पुरुषोत्तम मास उत्तरा चतुर्दशी (15-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास उत्तर पक्ष की चतुर्दशी का माहात्म्य दिया गया है जो संक्षेप में इस प्रकार है – चित्रधर्मा राजा ने यह विचार करके कि उसका पुत्र दृढधन्वा अब प्रजा की रक्षा करने में सक्षम हो गया है, अरण्य में जाकर तप करने का निश्चय किया। उसने अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया और स्वयं वन में जाकर पुलहाश्रम में जाकर तप किया और अन्त में देह का त्याग करके श्रीहरि के धाम को चला गया। उसके पुत्र ने उसकी और्ध्वदेहिक क्रियाएं की। उसने अपनी राजधानी पुष्करावर्त नगर को बनाया। उसकी भार्या का नाम गुणसुन्दरी था जो विदर्भ के राजा की कन्या थी। उसके चार पुत्र हुए जिनके नाम चित्रवाक्, चित्रवाट्, चित्रकुण्डल व मणिकुण्डल थे। वह राजकार्य में अपने पिता का सहयोग करते थे। एक बार रात्रि में सोते समय राजा दृढधन्वा को चिन्ता हुई कि मैंने तो कोई दान, तप, जप, होम कभी किया नहीं है। फिर भी यह वैभव, राज्य मुझे किसके भाग्य से मिला है। वह ब्राह्म मुहूर्त में उठकर अश्व पर सवार होकर अरण्य में मृगया के लिए गया। वह अरण्य में एक सरोवर के तट पर गया। वहां वट वृक्ष पर एक शुक पक्षी आया और मनुष्य की वाणी में उसने बार – बार एक श्लोक पढा – वैभव, राज्य, देह आदि सुख होने पर भी लक्ष्मीपति का चिन्तन क्यों नहीं करता। कैसे पार लगेगा। तोते का यह वाक्य सुनकर राजा को आनन्द हुआ। मृगया समाप्त करके वह तोते के वाक्य पर विचार करने लगा। जब वह घर लौटकर आया तो वहां वाल्मीकि भी आ गए। राजा ने उनका पूजन करके उनसे कीर/ तोते के वाक्य के विषय में पूछा कि उसने क्या कहा, क्यों कहा, वह शुक कौन था। वाल्मीकि ने यह सुनकर क्षण भर के लिए ध्यान किया और फिर राजा से कहा। राजन्, अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनो। तुम ताम्रपर्णी तट पर बसे द्रविड देश में सुदेव नाम द्विज थे। तुम्हारी पत्नी गौतम गोत्र में उत्पन्न हुई थी जिसका नाम गौतमी था। उनके कोई सन्तान न थी। एक दिन उसने पति से कहा कि श्रेष्ठ पुत्र के बिना तो जीवन निष्फल है। अतः सत्पुत्र प्राप्ति के लिए हमें तप द्वारा पुरुषोत्तम की आराधना करनी चाहिए। धर्मपत्नी की बात सुनकर वह द्विज ताम्रपर्णी के तट पर पांचवें – पांचवे दिन शुष्क पर्ण व जलाहार करके तप करने लगे। उनके तप से लोक कांपने लगे। तब माधव गरुड पर विराजमान होकर प्रकट हुए और कहा कि सुदेव, तुम्हारा कल्याण हो। गौतमी, तुम श्री युक्त होओ। बहुत तप मत करो। उन दोनों ने सुनकर कृष्ण को नमस्कार किया। सुदेव ने कहा कि भगवन् पुत्र दो। हरि ने कहा कि मैंने तेरे ललाट पर सारे वर्ण देख लिए हैं। वहां सात जन्मों तक तुझे पुत्रसुख नहीं है। गौतमी ने कहा कि यदि भाग्य के आगे रमानाथ निरर्थक हैं, यदि देव का ही आश्रय लेना है तो फिर हरि का क्या प्रयोजन है। गरुड ने हरि को सुनकर कृष्ण को कहा कि आप भक्तों के दुःख सहने में असहिष्णु हैं। आप हरि के अर्थ को सार्थक कीजिए। आप के आराधन का माहात्म्य कभी भी निष्फल नहीं जाता। गरुड का आग्रह देखकर श्रीहरि ने तथास्तु कह दिया। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके जन्म का दुःख दम्पत्ति को अवश्य होगा। इतना कहकर वह गरुड पर आरूढ होकर गोलोक वापस आ गए। कालांतर में सुदेव की पत्नी को शुभ पुत्र की प्राप्ति हुई। काल बीतने पर उसका उपनयन हुआ, उसका पाठन हुआ। अचानक देवल ऋषि वहां आए और उसके हस्त पर छत्र, पद्म, यव, चामर चिह्न देखा लेकिन आयु रेखा टूटी हुई थी। उन्होंने शिर धुनकर कहा कि हे सुदेव, तेरा यह पुत्र 12वें वर्ष में मृत्यु को प्राप्त होगा। ऐसा सुनकर दोनों सोच में पड गए। जब अनिष्ट काल निकट आया तो वह पुत्र वापी पर गया। वहां वह अगाध जल में गिर कर मर गया। उसके साथियों से पुत्र की मृत्यु का समाचार मिलने पर पिता –माता वहां गए और शव को लाकर बहुत विलाप किया। उन्होंने अन्न – जल का त्याग कर दिया। वह मास श्रीकृष्ण वल्लभ का पुरुषोत्तम मास था। इस प्रकार उन्होंने अज्ञान में ही पुरुषोत्तम की सेवा कर ली। इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए। द्विज ने पत्नी सहित उन्हें नमस्कार किया। हरि ने कहा कि हे सुदेव, तुम भाग्यवान् हो। मैंने तुम्हारे पुत्र की आयु 12 हजार वर्ष कर दी है। पुरुषोत्तम के माहात्म्य से मैं प्रसन्न हूं। तुम्हारा यह पुत्र चिरकाल तक जिए और तेरे लिए सुखदाई हो। पुत्र के साथ गार्हस्थ्य का भोग करके फिर तू ब्रह्म लोक जाकर महत् सुख प्राप्त करेगा। फिर वहां दिव्य हजार वर्ष रहकर फिर भूतल पर आएगा और