पुरुषोत्तम मास

पूर्वा दशमी (27-6-2015)

 लक्ष्मीनारायण संहिता में पूर्वा दशमी का माहात्म्य इस प्रकार दिया गया है कि पृथिवी ने प्रसन्नता व्यक्त की कि पुरुषोत्तम मास के प्रभाव से प्राणी पापों से मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक आदि को जा रहे हैं। मेरा भार हल्का हो रहा है। लेकिन मुझ पृथिवी पर भार रूप प्राणियों का जन्म तो लगातार चलता रहता है। पृथिवी ने विस्तार से बताया कि कौन से अपराध करने से प्राणी मेरे ऊपर भार रूप बनते हैं। पृथिवी ने कहा कि अभी तो प्राणी पाप से मुक्त हो गए हैं। लेकिन पापी जनों का जन्म तो लगातार होता ही रहता है। पृथिवी ने पुरुषोत्तम से प्रार्थना की कि कोई ऐसा उपाय होना चाहिए जिससे मेरे ऊपर उत्पन्न होने वाले प्राणी पाप से रहित हों। पृथिवी ने दुन्दुभि सुनकर पूर्वा दशमी व्रत किया जिससे पृथिवी एक रूप में वसुमती नाम से वैकुण्ठ लोक में वास करने लगी जहां माधव उसके साथ क्रीडा करते हैं। दूसरे रूप में वह सत्यलोक में सलिल के ऊपर ध्रुवा रूप में स्थित हो गई जहां नारायण उसके पति हैं। पृथिवी का तीसरा रूप ब्रह्माण्ड में ही स्थापित रहा। श्रीपुरुषोत्तम ने उससे कहा कि वह दस मुख्य अवतार ग्रहण कर उसका भार कम करेंगे। दस मुख्य अवतारों के अतिरिक्त अन्य गौण अवतार भी होते रहेंगे।

 

विवेचना

 

पूर्वा नवमी के माहात्म्य का आरम्भ रुद्रों की उत्पत्ति तथा उनके संहार से हुआ था। अब पूर्वा दशमी के माहात्म्य का आरम्भ पृथिवी पर भार रूप प्राणियों के उद्धार से होता है। वैदिक साहित्य में देवों के कुछेक मुख्य गण बना दिए गए हैं – जैसे आदित्यगण, रुद्रगण, वसुगण, मरुद्गण, विश्वेदेवगण आदि। रुद्रगण का वर्णन, उनको वश में करने का उपाय तो नवमी तिथि के माहात्म्य में हो चुका है। अब दशमी तिथि को वसुगण का विवेचन किया गया है। लोकभाषा में वसु धन को कहते हैं। साहित्य में वसु वासना का परिष्कृत रूप है। जो भी वासनाएं हों, उन्हें परिष्कृत करके वसु का रूप देना है। कोई भी पार्थिव वासना मूल रूप से पार्थिव नहीं है। सभी वासनाएं मूल रूप से परमेश्वर की ओर ले जाने के लिए बनाई गई हैं। केवल उनका सदुपयोग करना, उन्हें रूपान्तरित करना सीखना है। बहुत सी वासनाएं ऐसी होती हैं जो परिष्कृत होने का नाम ही नहीं लेती। ऐसी वासनाओं को पृथिवी का भार रूप कहा गया है। भागवत के अनुसार प्रेम, मैत्री, कृपा व उपेक्षा में से इनका वर्गीकरण उपेक्षा में किया जा सकता है। साधना में यदि कुछ वासनाएं ऐसी हैं जो रूपांतरित नहीं होती तो ऐसी वासनाओं की उपेक्षा कर दो। अरण्य के प्राणियों को ऐसी ही वासनाओं का प्रतीक कहा जा सकता है। अरण्य के प्राणियों के स्वभाव को रूपांतरित नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, भय, मृत्यु से भय। यह हमारी वासना भी है, वसु भी है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में, ऊर्जा की वह स्थिति जो बिल्कुल अव्यवस्थित हो चुकी है, जिससे कोई उपयोगी कार्य नहीं लिया जा सकता, ब्लैक होल कही जाती है।

