पुरुषोत्तम मास  पूर्वा द्वादशी (29-6-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास की पूर्वा द्वादशी का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है । जो सविता देव है, वही कृष्ण है। कृष्ण ने राधा की सृष्टि की। राधा कृष्ण की गोलोक में नित्य सेवा में रत रहती है। कृष्ण ने अपने द्वारा प्रसूत लोक के निरन्तर प्रसवन के लिए रूपान्तर धारण करने की इच्छा की और तभी एक कन्या प्रकट हो गई जिसका नाम सावित्री प्रसवप्रदा रखा गया। सावित्री गोलोक में राधा के साथ रमण करती है। जब राधा स्वयं कृष्ण की सेवा में लीन रहती है तो सावित्री कन्या समाधि में स्थित हो जाती है। वह आत्मा में रमण करती है, आत्मसुख में अतिसंमग्न होकर पर ब्रह्म का ध्यान करती है। उसे यह जानने की इच्छा हुई कि ब्रह्म का स्वरूप कैसा है, ब्रह्म के कितने स्वरूप है, वह कहां – कहां वास करते हैं, किन – किन कामों में वास करते हैं, उनके ऐश्वर्य क्या हैं, उनकी विभूतियां क्या हैं इत्यादि। इन सब तथ्यों को जानने के लिए उसने प्राणों को संकुचित किया और मूलाधार चक्र में प्रवेश किया। वहां उसने गणपति पर संयम किया और अनन्त ब्रह्माण्डों में स्थित कृष्ण स्वरूप असंख्य गणेशों का दर्शन किया। फिर वह मूलाधार चक्र से ऊपर उठकर स्वाधिष्ठान चक्र में आ गई। वहां उसने प्रजापति पर संयम किया। वहां उसने अनन्त ब्रह्माण्डों में परब्रह्म स्वरूप असंख्य प्रजापतियों का दर्शन किया। फिर वह स्वाधिष्ठान चक्र से ऊपर उठकर नाभिकन्द में स्थित मणिपुर चक्र में आ गई। वहां उसने सर्पिणी में संयम किया। उसने असंख्य लोकों में प्रवेश किया। वहां से असंख्य तेजोमयी नाडियां जाती हैं। कोई पाताललोक को जाती है, कोई लोकाचल को, कोई स्वर्ग में सत्यलोक तक, कोई आवरणों को, कोई ईश्वरलोकों को, कोई ब्रह्मा के निवासस्थानों को। वहां उसने ब्रह्माण्ड की विभूतियों की दिव्य भूमिकाओं को देखा। फिर उसने हृदय के अनाहत चक्र में प्रवेश किया। वहां उसने प्रणव को सुनकर ब्रह्म में संयम किया। वहां उसने पाया कि जो आत्मा है, वही अन्तरात्मा है, वही ब्रह्मात्मा है। वहां उसने उसने वैराज, भौम, वैष्णव धामों तथा प्राकृत व सदाशिव आवरणों में दिव्यभूमिकाओं को देखा और फिर कण्ठ में विशुद्धि चक्र में प्रवेश किया। वहां उसने वासुदेव, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न व सुकर्षण द्वारा रचे गए धामों की रचनाएं देखी और फिर भ्रूकुटी में प्रवेश किया। वहां उसने आज्ञाचक्र पर संयम किया। वहां उसने साक्षात् परब्रह्म को गुरु रूप में देखा जो लोकसंचालन के लिए परब्रह्म से विश्वसृज विभु बन जाता है। वही प्रजा का पितामह है। उसके अंक में उसने स्वयं अपने  ही दिव्य स्वरूप को स्थित देखा। उसे अति हर्ष हुआ। उसने क्षण में ही विचार किया कि मैं तो गोलोक वासिनी हूं, यहां ब्रह्मा के अंक में  ब्रह्मा की वधू का मेरा रूप कैसे आ गया। मैं पितामही से इस सब का कारण पूछती हूं। जब वह पूछने के लिए आगे बढी तो पितामही तिरोहित हो गई और पितामही द्वारा आकृष्ट किए जाने के कारण वह उसी के रूप में लीन हो गई। तब तक सावित्री समाधि से बाहर आ गई। उसे आश्चर्य हुआ कि कहां मैं गोलोक में स्थित कन्या और कहां पितामह के अंक में स्थित पितामही। उसने राधा के पास जाकर अपने द्वारा दृष्ट दृष्यों को बताया। राधा ने कहा कि तुम मेरा ही स्वरूप हो जो ब्रह्मशक्ति है तथा ब्रह्मा के लिए उत्पन्न हुआ है। जो जगत को प्रसूत करने वाली परा मायाशक्ति है, वह मैं ही हूं, वही तुम हो। हे महामाया कन्या, तुम मेरा ही स्वरूप हो। उस देव को प्राप्त करने के लिए आराधना करो। यह सुनकर सावित्री ने ब्रह्मप्राप्ति के बारे में विचार किया। इतने में ही उसने द्वादशी के दिन प्रातःकाल  दुन्दुभी की घोषणा सुनी जो अधिकमास द्वादशी व्रत की विधि की घोषणा कर रही थी। दुन्दुभी घोषणा कर रही थी कि इस व्रत से कोई भी लोक, धाम, स्थान प्राप्त किया जा सकता है, कोई भी दिव्य आवरण प्राप्त किया जा सकता है, आदि। उसने केशव पूजन की विधि बताई। सावित्री कन्या ने दुन्दुभि से समाधि में किए गए दर्शन के विषय में बताया और पूछा कि मैं तो गोलोक में रहती हूं, मुझे वैराज रूप में रहने वाले अज ब्रह्मा का योग कैसे मिल सकता है। यह सुनकर दुन्दुभि ने कहा कि तुम पुरुषोत्तम व लक्ष्मी की स्वर्ण की मूर्ति बनाओ तथा ब्रह्मा व सावित्री की भी स्वर्ण की मूर्ति बनाओ। सावित्री ने योगबल से मेरु से स्वर्ण का आहरण किया और स्वर्ण की मूर्तियां बनाई। उसने प्रातःकाल उनकी पूजा की। कृष्ण ने प्रकट होकर सावित्री से कहा के नेत्र मूंदकर मेरा ध्यान करो। इससे जो तुम्हारे मन में है, वह प्राप्त हो जाएगा। यह कह कर कृष्ण अदृश्य हो गए। सावित्री ने प्रातःकाल की पूजा समाप्त कर मध्याह्न में भी ऐसे ही किया। सायंकाल में भी ऐसा ही किया। जागरण किया तथा चारों की मूर्तियों को दोला में रखकर आन्दोलित किया। पुरुषोत्तम फिर प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि मुझे पुष्पांजलि व अर्घ्य, फल, जल देकर मेरा विसर्जन करो। मैं अब अक्षरधाम को जाता हूं। तुम आज ही वैराज धाम को जाओ जहां से ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं। वहां वैराज की मानसी पुत्री बन जाओ। वैराज तुम्हें अज ब्रह्मा के लिए दान कर देगा।