यहां चक्रवर्ती राजा दृढधन्वा बनेगा। तू अयुत संवत्सर तक पृथिवी का राज्य भोगेगा। तेरी यह पत्नी गौतमी गुणसुन्दरी नाम से तेरी पत्नी बनेगी। वहां तेरे चार पुत्र व एक कन्या होंगी। जब तू मुझ कृष्णनारायण प्रभु को भूल जाएगा तो यह तेरा पुत्र शुक वन में तुझे बोध कराएगा कि कृष्ण का चिन्तन करो। वाल्मीकि तुझे सारी यथार्थ कथा सुनाएंगे। तब तू वैराग्य प्राप्त करके हरि की परा भक्ति करके सपत्नीक मोक्ष को, परम हरि पद को प्राप्त करेगा। महाविष्णु के ऐसा कहने पर द्विज का पुत्र उठ खडा हुआ। दम्पती उस सुत को देखकर महानन्द में डूब गए। शुकदेव ने भी श्रीहरि व माता – पिता को नमस्कार किया। गरुड और ब्राह्मण ने भी हरि को भार्या सहित नमस्कार किया। कृष्ण ने कहा कि अधिमास का पालन बिना प्रयास हो जाने पर भी सुत दारा पति पत्नी, क्षेत्र, राज्यसुख सब प्राप्त होते हैं, पुत्र के संजीवन की तो बात ही क्या है। जो पुरुषोत्तम का एक उपवास भी कर लेता है, वह अनन्त अनिष्टों को दग्ध करके पुण्यनिधियों को प्राप्त करके देवयान पर आरूढ होकर देह सहित वैकुण्ठ को जाता है। वेधा ब्रह्मा ने तराजू पर एक ओर सारे पुण्य रखे और दूसरी ओर पुरुषोत्तम को रखा तो सारी सृष्टियों में पुरुषोत्तम मास ही महान् पाया। इतना कहकर श्रीहरि गरुड पर आरूढ होकर अपने धाम को चले गए। सुदेव ने सपत्नीक पुरुषोत्तम मास की पूजा की। वह सारे विषयों का हजार वर्ष तक भोग करके फिर सपत्नीक ब्रह्म लोक को गया। वहां सुख प्राप्त करके सपत्नीक भूमि पर गया। वही तू दृढधन्वा है जो राजा के नाम से प्रख्यात है। तेरी यह रानी गुणसुन्दरी गौतमी है। जिस शुकदेव को श्रीहरि द्वारा जीवन दिया गया था, वह 12 सहस्र आयु का भोग करके वैकुण्ठ लोक को गया। उसने ही शुक का रूप धारण करके तुम्हारी हरि की स्मृति का बोध कराया है। पुत्र पुत् नामक नरक से तारने वाला है, यह सार्थक हो गया है। इस प्रकार हे राजन्, मैंने तेरा पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाया है। तब शतधन्वा ने मुनि से पूजाविधि पूछी। वाल्मीकि ने उसे विस्तार से सब विधि बताई। ब्राह्म मुहूर्त में उठकर परब्रह्म का चिन्तन करे। तब शौचार्थ जल लेकर नैर्ऋत दिशा में जाए। ब्रह्मसूत्र को कर्ण पर रखकर शौच मूत्र का विसर्जन करे। मिट्टी व जल से इन्द्रिय-द्वय का क्षालन करके गन्धलेपक्षय की शुद्धि करके बहुत से कुल्ले करके दन्तशुद्धि करके तीर्थ आदि जलों में स्नान करे। प्रतिदिन स्नान से आयु, बल, यश, वर्चस, प्रजा, पशु, वसु, ब्रह्म, प्रज्ञा, मेधा में वर्धन होता है। शुद्ध वस्त्र पहन कर शिखा को बांधकर पूर्वमुख होकर पवित्र को हाथ में लेकर आचमन करे। चन्दन मिट्टी से ऊर्ध्वपुण्ड्र सबिन्दु लगाकर शंखचक्रादि करे, तुलसीमाला धारण करे। प्राणायाम तथा सन्ध्या, गायत्रीजप करे। शुद्ध देश में गोबर व चावल आदि से मण्डल करके उसके मध्य में जलसहित कलश की स्थापना करे। कलश के मुख पर विष्णु, कण्ठ में रुद्र सदा स्थित होते हैं। उसके मूल में ब्रह्मा स्थित होते हैं, मध्य में मातृकागण, कुक्षि में भू, द्वीप सहित सात सागर। ऋग्, यजु, साम, अथर्व अंगों सहित स्थित होते हैं। गंगा, गोदावरी, सौर्या, कावेरी, सरस्वती पापनाशक नदियां यहां जल में स्थित होवें। चन्दन अक्षत पुष्प अर्पण करता हूं। ओं नमः। नैवेद्य फल ताम्बूल समर्पण करता हूं । ओं नमः। इस प्रकार अभ्यर्चना करके तब शंख की पूजा अक्षत आदि से करे। रम्य घण्टे की पूजा अक्षत, कुंकुम आदि से करे। घट के ऊपर तिलयुक्त शर्करा वाला पात्र स्थापित करे। शुभ पीताम्बर भी स्थापित करे। राधायुक्त श्रीहरि की स्वर्ण निर्मित मूर्ति भी स्थापित करे। उनकी पुरुषोत्तम मास के देवता के रूप में पूजा करे। अनल उत्तारण करे। प्राणधारणा करे। उन दो कपालों का दक्षिण कर से स्पर्श करके, हृदय में अंगुष्ठ देकर वहां प्राणों को धारण करे। इसके प्राणों की प्रतिष्ठा हो। इसके प्राणों का क्षरण हो। इसके देवत्व युक्त हो जाने पर नारायण के लिए स्वाहा। तब हृदय स्थित नाथ का आवाहन करे। मैं राधाश्री सहित पुरुषोत्तम का आवाहन करता हूं। मैं शार्ङ्ग कृष्ण को आसन अर्पण करता हूं। मैं पादप्रक्षालन के लिए जल अर्पण करता हूं। मैं परमात्मा को फलसहित अर्घ्य अर्पण करता हूं। हे राधिकापति, मैं तुझे तीर्थजल आचमन अर्पित करता हूं। मैं पयः, दधि, घृत, मधु, शर्करा अर्पण करता हूं। मैं तेरा पञ्चस्नान, जल स्नान कराता हूं। हे केशव, मैं पीतधौत्र व उत्तरीय वस्त्र समर्पण करता हूं। हे प्रभु मैं कौस्तुभ, ब्रह्मसूत्र, भूषा देता हूं। मैं तुझे सुगन्धतैलसारादि चन्दन अर्पित करता हूं। कुंकुम अक्षत पुष्प अर्पित