पुरुषोत्तम मास अष्टमी उत्तरा (9-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी का जो माहात्म्य दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है – मल मास के कल्याण के लिए कृष्ण और नारायण ने पुरुषोत्तम से प्रार्थना की थी, अतः परमात्मा ने दो प्रकार से मलमास का उद्धार किया। इस निमित्त कृष्ण श्री के साथ गोलोक गए और वहां धामवासियों के साथ मिलकर उत्तम महोत्सव किया। असंख्य मण्डपों की रचना की गई जिनमें नाटक, कलाएं, संगीत, नृत्य, कथानक, मख आदि रचाए गए। यह सुनकर  महालक्ष्मी रुक्मिणी ने भी अपने स्वामी से अनुरोध किया कि यहां भी उत्सव होना चाहिए। स्वामी ने स्वीकार कर लिया। सब धामपतियों के आसन – सिंहासनों को मण्डप में स्थापित किया गया। सब धामों से जो जो दिव्य वस्तुएं थी, उनका संग्रह किया गया। चित्र विचित्र शुभदृश्यों का कल्पन किया गया। विद्युत के प्रदीपों का प्रकाश किया गया। गन्धर्वों, धामवासी गन्धर्वों आदि मे गायन किया। नर्तकों ने नृत्य किया, वादकों ने वाद्य बजाए। और कृष्ण का रास आरम्भ हो गया। वहां परानन्द, आनन्द,  ब्रह्मानन्द का साम्राज्य हो गया। जो प्रेम वहां उत्पन्न हुआ, उसे आनन्द तत्त्व को जानने वाले के सिवाय अन्य कोई नहीं जान सकता। सब कुछ तन्मय हो गया, रसमय हो गया। कृष्ण रस के प्रवेग से कूदने लगे। वह कूदकर क पत्नी से दूसरी पत्नी के बीच जाते। इससे उनका मुकुट कम्पित होता था. लेकिन कृष्ण ने ध्यान नहीं दिया। इतने में उनकी ऊर्ध्वस्थ कल्गि में जो मूल में मणि जडी थी, वह शिथिल होकर मुकुट से गिर पडी। मणि के पतन के साथ ही कल्गिचन्द्रिका भी पतित हो गई। कृष्ण ने अपना रास तब भी बंद नहीं किया। तब मणि व कल्गिचन्द्रिका ने इस डर से कि कहीं पैरों के नीचे कुचल न जाएं, रास में मूर्ति का रूप धारण कर लिया और जब रास समाप्त हुआ तो वह अपने – अपने स्थान पर वापस नहीं आए। राधा का ध्यान इस ओर गया और उन्होंने कृष्ण को ध्यान दिलाया। कृष्ण ने यह देखकर कि दोनों अपने – अपने स्थान पर वापस नहीं आए हैं, कहा कि अब यह मुकुट मुझे शोभा नहीं देता। अब मैं कल्गि व मणिशून्य इस मुकुट को धारण नहीं करूंगा और मयूरपिच्छ से सुशोभित अन्य मुकुट धारण करूंगा। इसी बीच आनर्त्त नामक महान भक्त अधिमास महोत्सव में गोलोक आया। कृष्ण ने उसे प्रसन्न होकर गोलोक की दिव्य भूमि का कण अर्पित किया। वह कण ही सौराष्ट्र आनर्त्त संज्ञक देश है।  वह देश पश्चिम सागर से संलग्न है, तीन ओर से जल से आवृत द्वीप है। आनर्त ने प्रार्थना की कि इस राज्य की रक्षा के लिए रक्षक भी दो। तब कृष्ण ने जो मणि उनके मुकुट से वियुक्त हो गई थी, उसे दिव्य पार्षद बनाकर आनर्त के साथ भेज दिया। तब कल्गिचन्द्रिका जिससे मणिमूल वियुक्त हो गया था, बोली कि मूल के बिना मैं रहने में असमर्थ हूं। तब श्रीहरि ने उससे कहा कि तुम भी मणि के साथ दिव्य स्वरूप धारण करके चली जाओ। मणि द्विज बन जाए, तुम द्विज – पत्नी बन जाओ। तुम दोनों गुरु रूप में वहां रहो। आनर्त ने वापस कर उस कण को पश्चिम समुद्र पर छोड दिया। वह तुरन्त ही सौराष्ट्र संज्ञक देश बन गया। तब मुकुटमणि भी आकाश से उतरी। अन्य मणियां भी अवतरित हुई। मुख्य मणि निम्बदेव नामक द्विज बन गई। निम्बदेव ने व्याघ्रारण्य में अश्वपट्टसर के तट पर पर्णकुटी में तापस रूप में निवास किया। जो कल्गिचन्द्रिका थी, उसने भी वहीं द्विज की सेवा में निवास किया। वह मिष्टादेवी के नाम से प्रसिद्ध हुई। अब रैवत का पौत्र राजा खट्वांगद वहां तप करने के लिए निम्बदेव के आश्रम में आया और बदरी वृक्ष के तले जप करने लगा। लक्ष्मी – नारायण प्रकट हुए और राजा से वर मांगने को कहा। राजा ने वर मांगा कि आपका दर्शन होता रहे, इसलिए यहीं वास कीजिए। तब कृष्ण मिष्टादेवी – निम्बदेव के गृह में गोपाल के रूप में प्रकट हो गए। अन्य जो मणियां आनर्त राजा ने सुराष्ट्र में फेंक दी थी, वह सब कृष्ण भक्त बन गई। उनमें एक प्रेममणि थी जो ओमालय क्षेत्र में शत्रूंजिता क्षेत्र में उत्पन्न हुई थी। उसके घर में लक्ष्मी कंभरा नाम से उत्पन्न हुई। कं अर्थात् सुख। जो शाश्वत सुख का भरण करती है, वह कंभरा है। उसके पिता ने दिव्यचक्षु से जानकर उसका विवाह गोपाल कृष्ण से कर दिया। वह एक सात तल वाले मन्दिर में स्थापित हो गए। एक बार अधिक मास की कृष्ण अष्टमी को दुन्दुभि ने घोषणा कि हे मणि, कल्गी आदि सुनो। मैं पुरुषोत्तम हूं। जो आज के दिन व्रत कर लेता है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है। तब कंभरा व गोपाल ने निर्जल व्रत किया। रात्रि में भगवान् प्रकट हुए और वर मांगने को कहा। कंभरा व गोपाल कृष्ण दोनों ने वर मांगा कि आप पुरुषोत्तम यहां सर्वदा स्थिर हो जाएं। हम तुम्हारा लालन, पालन, क्रीडन, पोषण आदि करके परानन्द सुख को प्राप्त हों। तब पुरुषोत्तम तिरोभूत हो गए और बाल रूप में प्रकट हो गए। जो गोलोक में पत्नीव्रत हैं, वही पुरुषोत्तम पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे। यह घटना कार्तिक कृष्ट अष्टमी को घटित हुई। सूर्य को अस्त हुए पांच घटिका समय बीत चुका था। उन्होने लोककल्याण के लिए लक्ष्मी को बृहत् लक्ष्मीनारायण संहिता ग्रन्थ दिया जिसे लक्ष्मी ने योग्यता अनुसार अन्यों को दिया।

