पुरुषोत्तम मास उत्तरा एकादशी (12-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास की उत्तरा एकादशी का जो माहात्म्य दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है – शिव – भार्या सती ने देखा कि राधा तो विकुण्ठा को पाकर पुत्री वाली बन गई है तो उसके मन में भी पुत्री प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई। शिव ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी सहमति दे दी। मन्दर पर्वत पर वन में जहां शिव – पार्वती वट वृक्ष के नीचे विराजमान थे, वहीं सती को मानसी दिव्यरूपिणी कन्या प्राप्त हुई। उसका तेज कोटि चन्द्रमाओं के तेज से भी अधिक था, वह उत्पन्न होते ही सती जैसी ही युवती थी। उसने उत्पन्न होते ही माता –पिता के चरणों में प्रणाम किया। जिनके सन्तान न हो और सन्तान हो जाए तो उनके लिए तो उत्सव का अवसर है। शिव ने मन्दर पर्वत पर उत्सव किया जिसमें देव, देवियां, मानव, दिक्पाल, मनु, महर्षि, अज पिता, विष्णु, दक्षादि अन्य वम्री के जन्मोत्सव में आए। सप्तर्षियों ने विधिपूर्वक यज्ञोपवीत करके संस्कृत किया। ब्रह्मवर्चस अर्पित किया जिससे वह सर्वाधिक तेज वाली हो गई। वम्री माता – पिता की भांति ही वट की छाया में समाधि में बैठती थी। उसके वस्त्र वट की त्वचा से संस्कृत थे। न्यग्रोध के फल उसका भोजन थे, न्यग्रोध का दुग्ध उसका पान था। न्यग्रोध के फल उसके भूषण थे। न्यग्रोध के जटातन्तुओं से उसकी साडी बनी थी। वटमूल में होमकार्य के लिए उसकी वेदी बनी थी। इस प्रकार वह तापसी वट रूपा, वटपुत्री बन गई थी। उसने सब सिद्धियां प्राप्त कर ली थी। जो जो इच्छा वह करती थी, वह सब उपस्थित हो जाता था। सम्पदाएं, समृद्धियां, लक्ष्मियां, रस भोग्य वस्तुएं, सुधा, विचित्र अमृत, विविध दुग्ध, सब वृक्षों के रस, सब रत्न, भोग के सारे उपकरण उस वट में निवास करते थे। वह तो योगबल से सब अपने आगे देखती थी। गुदा में मूलाधार चक्र में जाकर गणपति का ध्यान करती थी, उस चक्र की सामर्थ्य को वश में करती थी। योनिमूल में स्वाधिष्ठान चक्र में जाकर चतुर्मुख का ध्यान करती थी और उस चक्र की सामर्थ्य को वश में करती थी। नाभिदेश में मणिपूर चक्र में जाकर विष्णु का ध्यान करती थी और इस चक्र की सामर्थ्य को वश में करती थी। हृदय में अनाहत चक्र में जाकर शिव का ध्यान करती थी और वहां भी सब सामर्थ्य वश में करती थी। कण्ठ में विशुद्धि चक्र में जाकर वहां अपनी आत्मा पर संयम करती थी और आत्मतत्त्वसामर्थ्य को वश में करती थी। भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र में जाकर हंस व गुरु का ध्यान करती थी, ब्रह्मादि ज्ञान तथा सर्वज्ञता को वश में करती थी। ब्रह्मरन्ध्र में जाकर ब्रह्मलोक को जाती थी और परात्मा कृष्ण पुरुषोत्तम का साक्षात्कार करती थी। कभी वम्री समाधि में जाती थी, कभी ब्रह्मपुर को, कभी वैकुण्ठलोक को, कभी श्वेत पुर को, कभी गोलोक को, कभी अमृत धाम को, कभी श्रीपुर को, कभी इन्द्रलोक को। कभी शिव लोक, कभी ब्रह्मलोक, कभी सौर, कभी चान्द्र, कभी वारुण। कभी कुबेर , कभी देवलोक, कभी प्रकृति व पुरुष के लोक को। कभी संकर्षण के धाम को, कभी प्रद्युम्न के धाम को, कभी अनिरुद्ध के धाम को, कभी 24 तत्त्वों के लोकों को, कभी असुरों के, कभी नागों के, कभी देवियों के आलयों को। कभी भूगोल व खगोल में ब्रह्माण्डों को जाती। वह इडा, पिंगला, सुषुम्ना का रूप धारण करके सूर्य, चन्द्रमा आदि के लोकों को जाती, धर्म की संयमिनी पुरी को जाती। उसका एक रूप नहीं था। वह वट पर भी विराजमान होती था, अन्य वृक्षों पर भी बैठती थी, वैकुण्ठ व श्रीपुर में भी बैठती थी। वम्री यक्षिणी होकर कुबेर के महाकोश में भी धनयक्षिणी बनकर विराजमान होती थी। वट के नीचे सूयमान क्रिया करती थी, अतः वह वटसावित्री कहलाती थी। वट स्वर्ण है, उसकी रक्षा करने वाली वह वटयक्षिणी है। वृक्षों में