पुरुषोत्तम मास त्रयोदशी उत्तरा (14-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिकमास उत्तरपक्ष त्रयोदशी का जो माहात्म्य दिया गया है, उसका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है - राधा को पुत्रीमती देखकर श्री ने भी कृष्ण से कहा कि हे पुरुषोत्तम, मैं पुत्रीमती कब बनूंगी। ऐसी प्रार्थना करने पर कृष्ण ने श्री के साथ रमण किया। कृष्ण के दर्शन मात्र से कृष्ण जैसी दिव्य और सौन्दर्य में श्री के समान एक कन्या प्रकट हुई जो जन्म लेते ही युवती थी। वह कामदुघा जैसी सम्पन्न थी, अतः उसका नाम सुदुघा रख दिया गया। श्रीकृष्ण व श्री दोनों उसे सुदुघा ही कह कर पुकारते थे। जो सब कामनाओं की प्रदोग्धि, पूरा करने वाली है, वह सुदुघा है। जन्म लेते ही वह गायों के दोहन कर्म में लग गई। उसे यही कार्य रुचिकर लगता था। जब वह प्रकट हुई तो महान् उत्सव हुआ। कृष्ण व श्री के वास स्थान पर ऋषियों, देवों, देवियों का अवतरण हुआ, अप्सराओं का नृत्य हुआ, गन्धर्वों का गायन, वादन हुआ। मुनियों के आशीर्वाद से कन्या सुरक्षित बनी, गोप-गोपीगण की वाणियों से वह सुवर्धन करने वाली हुई। अब दुघा को जिज्ञासा हुई कि मेरा यहां क्या कर्तव्य बनता है। पिता कृष्ण ने उसका योगबल जानकर आदेश दिया कि हे ऊर्जाहुति, हे दुघे, हे पुत्रि, पयः द्वारा इन्द्र का वर्धन करो(ऊर्जाहुति दुघे पुत्रि पयसेन्द्रमवर्धताम्)। यह आदेश मिलने पर अतिप्रसन्न होकर सुदुघा ने इन्द्र की वृद्धि व पुष्टि हेतु चिन्तन किया। ब्रह्माण्ड में जहां जहां महेन्द्र का पद है, देवसाम्राज्य है, वहां वहां उसने शाश्वत पुष्टि के लिए हृदय द्वारा पद स्थापित करने की सोची। उसने सोचा कि मैं श्री – पुत्री सुदुघा दुग्ध रूप बन जाती हूं और द्युलोक में सुरों को दुग्ध अमृत देकर निवास करती हूं। मह आदि में सुकृतात्मा अमृत होकर निवास करती हूं। पितरों के लिए जल, पिण्ड, पायस आदि देती हूं। पशु, मनुष्य, वृक्षों के लिए रसात्मक दुग्ध अमृत देती हूं। भुव लोक में मैं सुरों को अमृत देकर पुष्ट करती हूं। जल में स्नेह अमृत देकर पोषण करती हूं। वह्नि में पाकमाधुर्य पाचन अमृत देती हूं। आत्मा में देहवास के लिए विषय अमृत देती हूं। इन्द्र आत्मा है, इन्द्रियां इसकी विषयों के आश्रित शक्तियां हैं। उन इन्द्रियों के द्वारा अमृत का भोग करने वाले आत्मा में ही लीन हो जाते हैं। नवनीत सब तत्त्वों का सार है, घृत सब कृतों का अमृत है। यज्ञ में मैं ऊर्जाहुति होकर पुष्टि करती हूं। यह विचार करके उसने दृश्य – अदृश्य सब में प्रवेश किया जिससे इन्द्र के स्वर्ग की समृद्धि में वर्धन हो। इससे सब अमृत दुग्धों में वेग से वृद्धि हुई। लोकों में भूमि श्रीमयी हो गई। सुदुघा के होने से कोई क्षीण नहीं होता था। इस प्रकार समय व्यतीत होने पर आदि कृतयुग में मेधावी नाम का एक यज्ञ करने वाला हुआ। उसने पुत्र-पुत्री युगल की प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि की। विष्णुनारायण प्रकट हुए, अपने हाथ से पुरोडाश को ग्रहण किया। कहा वर मांगो। मेधावी ने कहा कि मुझे पुत्र प्रदान करो। भगवान् ने कहा कि पुत्र तो तुम्हारे भाग्य में सात जन्मों तक भी नहीं है। अतः पुत्रेष्टि से तुम्हें चिरायु पुत्र मिल जाएगा, यह संदेह है। जन्म पर तो तुम्हें सुख मिल जाएगा, लेकिन जब वह मर जाएगा तो तुम्हें दुःख होगा। इसलिए हे विप्र, यदि तुम्हें अच्छा लगता हो तो पुत्री मांग लो। तुम्हारी पत्नी की भालरेखा पुत्री की है। वह पुत्र से भी अधिक कीर्ति व सेवा वाली होगी। विप्र ने ऐसा ही मांग लिया। तब भगवान् ने उसे भोजन के लिए प्रसाद दिया। प्रसाद लेकर विप्र ने कहा कि मुझे श्री के समान पुत्री मिलनी चाहिए जिसे पाकर मुझे शोक न हो, जो सुख प्रदान करने वाली हो, जो शान्त हो, कामदुघा जैसी हो। जो सब भूतों की शक्ति हो, जो सुधापान देने वाली हो। हरि ने कहा तथास्तु, ऐसी ही होगा। उन्होंने श्री की सहमति ग्रहण करके सुदुघा पुत्री को मेधावी की पुत्री हेतु दे दिया। मेधावी व उसकी पत्नी ने उसका पुत्रवत् लालन – पालन किया। वह नीति, साहित्य में कुशल थी, आत्मतत्त्वविशारद थी, माता – पिता की सेविका थी। कालान्तर में उसकी माता का निधन हो गया। पिता ने उसका पालन किया। मेधावती कुमारी ने अपनी सखियों को पुत्र, पौत्र सुख लेते देखा तो उसने भी गार्हस्थ्य में प्रवेश की इच्छा की। पिता को पता लगा तो उन्होंने उसके योग्य वर ढूंढने के लिए पृथिवी पर विचरण किया, लेकिन न मिलने पर वह तीव्र ज्वर से ग्रस्त हो गए। उन्होंने हरि का ध्यान किया और गृह के आंगन में गिर पडे। कृष्ण के दूत उन्हें कृष्ण के पास ले गए। पिता को मृत देख कन्या ने विलाप किया। यह सुनकर मुनिगण आए और उन्होंने दाहसंस्कार किया। कन्या ने धैर्य रखकर और्ध्वदैहिक क्रियाएं सम्पन्न की। कालान्तर में भाग्यवश दुर्वासा मुनि उसके घर आए। कन्या ने उनका आदर – सत्कार किया। मुनि ने बताया कि वह कैलास से आए हैं और नारायण के दर्शन हेतु बदरीवन को जा रहे हैं। यदि उसकी कोई इच्छा है तो बता दे। मेधावती ने ऋषि से कहा कि मेरी तो तनिक भी आपसे कुछ निवेदन करने की इच्छा नहीं है। मैं तो आपके दर्शनों से ही अनुग्रहीत हूं। मेरी न तो माता है, न पिता है, न बन्धु है, न कोई रक्षक है। न मेरा पाणिग्रहण करने के लिए कोई मेरी कामना ही करता है। मैं तो बस मरने की इच्छा करती हूं। क्या करूं। जो मेरे हित में हो, वह करें। यह सुनकर मुनि ने कहा कि अबसे तीसरे मास में पुरुषोत्तम मास है। मुनि ने उसे पुरुषोत्तम मास का महत्त्व समझाया और कहा कि तुम पुरुषोत्तम मास का व्रत पालन करो। यदि तुम्हें रुचता हो तो करो। मैं तो नरनारायण के घर जाता हूं। तब मेधावती ने सोचा कि पुरुषोत्तम मास के तो अभी तीन मास हैं, मैं इतने तत्काल फल देने वाले शिव की आराधना करती हूं। उसने दुश्चर तप किया। तप से तुष्ट होकर शिव प्रकट हुए। मेधावती ने उनकी स्तुति की। शिव ने उससे वर मांगने को कहा। बाला ने पांच बार  कहा – पतिं देहि पतिं देहि पतिं देहि पतिं पतिम्। यह सुनकर शिव ने कहा कि तुमने पांच बार पति की प्रार्थना की है, अतः तुम्हारे पांच पति होंगे। इस समय पहले कल्प के पांच इन्द्र सत्यलोक में हैं, वह तेरे पति होंगे। तुम इसी देह से दिव्यता प्राप्त कर मेरे साथ आओ। मैं तुम्हें सत्य लोक में उनके पास पहुंचा देता हूं। यह कहकर शिव उस दिव्यदेहा बाला को सत्यलोक ले गए। मार्ग में मेधावती ने दुन्दुभि का घोष सुना जो कह रही थी कि अधिकमास की त्रयोदशी से यथेष्ट फल मिलता है। एक ही व्रत से पति प्राप्ति, मेरी प्राप्ति होती है। मेधावती ने सुनकर पूछा कि कृष्णप्राप्ति कैसे हो सकती है। मुझे जैसे कृष्णनारायण की प्राप्ति हो, वैसा बताओ।  शिव ने कहा कि मैं तुम्हारी कृष्णप्राप्ति परायणता से प्रसन्न हूं। राज्य, स्वर्ग, परमेष्ठीपद, ईश्वर पद सब कृष्ण पुरुष के बिना निस्स्वाद हो जाते हैं। कृष्ण भक्ति से प्राप्त हो सकते हैं। जैसा कि दुन्दुभि ने कहा है, त्रयोदशी व्रत करो। उन्होने व्रत की विधि बताई और उसे इन्द्रपञ्चक को पत्नी रूप में दे दिया। फिर उन्होंने सुता से कहा कि पुरुषोत्तम मास की त्रयोदशी का व्रत करने से तुम्हें मनुष्य योनि में हरि मिलेंगे। तुम वहां तपोबल से अयोनिसंभवा रूप में उत्पन्न होओगी। वहां तुम्हारे पांच पति होंगे जो धर्म, मरुत, महेन्द्र, अश्विनीकुमारों के अंश होंगे। श्रीपति कृष्ण तुम्हारे रक्षक होंगे। पतिसुख प्राप्त करने के पश्चात् तुम परम पद को प्राप्त होओगी। ऐसा कह कर शिव अन्तर्धान हो गए। मेधावती ने पतियों की आज्ञा लेकर त्रयोदशी व्रत किया। गरुड पर बैठे श्रीपति प्रकट हुए। पुत्री ने कहा कि जैसे मेरा मोक्ष हो, वह मैं वर मांगना चाहती हूं। हरि ने कहा कि तथास्तु। सुनो। द्वापर में मैं कृष्ण बनूंगा। तुम यज्ञसेन नामक नृप के यज्ञकुण्ड से प्रकट होओगी। तभी पांच इन्द्र तुम्हारे पति होंगे। तुम्हें निमित्त बनाकर मैं असुरों, दैत्यों, दानवों का विनाश करके अपने धाम जाउंगा। जब तुम्हारे द्वारा कार्य सिद्ध हो जाएगा तो तुम पुनः गोलोक धाम पहुंच जाओगी जहां तुम्हारा जन्म हुआ है। वहां हे सुदुघे पुत्रि, तुम ब्राह्म अक्षर पर धाम में मेरे चरणों में शरण लोगी।