सावित्री ने ऐसा ही किया और ब्रह्मा की पत्नी बन गई।

विवेचन

1.पुरुषोत्तम मास पूर्वा एकादशी के व्रत का सार यह था कि परब्रह्म की प्रतिष्ठा इस लोक में कैसे की जाए। अब पुरुषोत्तम मास पूर्वा द्वादशी का लक्ष्य यह है कि यथार्थ जगत में, जो आदर्शों से कहीं दूर है, सर्वोत्तम रूप में कैसे कार्य का निष्पादन किया जाए। इसका उपाय यह किया गया है कि घटनाओं के पीछे जो कारण विद्यमान हैं, उनको रूपान्तरित कर दिया जाए। द्वादशी की कथा में कहा जा रहा है कि सावित्री जब समाधि में ब्रह्मलोक को गई तो उसने देखा कि वहां तो पहले से ही वैसी ही सावित्री विराजमान है। दूसरी सावित्री भी उसमें लीन हो गई। इसका अर्थ यह हो सकता है कि पहली सावित्री वह है जो सामान्य जीवन में हमारे सब कर्मों के पीछे विद्यमान है, कार्य के पीछे विद्यमान कारण है। अब इस सावित्री के ऊपर एक और सावित्री की प्रतिष्ठा कर दी गई है जिसकी उत्पत्ति गोलोक में कृष्ण से हुई है। गोलोक परब्रह्म के बहुत निकट है। लेकिन इस सावित्री का अवतरण एकदम नहीं हो जाता। इसे वैराज पुरुष की पुत्री बनना पडता है। वैराज पुरुष तक पहुंचने के लिए क्या करना पडता है, यह लक्ष्मीनारायण संहिता में निम्नलिखित प्रकार से वर्णित है । संक्षेप में कहा जा रहा है कि सुषुम्ना द्वारा ब्रह्मरन्ध्र में पहुंच कर वहां वैराज स्थिति प्राप्त करनी पडती है। जहां देह में कारणों का अस्तित्व पृथक् – पृथक् होता है, वैराज में ऐसा नहीं होता। वहां उनमें एक्य भाव होता है -- 

पिण्डेऽस्ति घटना रम्या यादृशी तादृशी पुनः ।।६१।।

वैराजे वर्तते चापि सूक्ष्मा स्थूलेत्यभेदतः । देहे तु मानवे नाड्यो ब्रह्माण्डे नदिकास्तु ताः ।।६२।।