वास करने के कारण वम्री सदा वार्क्षी कहलाती थी। वटसावित्री कृच्छ उपवास सदा पति से संयोग कराने वाला है। वटसावित्री का अर्चन करने से कभी वैधव्य नहीं होता। वटयक्षिणी का अर्चन करने से कभी दरिद्रता नहीं होती। यक्षिणी लक्ष्मी तथा सम्पद, धन देती है। वार्क्षी पूजित होने पर सस्य, अन्नकण धान्य आदि देती है। वार्क्षी सब वृक्षों में रसरूपिणी होकर विराजमान होती है। वट वृक्ष में मानना करने पर वह राति, लक्ष्मी प्रदान करती है। योगाभ्यास से सारी सृष्टियों में जाकर उसने देखा कि ईश्वरों, देवताओं, मानवों, शाखियों, दिव्य देह से युक्त रहने वालों, पुण्यात्माओं, सब पति – पत्नी के युगल में निवास करते हैं। यह देखकर उसने धर्म का विचार किया कि स्त्री के लिए पति के बिना जीवन बिताना दोषकर, शुद्धिविहीन है। अतः मुझे भी धर्मपूर्वक पति के साथ रहना चाहिए। ऐसा विचार करके वह सती पुत्री वम्री मन्दर गिरि पर वट के नीचे वेदी में बैठ गई। इतने में उसके बराबर से 10 दिव्य प्रचेता गण निकले जिनका रूप समान था, वह पुष्ट थे, युवा थे। शंकर का दर्शन करके वे पुनः वम्री के बराबर से निकले। तब वम्री के मन में कुछ स्निग्धता सी आ गई और वह उन्हीं का स्मरण करती हुई वट के नीचे बैठी रही। इतने में उसने अधिक मास की दुन्दुभि सुनी जो कह रही थी कि आज एकादशी का व्रत करने वालों का इष्ट सिद्ध होता है। यह सुनकर वम्री दुन्दुभि के पास शीघ्र आई और दुन्दुभि की पूजा करके कन्या ने दस बार कहा कि पति दो, पति दो, पति दो, पति दो, पति दो, पति दो, पति दो, पति दो, पति दो, पति दो। यह सुनकर दुन्दुभि ने कहा कि तथास्तु।  वम्री ने पुनः दुन्दुभि को सुना कि कृष्ण पुरुषोत्तम पूजा से तुष्ट होने पर शीघ्र मन की कामना पूरी करते हैं। ऐसा सुनकर उसने पुरुषोत्तम की प्रतिमा की वट पत्र, फल आदि से विधिपूर्वक पूजा की। रात्रि में उसने जागरण किया, नृत्य किया, वाद्ययन्त्रों के साथ गायन किया जिसे सुनकर अरण्य के सारे वृक्ष, लताएं, तृण, पक्ष – अपक्ष सब चेतन, वटस्थल पर आ गए। पूजा के अन्त में उसने फल व अन्य पत्र, पुष्पादि उन सबको दिए और अन्त में स्वयं ग्रहण किए। सती व शंकर ने इस भागवत पूजा को देखकर आश्चर्य प्रकट किया और पुत्री की प्रशंसा की। और आशीर्वाद दिया कि वैष्णवी बन। वन को सुख प्रदान करने वाली बन। तापसी, ब्रह्मशक्ति, पुरुष की प्रिया बन। वृक्षरसप्रदा बन। इतने में ही दिव्य रूप वाला एक युवा पुरुष आया और हंस कर उसे प्रिया से संबोधित किया। वम्री ने देखा कि वह तो पुरुषोत्तम हैं। वह उनके चरणों पर गिर पडी। पुरुषोत्तम ने उससे वर मांगने को कहा। उसने पत्नी, दासी बनने का वर मांगा। लेकिन उन्होंने कहा कि तुमने दुन्दुभि के सामने दस बार पति पति कहा है, अतः पर अक्षर धाम में एक तो मैं तुम्हारा पति हूंगा। एक रूप में तुम वटसावित्री, रुद्रपुत्री, वटयक्षिणी के रूप में रहोगी और माता – पिता की सेवा करोगी। भावी जन्म में तुम्हारे मलरहित दस प्रचेता पति बनेंगे। लेकिन तुम्हारी यह देह उनके योग्य नहीं है। जो वृक्ष तुम्हारे पूजन की अवधि में यहां उपस्थित थे, तुम उनकी वार्क्षी पुत्री बनो और दस रूप धारण करो। जैसा मैं तुम्हें बताता हूं, वैसे- वैसे रूप धारण करना। वृक्ष(1), स्तम्ब(2), सस्य(3), शाक(4), तृण(5), नल(6), वल्ली(7), दण्ड(8), पत्र(9), कन्द(10)। इन दस को पिता बना कर दस रूप धारण करो। सशाख फलमात्र(1), अशाख पुष्पमात्र(2), सशाख पुष्पमात्र(3), अशाख फलमात्र(4), सशाख फलपुष्प(5), अशाख फलपुष्प(6), सशाख अफलपुष्प(7), अशाख अफलपुष्प(8), सशाख पत्रमात्र(9), अशाख पत्रमात्र(10)। पुत्री होकर रस प्रदान करो। उन वृक्षों ने वह दस कन्याएं दस प्रचेताओं को धर्मपूर्वक प्रदान कर दी। वह कन्याएं सदा रसदायिनी और फलदायिनी हैं। रुद्रमख के देवयजन में वम्री देवियां समिधा बन गई। जो इस कथा को सुनता है, वह एकादशी व्रत का फल पाता है।