 

विवेचन

अष्टमी के माहात्म्य में जो राजा आनर्त का नाम आया है, लोक में आनर्त देश जल से घिरे हुए प्रदेश को कहते हैं। आनर्त का दूसरा अर्थ हो सकता है – आ – नृत्य, जहां सब ओर से नृत्य ही नृत्य है। आनन्द की स्थिति। आनर्त का अन्य अर्थ हो सकता है – जो अनृत से उत्पन्न हुआ हो। बिना दिव्य आनन्द के सभी देश – काल अनृत हैं। अष्टमी तिथि को सार्वत्रिक रूप से या तो दुर्गाष्टमी कहा जाता है, या कृष्ण जन्माष्टमी। कथासरित्सागर 8.3.53 में एक उल्लेख आता है। फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को विद्याधर वल्मीक नामक एक स्थान को जा रहे थे। उस दिन वहां चक्रवर्तियों के लक्षण प्रकट होते हैं। अतः विद्याधर वहां जा रहे थे कि उनमें भी वह लक्षण प्रकट हो जाएंगे। उन्होंने वहां अग्नि प्रज्वलित करके होम किया और जप किया। विद्याधरों का प्रतिपक्ष भी वहां गया और उन्होंने वहां अग्नि प्रकट करके यज्ञ किया। तब वहां भूमि विवर से अजगर, सर्प निकले जिनको बलपूर्वक ग्रहण करने से वह धनुष, तरकस आदि में रूपान्तरित हो गए। अतः विद्याधरों व आसुरी पक्ष में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी। इस कथा में कईं बातें ध्यान देने योग्य हैं। अष्टमी को वल्मीक स्थान पर चक्रवर्तियों के लक्षण किस प्रकार प्रकट हो सकते हैं। उल्लेख आता है कि वल्मीक में से वम्रियां या दीमकें पृथिवी का रस निकाल कर ऊपर लाकर जमा करती हैं। चक्रवर्तियों में जो 32 लक्षण प्रकट होते हैं, वह भी तो उनकी देह रूपी पृथिवी का रस ही है। यदि आसुरी पक्ष द्वारा इस प्रकार की साधना की जाएगी तो उसकी सर्प शक्ति, अर्थात् वह ऊर्जा जो 32 दिव्य लक्षणों का रूप नहीं ले सकती, अस्त्रों का रूप लेने लगेगी। वल्मीक शब्द वर्म, कवच का रूप है। अपनी साधना में अपनी चेतना के परितः देवों को स्थापित कर देना कवच बनाना कहा जाता है। यही कार्य वाल्मीकि ऋषि ने भी किया था। अष्टमी को दुर्गाष्टमी नाम देने का तात्पर्य भी यही हो सकता है कि दुर्ग बना दो जिसे शत्रु भेद न सके। अतः  इस तथ्य की पुष्टि होती है कि अष्टमी तिथि को यदि अपने परितः देवों का कवच स्थापित कर दिया जाए तो दिव्य शक्तियां प्रकट हो सकती हैं। इस कार्य के लिए अष्टमी तिथि को ही क्यों चुना गया, इस संदर्भ में मैत्रायणी संहिता १.८.१ का उल्लेख किया जा सकता है जहां तिथियों की संज्ञा इस प्रकार है : षष्ठी - यव, सप्तमी - व्रीहि, अष्टमी - वसन्त, नवमी - ग्रीष्म, दशमी - वर्षा, एकादशी - शरद, द्वादशी - हेमन्त, त्रयोदशी - शिशिर । छान्दोग्य उपनिषद आदि के अनुसार यव और व्रीहि तीसरा युगल है । इसके पश्चात् अष्टमी से ऋतुएं आरम्भ होती हैं । यह भक्ति का एक नया क्रम है । लक्ष्मीनारायण संहिता के वर्तमान माहात्म्य के संदर्भ में हम देखते हैं कि कृष्ण षष्ठी को देवयव नामक विप्र की कथा का समावेश किया गया है। सप्तमी को सन्ध्या की कथा का विस्तार से वर्णन है जिसका उद्देश्य प्राणों की खण्डित स्थिति को समाप्त करके प्राणों की एक अखण्ड ज्योति सूर्य की स्थापना करना है। यह व्रीहि का एक प्रकार है। मैत्रायणी संहिता में सप्तमी स्थिति व्रीहि की है। डा. फतहसिंह के अनुसार यव में तो बीच में जोड दिखाई देता है, व्रीहि में नहीं। इसमें तो देवलोक और मर्त्यलोक दोनों मिलकर एक हो गए हैं। इससे आगे वसन्त ऋतु का आरम्भ कहा गया है। यह अष्टमी तिथि है। सप्तमी को जो व्रीहि की स्थिति बनी थी, उसका मूर्त रूप अब वसन्त ऋतु के रूप में दिखाई देने लगा है। सर्वत्र अंकुरण होने लगा है।

