पुरुषोत्तम मास द्वादशी उत्तरा (13-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास उत्तरपक्ष द्वादशी का जो माहात्म्य दिया गया है, उसका सारसंक्षेप इस प्रकार है – वैराज पुरुष ने अपने नाभिदेश से ब्रह्मा पुत्र को उत्पन्न करके अपने चरणों से जोष्ट्री देवी को उत्पन्न किया और उसे सेविका के रूप में ब्रह्मा को समर्पित किया। ब्रह्मा के द्वारा मन से ध्यान किए जाने पर उस सेविका ने सेविका जाति को उत्पन्न किया। ऋषियों में उसने अनशना नामक पुत्री को उत्पन्न करके रख दिया। पितरों में पिपासा नामक सुता को रख दिया। देवों में अशना नामक सुता को रख दिया, भूत-प्रेत-पिशाचादि में वासना को रख दिया, राजाओं/ भूभृतों में उसने करा नामक पुत्री को रख दिया। मानवों में व्यवसाय पुत्री को, दानवों में प्रसह्या पुत्री को, दैत्यों में विलासा सुता को, पशु-पक्षियों में विश्वासा को, वृक्ष-वल्लियों में मेघा पुत्री को, कीट-पतंग-जन्तु आदि में उसने कर्दमा को रख दिया, जल में वास करने वालों में उसने कुंभिका पुत्री को रख दिया। इस प्रकार उसने प्रजा के अनुसार 12 सेविकाएं उत्पन्न करके प्रदान की। इस प्रकार जोष्ट्री ब्रह्मा की सत्यलोक में सेवा करती थी। जैसे विप्र के 6 कर्म मोक्षदायक हैं, ऐसे ही चतुर्थ वर्ण की सेवा मोक्षकारक है। जैसे क्षत्रियों द्वारा त्राण निःश्रेयस्कर है, वैसे ही सेवकवर्ग की सेवा निःश्रेयसप्रदा है। जैसे वैश्य का दान दोनों ओर से श्रेयस्कर है, वैसे ही सेविका वर्ग भी सेवा द्वारा श्रेयों को प्राप्त करता है। जैसे दासियों द्वारा सदा आज्ञा का पालन करना मोक्षप्रद है, वैसे ही सेविकाओं द्वारा सेवा सदा रक्षाकारक है। जैसे वन में रहने वालों का तप सुखकर है, वैसे ही परिचर्या करने वाले का सर्वदा सौख्य है।  जैसे त्यागियों के लिए त्याग परमानन्द दायक है, वैसे ही भाव से सेवा सेवक के लिए आनन्ददायी है। जैसे यज्ञ, तप, ध्यान, जप, दान, होम आदि दोनों ओर से सुखप्रद हैं, वैसे ही सेवा भी सर्वत्र सुखप्रद है। सेवा से स्वर्ग, राज्य, लक्ष्मी, धन, यश, कीर्ति, पुण्य, शाश्वत मोक्ष निश्चित ही प्राप्त होते हैं। कृष्णसेवा, मातृसेवा, पितृसेवा, आत्मसेवा, देवसेवा, जनसेवा, वृद्धसेवा, आर्त्तसेवा, पतिसेवा, सतीसेवा, पत्नीसेवा, ईश्वर अर्चना, गो-भू-धर्म-अनाथ सेवा, आश्रितसेवा, स्वामिसेवा, अतिथिसेवा, परात्मतोषण आदि इस लोक में व परलोक में सुखद, पुण्य देने वाले, शान्ति देने वाले हैं। पुरुषोत्तम की वृद्धि द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। देहसेवा, धनसेवा, पादसंवाहन आदि, गुणसेवा, वस्तुसेवा, अन्नसेवा, जलसेवा, गृहसेवा, रुग्णसेवा, लोकसेवा आदि सब करने से ब्रह्म की दृष्टि से सुखद व मोक्षप्रद होता है। अतः सेवाधर्म को सब देहधारियों में अगम्य जानना चाहिए। अन्य सब कुछ किया जा सकता है, लेकिन बिना श्रद्धा के सेवा नहीं की जा सकती। बिना भावना के सेवा नहीं हो सकती, चाहे कोई उस कार्य के लिए नियुक्त भी कर ले। मोक्ष की इच्छा से सेवा हो सकती है, सुख की इच्छा से भी सेवा हो सकती है, स्वार्थ की इच्छा से भी सेवा हो सकती है, फल की कामना से भी सेवा हो सकती है। लेकिन जो निष्काम सेवा है, वह कोटि गुना अधिक गुणकारी है। निष्काम सेवा का फल देने वाला पुरुषोत्तम है। यह विचार करके जोष्ट्री अपनी पुत्रियों के माध्यम से सारे लोक की सेवा करती थी और इससे उसकी अन्तरात्मा को तुष्टि मिलती थी। सेवा से तुष्ट होने पर सन्त आशीर्वाद देते हैं। वृद्ध, विप्र सेवक को आशीश देते हैं। शरीर का नाश हो जाता है, लेकिन की गई सेवा परलोक में सहायता करती है। परोपकार कहीं भी विफल नहीं होता, ऐसे ही सेवा भी कभी निष्फल नहीं होती। यदि दान नहीं दिया, तो वह तो फल दे ही नहीं सकता। यदि फल देगा तो दिया गया दान ही देगा। इसी प्रकार असेवा से फल नहीं मिलेगा, सेवा से ही मिलेगा। पिता, गुरु, अच्युत परमात्मा की प्राणी देह, मन, वाक् से सेवा करे तो उसका शाश्वत फल होता है। यह सोचकर जोष्ट्री अपनी पुत्रियों के साथ सेवा करती थी। एक बार  ब्रह्मा के सुधर्मा नामक गृह में समाज हुआ जिसमें ऋषि, मुनि, देव, पितर, मानव, द्रुम, पिशाच आदि तथा कन्द, वल्लियां, दैत्य, दानव तथा 14 लोकों में रहने वाले  दृश्य व अदृश्य देहधारी स्त्रियों समेत आए। उसमें समाज के अग्रगण्यों के साथ वे 12 दासीरूपा सेविकाएं भी आई। उन्होंने यथायोग्य समाजों की सेवा की। उनकी सेवा से सारी योनियां तुष्ट हुई और उनको पारितोषिक व आशिष दी। तुम सब सद्भाग्य वाली, शाश्वत आनन्द से पूरित, धन-धान्य-यश-कीर्ति, सम्मान गुणों से पूजित होओ। सिद्धि, ऐश्वर्य से युक्त होओ, रम्य रूप धारण करने वाली होओ। जोष्ट्री के वंश का वर्धन करने वाली होओ, महातेज को धारण करने वाली होओ, लोकप्रकाश करने वाली देवियां होओ। यद्यपि तुम सेविका हो, लेकिन सदा ब्राह्मी, शाश्वत स्थिर यौवन वाली होओ। इतने में उन्होंने सत्यलोक में श्रीहरि की महान् दुन्दुभि सुनी जो कह रही थी कि अधिक मास की द्वादशी को मेरा पूजन, व्रत करने से मन की अभिलाषा पूरी होती है।  