विवेचन

1.वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि विष्णु धनुष की ज्या पर सिर रखकर सो रहे थे। देवताओं ने वम्रियों से कहा कि तुम धनुष की ज्या को खा जाओ। हम तुम्हें यज्ञ में स्थान देंगे। वम्रियों ने ऐसा ही किया। धनुष की ज्या को खाने से धनुष का दंड एक दम सीधा हो गया जिसके कारण विष्णु का सिर कट गया और वह प्रवर्ग्य के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में फैल गया। इस कारण वम्रियों को यज्ञ में स्थान दिया जाता है। जैसा कि अन्यत्र कहा जा चुका है, धनुष केवल एक धनुष नहीं है। हमारी देह में जगह – जगह धनुष तने हुए हैं मानसिक तनाव आदि के कारण। यदि उन तनावों को दूर किया जाएगा तो धनुष की ज्या टूट जाएगी। वम्री दीमक में इतनी शक्ति होती है कि वह तन्तु को भी खाकर पचा जाती है। अतः सांकेतिक रूप में कहा गया है कि कि वम्री नामक कोई शक्ति है जो अन्दर के तनावों को, धनुष को खा सकती है। इन तनावों को दूर करने से क्या होगा। जो ऊर्जा इन तनावों में फंसी पडी थी, वह मुक्त हो जाएगी। वैदिक साहित्य में इस मुक्त ऊर्जा को प्रवर्ग्य नाम दिया गया है। वैदिक शब्दावली में, केन्द्र की ऊर्जा ब्रह्मोदन है, केन्द्र के परितः ऊर्जा प्रवर्ग्य है(द्र. डा. दयानन्द भार्गव)। हमारे परितः प्रवर्ग्य उत्पन्न होने पर यह हमारा कवच, वर्म बन जाएगा, हमें रोग आदि आपदाओं से बचाएगा। वम्री और वर्म शब्दों में सम्बन्ध है। वम्री और वाल्मीकि शब्दों में भी सम्बन्ध है।

2. एकादशी के वर्तमान माहात्म्य में वट वृक्ष को महत्त्व दिया गया है। सोमयाग में काष्ठ का एक स्तम्भ भूमि में गाडा जाता है जिसे यूप कहा जाता है। एक वृक्ष के तने को लेकर उसे शाखाओं से रहित कर दिया जाता है। यह ऊर्जा की ऊर्ध्व – अधो गति का प्रतीक है। यह शिवलिंग का रूप भी है। अब शक्ति चारों ओर बिखरेगी नहीं। यह ऊर्ध्वमुखी साधना का प्रतीक है। जब कष्टप्रद ऊर्ध्वमुखी साधना पूरी हो जाए, तो उसके फलों को अपने परितः , समाज में बांटना होता है, स्वयं भी उसका लाभ लेना होता है। यह यूप को वटवृक्ष बनाना है। वट इन्द्रियों को भी कहते हैं। वम्री की पूरी साधना वट वृक्ष के परितः केन्द्रित है। वम्री का कार्य वृक्षों की कन्या बन कर रस उत्पन्न करना, रस बांटना है।

