पुरुषोत्तम मास उत्तरा द्वितीया(तिथिलोप)(4?-7-2015ई.)

 लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास उत्तरा द्वितीया का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है – सर्वहुत नामक एक राजा हुआ जो मेरा भक्त था और जिसने मेरे लिए अपना सब कुछ अर्पित कर दिया था। वह मेरा प्रसाद रूप अन्न खाता था जिससे आत्मा पवित्र होती थी। उसने चातुर्मास्य व्रत ग्रहण किया कि सात खण्डों वाली, सात द्वीपों, सात समुद्रों वाली इस भूमि पर जो भी चातुर्मास्य व्रत करेगा, वह मेरा दिया हुआ भोजन करे, मेरे दिए हुए वस्त्र धारण करे। उसने स्थान – स्थान पर अन्न सत्र खोल दिए। इससे सत्य, तप, जन, स्वर्ग आदि सब लोकों में उसकी कीर्ति फैल गई। देव, ऋषि, दैत्य व अन्य देहधारी हंसादि का रूप धारण कर उसके दर्शन के लिए आते थे ओर उसका तेजोमण्डल युक्त मुखमण्डल देखकर आश्चर्यचकित होते थे। देवता दूर से तो बहुत तेज वाले प्रतीत होते थे, लेकिन उस राजा के निकट जाकर निस्तेज हो जाते थे। ऐसा यह अग्नि नाम वाला सर्वहुत राजा हुआ जो देवों के गर्व का हरण करता था। देवगण उसे सम्मान देते थे, इन्द्र उसे अपना आधा आसन देता था, दिक्पाल उसे पूजते थे। ऐसे उस रागशून्य नृप की पत्नी का नाम गोऋतम्भरा था। वह जब देव – देवियों की सभा में बैठती थी तो लज्जा से मुख नीचा करके बैठती थी। उसने अपने पति से कहा कि मुझे समाज में लज्जापूर्वक बैठना पडता है। ऐसा उपाय करो कि इन्द्राणी, वारुणी, सौर्या, चान्द्री आदि देवियां मुझे प्रणाम करें। राजा ने कहा कि हम तो मनुष्य हैं। यह क्या कम है कि हमें देवों के समाज में बैठने का अवसर मिल जाता है। तृष्णा मत करो। मनुष्य जन्म में तो वह नहीं हो सकता। फिर भी, यदि पुण्यों के प्रताप से कभी ऐसा सम्भव हो सका तो नारायण के समीप स्तुति करूंगा। लेकिन बता देता हूं कि तृष्णा की शान्ति फिर भी न होगी। रानी राजा को प्रतिदिन उसके वचन की याद दिला देती। एक बार उन दोनों ने अधिक मास कृष्ण पक्ष द्वितीया को दुन्दुभी की घोषणा सुनी कि इस दिन व्रत करने से सारे भूमण्डल का राज्य मिल सकता है, स्वर्ग, जन आदि 7 तथा अतल, पाताल आदि 7 कुल मिलाकर 14 लोकों का आधिपत्य मिल सकता है, परमेष्ठी पद मिल सकता है, वारुण, आग्नेय आदि दिक्पालों का पद , लोकपाल पद, निधियां,  रुद्र पद, मारुत पद, नाकपृष्ठ, अष्टसिद्धियां आदि सब कुछ प्राप्त हो सकता है। उन दोनों ने संकल्प किया कि हम व्रत करके ब्रह्मा और ब्रह्माणी का पद प्राप्त करें, 14 लोकों का आधिपत्य प्राप्त करें। उन्होंने पूजा में पुरुषोत्तम को अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त 14 भूमिकाओं वाला भवन भी अर्पित किया जो दैनिक उपयोग में आने वाले सभी कक्षों जैसे शय्या, भोजन, पितृतर्पण, दान आदि कक्षों से सुसज्जित था। कृष्ण प्रकट हो गए। दम्पत्ति ने उनसे प्रार्थना की कि हमें परमेष्ठी पद प्रदान करो और उसके पश्चात् अपना अक्षर धाम शाश्वत मोक्ष प्रदान करो। कृष्ण ने गोऋतम्भरा से कहा कि वह पृथिवी पर पुष्कर तीर्थ में गायत्र नामक का गोप नृप है। उसकी भार्या का नाम आर्षी है। तुम उसकी कन्या गोपी गोमती गायत्री बनोगी। यह राजा सर्वहुत वहां ब्रह्मा बनेगा और पुष्कर में यज्ञ करने जाएगा। वहां यज्ञ में दीक्षाकाल में अध्वर्यु द्वारा बुलाने पर सावित्री सजधज कर तत्काल यज्ञभूमि पर नहीं आएगी। ब्रह्मा शक्र को बुलाकर कहेगा कि मेरे लिए अन्य पत्नी को शीघ्र लाओ। शक्र तुम्हें वहां ले जाएगा। ब्रह्मा गान्धर्व विवाह द्वारा तुम्हें ग्रहण करेगा। तब से तुम ब्रह्माणी लोकमाता, वेदमाता, सृष्टिमाता बन जाओगी। सौ वर्षों के पश्चात् अक्षर धाम को प्राप्त करोगी। ऐसा कहकर कृष्ण अदृश्य हो गए।