देहे तु कुक्षयः सन्ति ब्रह्माण्डे चाऽब्धयस्तु ते । पादमूलं तु पातालं मूर्धा सत्यं कटिर्हि भूः ।।।६३।।

देहस्येन्द्रियनाडीनां वैराजेन्द्रियनाडिकाः । कारणानि ततश्चैक्यभावा भवन्ति ता इमाः ।।६४।।

योगाम्यासरता जिह्वाप्रान्तं यान्ति समाधिना । तदा वैराजजिह्वाया अन्तं पश्यन्ति योगिनः । ।६५।।

एवं सर्वेन्द्रियाणां तु प्रान्तं यान्ति समाधिना । तदा वैराजेन्द्रियाणामन्तं पश्यन्ति योगिनः ।।६६।।

सुषुम्ना वर्तते मध्ये देहेऽत्र नाभिमूर्ध्वगा । वामे चेडा पिंगला तु दक्षे स्थिता सदाऽस्ति वै ।।६७।।

सुषुम्णान्तं तु मूर्धानं गत्वा वैराजमीक्षते । सा तु दीर्घा ब्रह्मरन्ध्राद् वैराजं योगमृच्छति ।।६८।।

तेजःकिरणरूपा वै वैराजात्पुरुषावधिम् । महापुरुषरन्ध्रात् स तेजःकिरणसंज्ञिता ।।६९।।

अक्षरेण च तादात्म्यं गता ततो हरौ हि सा । प्रभा तादात्म्यमापन्ना विद्यते किरणात्मिका ।

अतः सुषुम्नामार्गेण योगी याति परं पदम् ।।७० ।।

हरेः किरणं निर्यन् स्यात् सर्वावतारमन्तगम् ।

ईश्वरेषु च जीवेषु वर्तते व्यापकं हि तत् । तद्ब्रह्म तच्च विज्ञानं सत्त्वं प्रकाश एव तत् ।।७१ ।।

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ज्ञानदीप्तिमत् । स्नेहातिशयतश्चैवंविदः प्रभा विवर्धते ।।।७२।।

जाग्रति वा स्बापके वा सुषुप्तौ वा यदा यदा । हरौ स्याल्लीनता यस्य स्नेहेन तत्र तं व्रजेत् ।।७३ ।।

संकल्पेन हरेश्चापि शक्त्या चापि हरेस्तथा । ज्ञानशक्त्या क्रियाशक्त्या चेच्छाशक्त्या हरेस्तथा ।।७४।।

2.पुरुषोत्तम पूर्वा द्वादशी माहात्म्य में सावित्री द्वारा विभिन्न नाडियों, नाडीचक्रों में भ्रमण का वर्णन है। अन्य द्वादशी तिथियों के माहात्म्यों में भी ऐसे ही उल्लेख मिलते हैं। इन नाडियों को हिता नाडियां कहा जाता है जो हृदय के परितः स्थित होती हैं। स्वप्न की स्थित तब उत्पन्न होती है जब प्राण इन नाडियों में जाकर सो जाते हैं। 

3.वेद में सावित्री सविता की कन्या है जिसका विवाह सोम से किया गया है। ऋग्वेद 10.85 सूक्त सावित्री के विवाह को समर्पित है। दूसरी ओर, पुराणों में सावित्री का विवाह ब्रह्मा से करने का निर्देश है। कहा गया है कि ब्रह्मा के वीर्य को ही सावित्री शास्त्रों, रागों आदि के रूप में जन्म देती है। सावित्री को ब्रह्मा की पुत्री भी कहा गया है। आख्यान है कि सावित्री जिस दिशा में भी गई, उसी दिशा में ब्रह्मा का एक नया शिर उत्पन्न हो गया। इन्हीं शिरों से ऋग्वेद आदि की उत्पत्ति हुई। वेदों में सविता देवता की प्रतिष्ठा एक ऐसे प्राण के रूप में की गई है जिसको किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले सक्रिय बनाना है(सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां इति)। हो सकता है कि सविता देवता रूपी प्राण यह निर्देश देता हो कि अमुक कार्य को सर्वश्रेष्ठ रूप में इस प्रकार सम्पन्न किया जा सकता है।

4. वेद के सूक्त में सावित्री को सूर्या सावित्री नाम दिया गया है। सूर्या शब्द से र अक्षर का लोप कर देने पर यह सूया हो जाता है। अतः कहा जा सकता है कि सावित्री उस प्रकृति का नाम है जो सविता की भांति प्रसुवन करने में समर्थ है। हम सभी प्रकृति के अधिक निकट हैं, पुरुष के निकट कम हैं। लौकिक रूप में, पुरुष की साधना कठिन होती है, फल भी देर से मिलता है। शक्ति की साधना त्वरित है, तुरन्त फल देने वाली है।