विवेचन

1.ऐसी ही कथा पुरुषोत्तम मास के अन्य माहात्म्य में भी उपलब्ध है। लेकिन अन्तर यह है कि वर्तमान माहात्म्य पूर्णतः वेदों पर आधारित है। अन्य कथा में एक तथ्य अधिक है कि मेधावती ने दुर्वासा के परामर्श की उपेक्षा कर दी, जिसका दुर्वासा को पहले ही पता था कि यह मेरी बात पर ध्यान नहीं देगी। लेकिन उन्होंने क्रोध नहीं किया।

2.कथा में कहा गया है कि कन्या सुदुघा गायों से दुग्ध का दोहन करने में निपुण है। सुदुघा शब्द संकेत करता है कि वह केवल सु का दोहन करती है, कु का नहीं, वैसे ही जैसे हंस नीर – क्षीर विवेकी है। ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा जा रहा है कि इष का पान ऐसे करना है जैसे सुदुघा गौ का दोहन करती है। इससे यह संकेत मिलता है कि सुदुघा में कोई विशेष गुण है जिसके द्वारा वह किसी भी गौ का विशेष दोहन कर सकती है।

3.कन्या सुदुघा के पिता ने सुदुघा के कर्तव्य का निरूपण उसे ऊर्जाहुती कह कर किया है। एक इष होता है, एक ऊर्ज। मण्डूक जो वर्षा की कामना करता है और उसके फलस्वरूप जो वर्षा होती है, वह इष है। इस वर्षा को परिष्कृत करके अपने लिए अमृत बनाना ऊर्ज है। इष वर्षा है तथा ऊर्ज वह है जिसका वर्षा के फलस्वरूप वर्धन होता है ( ऐधति ) । लौकिक रूप में पृथिवी पर वर्षा होने पर ओषधियों के रूप में रस का वर्धन होता है । लेकिन अध्यात्म में किस वस्तु का वर्धन होगा ? शतपथ ब्राह्मण ४.२.२.१५ के अनुसार इष भक्ति की आरम्भिक अवस्था हिंकार है । इसका निहितार्थ होगा कि हिंकार से आगे की अवस्थाओं प्रस्ताव, उद्गीथ , प्रतिहार और निधन का समावेश ऊर्ज के अन्तर्गत होगा । लौकिक रूप में जिस प्रकार ओषधि तन - मन के रोगों को दूर करती है, इसी प्रकार ऊर्ज से उत्पन्न भक्ति की अवस्थाएं भी आध्यात्मिक सुख प्रदान करेंगी । कन्या ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है कि वह सभी प्रकार के इन्द्रों में, आत्मा में प्रविष्ट होकर वह कार्य करेगी जिससे आत्मा को बल मिलता हो।