विवेचन

सर्वहुत शब्द ध्यान देने योग्य है। सर्वहुत का सामान्य लौकिक अर्थ है – जिसने अपनी सभी वासनाएं, सभी गुण – अवगुण ईश्वर को अर्पित कर दिए हैं। यदि मेरे अन्दर कोई दोष है, वह भी तेरा है, कोई गुण है, वह भी तेरा है। ऐसे भक्त ने मान लिया है कि वह जिस स्थान पर रह रहा है, उसके परितः स्थित समाज, सामाजिक परिस्थितियां सब उसकी आध्यात्मिक प्रगति के लिए विधाता ने निर्मित की हैं। अतः किसी विपरीत परिस्थिति में घबराकर विद्रोह करने का कोई स्थान नहीं है। लेकिन उसने पुरुषार्थ को नहीं त्यागा है। उसने अपना ध्यान चातुर्मास पर केन्द्रित किया है। वैदिक चातुर्मास के चार भाग होते हैं – वैश्वदेव(अग्नि अनीकवती इष्टि), वरुणप्रघास, साकमेध व शुनासीर। चातुर्मास अपने दोषों के अपनयन के लिए, अपनी प्रकृति का शोधन करने के लिए है। अब उसकी पत्नी का नाम गोऋतम्भरा कहा गया है। गौ सूर्य की किरणों का अधिकतम अवशोषण करती है और फिर उनका एक नए रूप में विसर्जन करती है। ऋतम्भरा शब्द को या तो अंग्रेजी के रिदम्भरा के आधार पर समझा जा सकता है – अर्थात् प्रकृति से अपना तादात्म्य स्थापित करना, रिदम् स्थापित करना। अथवा कृतम्भरा के आधार पर समझा जा सकता है कि प्रकृति में चल रहे जुए में जीतना, कृतयुग स्थापित करना। अथवा शृतम्भरा के आधार पर समझा जा सकता है – अर्थात् पृथिवी पर जो फल अभी कच्ची अवस्था में है, हमारे विचार जो अभी पके नहीं हैं, संशय की अवस्था है,  ऋतम्भरा उसको श्रद्धा, ज्ञान आदि से पकाएगी। हो सकता है कि वर्तमान माहात्म्य में राजा सर्वहुत द्वारा चातुर्मास में जो अन्न आदि के सत्र स्थापित करना कहा गया है, वह कार्य उसकी प्रकृति गोऋतम्भरा के माध्यम से सम्पन्न होता हो। कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया में यमुना भगिनी अपने भ्राता यम के लिए भोजन प्रस्तुत करती है। इस पर्व पर जिस लोककथा का स्मरण किया जाता है, उसमें भी भगिनी द्वारा भोजन को विषरहित बनाने का  तथा भ्राता के मार्ग को आपदा रहित करने का वर्णन मुख्य रूप से आता है।

    