5.शतपथ ब्राह्मण 9.5.1.43(सावित्राणि प्रायणं वैश्वकर्मणान्युदयनं) व 10.4.1.16(तस्यार्धमेव सावित्राण्यर्धं वैश्वकर्मणान्यष्टावेवास्य कलाः सावित्राण्यष्टौ वैश्वकर्मणान्यथ यदेतदन्तरेण कर्म क्रियते स एव सप्तदशः प्रजापतिः) से संकेत मिलता है कि सावित्र प्रक्रिया दैव का, भाग्य का रूपान्तरण है। उसके फलस्वरूप जो कार्य होगा वह पुरुषार्थ है। यहां पुरुषार्थ को विश्वकर्मा – कृत कहा गया है, अर्थात् अब पुरुषार्थ मात्र पुरुषार्थ नहीं रह जाएगा, अपितु देवों के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा किया गया कार्य होगा।

संदर्भ

स्थूलं सूक्ष्मं परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपुः ॥ २.१४॥  पञ्चब्रह्ममयं रूपं स्थूलं वैराजमुच्यते । हिरण्यगर्भं सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम् ॥ १५॥  परं ब्रह्म परं सत्यं सच्चिदानन्दलक्षणम् । - योगशिखोपनिषद

 

श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! परंब्रह्म सर्वाविर्भावशक्तिकृत् । पुरुषोत्तमसंज्ञोऽसौ सविता जगतः पतिः ।। १ ।।

 स्वयं कृष्णस्वरूपश्च राधां स्वस्मात् प्रसृष्टवान् । राधा कृष्णात्मिका शक्तिः साधिका भक्तकर्मणाम् ।। २ ।।

 कृष्णस्य सवितुः शक्तिः प्रसूते सुचराचरम् । सा राधा कृष्णसेवायां गोलोके नित्यमस्ति हि ।। ३ ।।

 स्वप्रसूतस्य लोकस्य प्रसवार्थं निरन्तरम् । ऐच्छद् रूपान्तरं धर्तुं तावत् कन्या व्यजायत ।। ४ ।।

 सा तु नाम्ना कृता कन्या सावित्री प्रसवप्रदा । गोलोके राधया साकं रमते निजमन्दिरे ।। ५ ।।

 सुरूपा दिव्यसामर्थ्ययुक्ता लोकमनोहरा । यथेष्टसिद्धिसम्पन्ना गुप्तैश्वर्यादिशालिनी ।। ६ ।।

 यदा राधा स्वयं कृष्णसेवायां समवर्तते । तदा कन्या तु सावित्री समाधौ समतिष्ठति ।। ७ ।।

 आत्मनि रमते नित्यमात्मानन्दमयी प्रसूः । आत्मसुखातिसंमग्ना ध्यायति ब्रह्म वै परम् ।। ८ ।।

 योगाभ्यासबलाज्जन्मसिद्ध्या त्वैच्छद् विलोकितुम् । ब्रह्मणः कीदृशं रूपं कति वा सन्ति तानि च ।। ९ ।।

 कुत्र कुत्र च वर्तन्ते किं कार्याणि वसन्ति च । तदैश्वर्याणि तेषां च कीदृश्यो वै विभूतयः ।। १० ।।

 इत्येतत्सर्वमाज्ञातुं प्राणान्संकुच्य चात्मनि । अवातरच्छनैर्मूलाधारचक्रे तु योगिनी ।। ११ ।।

 अत्र स्थित्वा गणपतौ संयमं सा चकार ह । तेनाऽसंख्यगणेशानां श्रीकृष्णांशस्वरूपिणाम् ।। १२।।

 ब्रह्माण्डेषु त्वनन्तेषु धामान्यालोक्य सुन्दरी । गुदामूलस्थितं चक्रं परित्यज्याग्रमाययौ ।। १३ ।।

 स्वाधिष्ठानाभिधं चक्रं संयमार्थं दधार सा । तत्र प्रजापतौ स्थित्वा संयमं सा चकार ह ।। १४।।

 तेनाऽसंख्यप्रजेशानां परब्रह्मस्वरूपिणाम् । ब्रह्माण्डेषु त्वनन्तेषु धामानि वीक्ष्य सुन्दरी ।। १५।।

 नाभिकन्दस्थितं मणिपुरं चक्रं जगाम सा । तत्र स्थित्वा तु सर्पिण्यां संयमं सा विधाय च ।। १६।।

 ऊर्ध्वमुख्यां प्रविवेशाऽसंख्यलोकेषु सुन्दरी । तस्माद् यान्ति महानाड्यस्तेजोमय्योऽप्यसंख्यकाः ।। १७।।