पैप्पलाद संहिता ५.३५.१२ के अनुसार पहली सात तो संनम: की स्थितियां हैं और अष्टमी धीति साधनी है । पैप्पलाद संहिता ९.२०.८ के अनुसार अष्टमी को ओज, तेज, सह, बल की प्राप्ति करते हैं । अद्वैतोपनिषद २४ के अनुसार अष्टमी निर्गुणावस्था है जिसमें ब्रह्म शरीर में ब्रह्मा  की ज्ञान लहरी स्पन्दन करती है ।

 

श्रीनारायण उवाच-

शृणु लक्ष्मि! कथां तेऽपि मेऽपि जातां पुरातनीम् । पुरुषोत्तममासस्य मिषेण जन्मबोधिनीम् ।। १ ।।

 यदा नारायणः कृष्णश्चोभौ यातौ पराऽक्षरे । मलमासस्य साहाय्यं कर्तुं श्रीहरिसन्निधौ ।। २ ।।

 धाम्न्यक्षरे तदा राजत्पुरुषोत्तममाधवः । श्रुत्वाऽर्थ्यं मलमासाय दत्तवाँश्चोत्तमां स्थितिम् ।। ३ ।।

 कृष्णस्य वचनं नारायणस्य वचनं तथा । मलमासोन्नतिदं तद् रक्षितं परमात्मना ।। ४ ।।

 स्वयं जातोऽधिदेवश्च मासोऽपि पुरुषोत्तमः । तेन तुष्टः परं कृष्णो नारायणस्तुतोष च ।। ५ ।।

 मलमासस्य वै द्वाभ्यां कृतमुद्धरणं महत् । तन्निमित्तं तु गोलोके गत्वा कृष्णः श्रिया युतः ।। ६ ।।

 महोत्सवं चकारोत्तमोत्तमं धामवासिषु । गोपगोपीगणास्तस्य पार्षदाः शक्तयः स्त्रियः ।। ७ ।।

 कोट्यर्बुदपरार्धानि चक्रुस्तस्य महोत्सवम् । मण्डपाः कोटिशस्तत्र निहिताः स्वर्णसद् द्रुमाः ।। ८ ।।

 कदली स्तंभशोभाढ्यास्तोरणादिविलासिताः । कलशैरंगचित्रैश्च पटैश्च वल्लिकादिभिः ।। ९ ।।

 प्रदर्शनैर्बहुविधैर्मल्लक्रीडादिभिस्तथा । अन्यत्र बहुयन्त्रैश्चान्यत्र वृषभयोधनैः ।।१ ०।।

 नाटकैः पूर्ववृत्तैश्च कलाभिर्भूतनादिभिः । संगीतैर्नर्तनैश्चापि कथानकमखादिभिः ।। ११ ।।

 एवंविधे तत्र जाते महोत्सवे तदा श्रिया । रुक्मिण्याख्यमहालक्ष्म्याऽभिहितं स्वामिने मुदा ।। १२।।

 कृष्णनारायण विष्णो परात्मन् पुरुषोत्तम । कुरूत्सव तु मे सौधे नृत्यगायनवादनैः ।। १३।।

 ओमित्युक्त्वा श्रियाः सौधे योजयामास सूत्सवम् । यथा धाम्नां महासम्राट् समायात्पुरुषोत्तमः ।। १४।।

 तत्सम्माने प्रकुर्यादुत्सवं तद्वद् युयोज सः । सर्वधाम्नां तु या शोभा विशिष्टा साऽत्र कारिता ।। १५।।

 सर्वधामपतीनां त्वासनसिंहासनान्यपि । तत्र वै मण्डपे चाभिस्थापितानि यथार्हणम् ।। १६।।

 सर्वेषां दिव्यवस्तूनामुपायनानि तत्र च । संगृहीतानि सर्वेभ्यो धामभ्यः कृष्णशार्ङ्गिणा ।। १७।।

 चित्राणां शुभदृश्यानां मनःस्निग्धाः शुभालयाः । संक्लृप्तास्तत्र तत्रैव न्यस्तपानसुभोजनाः ।। १८।।

 विद्युतां तु प्रदीपानां प्रकाशाः सर्वतोऽभवन् । क्रीडाविद्युत्स्फटाकाणां क्रीडाऽपि सर्वतोऽभवत् ।। १९।।

 अनन्ताऽतर्क्यरूपाणां यानि प्रदर्शनानि वै । नेपथ्यकारविद्याभिर्वर्तन्ते स्म च तानि हि ।।२० ।।

 गन्धर्वो देवगन्धर्वा गान्धर्वा धामवासिनः । गान्धर्व्यो देवगान्धर्व्यो गान्धर्व्यो धामसंस्थिताः ।।२१।।