3.वम्री के पतियों के रूप में 10 प्रचेतागण का उल्लेख किया गया है। वम्री इन प्रचेताओं की पुत्री 10 वृक्षों की रस रूपी कन्या बनने के पश्चात् बनी। जिन वृक्षों की वम्री कन्या बनी, उनकी जातियां भी दी गई हैं – वृक्ष, स्तम्ब, दण्ड ,  नळ, तृण आदि आदि। और इन वनस्पतियों के गुण भी दे दिए गए हैं कि अमुक वनस्पति शाखा वाली है, अमुक बिना शाखा वाली है, अमुक बिना फल वाली है। इस कथन की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यूप का साम्य दण्ड से है जो बिना शाखा वाला, बिना फल, बिना पुष्प वाला होता है।

यह एकान्तिक साधना है, कठोर साधना है। अन्य सभी प्रकार के वृक्षों की साधनाएं रस वाली साधनाएं हैं। वृक्ष की कन्याओं के रूप में वम्री जिन प्रचेताओं की पत्नी बनती है, वह प्रचेता वह प्राण हो सकते हैं जो रौद्र हैं और वार्क्षी कन्या की पत्नी रूप में प्राप्ति होने पर वह सौम्य बन जाते हैं। रुद्रों को एकादश कहा जाता है। 11वां रुद्र स्वयं पुरुषोत्तम हो सकता है। पुराणों की कथाओं में वार्क्षी के स्थान पर मारिषा नाम आया है जिसका अर्थ हो सकता है – जो क्रोध नहीं करती। अर्थात् प्राणों की रुद्रता को समाप्त करती है। मारिषा के स्थान पर वम्री नाम देना केवल लक्ष्मीनारायण संहिता की ही विशेषता है। वेद का एक कथन है कि श्वात्रो असि प्रचेताः, अर्थात् प्रचेता के दो रूप हैं – एक तो श्वः, भविष्य के कल से बचाने वाला और दूसरा प्रचेता।

4.एकादशी के वर्तमान माहात्म्य में वम्री को विभिन्न चक्रों में भ्रमण करते हुए दिखाया गया है। चक्रों में भ्रमण का ऐसा ही वर्णन पूर्वा द्वादशी के माहात्म्य में सावित्री के संदर्भ में भी किया गया है। पुराणों में चक्रों में भ्रमण का ऐसा ही चित्र द्वादशी के माहात्म्यों में खींचा गया है। यहां तो एकादशी को ही ऐसा वर्णन किया गया है। यह एक तथ्य है कि शरीर की शक्ति एकादशी को एक विशिष्ट रूप धारण कर लेती है जो सुषुम्ना में प्रवेश करने में समर्थ होती है। द्वादशी को उन नाडियों में प्रवेश करना होता है जहां प्राण सोए रहते हैं। एकादशी शक्ति हृदय के परितः फैली उन नाडियों में प्रवेश करके प्राणों को जगाती है, उन्हें अपना सहायक बनाती है, ऐसा कहा जाता है।

 

श्रीनारायण उवाच-

शृणु लक्ष्मि पूर्वकल्पे भवां वम्र्याः कथां शुभाम् । रुद्रपुत्री कृते चाद्ये समभूद् वम्रिका सुता ।। १ ।।

 सत्याः सा मानसी पुत्री वटे तिष्ठति नित्यदा । मन्दरे पर्वते रुद्रावतारे वटपादपे ।। २ ।।

 पित्राश्रये कृताऽऽवासा त्वास्ते शुद्धा कुमारिका । सत्या चाऽप्रजया दृष्टा विकुण्ठा राधिकासुता ।। ३ ।।

 तदा पुत्रीमती स्यां चेत्यार्थयच्छंकरान्मुहुः । तथास्त्विति प्रसन्नः शंकरः संकल्पमाचरत् ।। ४ ।।

 यत्र वै मन्दरेऽरण्ये स्वावतारवटाश्रये । तत्रैव रमणात् सत्या मानसी दिव्यरूपिणी ।। ५ ।।

 जज्ञे कोटिचन्द्रतेजोऽधिकतेजोमयी सुता । जातमात्रा सुरूपा सुयौवना यादृशी सती ।। ६ ।।

 ततोऽप्यधिकसौन्दर्या सर्वदिव्यगुणालया । जातमात्रा दिव्यबोधा ननाम पादयोः पितुः ।। ७ ।।

 मातृचरणयोश्चापि ननाम सेविका यथा । सती चातिप्रसन्नाऽभूद् रुद्रोऽप्यतितरां सुखी ।। ८ ।।

 अनपत्यस्तु सापत्यो भवत्युत्सववर्धितः । कृतः सत्या शंभुना चोत्सवस्तत्र सुमन्दरे ।। ९ ।।