4.भागवत पुराण का कथन है – ऊष्माणं इन्द्रियाण्याहुः अन्तस्था बलमात्मनः। अर्थात् श, ष, स अक्षर जो ऊष्माण कहलाते हैं, यह इन्द्रियां हैं। य, र, ल, व अक्षर अन्तस्थ कहलाते हैं और यह आत्मा का बल हैं। जैसा कि अन्यत्र बार – बार कहा जा चुका है, हमारे भौतिक शरीर की सारी क्रियाएं ऊष्माण हैं, उनके घटित होने से ऊष्मा का जनन होता है। वह ऊष्मा सूक्ष्म होते होते हमारे शरीर की सारी क्रियाओं का सम्पादन करती है। हमें कार्य करने की शक्ति प्रदान करती है। वह ऊष्मा विद्युत में भी रूपान्तरित होती है और एक मोटर की भांति हमारे शरीर की मोटर चलाने का कार्य करती है। इस क्रिया का आरम्भ यहां से होता है कि हम जो कुछ भी भोजन करते हैं, उससे सुरा, इथाईल एल्कोहल बनता है। यह इथाईल एल्कोहल कार्बन डाई आक्साईड व जल में विघटित होता है। इस विघटन क्रिया में कुछ ऊष्मा का जनन होता है। बस, यह निर्गत ऊष्मा ही हमारे काम की है। जैसे – जैसे शरीर का, शरीर के चक्रों का विकास होता है, एक समांतर क्रिया और घटित होने लगती है – वह कोई ऐसी रासायनिक क्रिया है जिसमें ऊष्मा का अवशोषण होता है। यह अन्तस्थ कहलाती है। जहां भी यह क्रिया घटित होगी, वहीं देह का अंग शीतल हो जाएगा। ब्रह्मरन्ध्र में यह क्रिया सबसे पहले घटित होती है। फिर शरीर के अन्य अंगों में भी धीरे – धीरे घटित होने लगती है। योगी लोग अपने पूरे शरीर को बर्फ जैसा शीतल बना लेते हैं। लेकिन एक तथ्य ध्यान देने योग्य है। स्कन्द पुराण काशी खण्ड में उल्लेख आता है कि यद्यपि यज्ञ से वर्षा तो हो जाती है, लेकिन ऐसी नहीं हो पाती जैसी स्वाभाविक वर्षा होती है। यही स्थिति अन्तस्थ क्रिया की भी समझनी चाहिए। जैसा आनन्द गंगा स्नान से भौतिक रूप में मिलता है, वैसा ही आन्तरिक अन्तस्थ  क्रिया से भी मिलना चाहिए। इतना ही नहीं, जैसे गंगा स्नान ब्राह्म मुहूर्त में करने का विधान है, यह क्रिया भी ब्राह्म मुहूर्त में घटित होनी चाहिए। चूंकि अन्तस्थ क्रिया वाले लोग अधिक नहीं मिलते, अतः इसका चिकित्सकीय अध्ययन अभी नहीं हो पाया है। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि यह रोगों का विनाश करेगी, अमृत की ओर ले जाएगी, जैसा कि सुदुघा कन्या स्वयं कह रही है।

5.अभी तक अन्तस्थ प्रक्रिया स्वयमेव घटित होती है। कालक्रम से जैसे – जैसे शरीर पुष्ट होता है, यह क्रिया पुष्ट होती जाती है। लेकिन ऐसी सम्भावना भी है कि इस क्रिया को त्वरित गति से घटाना सीखा जा सकता है। अतः सुदुघा कह रही है कि वह आत्मा में प्रवेश करके इन्द्रियां जिस प्रकार विषयों का आकर्षण करती हैं, उस प्रक्रिया में परिवर्तन ला देगी।

6.ऊर्जाहुति के लिए अन्यत्र कहा गया है कि यह मृगशिरा नक्षत्र बन सकती है।

7.जब श्री व कृष्ण की कन्या सुदुघा मेधावी ऋषि की कन्या बनती है, तो वहां एक नए अध्याय का आरम्भ होता है। अब सुदुघा केवल अन्तस्थ प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं रहेगी, अपितु वह मेधा के माध्यम से सारे जीवन में शोधन करेगी, शास्त्र जिस प्रकार ग्रहण किए जाते हैं, उसमें परिवर्तन करेगी। कहा जाता है कि जिन लोगों की कोई इन्द्रिय जन्म से विकल स्थिति में होती है – जैसे कोई अन्धा है, कोई गूंगा है तो उनकी अन्य क्षमताएं बहुत विकसित हो जाती हैं। वह केवल पुस्तक को छूकर ही सब कुछ ग्रहण कर लेते हैं। ऐसी कन्या मेधावती से कोई भी विवाह क्यों नहीं करना चाहता, यह अज्ञात है। तप के फलस्वरूप 5 इन्द्र उसके पति बन पाते हैं।

8.कथा में कहा जा रहा है कि त्रयोदशी व्रत का कार्य सुदुघा या मेधावती का कृष्ण से मिलन कराना तथा मेधावती की भूमि पर रक्षा करना है। कृष्ण ने द्रौपदी की समय – समय पर किस प्रकार रक्षा की – जैसे चीर हरण के समय, अक्षय भोजन पात्र देकर आदि कथाएं सर्वविदित हैं। पाण्डवों से क्या तात्पर्य है, यह अभी अज्ञात सा ही है।

संदर्भ

*सुदुघा हि पयस्वतीः    ऋषिभिः संभृतो रसः    ब्राह्मणेष्वमृतँ  हितम्    पावमानीर्दिशन्तु नः    इमं लोकमथो अमुम्    कामान्समर्धयन्तु नः    देवीर्देवैः समाभृताः    पावमानीः स्वस्त्ययनीः    सुदुघा हि घृतश्चुतः   

ऋषिभिः सम्भृतो रसः    तै.ब्रा. 1.4.8.5

*इन्द्रः सुत्रामा हृदयेन सत्यम्    पुरोडाशेन सविता जजान    यकृत्क्लोमानं वरुणो भिषज्यन्    मतस्ने वायव्यैर्न मिनाति पित्तम्    आन्त्राणि स्थाली मधु पिन्वमाना    गुदा पात्राणि सुदुघा धेनुः    श्येनस्य पत्रं प्लीहा शचीभिः    आसन्दी नाभिरुदरं माता    कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता शचीभिः    यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भो अन्तः  2.6.4.3