 काश्चित्पाताललोकाँश्च काश्चिल्लोकाचलातिगान् । काश्चित्स्वर्गादिसत्यान्तान् काश्चिदावरणादिकान् ।। १८।।

 काश्चिदीश्वरलोकाँश्च काश्चिद्ब्रह्मगृहानपि । या या यद्यत् स्थलं यान्ति तत्तन्मार्गेण सुन्दरी ।। १९।।

 जगाम बहुलोकेषु विलोक्य दिव्यभूमिकाः । ब्राह्माण्डिकविभूतीश्च पुनरागत्य तत्स्थलम् ।।२० ।।

 जगामोर्ध्वं च हृदये चक्रमनाहताभिधम् । तत्र वै प्रणवं श्रुत्वा चक्रे ब्रह्मणि संयमम् ।।२१।।

 यदात्मा चाप्यन्तरात्मा ब्रह्मात्मा ख्यायते स्वयम् । तत्र कृतेन सावित्री संयमेनैश्वरीकृतौ ।।२२।।

 वैराजेषु भौमनेषु वैष्णवेषु च धामसु । प्राकृतेषु तया सादाशैवेष्वावरणेषु च ।।२३।।

 तत्तद्धामसु सावित्री विलोक्य दिव्यभूमिकाः । तत्स्थलं पुनरागत्य ययावूर्ध्वं तु कण्ठगम् ।।२४।।

 विशुद्धं चक्रमेवेयं चक्रे वै संयमं बलात् । वासुदेवेऽनिरुद्धे च प्रद्युम्ने च सुकर्षणे ।।२५।।

 विलोक्य रचनास्तेषां धाम्नां धामविभूतिकाः । कण्ठं देशं पुनरायादूर्ध्वं च भ्रूकुटौ तु सा ।।२६।।

 गत्वाऽऽज्ञाचक्रमासाद्य चकार संयमं शनैः । दृष्टस्तत्र गुरुः साक्षात् पब्रह्मात्मकस्तया ।।२७।।

 लोकसंचालनार्थाय जातो यो विश्वसृड् विभुः । परब्रह्मस्वरूपाद् यः प्राविर्बभूव वेदकृत् ।।२८।।

 सर्वलोकगुरुर्ब्रह्मा प्रजानां यः पितामहः । तस्यांऽके तु स्थितां दिव्यां स्वां सावित्री विलोक्य वै ।।२९।।

 वेधःपत्नीं विनिश्चित्य जहर्षातीव सुन्दरी । क्षणं विचारयामास याऽहं गोलोकवासिनी ।।३०।।

 भवाम्यद्य कथं चात्र मां पश्याम्यंकसंस्थिताम् । अजसक्थिगतं यन्मे रूपं तत्कुत आगतम् ।। ३ १।।

 यदहं संप्रपश्यामि मां वधूरूपिणीं त्विह । पितामहीं च तत्सर्वं पृच्छाम्यत्रैव कारणम् ।।३२।।

 इति प्रष्टुं ययावग्रे तावत् तिरोबभूव सा । पितामह्या समाकृष्टा लीना बभूव सुन्दरी ।।३३।।

 तावत्समाधितश्चेयं सावित्री बहिराययौ । क्व गोलोकस्थिता कन्या क्वाऽजांऽकस्था पितामही ।।३४।।

 इत्याश्चर्यान्विता कन्या दृष्टार्थस्य विनिश्चयम् । ससंभ्रमा ययौ कर्तुं राधिका यत्र राजते ।।३५।।

 सावित्र्या स्वप्रदृष्टार्थो राधिकायै निवेदितः । श्रुत्वा राधा तु तां प्राह कन्ये त्वं मत्स्वरूपिणी ।।३६।।

 वर्तसे ब्रह्मशक्तिश्च ब्रह्मार्थे जातविग्रहा । जगत्प्रसूस्वरूपा या मायाशक्तिः परा मता ।।३७।।  

 साऽहं सा त्वं च सावित्री सूयमाना जगत्प्रसूः । ब्रह्मपत्नी ब्रह्मतन्वी ब्रह्मणोऽर्थे विनिर्मिता ।।३८।।

 पितामहेन संपृक्ता नित्यं जगत्पितामही । वर्तसेऽनादिकालत्वात् प्रत्यजं तु नवा नवा ।।३९।।

 भवसि त्वं महामाये कन्यका मत्स्वरूपतः । अथाराधय तं देवं प्राप्स्यसे तपसो बलात् ।।४०।।

 इत्याश्रुत्य तु सावित्री ब्रह्मप्राप्तिं व्यचिन्तयत् । तावत्तत्र द्वादशिकादिने प्रातः समशृणोत् ।।४१ ।।

 दुन्दुभिं देवदेवस्य घोषयन्तं कृपावचः । अधिमासव्रतं देव्यः कुर्वन्तु मानसप्रदम् ।।।४२।।