     अब कठिनाई यह है कि गोऋतम्भरा की स्थिति देवी के समकक्ष नहीं बन पाई है। इसके लिए उन्हें अधिक मास द्वितीया व्रत करना पड रहा है। व्रत में चतुर्दश लोकों को प्राप्त करने के लिए 14 तलों वाला भवन दान करने का क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है। मोक्ष तक की साधना के पारम्परिक रूप से 14 तल ही माने जाते हैं। गोऋतम्भरा के गायत्री बन जाने की व्याख्या यह हो सकती है कि अभी गोऋतम्भरा का कार्य चारों दिशाओं में फैला हुआ है, लेकिन गायत्री का कार्य ऊर्ध्वमुखी है – भूः, भुवः, स्वः।

     द्वितीया तिथि का क्या अर्थ हो सकता है, इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और प्रजा यह दो हैं। इन दोनों को एक दूसरे का सहयोग करना है। प्राण, मन, वाक, यह हमारी आत्मा की प्रजा हैं। दो के बदले एक हो जाना है। द्वितीया तिथि के एक अन्य व्रत में अश्विनी – द्वय की पूजा की जाती है। कहा गया है कि अश्विनी – द्वय में से एक विष्णु बन जाता है, एक विष्णु की शेषनाग रूपी शय्या।

     सर्वहुत शब्द सारे वैदिक साहित्य में सर्वत्र लेकिन संक्षिप्त रूप में ही पुरुष सूक्त में प्रकट हुआ है –

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।

पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये ॥

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।

 

इस सूक्त की व्याख्याओं में कहा गया है कि अग्नि ही तो सर्वहुत है। अग्नि में जो भी आहुति डाली जाती है, अग्नि उसे देवों तक पहुंचा देती है। अग्नि की कार्यविधि यह है कि वह किसी भी भौतिक वस्तु को जलाकर उसका सारभाग, गंध का संग्रह कर लेती है जिसका देवगण उपभोग कर सकते हैं (उपरोक्त माहात्म्य में भी सर्वहुत को अग्नि नाम दिया गया है)। सर्वहुत राजा द्वारा चातुर्मास करने में शुनासीर स्थिति की व्याख्या भी सारे पार्थिव स्तर का सार प्राप्त कर लेने के रूप में की गई है।  लेकिन केवल अग्नि कहने से पृषदाज्य शब्द की व्याख्या नहीं हो पाती। पृषदाज्य अर्थात् चितकबरा घी। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि पृषदाज्य बीच की स्थिति है, मनुष्यलोक की। यहां शुद्ध आज्य नहीं मिल सकता। यहां तो वासनाओं से युक्त आज्य ही मिल सकता है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में पृषदाज्य का होम करने से पहले सब प्रकार के पशुओं की उत्पत्ति का उल्लेख है। उसके बाद ऋचा, साम आदि की उत्पत्ति होती है। अथर्ववेद में इससे उल्टी स्थिति दी गई है। लक्ष्मीनारायण संहिता का उपरोक्त माहात्म्य पुरुषसूक्त के इस भाग की सर्वोत्कृष्ट व्याख्या कहा जा सकता है।   

 

श्रीनारायण उवाच--

 शृणु लक्ष्मि! कथां दिव्यां प्राक्सम्पन्नां मनोहराम् । अस्मात्तु ब्रह्मणः पूर्वो ब्रह्मा वर्षशतोत्तरम् । । १ ।।

 निधनोन्मुखतां प्राप्तस्तदानीं ब्रह्मगोलके । अन्तिमेऽजक्षणे राजा पृथ्व्यां सर्वहुताभिधः ।। २ ।।

 बभूव भगवद्भक्तो मम पूजापरायणः । मदर्थे कृतसर्वस्वो मदर्थे न्यस्तमानसः ।। ३ ।।

 मम कण्ठीं मम मालां ममैव तिलकं शुभम् । दधार बुभुजे चान्नं मे प्रसादात्मपावनम् ।। ४ ।।

 चातुर्मास्ये व्रतं तेन गृहीतं बहुदायिता । सप्तद्वीपेषु खण्डेषु सामुद्रद्वीपभूमिषु ।। ५ ।।

 यत्र यत्राऽभवत् स्वस्य राज्यं सर्वत्र तत्र च । ममान्नं वै प्रदातव्यं जलं पातव्यमेव मे ।। ६ ।।

