।।

 तथापि भक्तवात्सल्याज्जिज्ञासां त्वं करोषि वै । भगवन्मम नाथ त्वं भव प्राणपतिः प्रभुः ।।७९।।

 इयं समर्प्यते स्वामिन् वरमालाऽऽदिश प्रभो । तथास्त्विति हरिः प्राह तथा प्राहाऽधिकं हरिः ।।८ ० ।।

 शृणु नैकस्वरूपोऽहं वसामि विविधाश्रयः । वसाम्यहं सदा धाम्न्यक्षरे श्रीपुरुषोत्तमः ।।८ १ ।।

 द्वितीयोऽहं वसाम्येव महावैकुण्ठधामनि । तथा जलावरणान्तवैकुण्ठेऽहं तृतीयकः । ।८२ ।।

 श्वेतद्वीपाख्यवैकुण्ठे चतुर्थोऽहं वसाम्यपि । क्षीरान्तःस्थे तु वैकुण्ठे वसामि पंचमोऽप्यहम् ।।८३ ।।

 तस्मात् त्वयापि सर्वत्र वस्तव्यं दिव्यरूपया । नैकेन वै स्वरूपेण स्थातुं सर्वत्र पार्यते ।।८४।।

 ततोऽनेकस्वरूपत्वं कर्तव्यं भवति ध्रुवम् । किंच मात्रा तव राधिकया सेवार्थमित्यपि ।।८५।।

 निर्मिता त्वं ततो तां वै त्यक्तुं नार्हसि सुन्दरि! । राधासेवार्थमेवापि स्थातव्यं सर्वदा त्वया ।।८६ ।।

 इति रूपाणि षट् कृत्वा स्थातव्यं सर्वथा त्वया । कृपया मम तस्मात्ते रूपाणि षड् भवन्तु वै ।।८७।।

 इत्युक्ता सा षट्स्वरूपाऽभवत्तस्य कृपाकणात् । तत्रैकं त्वक्षरधामवासार्ह सर्वतोऽधिकम् ।।८८ ।।

 पुरुषोत्तमयोग्यं सबभूव नित्यमुक्तिकम् । पत्नीत्वेन विकुण्ठा तां जग्राह पुरुषोत्तमः ।।८९ ।।

 द्वितीयं राधिकासेवायोग्यं पुत्रीस्वरूपकम् । गोलोके तां कुमारीं वै स्थापयामास केशवः ।। ९० ।।

 विकुण्ठा कन्यका पूर्वं यथा तत्रैव तिष्ठति । तृतीयं तु विकुण्ठाया व्यापकं मूर्तिमत्तथा ।। ९१ ।।

 रूपं द्वेधाऽभवत्तत्र व्यापकं तत्तु सर्वथा । वैकुण्ठाख्यं धामरूपमधिदैवं बभूव तत् ।। ९२ ।।

 महावैकुण्ठसंज्ञं तद् व्यापकं धाम चोच्यते । तत्र नारायणपत्नी महालक्ष्मीर्बभूव सा ।। ९२ ।।

 चतुर्थं तु विकुण्ठाया रूपं द्वेधाऽभवत्तथा । जलावरणवैकुण्ठं तेजोमयाधिदैवतम् ।। ९४।।

 व्यापकं संबभूवैकं लक्ष्मीरूपं द्वितीयकम् । विकुण्ठा सा विष्णुपत्नी सेवते विष्णुमादरात् ।। ९५।।

 पञ्चमं तु विकुण्ठाया रूपं द्वेधाऽभवत्तदा । श्वेतद्वीपाख्यवैकुण्ठं तेजोमयाधिदैवतम् ।। ९६।।

 व्यापकं संबभूवैकं लक्ष्मीरूपं द्वितीयकम् । विकुण्ठा सा विष्णुपत्नी सेवते विष्णुमादरात् ।। ९७।।

 षष्ठं चापि विकुण्ठाया रूपं द्वेधाऽभवत्तदा । क्षीरवैकुण्ठसंज्ञं तत्तेजोमयाधिदैवतम् ।।९८।।

 व्यापकं संबभूवैकं लक्ष्मीरूपं द्वितीयकम् । विकुण्ठा सा विष्णुपत्नी सेवते विष्णुमादरात् ।। ९९।।

 एवं षण्मूर्तयस्तस्याः सुरूपा दिव्ययोषितः । षट्स्थलेषु हि वर्तन्ते विकुण्ठा भगवत्स्त्रियः ।। १० ०।।

 वैकुण्ठानि तु चत्वारि धामानि दिव्यभूमयः । बभूवुस्तदधिष्ठात्रीदेवतास्ता हरीच्छया ।। १० १।।

 चतस्रो व्यापिका देव्यो मिलित्वा दश ताः सदा । पृथग्रूपा बभूवुर्वै व्रतेन हरितोषणात् ।। १० २।।

 कृष्णनारायणस्वामिपुरुषोत्तमसत्कृपा । किं किं न कुरुते लक्ष्मि! सा विकुण्ठा भवत्यपि ।। १०२ ।।

 स्वात्मानं त्वं विजानीहि स चाऽह पुरुषोत्तमः । इत्यपि त्वं विजानीहि पतिं ते पुरुषोत्तमम् ।। १ ०४।।

 ज्ञात्वा मां भजसे तत्र सर्वत्रात्र च मत्प्रिये । अहं जानामि तत्सर्वं नित्यप्रत्यक्षवत्तया ।। १ ०५।।

 त्वं न वेत्सि तथा सर्वं मदिच्छा तत्र कारणम् । इति ते कथितं लक्ष्मि वृत्तं दशामिकाव्रतात् ।। १० ६।।

 विकुण्ठायास्तव रूपाण्यभवन् दशधा फलम् । मदिच्छया तथा जातं ममानुग्रहकारणम् ।। १ ०७।।

 पठेद्वा शृणुयाद्वापि फलं तस्यापि तादृशम् । ददामीष्टं पूरयामि कृपया पुरुषोत्तमः ।। १०८।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीकृष्णेन दत्ताया मानस्या राधिका- पुत्र्या विकुण्ठानाम्न्या दशमीव्रतेन सन्तुष्टपुरुषोत्तम-कृपया षट्लक्ष्मीरूपाणि चत्वारि वैकुण्ठधामाधिदेवता-रूपाणि चेत्यादिनिरूपणनामा सप्तदशाधिक-त्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३१७।।