 हृदि दृष्टं बहिर्दृष्टं लोके लोकान्तरेऽपि वा । दिनैकव्रतमात्रेण दास्यते पुरुषोत्तमः ।।।४३।।

 अनन्तगुणकं पुण्यमद्याऽस्ति हरिवासरः । त्रिस्पृशाव्रततस्त्वद्य सहस्रगुणकं फलम् ।।४४।।

 यथेष्टं लभ्यते कृत्वा ह्येकभुक्तं च नक्तकम् । फलाहारं च वा दुग्धपानं दधिप्रभोजनम् ।।४५।।

 जलाहारं च वा घृताहारं तिलादनं च वा । यवाहारं च वा शाकाहारं कन्दादनं च वा ।।४६।।

 भर्जिताऽदनमथवा व्रतं पत्रादनं तु वा । पुष्पादनं निरदनं पवनादनमेव वा ।।४७।।

 धूम्रादनं च वा बाष्पादनं कृत्वा व्रतं शुभम् । द्वादश्यामधिमासेऽत्र लभन्तां शाश्वतं सुखम् ।।४८।।

 ब्रह्मपरं तथा ब्रह्म गोलोकं चामृतं पदम् । अव्याकृतं च वैकुण्ठं मायालोकं च वैष्णवम् ।।४९।।

 सदाशिवपदं वापि भूमसाम्राज्यमेव वा । श्रीपुरं चापि वैराज्यं हैरण्यगार्भिकं च वा ।।५०।।

 भौमाद्यावरणे धामान्यर्जयन्तु व्रतेन वै । सत्यं वा ब्रह्मणः स्थानं वह्नेर्वा सौर्यमेव वा ।।५ १।।

 चान्द्रमसं च वा स्थानं नाक्षत्रं ग्राहमेव वा । ऐन्द्रं च वारुणं स्थानं याम्यं कौबेरमेव वा ।।५२।।

 ऐशानं पावनं वापि नैर्ऋतं तारकं च वा । भुवो राज्यं च वा भौमं चातलेयादिकं नु वा ।।५३ ।।

 आवरणानि दिव्यानि देवराज्यानि वैभवान् । कौमारं ब्राह्मचर्यं वा यौगं वाऽऽत्मपदं शुभम् ।।।५४।।

 श्वेतद्वीपादिकं चाऽथ सामुद्रं चान्तरीक्षगम् । राज्यं सार्वभौमं वा साम्राज्यं वापि मानवम् ।।५५।।।

 मौनमार्षं च पैत्राद्यैश्वरं वा बहुसिद्धिकम् । स्त्रीराज्यं वापि कैलासं कामराज्यं च शाश्वतम् ।।५६।।

 पातिव्रत्यं परं राज्यं स्वामिसेवात्मकं च वा । पत्नीमत्त्वं पतिमत्त्वं पुत्रपुत्रीसुसम्पदः ।।।।५७।।।

 आरोग्यं च धन धान्यं रसायनं च कायिकम् । यद्यदिच्छेद् व्रती त्वद्य द्वादश्यां हरिवासरे ।।५८।।

 तत्सर्वं प्रददाम्यस्मै वदामि पुरुषोत्तमः । अद्य मे पूजनं कुर्यात् प्रातः स्नात्वा गृहान्तरे ।।।५९।।।

 स्थित्वा ध्यानं च मे कुर्यात् कुर्यादावाहनादिकम् । पञ्चामृतैश्च मे स्नानं शुद्धोदाप्लवनं तथा ।।६०।।

 निर्वर्तयेत्ततो वस्त्रभूषाचन्दनमर्पयेत् । यथाशक्ति प्रकुर्याच्च धूपदीपाभिवन्दनम् ।।६१।।

 नैवेद्ये फलमूलाद्यं मिष्टान्नान्यथवाऽर्पयेत् । जाम्बूलं जलपानं च दक्षिणां नमणं चरेत् ।।६२।।

 प्रदक्षिणं स्तुतिं चारार्त्रिकं पुष्पाञ्जलिं ददेत् । कुंकुमाऽक्षततुलसीफलैरर्घ्यं समर्पयेत् ।।६३।।

 पुनर्नत्वा पुनः स्मृत्वा प्रार्थयेत् स्वेष्टवस्तुकम् । व्रतं चापि प्रपूर्णं स्यात् तव केशवपूजनात् ।।६४।।

 क्षमापयेत्तथा स्तुत्या मूर्तिं तु कानकीं हरेः । क्रमाऽक्रमौ न विदितौ न ज्ञातं त्वदभीष्टकम् ।।६५।।

 यथाबुद्धि मया प्रेम्णा कृतं न्यूने क्षमां कुरु । अधिमासोऽसि देवेश! ह्यधिवर्षाकर! प्रभो! ।।६६।।