     दशमी तिथि को प्रायः दश दिशाओं का महत्त्व होता है। दश दिशाओं में स्थित प्राणों को एकत्र करके उन्हें विश्वेदेवों का रूप दिया जाता है। विश्वेदेवों का अर्थ है – दस दिशाओं के प्राण परस्पर सहयोग करके सह-अस्तित्व में रहना सीख जाते हैं। दस दिशाओं के प्राणों के अपने – अपने अलग – अलग गुण  होते हैं। विश्वेदेव गण ऐसी स्थिति है कि उसमें स्थित प्राण अपना अलग – अलग अस्तित्व खो देते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे अनादिष्ट स्थिति( अंग्रेजी में नांन वैक्टर) कहते हैं। इससे आगे एकादशी को आदिष्ट स्थिति(वैक्टर) उत्पन्न होती है जिसमें सारे प्राण मिलकर एक आदिष्ट प्राण का रूप धारण कर  लेते हैं। पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य में लगता है कि दशमी की दस दिशाओं को भुलाया नहीं गया है और प्रत्येक दिशा के प्राणों के उद्धार के लिए दस अवतारों की कल्पना की गई है।

इस प्रकार, आधुनिक विज्ञान के अनुसार जहां प्रकृति लगातार ब्लैक होल बनने की ओर अग्रसर हो रही है, वहीं अध्यात्म में एक उपाय सुझाया गया है कि पृथिवी को वसुमती बना लो तो अवतार होते रहेंगे और प्रकृति को ब्लैक होल बनने से रोकते रहेंगे। दस अवतारों में से कौन सा अवतार किस दिशा  के लिए है, यह भविष्य में अन्वेषणीय है।

 

 

श्रीनारायण उवाच-

 अथापि ते कथां लक्ष्मि! कथयामि सुरञ्जनीम् । अधिमासे हरेश्चानुग्रहाऽन्तो नैव विद्यते ।। १ ।।

 नवम्यां तु निशि पृष्टं दुन्दुभये तु शार्ङ्गिणा । उद्धोष्यते नु सर्वत्र किं वा क्वचित्क्वचित्स्थले ।। २ ।।

 दुन्दुभिः प्राह सर्वत्र यां दिशामभिलक्ष्य तु । प्रातःकालाद् घोषयामि सायंकालावधिं प्रभो ।। ३ ।।

 बहवः खलु कुर्वन्ति देहिनो व्रतमत्र वै । कृपालाभं च गृह्णन्ति भुक्तिं मुक्तिं मनाक् कृतात् ।। ४ ।।

 तावत् तत्र समायाता पृथ्वी सम्प्रार्थनाय वै । भगवन् देवदेवेश वैकुण्ठनाथ माधव ।। ५ ।।

 असंख्यप्राणिनां मोक्षोऽधिमासे साम्प्रतं त्वया । विधीयतेऽतिकृपया ततोऽहं सुखिनी भृशम् ।। ६ ।।

 ममापि देवदेवस्य व्रतं कार्यं समादरात् । पुरुषोत्तममासस्य व्रतिनां संप्रमोक्षणम् ।। ७ ।।

 स्वर्गयोगस्तव योगो धनधान्यादिसम्पदः । पुत्रपौत्रयशोलाभा यद्यदिष्टं भवेच्च तत् ।। ८ ।।

 कृपया दीयतं सर्वे गतं वैकुण्ठतुल्यताम् । अहं तु धन्यभाग्याऽस्मि दुन्दुभिस्तव यन्मयि ।। ९ ।।

 मुक्तकण्ठेन सर्वेभ्यो विज्ञापयत्युदारताम् । अधिमासे कृपा या च कृता त्वया दयालुना ।। १० ।।

 मयि सैव कृपा जाता जीवा यत्पुण्यभागिनः । पापहीनाः पवित्राश्च भविष्यन्ति सदा मयि ।। ११ ।।

 पापभारेण भगवन् कदापि पीडिता नहि । भविष्यामि भवद्भक्तबाहुल्यात्पुण्यशालिनी ।। १२।।

 सार्धद्वयाऽब्दाधिमासेऽप्येकाऽहं  च व्रतं तव । करिष्यन्ति जना ये ये ते सर्वे धूतपापकाः ।। १ ३ ।।

 अन्योद्धारसमर्थाश्च भविष्यन्ति सदा मयि । इत्यहं बहु तुष्टाऽस्मि भाविस्वास्थ्यप्रलाभतः ।। १४।।

 असज्जनानां भारेण भवामि पीडिता प्रभो । असन्तश्च जनाः काले प्रभविष्यन्ति भाविनि ।। १५ ।।

 ब्राह्मणा वेदहीनाश्च वेदमातृविहीनकाः । वैदिकैः कर्मभिर्हीना भाररूपा मयि प्रभो ।। १६ ।।