*होता यक्षदुषे इन्द्रस्य धेनू ।सुदुघे मातरौ मही ।सवातरौ तेजसी ।वत्समिन्द्रमवर्धताम्  2.6.7.3

*उषासानक्ता बृहती बृहन्तम्    पयस्वती सुदुघे शूरमिन्द्रम्    पेशस्वती तन्तुना संव्ययन्ती ।देवानां देवं यजतः सुरुक्मे  । 2.6.8.3

*देवी ऊर्जाहुती दुघे सुदुघे    पयसेन्द्रमवर्धताम्    इषमूर्जमन्यावाक्षीत्    सग्धिँ  सपीतिमन्या  । 2.6.10.3

*ता भिषजा सुकर्मणा    सा सुदुघा सरस्वती ।स वृत्रहा शतक्रतुः    इन्द्राय दधुरिन्द्रियम्   2.6.13.3

*देवी ऊर्जाहुती दुघे सुदुघे    पयसेन्द्रँ!  सरस्वत्यश्विना भिषजावत    शुक्रं ज्योतिः स्तनयोराहुती धत्त इन्द्रियम्  । 2.6.14.3

*दोहं यज्ञँ  सुदुघामिव धेनुम्    अहमुत्तरो भूयासम्    अधरे मत्सपत्नाः  । 3.7.6.9

*परोरजास्ते पञ्चमः पादः    सा इषमूर्जं धुक्ष्व    तेज इन्द्रियम्    ब्रह्म-वर्चसमन्नाद्यम्    विमिमे त्वा पयस्वतीम्    देवानां धेनुँ  सुदुघामनपस्फुरन्तीम्    इन्द्रः सोमं पिबतु    क्षेमो अस्तु नः    इमां नराः कृणुत वेदिमेत्य    वसुमतीँ  रुद्रवतीमादित्यवतीम्   3.7.7.13

*देवी जोष्ट्री वसुवने वसुधेयस्य वीताम्   

देवी ऊर्जाहुती वसुवने वसुधेयस्य वीताम्   

देवा दैव्या होतारा वसुवने वसुधेयस्य वीताम्

देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीर्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु  3.13.२७ शां.श्रौ.सू.

*,००४.०१  सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे ।

,००४.०१ जुहूमसि द्यविद्यवि ॥

*,१८६.०४  उप व एषे नमसा जिगीषोषासानक्ता सुदुघेव धेनुः ।

,१८६.०४ समाने अहन्विमिमानो अर्कं विषुरूपे पयसि सस्मिन्नूधन् ॥

*,००३.०६  साध्वपांसि सनता न उक्षिते उषासानक्ता वय्येव रण्विते ।

,००३.०६ तन्तुं ततं संवयन्ती समीची यज्ञस्य पेशः सुदुघे पयस्वती ॥

*,०३५.०७  स्व आ दमे सुदुघा यस्य धेनुः स्वधां पीपाय सुभ्वन्नमत्ति ।

,०३५.०७ सो अपां नपादूर्जयन्नप्स्वन्तर्वसुदेयाय विधते वि भाति ॥

*,००१.१३  अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेदुर्ऋतमाशुषाणाः ।

,००१.१३ अश्मव्रजाः सुदुघा वव्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवानाः ॥

*,०६०.०५  अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।

,०६०.०५ युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ॥

*,०३५.०४  स गोमघा जरित्रे अश्वश्चन्द्रा वाजश्रवसो अधि धेहि पृक्षः ।

,०३५.०४ पीपिहीषः सुदुघामिन्द्र धेनुं भरद्वाजेषु सुरुचो रुरुच्याः ॥

*,००२.०६  उत योषणे दिव्ये मही न उषासानक्ता सुदुघेव धेनुः ।

,००२.०६ बर्हिषदा पुरुहूते मघोनी आ यज्ञिये सुविताय श्रयेताम् ॥

*,०१८.०१  त्वे ह यत्पितरश्चिन्न इन्द्र विश्वा वामा जरितारो असन्वन् ।

,०१८.०१ त्वे गावः सुदुघास्त्वे ह्यश्वास्त्वं वसु देवयते वनिष्ठः ॥

*,०४३.०४  ते सीषपन्त जोषमा यजत्रा ऋतस्य धाराः सुदुघा दुहानाः ।

,०४३.०४ ज्येष्ठं वो अद्य मह आ वसूनामा गन्तन समनसो यति ष्ठ ॥

*,००१.१०  आ त्वद्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् ।

,००१.१० इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरङ्कृतम् ॥

*,०५२.०४  यस्य त्वमिन्द्र स्तोमेषु चाकनो वाजे वाजिञ्छतक्रतो ।

,०५२.०४ तं त्वा वयं सुदुघामिव गोदुहो जुहूमसि श्रवस्यवः ॥

*,०६९.१०  आ यत्पतन्त्येन्यः सुदुघा अनपस्फुरः ।

,०६९.१० अपस्फुरं गृभायत सोममिन्द्राय पातवे ॥

*,०७७.०१  एष प्र कोशे मधुमां अचिक्रददिन्द्रस्य वज्रो वपुषो वपुष्टरः ।

,०७७.०१ अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः ॥

*१०,०४३.०९  उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत् ।

१०,०४३.०९ वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्वर्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः ॥

*१०,०६९.०८  त्वे धेनुः सुदुघा जातवेदोऽसश्चतेव समना सबर्धुक् ।

१०,०६९.०८ त्वं नृभिर्दक्षिणावद्भिरग्ने सुमित्रेभिरिध्यसे देवयद्भिः ॥

 

*(१२.४.३५ ) पुरोडाशवत्सा सुदुघा लोकेऽस्मा उप तिष्ठति ।

(१२.४.३५ ) सास्मै सर्वान् कामान् वशा प्रददुषे दुहे ॥३५॥

*(१८.४.५० ) एयमगन् दक्षिणा भद्रतो ना अनेन दत्ता सुदुघा वयोधाः ।

(१८.४.५० ) यौवने जीवान् उपपृञ्चती जरा पितृभ्य उपसंपराणयादिमान् ॥५०॥ {२४}

*(२०.१७.९ ) उज्जायतां परशु ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्।

(२०.१७.९ ) वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्वर्न शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः ॥९॥