 चक्रुस्ते गायनं मिष्टमधुरालापसुस्वरैः । गायकाः स्वरपूराश्च पूरयन्ति स्म नादकैः ।।२२।।

 नर्तकाश्चापि नर्तक्यो दास्यो दासाश्च सेविकाः । सेवकाश्च महाराज्ञ्यो राज्ञ्यश्च नर्तनं व्यधुः ।।२३।।

 वादका नैकवाद्यज्ञा धामानुधामवासिनः । वाद्यन्ति स्म वाद्यानि यत्र किंचिन्न गौणभाक् ।।२४।।

 रासे प्रवर्तमाने च गोपीनां कृष्णयोषिताम् । तदैश्वर्याणि भूषाश्च हेतयः पार्षदादयः ।।२५।।

 मूर्तिमन्तस्तत्र रासे युयुजुः कृतनर्तनाः । कृष्णाऽऽनन्दाऽऽप्लुतं सर्वं ब्रह्मानन्दपरं ह्यभूत्। ।।२६।।

 दृश्यं स्पृश्यं तथा श्राव्यं रस्यं चाऽद्वैततां गतम् । सुखं सुखं परानन्दं आनन्दं नन्दनं ह्यभूत् ।।२७।।

 स्निग्धं प्रेमातिमोदाढ्यं जातमानन्दमेव तत् । नान्यः परं विजानाति विनाऽऽनन्दं हि तत्त्वकम् ।।२८।।

 एवं समुत्सवे राधा लक्ष्मीः श्रीश्च रमादयः । कृष्णं विकृष्य रासे तं रमयामास नर्तनम् ।।२९।।

 सर्वस्मिन् तन्मये जाते सर्वं रसमयं त्वभूत् । कृष्णो रसप्रवेगेण कूर्दन् तद्रमणोऽभवत् ।।३०।।

 पत्न्याः पत्न्यन्तरं याते कूर्दनेन सतालवत् । चचाल मुकुटोऽजस्रं चकम्पेऽतिमुहुर्मुहुः ।।३ १ ।।

 तमध्यात्वा महानन्दसुखव्याप्तो महाप्रभुः । पदात्पदान्तरं न्यस्य रेमे चोत्तोल्य कर्षयन् ।।३२।।

 तावच्छैथिल्यमापन्नः पपात मुकुटान्मणिः । कोटिरत्रेषु यो नद्ध ऊर्ध्वस्थकल्गिमूलकृत् ।।।३३।।

 मणेः पाते सह तेन पपात कल्गिचन्द्रिका । तथापि नैव कृष्णः स रासाद्विरमते खलु ।।३४।।

 पादमर्दनभीत्या तावुभौ दिव्यसुविग्रहौ । बभूवतुर्मणिः कल्गिचन्द्रिका रेमतुश्च वै ।।३५।।

 रासे मूर्तिधरौ जातौ रेमाते स्माति मण्डले । न तौ स्वंस्वं स्थलं प्राप्तौ यावरासान्तमेव ह ।।३६।।।

 मुकुटे न स्वयं यातौ तावत्तत्र तु राधया । ज्ञापितो निर्गतौ कृष्णमुकुटादिति शार्ङ्गिणे ।।३७।।

 कृष्णो दृष्ट्वा तु तौ प्राह किमेवं निर्गतावुभौ । स्वस्वस्थानं न वै यातौ मुकुटः शोभते न मे ।।३८।।

 नैनं वै धारये कल्गिमणिशून्यं भूषणम् । धारयिष्येऽन्यमुकुटं मायूरपिच्छशोभितम् ।।३९।।

 इत्युच्यमाने श्रीकृष्णेऽधिमासस्य महोत्सवे । आनर्त्ताख्यो महान् भक्तो राजा गोलोकमाययौ ।।४०।।

 कृष्णप्रीत्यर्थमेवाऽयं तपोभक्तिं चकार वै । तस्मै प्रसन्नः स कृष्णो नव राज्यं तु दित्सति ।।४१।।

 गोलोकस्य दिव्यभूमेः कणं त्वर्पितवान् प्रभुः । कणः स तत्र सौराष्ट्रो देशस्त्वानर्त्तसंज्ञकः ।।४२।।

 त्रिजलावृत्तसुद्वीपो राज्यमानर्तभूभृतः । समभूत्पश्चिमवार्धिसंलग्नो भूमिसन्धितः ।।४३।।

 प्रार्थयामास चानर्तो मम राज्यस्य मे तथा । गुप्तये रक्षकं देहि तव दूतं प्रतापिनम् ।।४४।।

 ओमित्युक्त्वा ददौ कृष्ण आनर्ताय तु भूभृते । मुकुटस्य मणिर्यश्च वियुक्तो मुकुटात्तु तम् ।।४५।।

 दिव्यः स पार्षदो भूत्वा स ययौ भूभृता सह । मणिमूलखचिता या वियुक्ता कल्गिचन्द्रिका ।।४६।।

 मूलं विना न वै स्थातुं शक्ता प्रार्थयदीश्वरम् । वासं मे देहि भगवन्न मूला न स्थितिर्मम ।।४७।।

 हरिः प्राह तदा तां तु वियुक्ता मुकुटाद् यतः । याहि त्वं मणिना साकं भूत्वा दिव्यस्वरूपिणी ।।४८।।

 आनर्तविषये स्थेयं द्विजेन मणिरूपिणा । द्विजपत्न्या त्वया भाव्यं गुरुरूपौ भविष्यथः ।।४९।।

 आनर्तोऽपि हरिं नत्वा नीत्वा कल्गिं मणिं कणम् । कृष्णाऽर्पितान्मुकुटाच्चापरान् मुक्तान् मणींस्तथा ।।५०।।