करता हूं। गृहण करो। दिव्यरसों से युक्त धूप अर्पित करता हूं। घृत से जला दीप तुझे अर्पित करता हूं। हे केशव पायस आदि तथा नैवेद्य अर्पित करता हूं। आचमन, जलपान, फल, ताम्बूल अर्पित करता हूं। कर प्रक्षालन अर्पित करता हूं। सुवर्णदक्षिणा, हार, अक्षत देता हूं। मैं देवेश का नीराजन व प्रदक्षिणा करता हूं। पुष्पांजलि अर्पित करता हूं व नमस्कार करता हूं। तेरी पूजा में जो कुछ न्यूनता रह गई हो, हे पुरुषोत्तम उसे क्षमा करें। पुरुषोत्तम की तुष्टि के लिए तथा सर्वार्थ फल सिद्धि के लिए अखण्ड होम करे व घृतदीप जलाए। इस प्रकार नित्य पूजा करे और शक्ति अनुसार दान दे। भोजन कराने के पात्रों को भोजन कराए, वृद्धों के पाद में नमस्कार करे। व्रत करने वाला देवप्रसाद रूपी हविष्य भोजन करे । गेहूं, शालि, मूंग, यव, तिल, शर्करा, कङ्गू, खर्जूर, नीवार, द्राक्षा, कन्द, कर्कटी, मूल, शाक, पत्र, खाद्य पुष्प, मूली, कन्द, कदली, दधि, दुग्ध, आर्द्रक, शुण्ठी, आम्रफल ,तक्र, पनस, हरीतकी, पिप्पली, जीरक, आमला, तिन्तिडी, क्रमुक, ऐक्षव सब सात्विक भोजन में हैं। राई, आमिषभोजन, वातुल, दाल आदि राजस भोजन हैं जिनका वर्जन करे। ब्रह्मचर्य, अधः शय्या, पत्रावली पर भोजन, एकभुक्त करे। निन्दामात्र का वर्जन करे। उपोषित दुग्ध, दधि, जल, घृत, पत्र, फल आदि द्वारा पुरुषोत्तम - -- । व्रत भंग न हो, इस प्रकार प्रभोजन करे। लक्ष तुलसीदल से अर्चन करने पर अनन्त पुण्य होता है। पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम का व्रत करने पर वैकुण्ठ में चतुर्भुज बनता है। पुरुषोत्तम मास में अखण्ड दीप देना चाहिए। सौभाग्य नगर में एक राजा चित्रबाहु था। उसी भार्या का नाम चन्द्रकला था। वह दोनों धार्मिक थे। अगस्त्य मुनि उनके भवन में आए। चित्रबाहु ने विनय पूर्वक उनकी पूजा करके कहा कि आज आपके आगमन से मेरा गृह, साम्राज्य, जन्म सफल हो गए हैं। मैं आप वैष्णव महात्मा को अपना सब कुछ देता हूं। विष्णुभक्त तुम्हें जरा सा अर्पित करने का मेरुतुल्य फल होता है। न अर्पित करने पर दिवस अफल होता है। वैष्णवों की वाक्, मन, काया, कर्म द्वारा सेवा की जानी चाहिए। उसकी प्रजा धन्य है जिस गृह में वैष्णव जन है। जो देश वैष्णव हो, जिसका राजा वैष्णव हो, वहां वास करना चाहिए। अवैष्णव राष्ट्र को अमंगल तथा काणा समझना चाहिए। कृष्णाश्रित भक्त से राजा के राज्य में वृद्धि होती है। हे मुनि, मेरी लक्ष्मी विपुल है, मेरा राज्य अकंटक है, मेरी पत्नी पतिव्रता है। बताओ तो कि यह मेरे किस पुण्य के कारण है। अगस्त्य ने कहा कि तुम पहले चमत्कार पुर में शूद्रजातीय मणिग्रीव नास्तिक थे। सुरा, मांस, चोरी आदि दुर्गुणों का भंडार थे। तुम्हारी यह भार्या पतिव्रता थी। राजा ने तुम्हें नगर से निकाल दिया तो तुम अरण्य में पत्नीसहित रहने लगे। वहां तुम मृगया से जीवन यापन करते थे। तुमने वन में उग्रदेव नाम द्विज को तृषित व मूर्छित देखा। उसे उठाकर जल, फल दिया। मुनि ने सन्तुष्ट होकर कहा कि हे मणिग्रीव, सुखी होओ। तुमने मुझे जीवन दिया है। बोलो मैं तुम्हें क्या दूं। मणिग्रीव ने कहा कि मेरा दारिद्र्य नष्ट हो जाए। मुनि ने कहा कि आने वाले अधिमास पुरुषोत्तम मास में श्रीपुरुषोत्तम की तुष्टि के लिए मन्दिर में दीपक देना। तुम्हारा दारिद्र्य समूल नष्ट नहीं होगा। एक मास तिलतैल से, या आज्य से, या इंगुदी तैल से देव को स्नान करना व दीपक देना। उससे तेरा पृथिवी पर महाराज्य स्थापित होगा। यज्ञ आदि सारे कर्म, कृच्छ्र चान्द्रायण आदि, वेदपाठ, गयाश्राद्ध, कुरुक्षेत्र, ग्रह, तीर्थ, सब दान, धर्मकार्य पुरुषोत्तम दीप की षोडशी कला के बराबर भी नहीं हैं। अधिमास व्रत श्रेष्ठ है। दीप अन्तः प्रकाशक है। धन, धान्य, पशु, पुत्र, पौत्र, दारा का यश करने वाला है। वन्ध्यात्व का नाशक है, नारी के लिए अवैधव्यकर है। राज्य, इष्ट, भर्ता, पत्नी प्रदान करने वाला है। दीपार्पण व्रत विद्या, सिद्धि, कोश,  मोक्ष प्रदान करने वाला है। तुमने वन में दीप श्रीहरि को अर्पित किए थे। इसी के पुण्य से तुम्हें सद्राज्य, लक्ष्मी, पतिव्रता पत्नी मिली हैं। हे राजेन्द्र, पुनः करने से फिर मिलेगी। ऐसा कहकर अगस्त्य ऋषि प्रयाग को चले गए। राजा ने ऐसा ही किया और मोक्ष प्राप्त किया। ऐसा कहकर आदर प्राप्त करके वाल्मीकि चले गए। फिर पुरुषोत्तम मास आनेपर दृढधन्वा ने चतुर्दशी को कृष्ण की दुन्दुभि सुनी कि आज व्रत, दीप, जागरण करने से स्वर्ग, मोक्ष प्राप्त होता है। राजा ने ऐसा ही किया। रात्रि में श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम आए और उसे कुटुम्ब सहित ब्रह्मलोक को ले गए।