 अर्थिनामधिकं चेष्टं ददासि पुरुषोत्तम! । कृष्णनारायण विष्णो पार्वतीश प्रभेश्वर ।।६७।।

 लक्ष्मीश माणिकीनाथ सावित्रीश जगत्प्रभोः । विश्वसृड् राधिकाकान्त कमलाकान्त केशव ।। ६८।।

 द्वादश्यां मे व्रतेनाऽद्य मानसेष्टं प्रपूरय । इत्यभ्यर्थ्य हरिं नत्वा प्रातर्मध्ये निशीथके ।।६९।।

 भूत्वा तन्मय एवापि तत्समर्पितसत्क्रियः । रञ्जयेन्नृत्यगीतैश्च सवाद्येन विसर्जयेत् ।।७०।।

 इति कृत्वा व्रतं सम्यगर्चनं व्रतकृज्जनः । नरो नारी कुमारी वा कुमारो देवताऽथवा ।।७ १।।

 सुरेश्वरी च वा पितृकोटिका मुनियोषितः । पातालवासिनी यद्वा तादृशा नरवर्गिणः ।।।७२।।।

 ईश्वरा ईश्वराण्यश्च मुक्ता मुक्तान्य एव वा । यदिच्छन्ति त्वाप्नुवन्ति प्रतिजाने न संशयः ।।७३।।

 यथाशक्ति यथाकार्यं व्रतं च पूजनं मम । बाह्याभावे हृदि मेऽपि भावभिन्नं सुपूजनम् ।।७४।।

 कुर्यात्तस्यापि भावेन प्रेम्णा तुष्टो ददाम्यहम् । अद्याऽधिमासके त्वस्मि कृपावर्षी परेश्वर ।।७५।।

 न भूतो न भविष्यामि यथाऽद्य वृष्टिकृत्तथा । तस्मान्मे कृपया भक्ताः कृत्वा किञ्चिदथो व्रतम् ।।७६।।

 लभन्तां शाश्वतं पुण्यं सुखं लोकं च हृद्गतम् । इति श्रुत्वा तु सावित्री जहर्ष चाति सुन्दरी ।।७७।।

 नत्वा सा दुन्दुभिं प्राह शृणु दैवाकृते कृतिन् । मया समाधौ ब्रह्मा वै परमेष्ठी पितामहः ।।७८।।

 दृष्टस्तस्य च वामेंऽके सावित्री च निषेदुषी । मत्स्वरूपा मया दृष्टा तस्यां लिल्येऽप्यहं तदा ।।७९।।

 पुनश्चाहं समाधेरुत्थिताऽस्म्यत्र कुमारिका । विश्वस्रष्टा पतिः सोयं प्राप्तव्यो मानसे स्थितः ।।८० ।।

 अतोऽधिमासद्वादश्यामेकभुक्तं व्रतं मम । पूजनं देवदेवस्याऽऽचरिष्यामि यथाबलम् ।।८ १।।

 अनेन मे शरीरेण प्राप्तिस्तस्य तु दुर्लभा । नित्यगोलोकधाम्नश्च विभूतेर्मेऽस्ति वर्ष्म यत् ।।८२।।

 तस्यास्ति तत्त्वजं वैराजात्मजं वर्ष्म सञ्चितम् । तस्मान्मे ब्रह्मणो योगो यथा येन च वर्ष्मणा ।।८३।।

 जायेत तत्तथा ब्रूहि करोमि द्वादशीव्रतम् । इति श्रुत्वा दुन्दुभिश्च तामाह पुरुषोत्तमः ।।८४।।

 शृणु सावित्रि सुभगे ह्यद्य श्रीपुरुषोत्तमम् । वह्निपुत्रसुवर्णस्य मूर्तिरूपं विधापय ।।८५।।

 लक्ष्मीं तथा सुवर्णस्य मूर्तिरूपां विधापय । ब्रह्माणं च तथा तस्य सावित्रीं कानकं कुरु ।।८६ ।।

 पूजयित्वा यथाशक्ति दान कुरु सुपात्रके । इत्येवं वै व्रते त्वद्य पूजनं दानमित्यपि ।।८७ ।।

 कुरु तेन प्रसन्नः स श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः । सर्वं विधास्यते तेऽर्थं मा चिन्तां कुरु कन्यके ।।८८।।

 इति श्रुत्वा तु सावित्र्या व्रते वै द्वादशीप्रगे । योगबलेन सौवर्णं मेरोर्भागात् समर्जितम् ।।८९।।

 ऐश्वर्येण च तत्रैव लक्ष्मीं नारायणं च सा । ब्रह्माणं चापि सावित्रीं सौवर्णीं मूर्तिमेव ह ।।९० ।।