 शौचसन्तोषहीनाश्च तपोभिर्वर्जितास्तथा । स्वाध्यायेशप्रणिधानैर्हीना भारात्मका मयि ।। १७।।

 अहिंसाव्रतहीनाश्च पिशुनाः सत्यवर्जिताः । अस्तेयव्रतहीनाश्च व्यवायाभिरतास्तथा ।। १८।।

 तृष्णाऽऽवृता परस्वापहरा भारात्मका मयि । दयाहीनाः शीलहीनाः परावनतिचिन्तकाः ।। १ ९।।

 मिथ्याकलंकवक्तारो निन्दका द्वेषिणस्तथा । श्रैष्ठ्यौन्नत्यासहा ये ते भाररूपाः सदा मयि ।। २० ।।

 परात्मदुःखकर्तारो गुणे दोषाऽभिधायकाः । स्वार्थमात्रपरा विप्रा भाररूपा मयि स्थिताः ।। २ १ ।।

 स्नानसन्ध्याविहीनाश्च देवपूजादिवञ्चिताः । आत्मनिष्ठादिरहिता जडा भारात्मका मयि ।।२२।।।

 यज्ञविघ्नप्रकर्तारो वैश्वदेवविनाशकाः । संस्कारभावनाहीना विप्रा भारात्मका मयि ।। २३।।

 सूतकानतिमन्तारो हेतुवादाश्च नास्तिकाः । ब्रह्मोपासनया हीना विप्रा भारात्मका मयि ।।२४।।

 भक्तिभावविहीनाश्च शून्या अध्यात्मविद्यया । पितृतर्पणशून्याश्च विप्रा भारात्मका मयि ।।२५।।

 परोपकारहीनाश्च दानपुण्यविवर्जिताः । जिह्वाशिश्नकृताऽधर्मा विप्रा भारात्मका मयि ।।२६।।।

 परकष्टप्रदातारः परकार्यप्रभञ्जकाः । परापराधकर्तारो विप्रा भारात्मका मयि ।।२७।।

 अयोग्ये बीजदातारो ह्ययोग्यक्षेत्रकर्षुकाः । छलधर्मातिघाताश्च विप्रा भारात्मका मयि ।।।२८।।

 प्रसह्य भोगिनः क्रूराः पराक्रन्दनहेतवः । कूटचाराः क्ष्वेडगुप्ता मधुवाचः प्रतारकाः ।। २९।।

 वार्तया विषसेक्तारो भाररूपाः सदा मयि । विश्वासघातका ये च कृतघ्ना बालघातकाः ।।३ ०।।

 अज्ञप्रघातका ये च शरणागतघातकाः । कुटुम्बघातका मातापितृनारीप्रघातकाः ।।३१।।

 धर्मघ्ना मोक्षघाताश्च भाररूपा मयि प्रभो । अभक्ष्यभक्षका जातिभ्रंशसंकरकारकाः ।।३२।।

 स्त्र्यपत्यनाशका वृत्तिधनप्राणापहारकाः । आततायिक्रियादुष्टा अग्निदा गरदास्तथा ।।३३।।।

 मारणोच्चाटनकृत्या गर्भघातादिकारिणः । अस्थानताडने क्रूरकर्माढ्या भारका मयि ।।३४।।

 अब्राह्मणा ब्राह्मणत्वे स्वकर्तव्यविहीनकाः । परसौख्यविहन्तारः सदा भारात्मका मयि ।।३५।।

 अनुद्योगाः सदालस्या परभाग्योपजीविनः । दृप्ताश्चैवाऽनधिकारे सदा भारात्मका मयि ।। ३६।।

 अमार्गगा मृदूनां स्वबलेनाऽर्दनकारकाः । अदण्ड्ये दण्डकर्तारः सदा भारात्मका मयि ।।३७।।

 पाल्यानां पालका ये न पूज्यानां पूजकाश्च न । मान्यानां मानकर्तारो न ये ते भारका मयि ।।।३८।।

 पशूनां दुःखकर्तारश्चाश्रितानामरक्षकाः । दासानां दुःखकर्तारो भाररूपा सदा मयि ।।३९।।

 शिष्यप्रतारकाः शिक्षकाश्च शिष्या विवर्तिनः । भृत्यप्रतारका आढ्या आढ्यघ्नाः कर्मचारिणः ।।४०।।

 शिष्याश्च गुरवश्चापि स्वस्वकर्तव्यवर्जिताः । प्रतारकास्तथाऽन्योन्यं सर्वे भारात्मका मयि ।। ४१।।