विवेचन

1.चतुर्दशी व्रत से सम्बन्धित इस माहात्म्य में राजा दृढधन्वा का प्रसंग अनर्गल सा प्रतीत होता है। दृढधन्वा का दूसरा नाम शतधन्वा भी इस माहात्म्य में प्रकट हुआ है। वायु पुराण में कहा गया है कि जो शत है, वह परिदृढ है। इसका अर्थ है कि दृढधन्वा ने अपने परितः एक दृढ आवरण, कवच बना लिया है कि मैं अपने पुरुषार्थ के बल पर जीउंगा। किसी की कृपा पर नहीं जीउंगा, दैव क्या चाहता है, इसकी चिन्ता नहीं करूंगा। शत का अर्थ है कि अब उसका संकल्प पूर्ण है, उस संकल्प को हिलाने की कोई स्थिति नहीं है। ऐसा संकल्प बहुत से व्यक्ति अपने जीवन में ले लेते हैं। विशेष रूप से जिनका जीवन सुखमय बीतता है, वह धर्म – कर्म की चिन्ता नहीं करते। वह कहते हैं कि सब कुछ हमारे पुरुषार्थ के कारण है। लेकिन कथा कह रही है कि फिर भी एक दिन दृढधन्वा को सोचना पडा कि हो सकता है कि इसके पीछे कोई कारण हो ही। पता लगाना चाहिए। और वह मृगया के लिए, शिकार के लिए जंगल में निकल पडा। मृगया का अर्थ होता है मृगयण, खोज। इसी खोज में उसको शुक की वाणी सुनाई पडी जो कह रही थी कि सभी सुख होने पर भी लक्ष्मीपति का चिन्तन क्यों नहीं करता, कैसे पार लगेगा। यह शुक अपनी ही अन्तरात्मा की आवाज है। बस, उसकी अन्तर्यात्रा आरम्भ हो जाती है। तभी वाल्मीकि मुनि भी प्रकट हो जाते हैं। वाल्मीकि का अर्थ है जिसने अपने परितः वर्म, कवच बना लिया हो, अपनी चेतना के परितः, अपनी देह के परितः देवों की स्थापना कर ली हो। अब देव रक्षा करेंगे, पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं है। अब दृढधन्वा अपना पुरुषार्थ त्यागने को तैयार है। उसे लगने लगा है कि तेरे संकल्प द्वारा बनाए गए कवच की अपेक्षा राम-नाम द्वारा बनाया गया कवच कहीं अधिक श्रेष्ठ है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि अब श्रद्धा प्राप्त करके उसका पुरुषार्थ से निर्मित कवच स्वयं ही वाल्मीकि में बदलने लगता है। वाल्मीकि उसे बताते हैं कि वह पहले जन्म में द्विज सुदेव था। सुदेव का अर्थ होगा जो अपने सारे कार्य दैव के अनुसार करना चाहता है, उसमें पुरुषार्थ का समावेश नहीं करना चाहता। जब दैव सु बनेगा, तभी कोई कार्य होगा। जब तक हमारे पिछले पाप समाप्त नहीं होंगे, दैव सु नहीं बन सकता। सुदेव बनकर उसे शुक की, अन्तरात्मा की आवाज की प्राप्ति हुई है जो कभी तेज नहीं बोलती, चुप रहती है। शुक का अर्थ होगा शकुन। जिन पुण्यों का अर्जन दृढधन्वा ने श्रद्धा के आश्रित होकर किया था, अब अश्रद्धा के आश्रित हो जाने पर भी वह पुण्य जाग्रत हो रहे हैं। ऐसे भी बहुत से व्यक्ति मिल जाएंगे जो सारा जीवन अश्रद्धा में ही बिता देते हैं।

2. चतुर्दशी तिथि में उन व्यक्तियों के श्राद्ध का विधान है जिनकी मृत्यु शस्त्रों से आहत होकर हुई हो। इसका अर्थ है कि चतुर्दशी तिथि पुरुषार्थ वालों के लिए ही है। चतुर्दशी तिथि को शिव की पूजा की जाती है। इसका अर्थ होगा कि हमारे जो प्राण अभी सौम्य नहीं बने हैं, जो रौद्र हैं, उनको सौम्य बनाना है। हमारी भूख, प्यास, काम, क्रोध आदि सब रुद्र के रूप हैं। इन्हें चतुर्दशी को शान्त करना है। चतुर्दशी का दूसरा अर्थ हो सकता है कि सात ग्राम्य पशु हैं, सात आरण्यक। इन 14 पशुओं को बांधने वाले जो पाश हैं, उनको खोलना है।

3.चतुर्दशी तिथि के माहात्म्य में दीप जलाने का आग्रह किया गया है, वैसे ही जैसे दीपावली से पूर्व यम चतुर्दशी पर दीप जलाए जाते हैं। पुरुषोत्तम मास की अन्य तिथियों के माहात्म्यों में पुरुषोत्तम की कृपा प्राप्त करने का उल्लेख है।

3.दृढधन्वा की यही कथा पुरुषोत्तम मास के अन्य उपलब्ध माहात्म्य में भी है, लेकिन वहां इसका सम्बन्ध चतुर्दशी तिथि से नहीं जोडा गया है।

श्रीनारायण उवाच-

 शृणु लक्ष्मि! चतुर्दश्या व्रतेन नृपसत्तमः । चित्रधर्मस्य सत्पुत्रो दृढधन्वेति विश्रुतः ।। १ ।।

 प्रापद् राज्यं पुत्रपौत्रान् ललनां च पतिव्रताम् । अन्ते च भगवल्लोकमवाप योगिदुर्लभम् ।। २ ।।

 सर्वसद्गुणसम्पन्नो दृष्टवान् वेदपारगः । प्रजारक्षाकरः पुत्रो बभूवेति च तत्पिता ।। ३ ।।

 विचार्य चित्रधर्मा तं स्वराज्ये त्वभ्यषेचयत् । अथ चाराधयामीशं कृष्णनारायणं प्रभुम् ।। ४ ।।

 तदर्थं वनभूमिर्वै योग्या भवति सर्वथा । ध्रुवाम्बरीषशर्यातिययातिशशबिन्दवः ।। ५ ।।

 भगीरथ शिबि रन्तिदेव रुक्मागदादयः । दिवोदासाऽयखट्वांगदराजर्षिसत्तमाः ।। ६ ।।

 एते चान्ये च कल्पेषु कल्पान्तरेषु भूभृतः । वनं ययुर्महासत्त्वास्त्यक्त्वा भोगाननेकशः ।। ७ ।।

 अध्रुवेण ध्रुवं प्राप्ता आराध्य पुरुषोत्तमम् । अतो मयाऽपि कर्तव्यमरण्ये हरिसेवनम् ।। ८ ।।

 छित्वा पाशं वासनाख्यं दारापुत्रगृहादिषु । इति निश्चित्य मनसा चित्रधर्मा ययौ वनम् ।। ९ ।।