 कृत्वा त्वावाह्य संस्नाप्य भूषयित्वा प्रपूज्य च । भोजयित्वा पाययित्वा प्रार्थ्य नीराजनं व्यधात् ।।९ १ ।।

 क्षमापयित्वा संस्तूय निवेद्यार्थं च हृद्गतम् । विसर्जयति यावत्तान्देवाँस्तावद्धरिः स्वयम् ।।९२।।

 प्रादुर्बभूव सावित्र्यास्त्वग्रे लक्ष्मीयुतः प्रभुः । प्रसन्नवदनः सर्वशोभाढ्यो वरदानदः ।।९३।।

 प्राहाऽस्यै वद कल्याणि किं ते मनसि वर्तते । सावित्री प्राह देवेशं देहि योगं तु वेधसः ।। ९४।।

 कृष्णनारायणः प्राह जातं ते मनसि स्थितम् । नेत्रे प्रमील्य मद्ध्यानं कुरु सावित्रि वै क्षणम् ।।९५।।

 तावत्ते मानसं सर्वं भविष्यति करागतम् । नारायणेन यत्प्रोक्तं तथैवाऽऽचरदादरात् ।।९६।।

 तावन्नारायणः कृष्णो व्यलत हि तत्क्षणम् । अथ प्रातः प्रपूज्यैवं मध्याह्नेऽपि तथाऽकरोत् ।।९७।।

 सायं चापि तथा पूजामकरोज्जागरं तथा । दोलायां तां कृष्णनारायणं लक्ष्मीं तथा ह्यजम् ।।९८।।

 सावित्रीं च निधायैव कन्यकाऽऽन्दोलयन्मुहुः । तावत्प्राह पुनस्तत्राऽऽगत्य श्रीपुरुषोत्तमः ।।९९।।

 देवि! पुष्पाञ्जलिं दत्वा दत्वा चार्घ्यं फलं जलम् । विसर्जनं कुरु मेऽत्र गच्छाम्यक्षरधाम यत् ।। १०० ।।

 त्वं याह्यद्यैव वैराजं यस्माद् ब्रह्मा व्यजायत । वैराजे सूक्ष्मरूपेण प्रविश त्वं पुरा ततः ।। १०१ ।।

 वैराजमानसी पुत्री तन्नाभेर्भव कन्यके । जातमात्रा युवतीं त्वां वैराजोऽजाय दास्यति ।। १ ०२।।

 विधिना त्वैश्वरेणैव कर्मणा त्वां नियोक्ष्यते । कल्याणि गच्छ ते स्वस्ति सौभाग्यं शाश्वतं भवेत् ।। १०३।।

 इत्युक्त्वा श्रीहरिर्नारायणस्तत्र तिरोऽभवत् । सावित्रीश्रीहरेमूर्त्यै पुष्पाञ्जलिं प्रदाय च ।। १ ०४।।

 अर्घ्यं च श्रीफलं प्रार्प्याकरोद् देवविसर्जनम् । दानं ददौ सुवर्णस्य मूर्तीनां ब्रह्मवर्चसे ।। १०५।।

 पत्नीव्रताख्यगुरवे गोलोकधामवासिने । आशिषं च ततः प्राप्य भव सौभाग्यसुन्दरी ।। १०६ ।।

 ब्रह्मपत्नी जगतां च प्रसवित्री भवेति च । राधां कृष्णं ततो नत्वा द्रागेवाऽदृश्यतां ययौ ।। १ ०७।।

 वैराजे प्रविवेशाऽस्य नाभिनाले समुद्गता । प्रसवं प्राप्य कन्या सा सावित्री युवती तदा ।। १ ०८।।

 जातमात्राऽभवत्तां च विदित्वा ब्रह्मणः कृते । समुत्पन्नां ददौ चेशसमाजे विधिना विराट् ।। १०९ ।।

 ब्रह्मणे चतुरास्याय सापि पूर्णमनोरथा । जगन्माताऽभवत्प्राप्य ब्रह्माणं पतिमीश्वरम् ।। ११० ।।

 इति ते कथितं लक्ष्मि! द्वादशीव्रतकारणात् । सावित्र्या ब्रह्मपत्नीत्वं यथाजातं तदिष्टदम् ।। १११ ।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये राधिकाया मूर्तन्तरसावित्र्या समाधौ जीवेशब्रह्मसृष्टिविलोकने वेधसोंऽके स्व-स्थितिं दृष्ट्वा पत्नीरूपेण वेधःप्राप्तीच्छया चिन्तने दुन्दुभिश्रवणे द्वादशीव्रतेन वैराज-पुत्र्या तया ब्रह्मा पतिः प्राप्त इत्यादि-निरूपणनामा चतुरधिकत्रिशत-तमोऽध्यायः ।। १.३०४ ।।