 सेवकाः स्वामिहन्तारः स्वामिनः सेवकार्दनाः । दासा दासत्वहीनाश्च सर्वे भारात्मका मयि ।।४२।।

 राजा न रक्षको यत्र न प्रजा पुण्यकारिणी । शठाः प्रजासु ये राज्ञि सर्वे भारात्मका मयि ।।४३।

 अत्राता क्षत्रियोऽदाता वैश्यः शूद्रोऽप्यसेवकः । स्वस्वधर्महनः सर्वे भाररूपा मयि प्रभो ।।४४।।

 जनन्याज्ञाकरी या न पुत्री स्नुषापि तादृशी । माता या हितकर्त्री न श्वश्रूश्चापि च तादृशी ।।।४५।।

 दम्पत्योर्यत्र नैक्यं च कलहश्च द्वयोः सदा । पतिसेवाघृणा पत्नी पत्नीदुःखकरः पतिः ।।४६।।

 पुत्राः पितृनिदेशे न पिता पुत्रविनिन्दकः । सेव्यसेवकताहीनास्ते सर्वे भारका मयि ।।४७।।

 ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्ये यो न तिष्ठति रागतः । गृहस्थस्त्यागधर्माश्च पुरस्कृत्य प्रवर्तते ।।४८।।

 वानप्रस्थोऽपि सतृष्णः सन्न्यासो न्यासवर्जितः । अन्यधर्मग्रहीतारस्ते सर्वे भाररूपिणः ।।४९।।

 दधिदुग्धघृततैलरससांकर्यकारकाः । अन्नपत्रकणशाकपुष्पसांकर्यकारकाः ।।५०।।

 खाद्यपेयसुसंधार्यभोग्यसांकर्यकारकाः । जीवघातकरा वैद्याः सर्वे ते भाररूपिणः ।।५१ ।।

 मद्यमांसाशना मर्त्याः परपिण्डोपजीविनः । वस्त्रभूषादिसांकर्यकरा वै भाररूपिणः ।।५२।।

 कूटपण्याः कूटमानाः कूटतुलाप्रमापिनः । कूटसंख्याकरा दैवज्ञा अपि भाररूपिणः ।।५३।।

 व्यापाराऽऽदेयदेयादो प्रतारणकराः खलाः । प्रसह्य लुञ्चका मर्त्याः सदा भारात्मका मयि ।।५४।।

 अकर्मठा व्यसनिनः शनिग्रहसमा भुवि । राहुग्राससमा ये च सर्पदंशसमास्तथा ।।५५।।

 त्रिपीटकासमा ये च बद्रीकण्टकरूपिणः । मीनश्येनसमा ये च बकमार्जारकर्मका ।।५६।।

 बहिः शुक्ला हृत्सु रक्ताश्चात्मनि कृष्णकज्जलाः । मर्त्या देवा दानवा वा स्वर्ग्याः पातालवासिनः ।।५७।।

 सर्वे ते भाररूपा वै पापकर्माण एव ते । पीडयेयुश्च मां काले येषां माहात्म्यमेव न ।।५८।।

 नाऽधिमासव्रतं येषां न येषां पुरुषोत्तमः । न भक्तिश्चास्तिकभावस्ते स्युर्भारात्मका भुवि ।।५ ९।।

 तस्मान्मया हरे कृष्ण काले काले च तादृशाम् । भाविनां भारनाशाय प्रार्थ्यते परमेश्वरः ।।६० ।।

 किं कर्तव्यं मया तेषां भारनाशाय केशव । यच्छ्रेयस्तत्समब्रूहि भाविमच्छ्रेयइच्छया ।।६१।।

 इत्यर्थयन्त्यां क्ष्मायां तां दुन्दुभिः प्राह मेदिनीम् । किं त्वया न श्रुतं पृथ्वि मयोद्धोषितमिष्टदम् ।।६२।।

 अधिमासे व्रतं कार्यं पुण्यं वै शाश्वतं भवेत् । विधास्यत्यवनं ते च भगवान्पुरुषोत्तमः ।।६३।।

 इदानीं श्रीहरिः कृष्णनारायणः परप्रभुः । प्रसन्नः फलदश्चास्ते दशम्यास्त्वं व्रतं कुरु ।।६४।।

 व्रतान्ते भगवान् कृष्णः स्वयं दास्यति दर्शनम् । करिष्यत्यवनं ते च सर्वकालेषु भारतः ।।।६५।।

 इदानीं याहि देवेशि सत्यलोके स्थितिं कुरु । व्रतं दशम्यास्तत्रैवाधिमासस्याऽधिवर्तय ।।६६।।