 यावत्तृप्तिर्भिक्षुवर्गैरदनीयं ममैव ह । ब्राह्मणैर्मम भोक्तव्यं क्षत्रियर्षिभिरित्यपि ।। ७ ।।

 वैश्यर्षिभिस्तथा शूद्रैर्भक्तिकृद्भिर्ममान्नकम् । भोक्तव्यं सर्वथा ब्रह्मचारिभिर्वनवासिभिः ।। ८ ।।

 यतिभिः साधुभिस्त्यागिजनैः साध्वीभिरित्यपि । अनाथैश्चातिथिप्रख्यैर्याज्ञिकैर्देवपूजकैः ।। ९ ।।

 अन्नार्थिभिः कदर्यैश्च किंकरैर्वृत्तिवर्जितैः । ममान्नमेव भोक्तव्यं जलं पातव्यमेव मे ।। १० ।।

 वस्त्राणि मम धार्याणि नान्यग्राह्यं तु कैरपि । तदर्थं च मया राज्ये प्रतिस्थलं क्षणे क्षणे ।। ११ ।।

 अन्नसत्राणि वस्त्राणि प्रपावारीणि सर्वथा। संस्थापितानि सेवास्था नियुक्ताश्च प्रतिस्थलम् ।। १२।।

 क्षुधितोऽन्नस्य पात्रं स्यात् तृषितो जलपात्रकम् । नग्नस्त्वम्बरपात्रं स्याद् ग्राह्यं तेन मुदा मम ।। १३ ।।

 कदर्ये हृदयं यस्य यस्य तृष्णाऽस्ति मानसे । सोऽपि तृष्णादिनाशार्थं गृह्णात्वन्नं जलं मम ।। १४।।

 इत्येवं घोषितं तेन कुड्यफलकलेखितम् । चातुर्मास्ये ममान्नं वै फलं वारि तथाऽम्बरम् ।। १५।।

 ग्रहणीयं पुष्कलं नाऽन्यग्राह्यं धर्मभिक्षुकैः । इत्येवं वर्तमानस्य सर्वहुतस्य भूभृतः ।। १ ६।।

 अग्निहोत्रेऽन्ययज्ञे च यत्किञ्चिद्धामिकं मतम् । देवानां पूजने वस्तुप्रदानं चापि तस्य वै ।। १७।।

 विद्यार्थिनां च विद्याया दाने व्ययो गवां तृणे । श्वप्रभृतिग्राम्यपशुपक्षिणां च कणान्नकम् ।। १८ ।।

 जलं वस्त्रं तथा चान्यद् यथापेक्षं सुवस्तुकम् । आसीत् सर्वहुतस्यैवाऽतिथीनां तृप्तिकृत्तथा ।। १९ ।।

 ग्रामेषु खेटेषु जनस्थलेषु क्षेत्रेषु घोषेषु नदीतटेषु । वनेष्वरण्येषु च पर्वतेषु द्वीपेषु वार्धौ रणनिर्जनेषु ।।२ ० ।।

 उपत्यकाम्यां नगरेषु राज्यविश्रान्तिभूमौ च करस्थलीषु । सर्वत्र वै सर्वहुतस्य राज्ञोऽभवन् सुसत्राणि सुदानकानि ।। २ १ ।।

 ग्रामान्तराणां युगमार्गसन्धौ वनान्तराणां सृतिमूलयोगे । नदीनदानां तरणार्थभूमौ कृतानि सत्राणि तु तेन राज्ञा ।। २२ ।।

 सीमान्तरेषु प्रखनिस्थलेषु यानस्य मार्गेषु दिगन्तरेषु । तीर्थेषु यात्रालुगतागतेषु स्थलेषु सत्राणि हुतस्य राज्ञः ।।२३ ।।

 देवानां पूजने नाम प्रोच्यते सर्वतो दिशि । प्रातः सायं च मध्याह्ने तस्य सर्वहुतस्य वै ।। २४।।

 सत्ये तपसि तस्यैव जने महरि स्वर्गके । भुवि चाप्यथ पातालेष्वस्य कीर्तिर्हि गीयते ।। २५ ।।