 आययौ पश्चिमे वार्धौ कर्मम्वां मुक्तवान् कणम् । स तु द्राग् विस्तृतो भूत्वा जातः सौराष्ट्रसंज्ञकः ।।५१।।

 तत्र मणिर्मुकुटस्य त्ववाततार चाम्बरात् । अन्येऽपि मणयस्तत्राऽवतेरुर्व्योममार्गतः ।।५ २ ।।

 मुख्यो मणिर्दिव्यदेहो निम्बदेवोऽभवद् द्विजः । व्याघ्रारण्ये रम्यदेशेऽश्वपट्टसरसस्तटे ।।५ ३ ।।

 निवासमकरोत् तत्र पर्णकुट्यां स तापसः । या कल्गिचन्द्रिका सा तु तत्रैव सरसस्तटे ।।५४।।

 दिव्यदेहा निवासं चाऽकरोद् द्विजप्रसेवनम् । आनर्तेन तदा ताभ्यां प्रार्थितं भावगर्भितम् ।।५५ ।।

 विना लौकिकदेहं वै जनानां श्रेय इच्छतो । दर्शस्पर्शादिलाभश्च नाऽतः स्वीकुरुतं वपुः ।।५ ६ ।।

 भक्तप्रार्थनया तौ च नॄणां श्रेयो विचिन्त्य च । देहं ग्रहीतुमिच्छन्तौ हरिं सस्मरतुर्हृदा ।।५७।।

 श्रीकृष्ण आविरासाऽत्र संकल्प्य मानसौ च तौ । देहौ समर्प्य तत्रैवाऽन्तरधीयत पूजितः ।।।५८।।

 अथैवं तौ कणलब्धस्थौल्यं प्राप्तौ ततः परम् । सर्वगोचरतां यातावश्वपट्टसरस्तटे ।।५९।।

 तपस्यन्तौ च तत्रैव लक्ष्मीनारायणात्मिकाम् । संहितां वाचयामासतुश्च कालं सुनिन्यतुः ।।६०।।

 मणिः स निम्बदेवाख्यो बभूव ख्यात एव ह । कल्गिः सा ख्यातिमापन्ना मिष्टादेवीति सर्वथा ।।६१।।

 अथ रैवतपौत्रो वै खट्वांगदजनाधिपः । तपस्तप्तुं समायातो निम्बदेवाश्रमान्तिके ।।६२।।

 बद्रीतले सूपविश्य जजाप जपमुत्तमम् । ओंश्रीलक्ष्मीपते कृष्णनारायण नमोऽस्तु ते ।।६३।।

 तस्य वै तपसा तत्राऽऽयातौ लक्ष्मीनरायणौ । वरदानाय तं भूप रोधयामासतुस्तदा ।।६४।।

 राज्ञा दर्शनलाभार्थं तयोर्वासोऽभिकांक्षितः । तथास्त्विति प्रति श्रुत्याऽदृश्यतां तौ गतावुभौ ।।६५।।

 या लक्ष्मीः सा रुक्मिणी श्रीरूपाऽऽसीद् दिव्यरूपिणी । नारायणः स वै कृष्ण आस श्रीपतिरेव सः ।।६६।।

 श्रिया जुष्टः स वै कृष्णो दध्यौ तु पितरौ तदा । कल्गिमणिस्वरूपौ तौ ध्यातौ स्वेनैव रक्षितौ ।।६७।।

 स्थापितौ दिव्यदेहेन चिन्तयामास तत्र ह । मिष्टादेवीनिम्बदेवगृहे कृष्णो बभूव वै ।।६८।।

 यत्र जज्ञे तु गोपालस्तत्राऽश्वपट्टसन्निधौ । पर्णकुट्यां मानसः स जातमात्रः सयौवनः ।।६९।।

 दिव्यो बभूव गोलोकदिव्यविग्रह एव सः । गां तु वाणीं पालयति गोपालः कृष्ण एव सः ।।७० ।।

 गोः पृथिव्याः पालकं राजानं लाति च रक्षति । गोपालः स प्रभुः कृष्णः संस्थितो नृपसन्निधौ ।।७ १।।

 आश्विनकृष्णपञ्चम्यां गोपालः कृष्ण एव ह । कुकुमवाप्यां संजज्ञे निम्बदेवगृहे प्रगे ।।७२।।

 अन्ये ये मणयस्त्वानर्तेन त्यक्ताः सुराष्ट्रके । सर्वेऽत्र कृष्णभक्तास्ते जाताः सुराष्ट्रके स्थले ।।७३।।

 तत्र ओमालये शत्रूंजिताक्षेत्रे बभूव ह । प्रेममणिर्महादिव्यविग्रहः सूर्यसन्निभः ।।७४।।

 प्रेमाख्यतद्विजक्षेत्रे दिव्या संकल्पमात्रजा । फाल्गुनकृष्णपंचम्यां जज्ञे लक्ष्मीस्तु कंभरा ।।७५।।

कं सुखं शाश्वतं कार्ष्णं बिभर्तीति हि कंभरा । जातमात्रा युवती सा दिव्याऽऽस श्रीस्वरूपिणी ।।७६ ।।

 पिता विज्ञाय तां श्रीं वै कृष्णार्हा दिव्यचक्षुषा । विवाहविधिनाऽऽहूय गोपालं कृष्णमेव ह ।।७७ ।।

 कंभरां श्रीं ददौ तस्मै कोटिदेवादिसन्निधौ । इत्येवं कंभरागोपालौ श्रीकृष्णौ तु दम्पती ।।७८ ।।