 देवा देव्यो मानवाश्च दिक्पाला मनवस्तथा । महर्षयोऽजपितरो विष्णुदक्षादयोऽपरे ।। १० ।।    

 युगलानि ययुस्तत्र वम्र्या जन्ममहोत्सवे । संस्कृता विधिना सप्तर्षिभिर्यज्ञोपवीतकम् ।। ११ ।।

 प्रार्पितं ब्रह्मवर्चस्कं सर्वतेजोधिका बभौ । जनकं ब्रह्मरूपं च तथा सा सेवते सतीम् ।। १२।।

 पितराविव योगस्था समाधावपि तिष्ठति । वटवासा वटच्छायाकृतशाला वटाश्रया ।। १३।।

 वटत्वक्संऽस्कृतवस्त्रा न्यग्रोधफलभोजना । न्यग्रोधदुग्धपाना च न्यग्रोधफलभूषणा ।। १४।।

 न्यग्रोधस्य जटातन्तुशाटिका वटमूलके । वेदीकृतहोमकार्या टपत्रसुकंचुकी ।। १५।।

 वटकाष्ठसुवलया वटरूपा सदाऽभवत् । तापसी वटपुत्री सा सर्वसिद्धिमयी बभौ ।। १६।।

 यद्यदिच्छति तत्सर्वं तत्र समुपतिष्ठते । सम्पदः स्मृद्धयो लक्ष्म्यो रसा भोग्यानि वै सुधा ।। १७।।

 अमृतानि विचित्राणि दुग्धानि विविधानि च । सर्ववृक्षरसास्तत्र सर्वरत्नानि तत्र च ।। १८।।

 सर्वभोग्योपकरणान्युपतिष्ठन्ति तद्वटे । सा तु योगबलात् सर्वं स्वस्या अग्रे प्रपश्यति ।। १९।।

 मूलाधारे गुदे चक्रे गत्वा गणपतिं सुरम् । ध्यायति स्माऽस्य सामर्थ्यं वशीकरोति सर्वथा ।।२०।।

 स्वाधिष्ठाने योनिमूले चक्रे गत्वा चतुर्मुखम् । ध्यायति स्माऽस्य सामर्थ्यं वशीकरोति सर्वतः ।।२१ ।।

 मणिपूरे नाभिदेशे चक्रे गत्वा तु विष्णुकम् । ध्यायति स्माऽस्य सामर्थ्यं वशीकरोति सर्वथा ।।।२२।।

 हृदयेऽनाहते चक्रे गत्वा ध्यात्वा शिवं स्थितम् । तस्यापि सर्वसामर्थ्यं वशीकरोति योगिनी ।।२३ ।।

 विशुद्धिचक्रे कण्ठस्थे स्वात्मनि संयमं परम् । कृत्वाऽऽत्मतत्त्वसामर्थ्यं वशीकरोति सर्वथा ।। २ ४।।

 आज्ञाचक्रे भ्रुवोर्मध्ये ध्यात्वा हंसं गुरुं तथा । वशीकरोति ब्रह्मादि ज्ञानं सार्वज्ञ्यमेति या ।। २५।।

 ब्रह्मरन्ध्रेऽपि सा गत्वा ब्रह्मलोकं गता सती । पश्यति श्रीपरात्मानं श्रीकृष्णपुरुषोत्तमम् ।। २६ ।।

 क्चचित्समाधिना वम्री याति ब्रह्मपुरं प्रति । क्वचिद्वैकुण्ठलोकं च याति श्वेतं पुरं प्रति ।। २७।।

 गोलोकं चामृतं धाम श्रीपुरं याति वासवम् । क्वचिच्छै क्वचिद् ब्राह्मं रं चान्द्रं च वारुणम् ।। २८ ।।

 कौबेरं देवलोकाँश्च प्रकृतेः पुरुषस्य च । लोकान् सांकर्षणं धाम प्राद्युम्नं चानिरुद्धकम् ।। २९।।

 चतुर्विंशतितत्त्वानां लोकान् याति समाधिना । असुराणां च नागानां देवीनामालयाँस्तथा ।। ३० ।।

 भूगोले च खगोले च ब्रह्माण्डे याति योगिनी । इडायाः पिंगलायाश्च सुषुम्णादेश्च वर्त्मना ।। ३१ ।।

 सूर्यचन्द्रादिलोकाँश्च जगाम योगसंश्रया । संयमनीं धर्मपुरीं जगाम योगवर्त्मना ।। ३२।।

 नैकरूपधरा भूत्वा वम्री वटेऽपि तिष्ठति । तिष्ठत्यपरवृक्षेषु वैकुण्ठे श्रीपुरेऽपि च ।। ३३ ।।