 पुलहाश्रममासाद्य तपस्तेपे हरिं स्मरन् । शुद्धो भूत्वा दिव्यतनुर्हरेर्धाम जगाम सः ।। १० ।।

 दृढधन्वा पितुश्चौर्ध्वदैहिकं चाकरोत्ततः । पुष्करावर्तनगरे राजधानीं विधाय सः ।। ११ ।।

 भार्यया गुणसुन्दर्या वैदर्भ्या सह भूपतिः । शशास सकलां पृथ्वीं चतुर्भिस्तनयैः सह ।। १ २।।

 चित्रवाक्चित्रवाट्चित्रकुण्डलमणिकुण्डलैः । एकदा निशि सुप्तस्य चिन्ताऽऽसीद् दृढधन्वनः ।। १३ ।।

 दानं तपो जपं होमं नाऽहं वै कृतवान् क्वचित् । तथापि वैभवा राज्यं केन भाग्येन मे ननु ।। १४।।

 ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय स राजा मृगयामनाः । जगामाऽश्वं समारुह्याऽरण्ये वै सरसस्तटम् ।। १५।।

 समागमद्वटे तत्र कश्चिन्मानुषवाक् शुकः । स तु पपाठ सुश्लोकमेकमेव पुनः पुनः ।। १६ ।।

 सत्यपि वैभवे राज्ये देहादौ सुखदे तथा । न चिन्तयसि लक्ष्मी कथं पारं समेष्यसि' ।। १७।।

 श्रुत्वा राजा कीरवाक्यं मुमुदे भवतारकम् । कृत्वा तु मृगयां राजा कीरवाक्यं विचारयन् ।। १८ ।।

 आजगाम गृहं तावत् तत्र वाल्मीकिराययौ । राजा प्रपूज्य वाल्मीकिं पप्रच्छ कीरभाषितम् ।। १९ ।।

 किमुवाच कथं प्राह कोऽसावासीच्छुको मुने! । श्रुत्वा क्षणं च तद्ध्यात्वा वाल्मीकिराह भूपतिम् ।। २० ।।

 शृणु राजँस्तव पूर्वजन्मनश्चरितं यथा । ताम्रपर्णीतटे देशे द्रविडे त्वं द्विजोऽभवः ।। २१ ।।

 सुदेवाख्यश्च ते पत्नीं गौतमी गौतमोद्भवा । अप्रजा सा पतिं प्राहाऽपत्यं विना सुदुःखिता ।। २२ ।।

 सन्ततिः शुद्धवंश्या स्यादत्र परत्र शर्मणे । तमप्राप्य वरं पुत्रं जीवितं त्वत्र निष्फलम् ।। २३ ।।

 तस्मात्सत्पुत्रलाभार्थमावाभ्यां परमेश्वरः । आराधनीयः सततं तपसा पुरुषोत्तमः ।। २४।।

 धर्मपत्न्या वचो मत्वा ताम्रपर्णीतटे शुभे । शुष्कपर्णजलाहारौ पंचमे पंचमे दिने ।। २५ ।।

 चत्वार्यब्दसहस्राणि चेरतुः परमं तपः । लोकाश्चकम्पिरे तेन प्रादुर्बभूव माधवः ।।२६ ।।

 गरुडस्थो हरिः प्राह सुदेव! भद्रमस्तु ते । गौतमि! श्रीरस्तु तेऽपि कुरुतं मा तपो बहु ।।२७।।

 श्रुत्वा तौ नेमतुः कृष्णमूचतुर्जय माधव! । सुदेवः प्राह भगवन्! पुत्रं देहि हरे प्रभो! ।।२८।।

 हरिः प्राह ललाटे ते वर्णाः सर्वे मयेक्षिताः । तत्र नैवाऽस्ति ते पुत्रसुखं सप्तसु जन्मसु ।।२९।।

 गौतम्युवाच भाग्याग्रे रमानाथो निरर्थकः । दैवमालंबनीयं चेत्! हरिणा किं प्रयोजनम् ।।३ ०।।

 श्रुत्वा हरिं गरुडस्तु प्राह कृष्णं जनार्दनम् । भक्तदुःखाऽसहिष्णो! त्वं हर्यर्थं सार्थकं कुरु ।।३ १ ।।

 त्वदाराधनमाहात्म्यं निष्फलं नैव नैव हि । कर्तुमकर्तुं सामर्थ्यं मा कुरु त्वं निरर्थकम् ।।।३ २।।।

 गरुडस्याऽऽग्रहं दृष्ट्वा तथास्त्वित्यवदद्धरिः । परं तज्जनितं दुःखं दम्पत्योर्भविता ध्रुवम् ।।३ ३ ।।

 इत्युक्त्वा गरुडे स्थित्वा गोलोकं हरिराययौ । गते काले सुदेवस्य पत्न्यां पुत्रोऽभवच्छुभः ।।३४।।

 व्यवर्धत गते काले चोपनीतोऽथ पाठितः । देवलर्षिः क्वचित्तत्र समायात् पापनाशनः ।।३५।।।

 करं दृष्ट्वा छत्रपद्मयवचामरचिह्नितम् । स्फुटदायुष्यरेखं च प्राहाऽऽधुन्वन् शिरस्तदा ।।।३६।।

 सुदेव! तनयोऽयं ते द्वादशे हायने जले । मृत्युमेष्यति तस्मात्ते माऽस्तु शोकोऽनुभाविनि ।। ३७।।

 श्रुत्वा शुशूचतुस्तौ च देवलो निर्ययौ ततः । अथ प्राप्तेऽनिष्टकालेऽगच्छद्वापी हि तत्सुतः ।। ३८।।

 पतितोऽगाधतोयेऽसौ ममज्ज च ममार च । ज्ञात्वा पुत्रस्य निधनं वयस्येभ्यः पिता प्रसूः ।।३९।।

 ययतुस्तत्र संगृह्य शवं रुरुदतुर्बहु । विलापं चक्रतुश्चाति तत्यजतुर्जलान्नकम् ।।४०।।

 श्रीकृष्णवल्लभो मासः सोऽभवत्पुरुषोत्तमः । अजानतोस्तयोरासीत्पुरुषोत्तमसेवनम् ।।४१।।

 तेनाऽत्यन्तप्रसन्नः सन्प्रादुरासीद्धरिः स्वयम् । सपत्नीको नमश्चक्रे दण्डवच्छ्रीहरिं द्विजः ।।४२।।

 हरिः प्राह सुदेव! त्वं भाग्यवानसि साम्प्रतम् । द्वादशाब्दसहस्रायुः पुत्रस्तेऽयं कृतो मया ।।४३।।