*(२०.५७.१ ) सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे ।

(२०.५७.१ ) जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१॥

*(२०.६८.१ ) सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे ।

(२०.६८.१ ) जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१॥

*(२०.९२.७ ) आ यत्पतन्त्येन्यः सुदुघा अनपस्फुरः ।

(२०.९२.७ ) अपस्फुरं गृभायत सोममिन्द्राय पातवे ॥७॥

VERSE: 9.4
*ग्रहा ऽ ऊर्जाहुतयो व्यन्तो विप्राय मतिम् ।
तेषां विशिप्रियाणां वो ऽ हम् इषमूर्जम्̐ सम् अग्रभम्
उपयामगृहीतो ऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
एष ते योनिर् इन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ।
सम्पृचौ स्थः सं मा भद्रेण पृङ्क्तम् ।
विपृचौ स्थो वि मा पाप्मना पृङ्क्तम् ॥
VERSE: 21.52
*देवी ऽ ऊर्जाहुती दुघे सुदुघेन्द्रे सरस्वत्य् अश्विना भिषजावतः ।
शुक्रं न ज्योति स्तनयोर् आहुती धत्त ऽ इन्द्रियं वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥
VERSE: 28.16
*देवी ऽ ऊर्जाहुती दुघे पयसेन्द्रम् अवर्धताम् ।
इषमूर्जम् अन्या वक्षत् सग्धिम्̐ सपीतिम् अन्या नवेन पूर्वं दयमाने पुराणेन नवम् अधातामूर्जमूर्जाहुती ऽ ऊर्जयमाने वसु वार्याणि यजमानाय शिक्षिते वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज ॥
VERSE: 28.39
*देवी ऽ ऊर्जाहुती दुघे सुदुघे पयसेन्द्रं वयोधसं देवी देवम् अवर्धताम् ।
पङ्क्त्या छन्दसेन्द्रियम्̐ शुक्रम् इन्द्रे वयो दधद् वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज
*,०३९.०४  तत्तदग्निर्वयो दधे यथायथा कृपण्यति ।

,०३९.०४ ऊर्जाहुतिर्वसूनां शं च योश्च मयो दधे विश्वस्यै देवहूत्यै नभन्तामन्यके सनमे ॥

ऋ. खिल५,७ .३  * देव्यूर्जाहुतीषम् ऊर्जम् अन्यावक्षत् सग्धिम् सपीतिम् अन्या नवेन पूर्वम् दयमाना स्याम पुराणेन नवम् ताम् ऊर्जम् ऊर्जाहुत्यूर्जयमानेऽधाताम् वसुवने वसुधेयस्य वीताम् यज ॥ - काठ.19.13

*यदूर्जाहुती यदेवात्ति च पिबति च तत् तद्यजति – काठ.सं. 36.3

श्रीनारायण उवाच-

शृणु लक्ष्मि! राधिकां तु दृष्ट्वा पुत्रीमतीं वराम् । श्रीरपि प्राह देवेशं श्रीकृष्णं परमेश्वरम् ।। १ ।।

 कान्त राधा यथा पुत्रीमती संशोभते हरे । मान्यता याति सर्वासु पुत्रीमतीषु सर्वथा ।। २ ।।

 यथा तथा कदा पुत्रीमती स्यां पुरुषोत्तम । कृपां कृत्वा तु मह्यं वै देहि पुत्रीं शुभाश्रयाम् ।। ३ ।।

 एवं तयाऽर्थितः कृष्णनारायणः श्रियं तदा । तथास्त्विति वरं दत्वा रेमे तया सुलीलया ।। ४ ।।

 श्रीकृष्णस्येक्षणादेव श्रियः पर्यंकशोभना । दिव्या कृष्णसमा रूपे सौन्दर्ये श्रीसमा सुता ।। ५ ।।

 प्रादुर्बभूव सहसा जातमात्रा सुयौवना । कामदुघेव सम्पन्ना सुदुघा नामतः कृता ।। ६ ।।

 श्रीकृष्णेन श्रिया चाप्याहूता सा सुदुघेति वै । प्रदोग्धि सर्वकामान् सा सुदुघा कृष्णकन्यका ।। ७ ।।

 श्रीतुल्या श्रीस्वरूपा च श्रीरिवाऽतिसमुज्ज्वला । सर्वावयवपुष्टा च कानकीं छविमाश्रिता ।। ८ ।।

 जातमात्रा निसर्गात् सा गवां दोहनकर्मणि । व्यवसायमयी रुच्या दृश्यते गोप्रिया तथा ।। ९ ।।

 सा तु जाता यदा तत्र महोत्सवोऽप्यभून्महान् । श्रीकृष्णस्य श्रिया वासेऽवतारर्षिसुरकृतः ।। १० ।।

 देवीनां नर्तनं चाऽप्सरसां गीतं सुनर्तनम् । गन्धर्वाणां गायनं वादनं चाभवन्महोत्सवे ।। ११ ।।

 मुनीनामाशिषामाप्तिरभूत् कन्यासुरक्षिका । गोपगोपीगणानां च वाण्यो ह्यासन् सुवर्धिकाः ।। १२ ।।

 तथांजलिकुसुमानि निपेतुः सुदुघोपरि । दुग्धवत्कान्तिनिवहां दृष्ट्वा कन्यां तु कन्यकाः ।। १३ ।।

 वयस्या जहृषुश्चाति रेमिरे च तया मुहुः । रामयन्ति रमन्ते च विहरन्ति तया तु ताः ।। १४।।

 अथ जिज्ञासमाना सा दुघा कार्यं मुहुर्मुहुः । मया किमत्र कर्तव्यं मीमांसते हि भावतः ।। १५।।

 पित्रा कृष्णेन चादिष्टं ज्ञात्वा योगबलं तथा । ऊर्जाहुति! दुघे! पुत्रि! पयसेन्द्रमवर्धताम् ।। १६ ।।

 इत्याज्ञप्ताऽतिसंहृष्टा सुदुघा पितरौ तदा । प्रणम्येन्द्रस्य वृद्ध्यर्थं पुष्ट्यर्थं समचिन्तयत् ।। १७।।

 यत्र यत्र च गोलेषु ब्रह्माण्डेषु च यादृशम् । माहेन्द्रं तु पदं देवसाम्राज्यं वर्तते दिवि ।। १८ ।।

 तानि सर्वाणि राज्यानि ध्यात्वा हृदा पदानि च । तेषां शाश्वतपुष्ट्यर्थं चिन्तयामास साधनम् ।। १९ ।।

 श्रीपुत्री सुदुघा चाहं दुग्धरूपा भवामि च । दिवि दुग्धामृतं दत्वा सुरेभ्यो निवसामि च ।। २० ।।

 महरादौ सुकृतात्माऽमृतं भूत्वा वसामि च । पितृभ्यो वारिपिण्डादि पायसादि ददामि च ।। २१ ।।

 पशुमानुषवृक्षेभ्यो दुग्धामृतं रसात्मकम् । दत्वा पुष्टिं कारयामि भुवेऽपि सुरसामृतम् ।। २२ ।।

 जले स्नेहामृतं कृत्वा प्रविदधामि पोषणम् । वह्नये पाकमाधुर्यं ददामि पाचनामृतम् ।। २ ३ ।।

 आत्मने देहवासाय ददामि विषयामृतम् । इन्द्र आत्मेन्द्रियाण्यस्य शक्तयो विषयाश्रयाः ।। २४।।।