 देवाश्च ऋषयश्चापि दैत्याश्चान्येऽपि देहिनः । सर्वहुतं लोकितुं वै ययुर्हंसादिरूपिणः ।। २६।।

 आश्चर्यं परमं प्रापुर्दृष्ट्वा पुण्योज्ज्वलं नृपम् । अतितेजोमण्डलाढ्यमुखमण्डलशोभितम् ।। २७।।

 दूरे चातिप्रतेजस्काः सर्वे शुशुभिरे सुराः । किन्तु तन्निकटे गत्वा निस्तेजस्का बभूविरे ।। २८ ।।

 इति पुण्यप्रतापोऽसौ सर्वहुताऽर्थसार्थकः । अग्निप्रख्योऽभवद्भक्तो देवगर्वहरो नृपः ।। २९ ।।

 देवैः सम्मानितः सर्वैरिन्द्रार्धासनयोजितः । दिक्पालैः पूजितः सोऽपि विस्मयं नाप वै मनाक् ।। ३० ।।

 रागशून्यस्य तस्यैव पत्न्यासीत् पतिसेविनी। औदार्यगुणसम्पन्ना नाम्ना वै गोऋतम्भरा ।।३ १ ।।

 देवीभ्योऽप्यतिरूपाढ्या कायाकल्पातिसुन्दरी । कामरूपा कामभोगा कामकाराऽतिसात्त्विकी ।।३२।।

 देवीषु तिष्ठते पश्चाद् देवदेवीसमाजके । सलज्जाऽवाङ्मुखी तत्र भवति क्षणमान्तरे ।। ३३।।

 तया स्वस्वामिने प्रोक्तं मया पश्चान्निषद्यते । यथापूर्वं तूत्तमे ह्यासने तिष्ठामि तत्कुरु ।।३४।।

 इन्द्राणी वारुणी सौर्या चान्द्रद्यो वाऽन्यसुरस्त्रियः । प्रणमेयुश्च मां स्वामिन्  यथा तत्कुरु भूपते ।।३५।।

 राजा प्राह सतीं राज्ञीं मानुषी भवसि प्रिये । तत्रापि देवसंघेऽस्मद्वासोऽस्त्यतिमहत्तमः ।।।३६।।

 मा तृष्णां कुरु कल्याणि मानुषे तु न तद्भवेत् । तथापि पुण्यबाहुल्ये कदाचित् तद्विभाव्यते ।। ३७।।

 करिष्ये स्तवनं यत्नं नारायणसमीपतः । प्राप्ते योगे तथा स्याद्वै तृष्णाशान्तिस्तथापि न ।।३८।।

 नित्यं राज्ञी नृपं काले प्रस्मारयति तद्वचः । राजाऽपि समयं प्राप्तं तदर्थद्वं प्रतीक्षते ।।३९।।

 एकदाऽधिकमासस्य द्वितीयायां प्रगेऽसिते । स्नात्वा देवप्रपूजायां तिष्ठते तावदेव वै ।।४०।।

 श्रुतवान् दुन्दुभिं रम्यं घोषयन्तं हरेर्वचः । शुश्राव सर्वहुतस्य राज्ञ्यपि गोऋतम्भरा ।।४१।।

 उभौ स्थैर्येण तच्छब्दमानसौ संबभूवतुः । शुश्रुवाते दुन्दुभेस्तु घोषणां हृदयंगमाम् ।।४२।।

 अधिमासद्वितीयायां व्रतं कुर्वन्ति ये जनाः । तेषामभीष्टदाताऽहं मासः श्रीपुरुषोत्तमः ।।४३।।

 एकभुक्तं च वा नक्तं फलभुक्तिर्जलाशनम् । वाय्वाशनं च वा कृत्वा करिष्यन्ति व्रतं तु ये ।।४४।।

 तेभ्यो दास्ये सुतदाराधनसम्पद्गृहादिकान् । यानवाहनहस्त्यादीन् वारीक्षेत्रधरादिकान् ।।४५।।

 खण्डं द्वीपं च सामुद्रं भौमं राज्यं भूमण्डलम् । स्वर्ग जनं तपः सत्यं चैन्द्रं सौर्यं च चान्द्रकम् ।।४६।।