 कुबेरस्य महाकोशे भूत्वा वम्री तु यक्षिणी । तिष्ठते सा धनयक्षिणीति रक्षाकरी तथा ।। ३४।।।

 एवं भूत्वा बहुरूपा यथेष्टं रमते हि सा । वटाऽधः सूयमानत्वाद् वटसावित्रिका हि सा ।। ३५ ।।

 वटं स्वर्णं तस्य रक्षाकरी सा वटयक्षिणी । वृक्षेषु वसमानत्वाद् वार्क्षी वम्री सदाऽभवत् ।। ३ ६ ।।

 सावित्रिकाकृच्छ्रं पतिसंयोगद सदा । वैधव्यं नैव चायाति वटसावित्रिकार्चने ।। ३७।।

 दारिद्र्यं नैव जायेत वटयक्षिणिकार्चने । लक्ष्मीं च सम्पदश्चैव धनं ददाति यक्षिणी ।। ३८।।

 सस्याऽन्नकणधान्यादि वार्क्षी ददाति पूजिता । वार्क्षी सर्वत्र वृक्षेषु तिष्ठते रसरूपिणी ।। ३९ ।।

 वटे वृक्षे मानिता या राति लक्ष्मीं ददाति सा । वम्री सतीसुता योगक्रियादक्षा स्थले स्थले ।।४० ।।

 योगाभ्यासेन गत्वैव ददर्श सर्वसृष्टिषु । युगलानि पतिपत्नीकृतानि मानसान्यपि ।।४१ ।।

 ईश्वराणां सुराणां च मानवानां च शावृक्षों ने खिनाम् । दिव्यानि देहयुक्तानि प्रिये! पुण्यात्मकान्यपि ।।४२।।

 दृष्ट्वा धर्मं विचार्यैव यौवनं वै पतिं विना । स्त्रीणां दोषकरं शुद्धिविहीनं भाति सृष्टिषु ।।४३ ।।

 तस्मान्मयाऽपि योक्तव्यं पत्या सह सधर्मिणा । इति विचार्य सा वम्री सतीपुत्री सुसुन्दरी ।।४४।।

 निषसाद वटाऽधस्ताद् वेद्यां सा मन्दरे गिरौ । तावत्तत्पार्श्वतो याता दिव्याः प्रचेतसो दश ।।४५।।

 स्वतुल्यान् रूपसम्पन्नान् पुष्टयौवनसंभृतान् । पुनस्तत्पार्श्वतो जग्मुः कृत्वा शंकरदर्शनम् ।।४६।।

 मनस्तेषु तदा वम्र्याः किञ्चिद्वै स्निग्धता गतम् । तानेव संस्मरन्त्यत्र वटे सा व्यग्रमानसा ।।४७।।

 शुश्राव दुन्दुभिं चाधिकमासव्रतबोधकम् । अद्यैकादशिकापर्व पुण्यदं चाधिमासिकम् ।।४८ ।।

 व्रतकर्त्र्या भवेत्स्वेष्टं सिद्धं प्रयत्नमन्तरा । पुरुषोत्तम कृष्णोऽहं ददामीष्टं व्रतार्थिने ।।४९ ।।

 दुन्दुभिः संवदाम्यत्र साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमः । गृह्णन्तु वरदानं मत् यथेष्टं सुरमानवाः ।।५ ० ।।

 नरा नार्यः सुरा देव्यः समायान्तु मदन्तिकम् । एकादश्या व्रतपुण्यं ददामि मनसेप्सितम् ।।।५ १ ।।

 श्रुत्वा वम्री दुन्दुभिं तं प्रति शीघ्रं समाययौ । संपूज्य दुन्दुभिं कन्या प्रोवाच दशवारकम् ।।५२।।

 पतिं देहि, पतिं देहि, पतिं देहि, पतिं, पतिम् । पतिं देहि, पतिं देहि, पतिं देहि, पतिं, पतिम् ।।।५३ ।।

 श्रुत्वा तथास्त्विति प्रोच्य दुन्दुभिर्निर्ययौ ततः । वटं सापि ययौ शीघ्रं यथा जानाति नो सती ।।५४।।

 प्रसन्ना तुष्टहृदया वरदानधनान्विता । पुनः शुश्राव वाद्यं श्रीकृष्णपुरुषोत्तमः ।।५५ ।।

 पूजया तोषितः शीघ्रं मानसं पूरयिष्यति । श्रुत्वैवं सा वटाऽधस्तात् प्रतिमां पौरुषोत्तमीम् । ।५६। ।