 तापसौ भगवन्तौ तौ दिव्यमूर्ती बभूवतुः । साप्तभौमकशोभाढ्ये मन्दिरे स्थापितौ सदा ।।७९।।

 एकदा दुन्दुभिस्ताभ्यां तिथ्यष्टम्यां प्रगेऽधिके । मासे श्रुतस्त्वश्वपट्टसरोवरान्तिके शुभः ।।८ ० ।।

 शृण्वन्तु मणिकल्ग्याद्यास्तथा श्रीपतिसेवकाः । पुरुषोत्तमसज्ञोऽहं तोषयितुं परेश्वरः ।।८ १ ।।

 अक्षरब्रह्मधामस्थो गोलोकाधिपतिं प्रभुम् । वैकुण्ठाधिपतिं चान्यधामाधिपाँश्च केशवान् ।।८२।।

 कृतवान् मलमासं तु निर्मलं मत्स्वरूपिणम् । तदस्मिन्नधिके मासे पुरुषोत्तमसंज्ञके ।।८३ ।।

 एकस्यापि दिनस्यात्र व्रतं कृत्वा व्रती जनः । प्राप्नुयात् कृपया मेऽत्र सर्वं मां धाम चापि मे ।।८४।।

 व्रतं त्वद्याऽपरपक्षाऽष्टम्यास्त्वनन्तपुण्यदम् । यथेष्टं तत्र दास्येऽहं व्रतार्थिने स्वयं हरिः ।।८५।।

 दुन्दुभिश्चेत्यभिधाय स्नात्वाऽश्वपट्टवारिषु । नत्वा काल्याणिकं निम्बदेवं मिष्टां महासतीम् ।।८६।।

 प्रपूज्य कंभरां श्रीं च कृष्णं गोपालमित्यपि । ताभ्यां कृतं सुसत्कारं प्राप्य वै रैवतं ययौ ।।८७।।

 कृतं त्वधिकमासस्य परपक्षाऽष्टमीव्रतम् । कंभरया सोपवासं गोपालेनापि निर्जलम् ।।८८।।

 प्रातः संपूजितः सम्यङ् मध्याह्नेऽपि निशि प्रभुः । अष्टोत्तरशतसामग्रीभिः श्रीपुरुषोत्तमः ।।८ ९।।

 षट्पंऽचाशद्भोजानि चार्पितानि तथा कृतम् । आष्टोत्तरशतवर्तिभिरारार्त्रिकमुज्ज्वलम् ।।९ ० ।।

 लक्षशो दक्षिणा दत्ता रात्रौ नीराजने हरिः । आविर्बभूव भगवान् धामस्थः पुरुषोत्तमः ।। ९१ ।।

 विहसन् हार्दिकं स्नेहं वर्षयन् रञ्जयन्नभौ । उवाचाऽस्मि प्रसन्नोऽहं गोलोकेश किमिष्यते ।। ९२ ।।

 श्रीरिव कंभरा लक्ष्मीः किमिच्छति व्रतार्थिनी । युवयोर्वसतिस्त्वत्र मदिच्छयैव सर्वथा ।। ९३ ।।

 वर्तते मिषमात्रं तु खट्वांगतप एव ह । मुकुटान्मणिकल्ग्योश्च वियोगोऽपि मदिच्छया ।। ९४।।

 रासादिकं निमित्तं च सर्वथा वै मदिच्छया । तस्माद् वां वरदश्चास्मि वृणुत तु यथेप्सितम् ।।९५।।

 तदर्थं त्वागतोऽस्म्यत्र साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमः । श्रुत्वैवं भावगर्भं तु हार्दं सर्वपरात्मनः ।।९६।।

 ऊचतुस्तौ प्रणम्यैनं मूलरूपेऽभिचिन्त्य तौ । भगवंस्तेऽभिलाषा चेत् कारणं चात्र संस्थितौ ।।९७।।

 आवाभ्यां प्रार्थ्यसे त्वं वै सर्वदाऽत्र स्थिरो भव । पुरुषोत्तमसेवायाः सर्वदा लाभ एव नौ ।।९८।।

 अनादिकृष्णयोगस्तु भाग्यहीनस्य दुर्लभः । अस्मन्मूलस्वरूपस्त्वं रक्षाऽत्र स्थित एव नौ ।।९९।।

 कृष्णनारायणोऽनादिर्लक्ष्म्या श्रिया प्रसेवितः । मुक्तैश्वर्यैः सेवितस्त्वं वसाऽत्र पुरुषोत्तम ।। १ ००।।

 लालनं पालनं चापि क्रीडनं पोषणादिकम् । दिव्यस्यापि यथादेशकालानुगुणमेव ते ।। १०१ ।।

 कृत्वा सुखं परानन्दं प्राप्स्यामोऽत्र तव स्थिरम् । इत्यभ्यर्थ्य कंभरागोपालौ श्रीपुरुषोत्तमम् ।। १ ०२।।

 नेमतुस्तं कृष्णनारायणं श्रीपुरुषोत्तमम् । भगवानपि सर्वात्मा तथास्त्वित्यभिधाय च ।। १ ०३।।

 स्वप्रियां धामलक्ष्मीं चाऽऽवेदयन्नेत्रसंज्ञया । याऽभिगम्य हरेर्हार्दं तिरोऽभूत् पुरुषोत्तमे ।। १ ०४।।

 सोऽयं परात्परो ब्रह्मपरः श्रीपुरुषोत्तमः । बालरूपोऽभवत्तत्र जातमात्रो युवा प्रभुः ।। १ ०५।।

 बभूवतुः प्रसन्नौ कंभरागोपालकृष्णकौ । पुत्रो दिव्यो व्रतलभ्यः स्वयं श्रीपुरुषोत्तमः ।।१०६।।