 पुरुषोत्तममाहात्म्यात् प्रसन्नेन मया द्विज! । सुचिरं जीवितोऽयं हि तनयः सुखदोऽस्तु ते ।।४४।।

 गार्हस्थ्यमतुलं भुक्त्वा सह पुत्रेण सर्वदा । ततस्त्वं ब्रह्मणो लोकं गत्वा तत्र महत् सुखम् ।।४५ ।।

 दिव्याब्दवर्षसाहस्रं भुक्त्वा गन्तासि भूतले । ततो राजा चक्रवर्ती दृढधन्वा भविष्यसि ।।।४६ ।।

 सम्वत्सराणामयुतं राज्यं भोक्ष्यसि पार्थिवम् । गौतमीयं तव पत्नी नाम्ना तु गुणसुन्दरी । । ४७ । ।

 पुत्राश्चत्वार एका च कन्या ते तत्र भाविनः । यदा विरमसे मां त्वं कृष्णनारायणं प्रभुम् ।।४८ ।।

 अयं ते तनयो विप्र! शुको भूत्वा तदा वने । बोधयिष्यति भक्तेस्तु वाक्यं कृष्णविचिन्तकम् ।। ४९ ।।

 वाल्मीकिस्त्वां कथां सर्वां यथार्थां कथयिष्यति । ततो वैराग्यमापन्नः कृत्वा भक्तिं परां हरेः ।।५ ० ।।

 गमिष्यसि सपत्नीको मोक्षं परं हरेः पदम् । वदत्येवं महाविष्णौ समुत्तस्थौ द्विजात्मजः ।। ५१ ।।

 दम्पती तं सुतं दृष्ट्वा महानन्दौ बभूवतुः । ननाम शुकदेवोऽपि श्रीहरिं पितरौ तु तौ ।। ५२ ।।

 गरुडो ब्राह्मणश्चापि नेमुर्हरिं सभार्यकः । कृष्णः प्राहाऽधिमासस्याऽनायासेनापि पालनात् । ।५ ३ ।।

 सुतदारापतिपत्नीक्षेत्रराज्यसुखानि वै । भवन्त्येव न सन्देहः किमु पुत्रसजीवनम् ।।५४।।

 एकमप्युपवासं यः करोति पुरुषोत्तमे । दग्ध्वाऽनन्तान्यनिष्टानि लब्ध्वा पुण्यनिधीन् स तु । ।५५ ।।

 सुरयानं समारुह्य वैकुण्ठं याति देहवान् । एकतः सर्वपुण्यानि त्वेकतः पुरुषोत्तमम् ।।५६।।

 तोलयामास वेधोऽभूद् गुरुर्वै पुरुषोत्तमः । ईशसृष्टौ जीवसृष्टौ ब्रह्मसृष्टावपि स्वयम् ।। ५७ । ।

 पुरुषोत्तममासस्तु सर्वत्र वर्तते महान् । तस्य वै पालनेनाऽत्र विजयस्ते भविष्यति । ।५८ । ।

 इत्युक्त्वा श्रीहरिर्धाम ययौ गरुडवाहनः । सुदेवः सः सपत्नीकस्तं मासं समपूजयत् ।।५९ । ।

 भुक्त्वाऽथ विषयान् सर्वान् सहस्राब्दान्यहर्निशम् । जगाम ब्रह्मणो लोकं सपत्नीको द्विजोत्तमः । । ६० । ।

 तत्रत्यं सुखमासाद्य सपत्नीको भुवं गतः । स एव दृढधन्वा त्वं प्रथितः पृथिवीपतिः ।। ६१ ।।

 महिषीयं तव पत्नी गौतमी गुणसुन्दरी । शुकदेवश्च ते पुत्रो हरिणा योऽनुजीवितः । । ६२ ।।

 द्वादशाब्दसहस्रायुर्भुक्त्वा वैकुण्ठमेयिवान् । स एव वै शुको भूत्वाऽबोधयत् त्वां स्मृतिं हरेः ।।६ ३ ।।

 पुन्नामनरकात् त्राता पुत्रस्ते सार्थकोऽभवत् । इत्येतत् कथितं राजन् प्राग्वृत्तं ते यथा ह्यभूत् ।।६४।।

 शतधन्वा तदाऽपृच्छत् पूजाविधिं मुनिं तदा । वाल्मीकिस्त्वाह तं सर्वं विधिं विस्तरतो नृपम् ।।६५ ।।

 ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय परंब्रह्म विचिन्तयेत् । ततो व्रजेन्नैर्ऋताशां शौचार्थं जलभाजनः ।।६६ ।।

 कर्णे कृत्वा ब्रह्मसूत्रं शौचं मूत्रं विसर्जयेत् । जलेनेन्द्रिययुगलं प्रक्षाल्य मृज्जलादिभिः ।।६७।।

 गन्धलेपक्षयशुद्धिं कृत्वा गण्डूषकान् बहून् । दन्तशुद्धिं तथा कृत्वा स्नायात्तीर्थादिवारिषु ।।६८ ।।

 आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजा पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञा च मेधा च वर्धन्ते स्नायिनोऽन्वहम् ।।६९।।

 शुद्धे वस्त्रे परिधाय प्राङ्मुखो बद्धसंशिखः । सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमन ततः ।।७० ।।

 ऊर्ध्वपुण्ड्रं सबिन्दुं च कुर्याच्चन्दनमृत्स्नया । शंखचक्रादि कुर्याच्च धारयेत् तुलसीस्रजम् ।।७ १ ।।

 प्राणायामं तथा सन्ध्यां गायत्रीजपनं चरेत् । शुचौ देशे गोमयेन मण्डलं तण्डुलादिभिः ।।।७२ ।।

 कारयित्वा च तन्मध्ये कलशं सजले न्यसेत् । कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः सदा स्थितः ।।७३ ।।

 तस्य मूले स्थितो ब्रह्मा मध्ये तिष्ठन्ति मातरः । कुक्षौ तिष्ठन्ति भूद्वीपसहिताः सप्त सागराः ।।७४।।

 तिष्ठन्ति ऋग्यजुःसामाऽथर्वाणोऽङ्गयुतास्तथा । गंगा गोदावरी सौर्या कावेरी च सरस्वती ।।७५।।

 तिष्ठन्त्वत्र जले नद्यः पापनाशविधायिकाः । चन्दनाऽक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ओं नमः ।।७६ ।।

 नैवेद्यं फलताम्बूले समर्पयामि ओं नमः । इत्यभ्यर्च्य ततः शंखं पूजयेदक्षतादिभिः ।।७७।।

 घण्टां च पूजयेद् रम्यामक्षतैः कुंकुमादिभिः । पात्रं घटोपरि न्यस्येत् तिलयुक्शर्करान्वितम् ।।७८।।