 विधाय पूजयामास वटपत्रफलादिभिः । आवाह्याचमनं कारयित्वाऽऽसनं समर्प्य च । ।५७। ।

 पाद्यमर्घ्यं ससमर्प्य दध्ना दुग्धेन वारिणा । शर्करया मधुना च घृतेनाऽस्नापयद्धरिम् । । ५८ । ।

 वस्त्रेण मार्जयामास जलान्यंगेभ्य ईश्वरी । धौत्रं व्याघ्राम्बरं चोत्तरीयं हस्त्यम्बरं तथा । ।५९ । ।

 वटत्वङनक्तकं यज्ञोपवीतं दर्भनिर्मितम् । समर्प्याऽऽभरणानीष्टपौष्पाणि फालिकानि च । । ६० । ।

 सौवर्णानि च रौप्याणि कस्तूरीचन्दनाऽक्षतान् । धूपदीपसुनैवेद्यताम्बूलफलचर्वणम् । ।६ १ ।।

 आरार्त्रिकं दण्डवच्च प्रदक्षिणां स्तुतिं तथा । पुष्पांजलिं समर्प्याऽथ जगौ संकीर्तनं ततः ।।६२।।

 मध्याह्नेऽपि तथा सायं निशि प्रपूज्य केशवम् । वम्री सजागरं नृत्यं चकार हरिसन्निधौ । ।६३।।

 डमरुं वादयमाना किंकिणीशब्दमिश्रितम् । गायनं गीतिकायुक्तं मधुरं वै चकार सा ।।६४।।

 वनवृक्षाश्च तच्छ्रुत्वा लतास्तृणानि चाययुः । स्तबकाश्च समाजग्मुः श्रवणाऽऽकृष्टचेतनाः ।।६५। ।

 चेतनाऽऽरण्यकाः सर्वे सपक्षाः पक्षवर्जिताः । अपि श्रवणसंकृष्टाः समायाता वटस्थलम् ।।६६।।

 पुरुषोत्तमदेवस्य पूजाया जलममृतम् । प्रासादिकं फलं चान्यत् पत्रं पुष्पादिकं तथा ।।६७।।

 ददौ तेभ्यस्तु सर्वेभ्यः पश्चाज्जग्राह वम्रिका । सती च शंकरश्चैतद्भागवतप्रपूजनम् ।।६८। ।

 दृष्ट्वाऽऽश्चर्यं परं प्राप्तौ प्रशंसतुश्च पुत्रिकाम् । ददतुश्चाशिषः पुत्रि! यथेष्टं सुखिनी भव ।।६९।।

 वैष्णवी भव कल्याणि! वनसौख्यकरी भव । तापसी ब्रह्मशक्तिश्च पुमुत्तमप्रिया भव ।।७ ०।।

 पूज्या वटस्थिता मान्या वृक्षरसप्रदा भव । इत्याद्याशीर्वचनैस्तां योजयामासतुः शिवौ ।।७१।।

 अथैवं पूजनं कृत्वा कृत्वा विसर्जनं हरेः । वटवेद्यां निषसाद समाजं विनिवृत्य सा ।।।७२।।

 तावत्तत्र समायातो दिव्यरूपधरः पुमान् । रूपानुरूपायऽवयवः कोटिशंभुसमोज्ज्वलः ।।७३।।

 चन्द्राननसुशोभाढ्यो युवा योग्यो वरो यथा । प्रहस्य तां समाकृष्य प्रियेत्याह सकौस्तुभः ।।७४।।

 वम्री नम्रमुखी भूत्वा ज्ञात्वा श्रीपुरुषोत्तमम् । पतिता पादयोस्तस्य चक्रपद्मधरस्य वै ।।७५।।

 वद् देवि! व्रतेनाऽस्मि प्रसन्नः पुरुषोत्तमः । वरं ब्रूहि ददाम्यत्र यत्ते मनसि वर्तते ।।७६।।

 वम्री तु पादयोर्नत्वा जलं धृत्वा मुखे तदा । रजश्च मस्तके कृत्वा स्तने कृत्वा पदाम्बुजम् ।।७७।।

 कण्ठोपरि करौ स्थाप्य मनो दत्वा हृदम्बरे । नेत्रे तु नेत्रयोः कृत्वा गृहीत्वा पुरुषोत्तमम् ।।७८।।

 पत्नीं भार्यां तव दासीं गृहाणेत्यवदत्तु सा । परं भावं हरिर्ज्ञात्वा तथास्त्वित्याह माधवः ।।७९।।

 परं प्राह च तां वम्रीं स्मर पूर्वं तवाऽर्थितम् । सन्निधौ मे दुन्दुभेस्तु दशवारं पतिं पतिम् ।।८०।।