 व्रतं निमित्तमात्रं वै कारणं तस्य मानसम् । लीलैव कारणं तस्य पुंसस्तु परमस्य वै ।। १ ०७।।

 कृष्णनारायणोऽनादिपुरुषोत्तम एव सः । श्रीरमादिपार्षदादिसमैश्वर्यगुणान्वितः ।। १ ०८।।

 स्वेच्छया धर्मरक्षार्थं भक्तिप्रवर्तनाय च । प्रादुर्भूतः स्वयं पत्नीव्रतस्वरूप एव सः ।। १०९।।

 गोलोके यः कृष्णमुखात्पत्नीव्रताभिधो गुणः । पातिव्रत्याभिधलक्ष्म्या सहितोऽभूत् प्रकाशितः ।। ११ ०।।

 सोऽयं धर्मस्थापनाय स्वयं श्रीपुरुषोत्तमः । पुत्रोऽभवच्छ्रीकृष्णस्याऽधिमासे पुरुषोत्तमः ।। १११ ।।

 देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पाणां वर्षणं ह्यभूत् । नृत्यं तत्राऽप्सरसां च गायनं गायकैः कृतम् ।। ११ २।।

 प्रतिधामनि वासाश्चेश्वरा देवा महर्षयः । अवताराश्च तद्देव्यः शक्तयोऽब्जाऽर्बुदान्त्यकाः ।। ११३ ।।

 जयकारेण सहिताः पुपूजुः परमेश्वरम् । ब्रह्माण्डेष्वपि सर्वत्र जीवेशाऽवतरादिषु ।। १ १४।।

 समुत्सवो महानासीदनन्तब्रह्मभोजनम् । प्रीणनं तर्पणं सृष्टिप्राणिनां संबभूव ह ।। १ १५।।

 कार्तिकाऽधवलाऽष्टम्यां पुनर्वसौ घटीस्थिते । सूर्याऽस्तोत्तरघटिकापञ्चके समये गते ।। १ १६।।

 निशापूर्वपदेऽनादिश्रीकृष्णपुरुषोत्तमः । कृष्णनारायणो जज्ञे गोपालकंभराऽऽलये ।। १ १७।।

 प्रकाशश्चात्र सर्वत्र परत्रानेकसूर्यवत् । तदा जातं इति ज्ञात्वा वेदा विद्याः समस्तुवन् ।। १ १८।।

 कृष्णस्य वल्लभश्चाति सर्वविद्याधिशेवधिः । प्रभालक्ष्मीपार्वतीमाणिकीश्र्यादिपतिः प्रभुः ।। १ १९।।

 चमत्कारानसंख्यान्दर्शयामास कृपाकरः । ऊर्जशुक्लैकादश्यां स प्राप दीक्षोपवीतकम् ।। १२० ।।

 माघशुक्लाष्टमीप्रातः काश्यामवाततार सः । नवम्यां ब्रह्मविद्यानां संचारं कृतवान् प्रभुः ।। १२१ ।।

 स्वपितृमुखतः श्रुत्वा विज्ञानं स्वात्मनि स्थितम् । वेदविद्यामयं सर्वं लक्ष्म्यै ह्युपादिदेश ह ।। १२२।।

 निबोध लक्ष्मि! किं वच्मि यो हरिः पुरुषोत्तमः । परब्रह्माऽक्षराऽतीतोऽनादिकृष्णनरायणः ।। १२३।।

 स एव विद्यते राधाधवो गोलोकधामनि । रुक्मिणीनाथ एवासौ गोपालः कंभरापतिः ।। १२४।।

 बैकुण्ठाधिपतिः सोऽयं लक्ष्मीपतिर्नरायणः । कृष्णनारायणः सोऽयं सर्वेशः पुरुषोत्तमः ।। १२५।।

 सोऽहं नारायणो लक्ष्मि! सा त्वं लक्ष्मीर्मम प्रिया । स्थलभेदेन रूपाणां बाहुल्यं चेयते मया ।। १२६ ।।

 निगमागमविद्यानां वक्ताऽहं पुरुषोत्तमः । श्रोतृव्यक्तिर्मम दासी प्रिया शिष्या त्वमन्वसि ।। १२७।।

 मया नारायणेनात्र तुभ्यं लक्ष्मि! प्रदीयते । ज्ञानं विज्ञानमात्मस्थं ह्यपरोक्षं सदा मम ।। १२८।।

 सृष्टिकल्पलयपूर्वपूर्वतरतमाऽऽदिजम् । लक्ष्मीनारायणसंहितात्मकं श्लोककोटिकम् ।। १२९ ।।

 वैराजाय त्वया देयं पञ्चाशल्लक्षसंख्यकम् । यत्रेश्वराणां वैशेष्यं वर्णितं चेशसृष्टये ।। १३० ।।

 वेधसे वै त्वया देयं पञ्चविंशतिलक्षकम् । यत्राऽगणितगोलादिब्रह्माण्डेतिकथादयः ।। १३ १।।

 सार्धद्वादशलक्षं च पितृभ्योऽर्प्य त्वया प्रिये! । यत्र तेषां सर्वकाण्डाः परमार्थतयाऽऽदृताः ।। १ ३२।।

 पञ्चलक्षं त्वया देयं दिवि स्वर्गुरवे प्रिये! । बार्हस्पत्यं सुराणां तज्ज्ञानं देवानुसारि वै ।। १३३।।

 पञ्चलक्षं तु दैत्यानां पातालादिप्रवासिनाम् । शुक्राय च त्वया देयं तामसाद्यनुसारि यत् ।। १३४।।