 ताभिरमृतभोक्तारो भवन्त्यात्मनि एव हि । तत्त्वगं नवनीतं च घृतं सर्वकृतेऽमृतम् ।।२५ ।।

 एवं बहुस्वरूपाऽहं कार्यात्मिका भवामि च । इन्द्रस्य सौख्यलाभाय दुघा शक्तिर्वसामि च ।। २६।।

 यज्ञे ऊर्जाहुती चाहं भूत्वा पुष्टिं करोमि च । इन्द्रस्य सर्वथा रक्षा यथा स्यात्तादृशी तथा ।।२७।।

 भूत्वा भूत्वैव सर्वत्राद्यैव कुर्यां प्रवेशनम् । इति विचार्य सा कन्या सुदुघा बहुरूपिणी ।।२८।।

 बभूव दृश्या चाऽदृश्या प्रविवेश यथामतम् । इन्द्रस्य रुचिरं स्वर्गं ततः स्मृद्ध्या व्यवर्धत ।।२९ ।।

 सर्वाऽमृतानि दुग्धानि व्यवर्धन्ताऽतिवेगतः । लोकेषु श्रीमयी भूमिः सम्पदासीन्मनोरमा ।। ३ ०।।

 देवा देव्यो व्यराजन्त पूर्वतोऽप्यधिकाऽधिकम् । व्ययमाना भुज्यमाना अपि सर्वाः सुसम्पदः ।।३ १।।

 न वियन्ति मनाङ् नापि क्षीयन्ते सुदुघाऽन्वयात् । अदृष्टा चाऽश्रुता सम्पद् बभूवाऽऽनन्दसम्मुखा ।।३ २।।

 एवं याते शुभे काले याते चाद्ये कृते युगे । ऋषिर्मान्योऽभवन्नाम्ना मेधावी याज्ञिको महान् ।।३ ३ ।।

 यज्ञान् करोति विधिभिः कारयत्यपि वृष्टये । पुत्राद्यर्थं सुखाद्यर्थ स्वर्गार्थं सुकृताप्तये ।।३४।।

 पुत्रपुत्रीयुगलार्थं पुत्रेष्टिं स चकार वै । विष्णुर्नारायणः कृष्णो बह्वाविर्बभूव ह ।।३५ ।।

 जग्राह स्वकराभ्यां सुपुरोडाशं तदर्पितम् । उवाच च प्रसन्नोऽस्मि वरं वृणु यथेप्सितम् ।। ३६ ।।

 पृथ्वीं राज्यं रसान् मिष्टं दुग्धं स्वर्गं सुतं सुताम् । यथेच्छसि तथा तुभ्यं ददामि कुरु मा चिरम् ।।३७।।

 श्रुत्वा विप्रस्तु मेधावी प्राह पुत्र प्रदेहि मे । यज्ञः पुत्रेष्टिनामाऽसौ पुत्रार्थं वर्तितो मया ।।३८।।

 भगवान् प्राह पुत्रस्ते सप्तजन्मसु नास्ति वै । पुत्रेष्ट्या जायते पुत्रश्चिरायुष्ट्रे तु संशयः ।।।३ ९।।

 जन्मना यस्तु सुखदोऽनन्तरं दुःखदो मृतेः । तस्माद् विप्र वृणु पुत्रीं यदि चेत् ते प्ररोचते ।। ४० ।।

 तव पत्न्या भालरेखा पुत्र्यर्था भाति चानघ । पुत्रादप्यधिका कीर्तौ सेवायां सा भविष्यति ।।४ १ ।।

 यया शोको न वै स्याच्च तथा कुरु महीसुर । पत्नीमतं समादाय विप्रो जग्राह तद्वचः ।।४२।।

 ततो भगवता दत्तः प्रसादो भोजनाय वै । गृहीत्वाऽऽह हरिं विप्रः पुत्री श्रीसदृशी मम ।।४३।।

 सुखदा नाथ! भवतु शान्ता कामदुघेव सा । या शक्तिः सर्वभूतानां सुधापानप्रदायिनी ।।४४।।

 तथाऽस्त्विति हरिः प्राह प्रैरयच्छ्रीसुतां दुघाम् । मेधाविनस्तु पुत्र्यर्थं सुदुघापि तदाज्ञया ।।४५।।

 प्राविर्बभूव मेधाविभार्यायाः शयने तदा । मानसी साऽभवद् दिव्या शोभते श्रीरिवाऽपरा ।।४६।।

 जातमात्रातिसंशोभियौवना पुष्टिसंभृता । रूपलावण्यललिता नयनाऽपांगमोचिनी ।।४७।।

 चातुर्यादिगुणोपेता पित्रोरेकैव शंस्थली । अति वै वल्लभा पित्रोः सर्वसद्गुणसुन्दरी ।।४८।।

 लालिता पुत्रवन्नित्यं नोपालब्धा कदापि तु । नीतिसाहित्यकुशला चात्मतत्त्वविशारदा ।।४९।।

 सेविका सर्वदा पित्रोः सेवया तुष्यतश्च तौ । कालेन गच्छता लक्ष्मि! तन्माता निधनं गता ।।५०।।

 पित्रा सा पालिता हर्षात् पुत्रस्थानां कुमारिकाम् । सापि काले गते चासीद् योगिनीव तथापि तु ।।५ १ ।।

 पार्श्वस्थाऽऽलिसुखं दृष्ट्वा पुत्रपौत्रसुखस्पृहा । मेधावती कुमारी सा गार्हस्थ्यार्थमनोरथा ।।५२।।

 तर्कयति च मामेव सुखं भाग्य कथं भवेत् । गुणभाग्योदयो भर्ता सुखदाश्च सुताः कथम् ।।५३ ।।

 तदर्थं कं मुनिं यद्वा कमुपास्ये सुरेश्वरम् । युवत्यहं सखीमध्ये कुमारी दुःखवेदिनी ।।५४।।

 नाऽहं स्वामिसुखाऽभिज्ञा यथा मम सखीगणः । एवं चिन्ताकुलां बालां विज्ञायाऽपि च तत्पिता ।।५ ५ ।।

 मेधावी विचचारोर्व्यां विचिन्वन् तत्समं वरम् । अप्राप्य भग्नसंकल्पो ज्वरं तीव्रमवाप सः ।।५ ६ ।।

 आगच्छन्नेव भवनं हरौ चित्तमधारयत् । सस्मार श्रीहरिं कृष्णनारायणं पुमुत्तमम् ।।५७।।

 गृहांगणे पपातासौ कृष्णदूताः समाययुः । करे धृत्वा मुनिं तं ते ययुः कृष्णसरोरुहम् ।।५८।।

 प्राणोत्क्रमणमालोक्य हाहेति सा सुताऽरुदत् । अंके कृत्वा पितुर्देहं विललाप सुदुःखिता ।।५ ९ ।।