दीर्घायु भी समाप्त हो जाएगी, यौवन भी चला जाएगा, सम्पदा का भी नाश हो जाएगा, लेकिन मेरी कृपा शाश्वत है। योग भी शीर्ण हो जाएंगे, पुष्टि भी जीर्ण हो जाएगी, शरीर भस्म हो जाएंगे, लेकिन मेरी कृपा शाश्वत है। जो उत्पन्न हुआ है, वह अवश्य नष्ट हो जाएगा, जैसे पुण्य, राज्य, धन आदि। लेकिन मेरी कृपा शाश्वत है जिसका नाश नहीं होता। ऐसा सुनकर उन्होंने पुरुषोत्तम की पूजा की। उनके शृंगाररस के भाव से पुरुषोत्तम प्रसन्न हो गए और युवा के रूप में प्रकट होकर वर मांगने को कहा। हे प्रियाओं, बोलो मैं तुम्हें क्या दूं। प्रियाओं ने कहा हमने अपना सब कुछ परमात्मा पुरुषोत्तम पति को अर्पित कर दिया है। दासियों का धर्म है अपने शास्ता को सर्वार्पण। प्रियाओं का धर्म है प्रिय को सर्व अर्पण। स्वामियों का धर्म है अर्पित को सदा ग्रहण करना। कान्तप्रिय का धर्म है कान्ताओं का प्रिय करना। हमने तो अपना सारा मानस तुम्हें अर्पित कर दिया है, अब जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो। कृष्णनारायण ने कहा कि मैं हृदय के अन्दर व बाहर से स्वीकार करता हूं। तुम मेरे कर स्पर्श से दिव्यरूपधरा होकर अक्षर धाम में मेरी पत्नी बनो। जोष्ट्री मेरा स्वरूप होकर तेजोमय शक्ति हो। अन्य 12 पत्नियां मेरी शाश्वत पत्नियां हों।  सब पत्नियां अपने – अपने नाम से मेरे गृह में वास करें। मुझे सुख देने की इच्छा के बिना जो अशन भोजन नहीं करती, उसका अनशना नाम सार्थक है। जो सदा मेरे रस का पान करने की इच्छा रखती है, वह पिपासा है। जो सदा मुझे अशन  करती है, जो ब्रह्मा के साथ सारे कामों का अशन करती है, उसका अशना नाम सार्थक है। जो अपनी आत्मा में सदा पति रूप में मुझे वास देती है, वह भावपूर्णा वासना मेरी पत्नी है।  जो मेरा हाथ पकड कर आती है, वह मेरी प्रिया करा है।- - - - । जो सारी क्रियाएं मेरे लिए ही करती है, वह व्यवसाया पत्नी है। जो मेरी रति को प्रकृष्ट रूप में सहती है, वह प्रसह्यका पत्नी है। जो मेरे लिए सर्वथा दिव्य विलसति है, वह मेरी विलास नामक पत्नी है। जिसका श्वास मेरे बिना स्थिर नहीं रह सकता, वह मेरी विश्वासा नामक पत्नी है। प्रतिक्षण उसका जीवन श्वास मेरे बिना नहीं रह सकता। जो पति प्रभु के ऊपर प्रेम का मेहन, वर्षण करती है, वह मेरी पत्नी मेघा है। जो अपने सारे कर्मों का मेरे में दमन करती है, मेरे लिए अपने कर्मों का दमन करती है, वह मेरी प्रिया कर्दमा है। कुं कहते हैं क्षेत्र को। जो अपने कुं अर्थात् आत्मा का प्रतिदिन मेरे लिए भावन करती है,  जैसे कुंभ में जल भरा जाता है, वैसे ही जो अपनी आत्मा में मुझे भरती है, वह मेरी पत्नी कुंभिका है। इस प्रकार यह 12 मेरे अक्षर धाम में विराजें। अन्य रूप में यह 12 शक्तियां महाकाल को अर्पित हैं। (ततो विश्वं संव्यक्रामत् साशनानशने ह्यभि – ऋ. 10.90.4 पुरुष सूक्त)। इस संसृति के आगे पिपासा द्वारा प्रवाह हो। वासना द्वारा जड – चेतना के मिश्रण का वास हो। करा द्वारा देहधारियों का विनिमय हो। कालवाहक व्यवसाया द्वारा धारण, पोषण होता है। प्रसह्या द्वारा संवत्सर के आर्तवों, द्वन्द्वों का आविर्भाव होता है। विलासा द्वारा श्रम का विलोप करके जीवों को जोडा जाता है। विश्वासा द्वारा फल के लोभ से देहधारी प्रवृत्ति में लगते हैं। मेघा द्वारा प्रजा स्नेहवृष्टि से रंजित होती है। कर्दमा द्वारा प्रजा उत्पन्न होकर मुझ कर्दम में प्रतिष्ठित होती है(कर्दमया प्रजा भूता मयि तिष्ठन्ति कर्दमे)।  गोलकों, ब्रह्माण्डों रूपी कुंभों में कुंभिका स्थापना करके रक्षा करती है। इस प्रकार काल रूपी मेरी शक्ति में तुम मेरी कार्यकारिणी बनो। अतः मैनें तुम्हें काल को अर्पित कर दिया है। ऐसे ही तुम वेधा द्वारा निर्मित ब्रह्माण्ड में भी बसो। तीसरे स्वरूप में तुम ज्योष्ट्री की पुत्रियां होओ। इस प्रकार तुम तीन रूपों में दासी कार्य करती रहो।