 पीताम्बरं शुभं चापि हैमं राधायुतं हरिम् । पुरुषोत्तममासस्य दैवतं तं प्रपूजयेत् ।।७९।।

 अनलोत्तारणं कृत्वा कुर्वीत प्राणधारणाम् । स्पृष्ट्वा द्वौ तत्कपालौ तु दक्षिणेन करेण वै ।।८ ० ।।

 दत्वा च हृदयेऽङ्गुष्ठं प्राणाँस्तत्र सुधारयेत् । अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु चास्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।।८ १ ।।

 अस्यै देवत्वयुक्तायै स्वाहा नारायणाय वै । ध्यायेद् देवं तत आवाहयेन्नाथं हृदि स्थितम् ।।८ २।।

 आवाहयामि राधाश्रीसहितं पुरुषोत्तमम् । आसनं चार्पयाम्यस्मै श्रीकृष्णाय तु शार्ङ्गिणे ।।८ ३ ।।

 समर्पयामि सलिलं पादप्रक्षालनाय ते । अर्घ्यं फलान्वितं चैवाऽर्पयामि परमात्मने ।।८४।।

 तीर्थजलान्याचमनं तेऽर्पयामि राधिकापते । पयो दधि घृतं क्षौद्रं शर्करा चार्पयामि ते ।।८५।।

 पञ्चस्नानं जलस्नानं तथा ते कारयाम्यहम् । पीतधौत्रं चोत्तरीयं समर्पयामि केशव! ।।८६।।

 कौस्तुभं ब्रह्मसूत्रं च भूषां ददामि ते प्रभो । सुगन्धतैलसारादि चन्दनं चार्पयामि ते ।।८७।।

 कुंकुमाक्षतपुष्पाणि चार्पयानि गृहाण वै । धूपं दिव्यरसोपेतं त्वर्पयामि च ते प्रभो ।।८८ ।।

 दीपं घृतोज्ज्वलं तुभ्यं चार्पयामि हरे प्रभो । पायसाद्यं च नैवेद्यं समर्पयामि केशव ।।८९।।

 आचमनं जलपानं फलं ताम्बूलकं तथा । करोद्वर्तनकं चैव समर्पयामि माधव ।।९० ।।

 सुवर्णदक्षिणां हाराऽक्षतान् ददामि केशव! । नीराजयामि देवेशं प्रदक्षिणं करोमि च ।। ९१ ।।

 पुष्पांजलिं चार्पयामि नमस्कारं करोमि च । न्यूनं ते पूजने किंचित् क्षमस्व पुरुषोत्तम ।।।९२।।

 होमं कुर्यादखण्डं च घृतदीपं समाचरेत् । पुरुषोत्तमतुष्ट्यर्थे सर्वार्थफलसिद्धये ।। ९३ ।।

 इति नित्यं पूजयेत्तं दद्याद्दानानि शक्तितः । भोजयेद् भोज्यपात्राणि वृद्धाँश्च पादयोर्नमेत् ।।९४।।

 हविष्यभोजनं कुर्याद् व्रती देवप्रसादकम् । गोधूमाः शालयो मुद्गा यवास्तिलाश्च शर्कराः ।।९५।।

 कङ्गूखर्जूरनीवारा द्राक्षाः कन्दाश्च कर्कटी । मूलं शाकानि पत्राणि खाद्यपुष्पाणि मूलकम् ।।९६।।

 कान्दकानि कदलानि दधिं दुग्धं तथाऽऽर्द्रकम् । शुण्ठी चाम्रफलं तक्रं पनसं च हरीतकीं ।।९७।।

 पिप्पलीजीरकं चामलकं तिन्तिडिका तथा । क्रमुकं चैक्षवं सर्वं सात्त्विकं व्रतिभोजनम् ।। ९८ ।। 

 राजसं राजिकाराद्धं तामसं चामिषादिकम् । वातुलं द्विदलाद्यं च परान्नादि विवर्जयेत् ।।९९ ।।

 ब्रह्मचर्यमधःशय्यां पत्रावल्यां च भोजनम् । एकभुक्तं च कुर्वीत निन्दामात्रं विवर्जयेत् ।। १०० ।।

 उपोषणेन दुग्धेन दध्ना जलेन सर्पिषा । पत्रेणापि फलेनापि कर्तव्यः पुरुषोत्तमः ।। १०१ ।।

 व्रतभंगो यथा न स्यात्तथा कार्यं प्रभोजनम् । तुलसीदललक्षेणाऽऽर्चने पुण्यमनन्तकम् ।। १० २।

 पुरुषोत्तममासस्य व्रत्यपि पुरुषोत्तमः । चतुर्भुजो भवेदेव वैकुण्ठे वसति ध्रुवम् ।। १०३ ।।

 अखण्डदीपो दातव्यो मासे श्रीपुरुषोत्तमे । सौभाग्यनगरे राजा चित्रबाहुरभूत्पुरा ।। १ ०४।।

 तस्य चन्द्रकला भार्या ह्युभावास्तां सुधार्मिकौ । अगस्त्यश्च मुनिस्तस्य भवनं त्वाजगाम ह ।। १० ५।।

 पूजयित्वा विनयेन चित्रबाहुरुवाच ह । अद्य मे गृहसाम्राज्यजन्मादि सफलं खलु ।। १०६ ।।

 यस्त्वं समागतो मेऽद्य गृहे श्रीकृष्णवल्लभः । तुभ्यं सर्वं ददाम्यद्य वैष्णवाय महात्मने ।। १ ०७।।

 मेरुतुल्यफलं स्याच्च मनागप्यर्पितं तु ते । विष्णवे विष्णुभक्तायाऽनर्पितो दिवसोऽफलः ।। १०८ ।।

 वैष्णवा वाङ्मनःकायकर्मभिः सेवनार्हणाः । तस्य धन्याः प्रजाः सर्वा यद्गृहे वैष्णवो जनः ।। १०९ ।।

 वस्तव्यं वैष्णवे देशे राज्ये वैष्णवभूभृति । अगलं तथा काणं बोध्यं राष्ट्रमवैष्णवम् ।। ११० ।।

 श्रीकृष्णाश्रितभक्तस्य राज्ञो राज्यं विवर्धते । मुने! लक्ष्मीर्विपुलं मे तथा राज्यमकंटकम् ।। १११ ।।

 पतिव्रता च मे पत्नी केन पुण्येन मे वद । श्रुत्वाऽगस्त्यश्च तं प्राह चमत्कारपुरे पुरा ।। ११ २।।