 एकोऽहं ते पतिर्भाव्यः साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमः । भव दिव्यस्वरूपा त्वं समागच्छ मया सह ।।८ १ ।।

 अक्षरे परमे धाम्नि मम पत्नी तु शाश्वती । भवाऽथ मानसी पुत्री सतीसेवा परा सदा ।।।८२।।

 वटसावित्रिका नित्यं सन्तिष्ठाऽत्र कुमारिका । रुद्रपुत्री वटयक्षिणीति द्रव्याधिरक्षिका ।।८ ३ ।।

 खनिष्वपि पृथिव्यां त्वं तिष्ठ रुद्रीस्वरूपिणी । स्मर प्रचेतसो दृष्ट्वा मनस्ते स्निग्धता गतम् ।।८४।।

 अतस्ते पतयो भाव्या दश प्रचेतसोऽमलाः । किन्तु नानेन देहेन तव योग्या हि ते मताः ।।८५।।

 तस्माद् वृक्षैरर्थितासि ये येऽत्र पूजनावधौ । उपस्थिताश्च तेषां त्वं पुत्री भव प्रिये! तथा ।।८ ६।।

 ममाऽऽज्ञयाऽभिधानं ते वार्क्षी भविष्यति ध्रुवम् । वृक्षपुत्री भव देवि दशधा रूपधारिणी ।।८७।।

 शृणु त्वां कथयाम्यत्र तत्तद्रूपाणि संकुरु । वृक्षाः, स्तम्बाश्च, सस्यानि, शाकानि च, तृणानि च ।।८८ ।।

 नलाश्च, वल्लयश्चैव, दण्डाः, पत्राणि, कन्दकाः । दशस्वेतेषु पितृत्वं स्वीकृत्य दशधा भव ।।८९ ।।

 सशाखफलमात्रेषु ह्यशाखपुष्पमात्रके । सशाखपुष्पमात्रेषु ह्यशाखफलमात्रके ।। ९० ।।

 सशाखफलपुष्पेषु ह्यशाखफलपुष्पके । सशाखाऽफलपुष्पेषु ह्यशाखऽफलपुष्पके ।।९ १ ।।

 सशाखपत्रमात्रेषु ह्यशाखपत्रमात्रके । पुत्री भूत्वा रसान् देहि दशपुत्र्यो भवन्तु वै ।। ९ २।।

 इत्युक्त्वा भगवान् कृष्णनारायणोऽतिभावतः । वम्रीरूपं धामयोग्यं कृत्वा नीत्वा ययौ मुदा ।। ९३ ।।

 एकं पुत्रीस्वरूपं तु स्थितं वम्र्याः सतीकृते । अपराणि च रूपाणि वृक्षकन्याः सुयौवनाः ।।९४।।

 निष्पन्नास्तास्तदा निन्युर्वृक्षा विभिन्नजातयः । तैः प्रदत्ताः प्रचेतोभ्यो दशभ्य एव धर्मतः ।। ९५।।

 सर्वत्र रसदायिन्यः फलदायिन्य एव ताः । नारदस्योपदेशेन प्रचेतसां तु मोक्षणे ।।९६।।

 वार्क्षीणामपि मोक्षो वै भविष्यति न संशयः । एकादशीव्रतं त्वेवं कृत्वा वम्री सतीसुता ।। ९७।।

 प्रपेदे परमं धाम तन्वा ब्राह्म्या हि शाश्वतम् । पुरुषोत्तमपत्नीत्वं प्राप्ता यथेष्टसौख्यदम् ।। ९८।।

 देव्यो वम्र्यस्तथा वार्क्ष्यो जाताः कृपाकणाद्धरेः । देव्यो वम्र्यस्तु रूद्रस्य वेद्यां प्रथमजा वरे ।। ९९ ।।

 मखस्य देवजयने बभूवुः समिधो भुवि । श्रावणात्पठनाच्चास्यैकादश्या व्रतजं फलम् ।। १०० ।।

 लभते वाचयेद् यः स धनधान्यसमृद्धिमान् । भुक्तिं मुक्तिं च लभते पुरुषोत्तमतोषणात् ।। १०१ ।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सतीरुद्रयोर्मानसपुत्र्या योगिन्या वम्र्याऽधिकमासैकादशीव्रतकरणेन स्वेष्टब्रह्माऽक्षर-धामयोग्यब्राह्मीतनुर्लब्धा, रूपान्तरैर्दशप्रचेतःपत्नीत्वं - वृक्षकन्यात्वं चेत्यादिनिरूपणनामाऽष्टा-दशाऽधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। १.३१८ ।।