विवेचन

लक्ष्मीनारायण संहिता में जोष्ट्री का विषय एक नया ही विषय है जो कुछेक वेद मन्त्रों तथा ब्राह्मण कथनों के सिवा अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता। अतः जोष्ट्री के आख्यान को वेदमन्त्रों के आधार पर पुष्ट करना कठिन है। जोष्ट्री शब्द जुष धातु से बना है जिसका अर्थ प्रीति व सेवा होता है। वर्तमान माहात्म्य से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि द्वादशी के माध्यम से हमें अपने जीवन की क्षुद्र से क्षुद्र वृत्ति को भी परमात्मा की किसी शुद्ध वृत्ति की छाया का रूप देना है। वेद मन्त्रों में देवी जोष्ट्री को द्विवचन समझा जाता है। यास्क के कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि यह द्विवचन द्यावापृथिवी के प्रतीक हैं। फिर मन्त्रों में जोष्ट्रीभ्यां दधुरिन्द्रियम् से वर्तमान माहात्म्य में जोष्ट्री की 12 पुत्रियों की धारणा का अनुमोदन किया जा सकता है। वेद मन्त्रों में  जोष्ट्री शब्द के पहले देवी विशेषण सकारण जोडा गया है कि प्रीति व सेवा को देवी रूप देना है।