 त्वमभूः शूद्रजातीयो मणिग्रीवोऽतिनास्तिकः । सुरा मां व्यवायाति चौर्य दुर्गुणवारिधिः ।। ११ ३।।

 पतिभक्ता त्वियं भार्या सदा सद्भावनावती । राज्ञा विवासितस्त्वं तु गतोऽरण्यं प्रियायुतः ।। ११ ४।।

 मृगयाजीवनस्त्वं तु वने संदृष्टवान् मुनिम् । तृषितं च मुमूर्षुँ च ह्युग्रदेवं द्विजं तदा ।। १ १५।।

 उत्थायोत्तोल्य सलिलं फलं दत्वाऽप्रमोदयत् । मुनिः प्राह सुसन्तुष्टो मणिग्रीव! सुखी भव । । ११६ ।।

 जीवितं दत्तवाँस्त्वं मे ब्रूहि किं ते ददाम्यहम् । मणिग्रीवस्तदा प्राह दारिद्र्यं नश्यतान्मम ।। १ १७।।

 अतुला वैभवाः सन्तु पूर्णा मे स्युर्मनोरथाः । इतीच्छामि तदा प्राह मुनिस्तथा भवन्तु ते ।। ११८ ।।

 आगामिन्यधिमासे वै पावने पुरुषोत्तमे । दीपो देयो मन्दिरे श्रीपुरुषोत्तमतुष्टये ।। ११ ९।।

 न ते तीव्रदारिद्र्यं समूलं नाशमेष्यति । तिलतैलेन वाऽऽज्येनेङ्गुदीतैलेन वापि च ।। १२० ।।

 मासमेकं सदा स्नात्वा देवं नत्वा प्रदीपकम् । देहि तेन महाराज्यं पृथ्व्यां ते वै भविष्यति ।। १२१ ।।

 यज्ञादीनि तु कर्माणि कृच्छ्रचान्द्रायणानि च । वेदपाठो गयाश्राद्धं कुरुक्षेत्रग्रहास्तथा ।। १ २२।।

 तीर्थानि सर्वदानानि धर्मकार्याणि यानि च । पुरुषोत्तमदीपस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।। १२३ ।।

 अधिमासव्रतं श्रेष्ठं दीपश्चान्तप्रकाशकः । धनधान्यपशुपुत्रपौत्रदारायशस्करम् ।। १ २४।।

 वन्ध्यात्वनाशकं नार्या अवैधव्यकरं व्रतम् । राज्यदं चेष्टदं भर्तृप्रदं पत्नीप्रदं व्रतम् ।। १२५ ।।

 विद्यासिद्धिकोशमोक्षप्रदं दीपार्पणव्रतम् । इति पूर्वं त्वया दत्तो दीपं श्रीहरये वने ।। १२६ ।।

 तेन पुण्येन सद्राज्यं लक्ष्मीं पत्नीं पतिव्रताम् । प्राप्तवानसि राजेन्द्र! पुनः कुर्या लभिष्यसि ।। १ २७।।

 इत्युक्त्वाऽगस्त्यऋषिराट् प्रयागं संजगाम ह । राज्ञा तेनापि विधिना प्राप्ते श्रीपुरुषोत्तमे ।। १२८ ।।

 कृतं दीपप्रदानं च ततो मोक्षमवाप सः । इत्युक्त्वाऽर्हणमादाय वाल्मीको निर्जगाम ह ।। १ २९।।

 ततो मासे समायाते श्रेष्ठे श्रीपुरुषोत्तमे । चतुर्दश्यां प्रगे कृष्णदुन्दुभिर्दृढधन्वना ।। १३० ।।

 श्रुतः कुर्वन्तु चाऽद्यैव व्रतं दीपं सजागरम् । स्वर्गं मोक्षं प्राप्नुवन्तु तेन पुण्येन मद्वरात् ।। १३१ ।।

 इति श्रुत्वा दृढधन्वा स्मृत्वा सर्वं व्रतं तदा । सकुटुम्बो निराहारश्चक्रे सदीपजागरम् ।। १३२ ।।

 महान्तमुत्सवं चक्रे ददौ दानानि गोभुवाम् । रात्रौ समाजगामाऽयं श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः ।। १३३ ।।

 सकुटुम्बं गरुडेन ब्रह्मलोकं निनाय तम् । किमु कथ्यं महालक्ष्मि! माहात्म्यमाधिमासिकम् ।। १ ३४।।

 कर्ता धर्ता समुद्धर्ता यत्र श्रीपुरुषोत्तमः । पोष्टा तुष्टः प्रदाता च भोक्ता श्रीपुरुषोत्तमः ।। १ ३५।।

 य इदं शृणुयाल्लक्ष्मि! पठेद्वा पाठयेदपि । सोऽधिमासफलं लब्ध्वा ब्रह्मलोकं प्रयाति हि ।। १ ३६।।।

 सकामः स्वर्गमासाद्य पारमेष्ठ्यपदं तथा । महेशादिपद प्राप्य ब्रह्मलोके महीयते ।। १३७ ।।

 यैस्तु संपूजितो मासः सर्वं तैरभिपूजितम् । सर्वं प्राप्तं भवेत् तेन प्राप्तः श्रीपुरुषोत्तमः ।। १३८ ।।

 येन नीतोऽधिमासोऽयं वन्ध्यस्तस्य तु सम्पदः । वन्ध्याः पुण्यं कृतं सर्वे वन्ध्यं स्यान्नात्र संशयः ।। १३९ ।।

 ये केचित् सुखिनः सन्ति सुरमानवदानवाः । पुरुषोत्तममासस्य फलं लक्ष्मि! न चेतरत् ।। १४०।।

 इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये दृढधन्वाऽरण्ये शुकोक्तश्लोकं श्रुत्वा तदर्थं वाल्मीकं पृष्ट्वा, स्वीयं प्राग्भवीयं सुदेवद्विजत्वं पुत्रवत्त्वं च पुत्रनिधने च पुरुषोत्तममासकरणेन पुत्रजीवितत्वं स त्वयं पुत्रः शुकः श्लोकवक्ता त्वं त्विदानीं दृढधन्वा जात इति वृत्तान्तं ज्ञातवान्; पुरुषोत्तममासपूजाविधिं च ज्ञातवान्, अधिकमासे दीपदानेन मणिग्रीवशूद्रस्य जन्मान्तरे चित्रबाहुनृपतित्वं राज्यप्राप्तिश्चागस्त्येन कथिता, तदपि ज्ञातवान् , ततश्च चतुर्दशीव्रतं कृत्वा दृढधन्वा सकुटुम्बो मोक्षमवापेत्यादिनिरूपणनामा एक-विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। १.३२१ ।।