 सपादलक्षं दातव्यं ब्राह्ममार्षं विशोधकम् । त्यागिभ्यः परमर्षिभ्यो ब्रह्माऽवाप्तिकरं तु यत् ।। १३५।।

 सपादक्षं दातव्यं विप्रेभ्यो मानवेषु वै । यदधीत्य चतुर्वर्गान् साधयिष्यन्ति मानवाः ।। १३६।।

 कालान्तरे लयं याते भविष्यामि पुनः पुनः । तत्तज्ज्ञानप्रकाशाय व्यासाचार्यर्षिरूपतः ।। १ ३७।।

 इति ते स्मारितं लक्ष्मि! प्राग्वृत्तं ते च मे तथा । पूर्वं पूर्वा लयं यान्ति जलस्थलविवर्तनाः ।। १३८।।

 वैराजाः कोटिशो नष्टा ब्रह्मादीनां तु का कथा । पुरुषोत्तमरूपोऽहं महाप्रलयकृत्तथा ।। १३९।।

 सृष्टिकृन्नित्यविज्ञानोऽखिलाऽऽत्माऽन्तर्नियामकः । न विस्मराम्यण्वपि त्वचिन्त्यशक्तिनिधिर्ध्रुवः ।। १४०।।

 यत्र वै पर्वतास्तत्र जलं कालान्तरे भवेत् । जलस्थाने स्थलं देह्यावासं वासे वनं तथा ।। १४१।।

 रणेऽरण्यं तथाऽरण्ये पत्तनं विवरं च वा । विवरेषु महासेतुः स्तरं स्तरे तथाऽम्बरम् ।। १४२।।

 क्व कदा किं भूतमेतज्जानामि भावि चाप्यहम् । सर्वं मयि भवत्येव किंचिन्मत्तो न रिच्यते ।। १४३ ।।

 इदं सृष्टिसमारंभेऽस्मच्चरित्रकथामृतम् । अधिमासाऽपरपक्षाऽष्टमीव्रतमिषेण वै ।। १४४।।

 स्मारितं ते मया लक्ष्मि! पावनं श्रोतृदेहिनाम् । पाठकानां स्वर्गदं मोक्षदं व्रतप्रपुण्यदम् ।। १४५ ।।

 अत्रोत्सवे व्रतकर्तुर्भुक्तिर्मुक्तिर्न संशयः । पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्या भार्येच्छुको लभेत् ।। १४६।।

 धनार्थी प्राप्नुयाद् द्रव्यं क्षेत्रार्थी भूमिमाप्नुयात् । धर्मार्थी पुण्यवान् स्याच्च सकामः कामनां लभेत् ।। १४७।।

 यशः कीर्तिमवाप्नोति सतां प्रधानता लभेत् । अशुभं नाशमायाति प्रपाठनेन सर्वथा ।। १४८।।

 विप्रो विज्ञानवान् स्याच्च विजयं क्षत्रियो लभेत् । धनधान्यस्मृद्धिसम्पद्युक्तो वैश्यो भवेत्तथा ।। १४९।।

 शूद्रः सर्वसमृद्धः स्यात् सुखी चास्य श्रवेण वै । श्रेयः श्रियं परां विन्देत् तेजोवीर्यं समाप्नुयात् ।। १५ ०।।

 बलं रू गुणान् सम्पद् गोधनक्षेत्रवाटिकाः । दाराः सुता दासदासीर्गृहराज्यस्वरादिकम् ।। १५१।।

 आरोग्यं च स्वतन्त्रत्वं निर्बन्धत्वं समाप्नुयात् । निर्भीकत्वं निरापत्त्वं प्राप्नुयान्मोक्षणं तथा ।। १५२।।

 इत्यष्टमीव्रतजन्यं कथितं ते फलं प्रिये । व्रतं कृत्वा पूजयित्वा प्राप्नुयात् पुरुषोत्तमम् ।। १५३।।

 मेऽवतारा असंख्याता ह्यहं श्रीपुरुषोत्तमः । अवतारी महाराजः परब्रह्म सनातनः ।। १५४।।

 यावद् ब्रह्मा विराट् वापि वैकुण्ठभूमयस्तथा । सर्वत्राऽधिकमासोऽहं स्थास्यामि पुरुषोत्तमः ।। १५५।।

 यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च स्थास्यन्ति मेदिनी तथा । कृष्णनारायणतीर्थे तावत् स्थास्यति शाश्वतम् ।। १५६।।

 कृष्णनारायणश्चाहं ध्वजशार्ङ्गादिशोभितः । लक्ष्म्यादिसेवितस्तत्र स्थास्यामि पुरुषोत्तमः ।। १५७।।

 

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये मलमासस्याऽऽधिदैवे पुरुषोत्तमे जाते गोलोके कृतमहोत्सवरासे कृष्णमुकुटमणिकल्गिचन्द्रिकयोः मुकुटाद्वियोगे तयोर्भुवि आनर्तदेशे निम्बदेवमिष्टादेवीरूपेणा- ऽवतरणं, तयोर्गृहे कृष्णस्य गोपालकृष्णरूपेणाऽवतरणं, प्रेममणि-गृहे रुक्मिणीलक्ष्म्याः कंभरारूपेणाऽवतरणं, कंभरालक्ष्मी- गोपालकृष्णयोर्विवाहोत्तरं दुन्दुभिश्रवणेनाऽष्टमीव्रत-करणेन श्रीपुरुषोत्तमस्य तयोर्गृहेऽवतरणं, कोटिश्लोकसंहिताकरणं चेत्यादिनिरूपणनामा पञ्चदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३१५।।