 साम्राज्यं चातलं पातालकं चापि रसातलम् । दास्ये चतुर्दशलोकाधिपत्यं पारमेष्ठ्यकम् ।।४७।।

 वारुणं वाह्निकं चैशं याम्यं तथा च पावनम् । कौबेरं नैर्ऋतं चापि दिक्पालत्वं महत्पदम् ।।४८।।

 लोकपालपदं दास्ये वासवं ग्रहमण्डलम् । नैधेयं चापि रौद्रं च मारुतं नाकपृष्ठकम् ।।४९।।

 सिद्धीरष्टविधा दास्ये गुणं ब्रह्माण्डसर्जनम्। रक्षणं पालनं दास्ये सामर्थ्यं व्रतिने तु मे ।।५० ।।

 अधिमासस्य देवोऽहं श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः । स्वल्पेऽपि मत्कृते कृच्छ्रे फलं दास्ये त्वनन्तकम् ।।५ १ ।।

 ददामि नाऽन्यमासे यत् तद्ददाम्यत्र पुष्कलम् । अत्राहं कृपया दाता दातास्मि स्वेच्छया खलु ।।५२।।

 मद्वचोधारयत्यद्धा मूर्ध्ना तस्मै ददाम्यहम् । उपायनं तथा पारितोषिकं वा स्वनुग्रहम् ।।५३ ।।

 नात्र विनिमयो न्यायो न्यायस्त्वत्र कृपा मम । कृपयाऽहं स्वयं स्वामी वितरामि त्वशेषकम् ।।५४।।

 कोटिगुणं वितरामि वितरामि त्वनन्तकम् । यथासंकल्पितं तस्माद् गृह्णन्तु पुरुषोत्तमात् ।।५५ ।।

 इति शुश्रुषतुः सर्वहुतश्च गोऋतम्भरा । तौ नत्वा दुन्दुभिं पुष्पैः पूजयामासतुस्तदा ।।५६ ।।

 दुन्दुभिस्तु गतोऽन्यत्र दम्पती दध्यतुः प्रभुम् । स्वेष्टलाभस्तथा कुत्र प्राप्स्यते चेति दध्यतुः ।।५७।।

 सर्वहुतस्तदा राज्ञीं सम्प्राह गोऋतंभराम् । श्रुतं देवि द्वितीयाया व्रतेनेष्टमवाप्यते ।।५८ ।।

 तवास्ति मानसं पूज्यस्थाने स्थातुं महत्तमे । चतुर्दशस्तरस्थानां सर्वासां सुरयोषिताम् ।।५९ ।।

 तत्प्राप्त्यर्थं व्रतं कार्यमावाभ्यां फलदं भवेत् । दुन्दुभिना तदुक्तं वै स्वल्पेऽपि बहुलं फलम् ।।६ ० ।।

 अहं ब्रह्मा भविष्यामि भव त्वं सहचारिणी । ब्रह्माणी मम पत्नी च माता वै सुरयोषिताम् ।।६ १ ।।

 तथा सति तवेहा तु प्रपूर्णार्था भविष्यति । कृष्णनारायणो देवो फलं व्रतस्य दास्यति ।।६२।।

 एवं कृत्वा तु संकल्पं व्रतं चक्रतुरादरात् । प्रातः स्नात्वा हरिं ध्यात्वा कारयित्वा तु कानकीम् ।।६३ ।।

 मूर्तिं तत्राऽधिकदेवं श्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम् । आवाह्याचमनं दत्वाऽऽसनं पाद्यं समर्प्य च ।।६४।।

 तस्मै त्वाचमनं तीर्थजलस्य ददतुश्च तौ । दुग्धेन पिच्छलदध्ना घृतेन मधुना तथा ।।६५।।

 शकर्राभिश्च संस्नाप्य कारयामासतुस्ततः । शुद्धजलैः सुगन्धैश्चाप्लवनं चन्दनान्वितैः ।।६६।।

 मार्जयामासतुर्वस्त्रैः शोभयामासतुर्हरिम् । सुवर्णाऽम्बरभूषाभिर्मणिरत्नोत्तमादिभिः ।।६७।।