 व्रतान्ते यदि देवस्ते दर्शन न ददाति चेत् । श्वः सायं वै त्वया त्वत्राऽऽगन्तव्यं चार्थनाय वै ।।६७।।

 इत्युक्ता दुन्दुभिनैव नत्वा देवं प्रभुं तथा । दुन्दुभिं च नमस्कृत्य सत्यलोकं समाययौ ।।६८।।

 स्वनिवासे पृथिव्या च दशम्याश्च व्रतं कृतम् । प्रातः स्नात्वा हरिं ध्यात्वा कृत्वा मूर्तिं तु कानकीम् ।।६९।।

 पञ्चामृतैर्हरिं प्रार्च्य स्नपयित्वा जलैः शुभैः । सुगन्धचन्दनाद्यैश्च चर्चयित्वाऽतिभावतः ।।७०।।

 वस्त्रैः स्वर्णैर्त्रिभूषाभिः कुंकुमाऽक्षतसद्दलैः । तुलसीमंजरीभिश्च कमलैर्धूपदीपकैः ।।७१ ।।

 पूजयित्वा सुनैवेद्यं मिष्टान्नं हरये ददौ । जलं ताम्बूलमिष्टेष्टं फलं चार्घ्यं ददौ ततः ।।७२।।

 नीराजयित्वा कुसुमांजलिं नमः स्तुतिं तथा । प्रदक्षिणं दक्षिणां चार्पयित्वा च ततः क्षितिः ।।७३।।

 ववन्दे परमात्मानं व्रतं वै दशमीकृतम् । अधिमासस्य सम्पूर्णे सनक्तं भवतान्मम ।।७४।।

 प्रातरेवं पूजयित्वा पुपूज प्रहरद्वये । भोजयित्वा यथापेक्षं त्वर्पयित्वाऽथ शार्ङ्गिणे ।।७५।।

 सायमेवं षोडशोपसुवस्तुभिः समपूजयत्। । आरार्त्रिकं च नैवेद्यं जलं ताम्बूलकं फलम् ।।७६।।

 ददौ कृष्णाय कुसुमांजलिं सत्पायसं ददौ । ततश्च पाययामास ववन्दे करुणाकरम् ।।७७।।

 सजागरं नर्तनं च गीतं चक्रेऽर्धरात्रिकम् । मध्यरात्रौ हरिश्चाऽऽयात् साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमः ।।७८।।

 वद पृथ्वि किमिष्टं ते व्रतात् तुष्टोऽस्मि संवृणु । अधिमासे व्रतिनस्तु सर्वमिष्टं करोमि वै ।।७९।।

 इति मेऽस्ति व्रतं तस्मात् सुलभं दुर्लभं तथा । यत्किंचित् तत् सर्वथाऽहं पूरयिष्ये वदाऽत्र माम् ।।८०।।

 इत्युक्ता सा मही तत्र प्रोवाच परमेश्वरम् । भगवन् यदि तुष्टोऽसि सत्यवाक्यकरोऽसि च ।।८ १ ।।

 सर्वं ददासि चेन्मह्यं सर्वो मे पुरुषोत्तमः । विना नेच्छामि चान्यद्वै त्रातारं पुरुषोत्तमम् ।८२ ।।

 अहं सदा तु ते नाथ सेवायां संवसामि वै । तादृशं मे दिव्यरूपं देहि भूत्राणकृत् प्रभो ।।८३ ।।

 अन्यच्च भाररूपाणां विनाशाय महाप्रभो! । अधर्माऽगुणनाशाय मल्लोके विहर प्रभो ।।८४।

 अधिमासं विनाऽन्येषु मासेषु प्रजया कृतम् । पापं प्रज्वालयितुं त्वं मयि वासं प्ररोचय ।।।८५।।

 येन मे सर्वदा देव रक्षणं स्याज्जनार्दन । आगच्छ दिव्यरूपेण भौतिकेन च वा प्रभो ।।८६ ।।

 भौतिक यदि ते वर्ष्म क्वचित् स्विष्टं सुसंभवेत् । तदा माता भविष्यामि पालयिष्यामि मत्सुतम् ।।८७।।

 लालयिष्यामि गोविन्द भोजयिष्यामि भावतः । करिष्यामि च ते सेवां यथेष्टं देहि चार्थितम् ।।८८ ।।

 इत्युक्त्वा विररामेयं ननाम पुरुषोत्तमम् । कृष्णनारायणः श्रुत्वा पृथिव्या हृदयोद्भवम् ।।८९।।