 हा हा पितः कथं मातृहीनां त्यक्त्वा निजां सुताम् । पितृहीनां तथा कृत्वा ह्यनाथां क्व गतोऽसि वै ।।६ ० ।।

 न भ्राता नैव बन्धुश्च न माता न च रक्षकः । कथं तिष्ठाम्यहं तात! मरिष्यामि न संशयः ।।६ १ ।।

 इत्यादिरोदनं श्रुत्वा तापसास्तत्र चाययुः । मृतं मुनिं ददृशुस्ते सशोका ददहुस्ततः ।।६२।।

 समाश्वास्य च तां कन्यां सर्वे ते स्वालयान् ययुः। कन्या धैर्यं समालम्ब्याऽकरोच्छक्त्यौर्ध्वदैहिकम् ।।६३।।

 गते काले भाग्यवशाद् दुर्वासाः शांकरो मुनिः । समायात्तद्गृहं लक्ष्मि! भविष्यद्बलनोदितः ।।६४।।

 तमालोक्य समायान्तं कुमारी चरणौ मुनेः । ववन्दाऽर्घ्यादिभिः पुष्पैः पूजयामास सादरम् ।।६५।।

 नमस्तेऽस्त्वत्रिपुत्राय कुतोऽधिगमनं मुने । मम भाग्योदयो जातो भवत्तीर्थनिषेवया ।।६६।।

 अद्य मे सफलं जन्म सफलं त्वद्य मे व्रतम् । अद्य मे फलवत्पुण्यं यद् भवादृशदर्शनम् ।।६७।।

 श्रुत्वाऽऽह तां तु दुर्वासाः साधु स्वस्ति सुते! तव । कैलासादहमागच्छं गच्छामि बदरीवनम् ।।६८।।

 द्रष्टुं नारायणं देवं त्वयाऽर्थश्चेन्निवेद्यताम् । मेधावती ऋषिं प्राह नाऽनावेद्यं प्रभोर्मनाक् ।।६९।।

 अतः परं शुभं भावि त्वद्दर्शनादनुग्रहात् । न माता न पिता बन्धुर्न कश्चिद् रक्षकोऽस्ति मे ।।७०।।

 न मां कामयते कश्चित् पाणिग्रहणहेतवे । ब्रह्मन् मुमूर्षुरस्म्येव किं करोमि हितं कुरु ।।७ १।।

 श्रुत्वा मुनिरुपायं सुविर्चायाऽकथयत् सुताम् । इतस्तृतीयः सुभगे मासस्तु पुरुषोत्तमः ।।७२।।

 तत्र स्नाता जनस्तीर्थे मुच्यते ब्रह्महत्यया । एतत्तुल्यो न कोऽप्यन्यो मासोत्तमो हि विद्यते ।।७३।।   

 सर्वे मासास्तथा पक्षाः पर्वाणि ऋतवस्तथा । पुरुषोत्तममासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।७४।।

 साधनानि समस्तानि गंगा गोदाऽऽप्लवानि च । सहस्राण्यधिमासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।७५।।

 श्रीकृष्णवल्लभो मासो नाम्ना च पुरुषोत्तमः । तस्मिन् संसेविते बाले! सर्वं सिद्ध्यति वाञ्च्छितम् ।।७६।।

 तस्मान्निषेवयाऽऽशु त्वं मासं तं पुरुषोत्तमम् । मयाऽपि सेवते पुत्रि! पुरुषोत्तमवत् सदा ।।७७।।

 यदि चेदिष्टमाप्तव्यं यथारुचि कुरु व्रतम् । अहं पुत्रि! गमिष्यामि नरनारायणालयम् ।।७८।।

 इत्युक्त्वा प्रययौ शीघ्रं  ह्यथ मेधावती ततः । अधिमासप्रतीक्षाढ्या तत्कालफलदं शिवम् ।।७९।।

 चित्ते धृत्वा तमुद्दिश्य चचार दुश्चरं तपः । दिवा पंचाग्निमध्यस्था रात्रौ शीतजलस्थिता ।।८०।।

 अनाहारा हरध्याना समाधाविव तिष्ठति । सन्तुष्टस्तपसा तस्या भगवान्पार्वतीपतिः ।।८ १।।

 दर्शयामास बालायै स्वं रूपं चाक्षिगोचरम् । सा ववन्दे हरं पुष्पादिभिः पुपूज मानसैः ।।८ २।।

 तुष्टाव भक्तिभावेन ह्याशुतोषाय ते नमः । अनाधारसुताऽऽधारशंकराय च ते नमः ।।८ ३ ।।

 नमः सूर्याग्निसोमत्रिनेत्राय मृत्यवे नमः । पार्वतीतापसीवाञ्च्छापूरकायेह ते नमः ।।८४।।

 कुमार्याश्चाप्यनाथाया उद्धारं कुरु शंकर । इति स्तुत्वा पुनर्नत्वा विररामर्षिपुत्रिका ।।८५ ।।

 श्रुत्वा प्रसन्नवदनस्तामुवाच सदाशिवः । वरं वरय भद्रं ते प्रसन्नोऽस्मि ददामि ते ।।८६।।

 बालोवाच दयासिन्धो प्रसन्नश्चेन्ममोपरि । पतिं देहि पतिं देहि पतिं देहि पतिं पतिम् ।।८७।।

 इत्याश्रुत्य महादेवो जगादर्षिसुतां तदा । पञ्चकृत्वस्त्वया यस्मात् प्रार्थितः पतिरीश्वरात् ।।८८ ।।

 तस्मात् पंच भविष्यन्ति पतयस्तव धार्मिकाः । यज्वानः सत्यसन्धाश्च राजन्यास्त्वन्मयाः सुते ।।८ ९।।

 इदानीं पंचसंख्याका इन्द्राः प्राक्कल्पसंभवाः । वसन्ति सत्यलोके ते भवन्तु पतयः सुते ।। ९ ०।।

 अनेनैव हि देहेन दिव्यतां प्रापितेन वै । मया साहाय्यदेनाऽद्याऽऽगच्छ सत्ये तदन्तिकम् ।। ९१ ।।

 इत्युक्त्वा शंकरस्तां सुदिव्यदेहां विधाय च । निनाय सत्यलोकं वै मार्गे मेधावतीं दिवि ।। ९२।।

 शुश्राव दुन्दुभिं दिव्यं कुर्वन्तु व्रतमुत्तमम् । त्रयोदश्यधिमासस्य यथेष्टफलदा भवेत् ।। ९३ ।।

 पतिप्राप्तिर्मम प्राप्तिर्भवेदेकव्रतेन वै । श्रुत्वा मेधावती प्राह कृष्णप्राप्तिः कथं भवेत् ।। ९४।।

 श्रुत्वा तु दुन्दुभिं चैनं जिज्ञासा जायते मम । तथा कुरु यथा कृष्णनारायणो मिलेन्मम ।। ९५ ।।