 हारैश्चन्दनगन्धैश्च द्रवैः सारद्रवैस्तथा । कज्जलैस्तैलसारैश्च पुष्पैः कुंकुमतण्डुलैः ।।६८ ।।

 पूजयामासतुः कृष्णं किरीटकटकादिभिः । सद्रत्नमणिहाराद्यैश्छत्रचामरयष्टिभिः ।।६९।।

 धूपदीपसुनैवेद्यफलताम्बूलचूर्णकैः । कारयामासतुस्तृप्तिं श्रीहरिं पुरुषोत्तमम् ।।७०।।

 जलं दत्वा सवाद्यं तौ नीराजनं प्रचक्रतुः । प्रदक्षिणां स्तुतिं नमस्कारांश्चक्रतुरादरात् ।।७१ ।।

 प्रार्थयामासतुर्देवं व्रतेनानेन केशव । प्रसन्नो भव विश्वात्मन् गृहाणाऽर्घ्यं फलादिकम् ।।७२।।

 इति कृत्वा ददतुस्तौ फलार्थं ससुवर्णकम् । पुष्पांजलिं ददतुश्च चक्रतुः सेवनं ततः ।।७३।।

 मध्याह्नेऽपि तथा चोभौ चक्रतुः पूजनादिकम् । सायं प्रपूज्य देवेशं कृत्वा त्वारार्त्रिक निशि ।।७४।।

 चक्रतुर्जागरं वाद्यनृत्यकीर्तनसूत्सवम् । दानं कृष्णाय ददतुः सिंहासनं तु कानकम् ।।७५।।

 छत्रचामरवेत्रादिशोभितं बहुलोज्ज्वलम् । मणिरत्नसुमौक्तिकदामभूषाविराजितम् ।।७६।।

 भवनं चापि ददतुश्चतुर्दशप्रभूमिकम् । सौवर्णकूप्यवस्त्वाढ्योपस्कराद्यभिराजितम् ।।७७।।

 शय्यास्तरणभोज्यादिभागभुवनशोभितम् । पुण्यसारगृहं यत्र यत्राग्निहोत्रसद्गृहम् ।।७८।।

 पितृतर्पणभवनं यत्रास्ति दानसद्गृहम् । मणिरत्नादि पूर्णं च यत्र कोशगृहं त्वपि ।।७९।।

 यानवाहनपूर्णं च गृहं चिदचिदात्मकम् । दासदासीवनोद्यान नदीनद समन्वितम् ।।८०।।

 गृहं यत्रास्ति भूमौ च विश्रान्तिगृहमित्यपि । सुरतस्य गृहं चैव भोजनस्य गृहं तथा ।।८१ ।।

 स्नानागारं तथा गुप्तपातालादि सुसम्पदम् । गृहं यत्रास्ति कल्पानां द्रुमाणां च गवां गृहम् ।।८ २।।

 एवमादीनि सर्वाणि भवनानि च यत्र वै । वर्तन्ते तन्महत्सौधं सप्राकारं सुशोभितम् ।।८३।।

 ददतुस्तौ कृष्णनारायणायाऽर्पणमेव हि । तावत्तत्र समायातः श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः ।।८४।।

 प्रोवाच तौ प्रसन्नोऽस्मि दानेन च व्रतेन च । ददाम्येषः कृपां कृत्वा वृणुत वरदानकम् ।।८५।।

 दम्पती प्राहतुस्तत्र पारमेष्ठ्यं पदं प्रभो । देहि पश्चात्तवधामाऽक्षरं मोक्षं च शाश्वतम् ।।८६।।

 तथास्त्विति हरिः प्राह तथाऽऽह गोऋतम्भराम् । भाविनि पुष्करे तीर्थे पृथ्व्यां वै क्षत्रियो नृपः ।।८७।।

 आभीराणां च गोपानां पुष्करारण्यवासिनाम् । नृपो भविष्यति नाम्ना गायत्रो वै विराट्सुतः ।।८८।।

 तस्य भार्या ऋषीनाम्नी राज्ञी पुष्करपुत्रिका । भविष्यति तयोः पुत्री आर्षिनाम्नी सुकन्यका ।।८९।।