 दिव्यं रूपं ददौ चास्यै वैकुण्ठे सेवनार्हणम् । दिव्या सती सुरूपा च चतुर्हस्ता रमासमा ।।९० ।।

 भूत्वा वसुमती पृथ्वी दीव्यति स्माऽथ माधवः । निनाय तां वसुमतीं वैकुण्ठे सलिलोपरि ।। ९१।।

 तत्र तिष्ठति नित्या सा दासी भूत्वाऽतिवैष्णवी । अथ द्वितीयं तद्रूपं पृथिव्यावरणे स्तरे ।। ९२ ।।

 पृथिव्या भवने नित्यं वासार्हं विद्यते सदा । सा देवी सर्वभूतानामधिष्ठात्री तु भूर्मता ।। ९३ ।।

 नारायणेन सा नित्यं सत्यलोकोपरि ध्रुवा। पृथिव्यावरणे स्थातुमाज्ञप्ता तत्र वर्तते । । ९४ ।

 तृतीयं कार्यरूपं यत् पार्थिवं प्रस्तरादिकम् । स्थल्यात्मकमिदं सर्वं ब्रह्माण्डं ब्रह्मणा कृतम् ।।९५ ।।

 तत्र पृथ्व्यां यथाऽपेक्षं भारं हर्तुं भुवो ननु। हरिणा तु समागन्तुं प्रतिश्रुतं तु वै मृहुः ।। ९६

 हरिः प्राह शृणु क्ष्मे! त्वं प्रथमे युगपर्यये। व्यतीते भाररूपा वै भविष्यन्ति प्रजा मुहुः । ९७।।

 प्रथमेऽपि युगे देवकार्यार्थं त्वयि साम्प्रतम् । आगमिष्यामि ते भक्त्या वरदानेन वै मुहुः ।९८।।

 अवतारान् ग्रहीष्यामि रक्षयिष्यामि मा शुचः। दशम्यामधिमासस्य व्रतेन तोषितोऽस्म्यहम् ।।९९।।

 अतो युगचतुष्के वै तत्तत्कार्यार्थमेव ह । अवतारान् ग्रहीष्यामि दश मुख्याँस्ततोऽपि च ।। १०० ।।

 गौणानन्यान यथापेक्षं बहून् वै दिव्यविग्रहान् । तेन तेन स्वरूपेण करिष्यामि तवाऽवनम् ।। १०१ ।।

 संहरिष्याम्यदेवाँश्च नाशयिष्यामि दानवान् । दैत्यान् विपोथयिष्यामि करिष्यामि सुखं तव ।। १० २ ।।

 एवं भारं हरिष्यामि गच्छ देवि यथासुखम् । इत्याभाष्य हरिस्तत्र क्षणादन्तरधीयत । । १०३ ।।

 पृथ्वी तुष्टाऽभवच्चापि ददौ पुष्पांजलिं पुनः । व्रतं समाप्य सा देवी ततो नत्वा तु दुन्दुभिम् ।। १ ०४।।

 जगाम स्वालयं पृथ्व्यावरणे स्वीयमन्दिरम् । एवं लक्ष्मि दशम्याः सा कृत्वाऽधिमासिकं व्रतम् ।। १० ५।।

 नाम्ना वसुमती दासी जाता वैकुण्ठवासिनी । युगे युगे दिने चाह्नि ममाऽविर्भाववत्यपि ।। १०६ ।।

 मया प्रतिज्ञया सर्वाधिलाभगामिनी कृता । अन्यायै न मयैतादृक् लाभोऽर्पितः कदाचन ।। १ ०७।।

 यद्यद् वाञ्छति यः कोऽपि स्वल्पेनाऽपि व्रतेन मे । तत्तत्तस्मै प्रददामि नकारस्तत्र नाऽस्ति हि ।। १०८ ।।

 यः श्रोष्यति वसुमतीकथां यश्च पठिष्यति । प्राप्स्यति व्रतपुण्यं स दशम्या नात्र संशयः ।। १०९ ।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये वैकुण्ठे भगवन्तं पृथिव्याः प्रार्थना, भाररूपाणां परिचयः, दशमीव्रतेन पृथिवी वसुमती भूत्वा वैकुण्ठवासिनी जाता, स्वस्यां प्रतियुगे भगवदवताराणां प्राकट्यार्थं भगवत्प्रतिज्ञेत्यादिनिरूपणनामा द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। १.३०२ ।।