 शंभुः प्राह शुभे पुत्रि! कल्याणं तेऽस्तु सर्वथा । प्रसन्नोऽस्मि तव वाक्यात् कृष्णप्राप्तिपरायणात् ।। ९६ ।।

 राज्यं स्वर्गं पारमेष्ठ्यं चैश्वरं पदमेव वा । सर्वं भवति निस्स्वादं विना कृष्णं पुमुत्तमम् ।। ९७ ।।

 भक्त्या स लभ्यते कृष्णनारायणः परः पुमान् । कुरु व्रतं त्रयोदश्या यथादुन्दुभिभाषितम् ।। ९८ । ।

 उपवासं फलाहारं कृत्वा षोडशवस्तुभिः । पूजयेत्परमात्मानं भोजयेल्लालयेत्तथा । । ९९ । ।

 रात्रौ जागरणं कुर्यात् सर्वं ददेत् प्रतोषितः । इत्युक्त्वा तां सत्यलोकं गमयित्वेन्द्रपञ्चकम् । । १०० । ।

 दत्वा पत्नीस्वरूपेण पुनः प्राह सुतां हरः । पुरुषोत्तममासस्य त्रयोदश्या व्रतेन वै । । १० १ । ।

 मिलिष्यति हरिस्त्वा वै मानुषे कृतविग्रहे । अयोनिसंभवा तत्र भविष्यसि तपोबलात् । । १० २। ।

 तत्रैते पञ्चभर्तारो भविष्यन्ति सुरांशजाः । धर्ममरुन्महेन्द्राश्विनीकुमारांशसभवाः । । १०३ । ।

 श्रीपतिस्तु तदा कृष्णो मिलिष्यति च रक्षकः । भर्तृजं सुखमासाद्य ततो गन्त्री परं पदम् । । १ ०४। ।

 पुरुषोत्तमभक्तास्तु पुत्रापौत्रधनान्विताः । ऐहिकाऽऽमुष्मिकीं सिद्धिं याता यास्यन्ति यान्ति च । । १०५ ।।

 वयं सर्वेऽपि नेतारः पुरुषोत्तमसेविनः । वदन्नेवं नीलकण्ठः क्षिप्रमन्तर्दधे हरः ।। १०६ ।।

 मेधावत्या पतीन् पृष्ट्वा शंकरस्योपदेशनात् । त्रयोदश्या व्रतं सोपवासं सजागरं कृतम् ।। १ ०७।।

 पञ्चामृतैर्जलैः कृष्णं संस्नाप्य पुरुषोत्तमम् । वस्त्रालंकारनैवेद्यफलताम्बूलकादिकम् ।। १०८ ।।

 धूपदीपसुपुष्पाद्यक्षतां जलि क्षमार्थनम् । आरार्त्रिकादिकं कृत्वा ययाचे परमेश्वरात् ।। १० ९।।

 दर्शनं देहि मे तात! भवे साहाय्यदो भव । तावत्तत्र समायातो गरुडस्थः श्रियः पतिः ।। ११० ।।

 प्राहाऽस्मि ते सुते तुष्टस्त्रयोदश्या व्रतेन वै । रक्षयिष्ये सदा पुत्रि! सह स्थास्ये यथाऽवनम् ।। १११ ।।

 पुनः प्रोवाच सा पुत्री मोक्षो मे स्याद् यथा गुरो । तथाऽन्ते मे भवेत्तात! नान्यं कांक्षे मनोरथम् ।। ११ २।।

 तथाऽस्त्विति हरिः प्राह प्राह चापि विशेषतः । शृणु पुत्रि द्वापरान्ते कृष्णोऽहं भगवान् स्वयम् ।। ११३ ।।

 भूभारहरणार्थायाऽवतरिष्यामि वै क्षितौ । यज्ञसेनाख्यनृपतेर्यज्ञकुण्डस्य मध्यतः ।। १ १४।।

 भविष्यसि त्वमुद्भूता कुमारी कनकप्रभा । याज्ञसेनी च वैराजी कृष्णा ख्याता भविष्यसि ।। ११ ५।।

 तत्रैव च समे काले पञ्चेन्द्राः स्वामिनस्तव । भविष्यन्ति सुरांशास्ते पतयोऽमितविक्रमाः ।। १ १ ६।।

 तद्द्वारा त्वन्मिषं कृत्वाऽसुरान्दैत्याँश्च दानवान् । नाशयित्वा स्वकं धाम यदा यास्ये तदा सुते! ।। ११ ७।।

 नयिष्ये त्वां यथाकालं यथाकार्यं निरुद्ध्य च । पुनस्त्वं प्राप्स्यसे धाम गोलोकं यत्र ते जनुः ।। १ १८।।

 तदा त्वां सुदुघे पुत्रि! तन्वा ब्राह्म्याऽक्षरे परे । धाम्नि संप्रापयिष्ये मच्चरणं शरणं सुखम् ।। ११ ९।।

 इति ते कथितं पुत्रि! भविष्यत्ते कथानकम् । सत्ये सुखं वस पुत्रि! याम्यहं च ममालयम् ।। १ २०।।

 इत्युक्त्वाऽदृश्यतां यातस्तदा श्रीपुरुषोत्तमः । सुदुघा कृष्णपुत्री सा याज्ञसेनी भविष्यति ।। १२ १।।

 अधिमासपरपक्षत्रयोदश्या व्रतेन सा । प्राप्स्यतीयं परं धाम पुरुषोत्तमवाक्यतः ।। १२२।।

 इति ते कथितं लक्ष्मि! श्रीपुत्र्यास्तु कथानकम् । ते धन्या जन्मवन्तश्च ते पूज्याः पावनास्तथा ।। १ २३।।

 विविधैर्नियमैर्यस्तु पूजितः पुरुषोत्तमः । श्रवणात्पठनाच्चापि व्रतस्याऽत्र फलं लभेत् ।। १२४।।

 लभते कृष्णसाहाय्यं पुरुषोत्तमसम्मतम् । भुक्तिं मुक्तिं लभेच्चापि नरो नारी परोऽपि वा ।। १ २५।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीय संहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये गोलोके श्रीपुत्र्याः सुदुघायाः श्रीकृष्णाज्ञया इन्द्रवृद्ध्यर्थं प्रवृत्ताया रसाऽमृतात्मकता, याज्ञिकस्य मेधाविविप्रस्य गृहेऽयोनिजायास्तस्या जन्म, पित्रोर्मरणं, दुर्वासस आगमनं, पुरुषोत्तममासव्रतोपदेशः, शंकरोपरि तपः, पञ्चकृत्वः पतिप्रार्थनम्, सत्यलोके पञ्चेन्द्रपतिप्राप्तिः, त्रयोदशीव्रतेन पुरुषोत्तमदर्शनं, भुवि पञ्चपतिमती याज्ञसेनी भूत्वा मोक्षं यास्यसीतिवरदानं, चेत्यादिनिरूपणनामा विंशत्यधिक-त्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३२० ।।