 सेयं त्वं भाविनी गोपी गोमती गोऋतम्भरा । गायत्री गोकुलसेवाकर्त्री तत्र भविष्यसि ।।९०।।

 अयं राजा सर्वहुतस्तत्र ब्रह्मा भविष्यति । आद्ये युगे च यज्ञार्थे पुष्करे स गमिष्यति ।।९१ ।।

 सुरर्षिमुनिपित्राद्यैर्मानवैस्तलवासिभिः । चतुरशीतिलक्षात्मदेहिभि सह विश्वसृट् ।।९२।।

 यज्ञं करिष्यति त्वाद्यं प्रवृत्त्यर्थं जगत्त्रये । तत्राग्निषु प्रोद्धृतेषु दीक्षाकाले ह्युपागते ।।९३।।

 अध्वर्युणा तदाऽऽहूता सावित्री दीर्घसूत्रिणी । सज्जी भूत्वा यज्ञभूमौ तत्काले नाऽऽगमिष्यति ।।९४।।

 ब्रह्मा शक्रं समाहूय कथयिष्यति कालिकम् । पत्नीं त्वन्यां मदर्थे तु शीघ्रं शक्र समानय ।।९५।।

 यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते । तथा शीघ्रं विधेहि त्वं नारीं पत्न्यर्थमानय ।।९६।।

 एवमुक्तस्तथा शक्रो गायत्रराजकन्यकाम् । यज्ञभूमिविलोकायाऽऽगतां त्वां स हि नेष्यति ।।९७।।

 आर्षिणीं कन्यकां रम्यां गायत्रीं नवयौवनाम् । गान्धर्वेण विवाहेन ग्रहीष्यति स विश्वसृट् ।।९८।।

 प्रारप्स्यते ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारर्गेः । यज्ञो दिनसहस्रं वै पुष्करे स भविष्यति ।।९९।।

 तत आरभ्य गायत्री ब्रह्माणी त्वं भविष्यसि । लोकमाता वेदमाता सृष्टिमाता भविष्यसि ।। १० ०।।

 सर्वपूज्या सर्वमान्या द्विजजाप्या भविष्यसि । ब्रह्मदात्री ब्रह्मवधूर्भविष्यसि ऋतम्भरे ।। १०१ ।।

 अयं सर्वहुतो ब्रह्मा त्वं गायत्री च दम्पती । द्वितीयाया व्रतेनैव कृपया मे भविष्यथः ।। १ ०२।।

 शतवर्षोत्तरं धामाऽक्षरं मे प्राप्स्यथो ध्रुवम् । महानगरतुल्यस्य सौधस्य दानकर्मणा ।। १ ०३।।

 ब्रह्माण्डाख्यं गृहं राज्यं दास्ये स्मृद्धं परात्परम् । इत्युक्त्वा भगवान् कृष्णस्तिरोबभूव तत्स्थलात् ।। १ ०४।।

 पूर्वजस्य ब्रह्मणोऽपि लये जातेऽथ दम्पती । पारमेष्ठ्यं पदं श्रेष्ठं  प्रापतुः शाश्वतं चिरम् ।। १ ०५।।

 एवं सर्वहुतो राजा तत्पत्नी गोऋतम्भरा । सञ्जातौ दंपती ब्रह्मा गायत्री पितरौ सृजेः ।। १ ०६।।

 इति ते कथितं लक्ष्मि! प्राक्सृष्टीयमुदन्तकम् । पुरुषोत्तममासस्य द्वितीयायास्तु सद्व्रतम् ।। १०७।।

 पारमेष्ठ्यपददातृ श्रोतुर्वक्तुस्तथा फलम् । भविष्यति न सन्देहो वक्ति श्रीपुरुषोत्तमः ।। १ ०८।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये प्राक्सृष्टौ सर्वहुतराज्ञा गोऋतम्भराराज्ञ्या च द्वितीयपक्षद्वितीयाव्रतेन नगरसमभवन-दानादिना पूजनादिना च पारमेष्ठ्यपदे ब्रह्मणोऽव-तारो गायत्र्यवतारश्च प्राप्तं इत्यादिनिरूपण-नामा नवाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।१.३०९।।