संदर्भ

’’देवी जोष्ट्री वसुधीती ययोर् अन्याद्या द्वेषांसि यूयवद् अन्यावक्षद् वसु वार्याणि यजमानाय वसुवने वसुधेयस्य वीताम् यज् देवी जोष्ट्री देव्यौ जोषयित्र्यौ वसुधीती वसुधान्यौ ।

ययोर् अन्या अघानि द्वेषांस्य् अवयायाति। आवहत्य् अन्या वसूनि वननीयानि यजमानाय वसु वननाय च वसुधानाय च वीतां पिबेतां कामयेतां वा यज इति सम्प्रैषः । यास्क निरुक्त 9.42

देवी जोष्ट्री वसुधिती देवमिन्द्रमवर्धताम्    अयाव्यन्याघा द्वेषाँ सि    आन्यावाक्षीद्वसु वार्याणि    यजमानाय शिक्षिते  ४५

वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज  - तै.ब्रा. 2.6.10.2

देवी जोष्ट्री अश्विना सुत्रामेन्द्रे  सरस्वती    श्रोत्रं कर्णयोर्यशः    जोष्ट्रीभ्यां दधुरिन्द्रियम्    वसुवने वसुधेयस्य वियन्तु यज  2.6.14.2

देवी जोष्ट्री देवमिन्द्रं  वयोधसम्    देवी देवमवर्धताम्    बृहत्या छन्दसेन्द्रियम्    श्रोत्रमिन्द्रे  वयो दधत्    वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज  2.6.20.2

देवी जोष्ट्री वसुधिती ययोरन्याघा द्वेषाँसि युयवदान्या वक्षद्वसु वार्याणि यजमानाय वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज  3.6.13.2

देवी जोष्ट्री ।वसुवने वसुधेयस्य वीताम्  3.6.14.1

देवी जोष्ट्री सरस्वत्य् अश्विनेन्द्रम् अवर्धयन् । श्रोत्रं न कर्णयोर् यशो जोष्ट्रीभ्यां दधुर् इन्द्रियं वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥  - वा.सं. 21.51

देवी जोष्ट्री वसुधिती देवम् इन्द्रम् अवर्धताम् । अयाव्य् अन्याघा द्वेषाम्̐स्य् आन्या वक्षद् वसु वार्याणि यजमानाय शिक्षिते वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज ॥ - वा.सं. 28.15

श्रीनारायण उवाच-

श्रूयतां च त्वया लक्ष्मि! कथां वैराजपादजाम् । जोष्ट्रीं देवीं समुद्भूता सृष्ट्यारंभे तु सेविकाम् ।। १ ।।

 वैराजः पुरुषः पुत्रं ब्रह्माणं नाभिदेशतः । समुत्पाद्याऽऽर्पयन्तस्मै जोष्ट्र्याख्यां सेविकां ततः ।। २ ।।

 वैराजचरणोत्पन्नां जुषमाणां तु वेधसम् । सत्यलोके सदा दासीसमां त्वावासयद्ध्यजः ।। ३ ।।

 ब्रह्मणा मनसा ध्याता सेविका सा पुनः पुनः । सुषुवे सेविकां जातिं नैकधा स्वप्नजात्यिकाम् ।। ४ ।।

 ऋषिष्वनशनाख्यां स्वपुत्रीं प्रसूय संदधे । पिपासाख्यां सुतां पितृषु प्रसूय च संदधे ।। ५ ।।

 अशनाख्यां सुतां देवेषु च प्रसूय सन्दधे । भूतप्रेतपिशाचादौ प्रसूय वासनां दधे ।। ६ ।।

 भूभृत्सु च कराऽऽयां संप्रसूय पुत्रिकां दधे । मानवेषु व्यवसाया पुत्रीं प्रसूय सन्दधे ।। ७ ।।

 दानवेषु प्रसह्यां च पुत्रीं प्रसूय सन्दधे । दैत्येषु च विलासाख्यां सुतां प्रसूय सन्दधे ।। ८ ।।

 पशुपक्षिषु विश्वासां सुतां प्रसूय सन्दधे । वृक्षवल्लीषु तां मेघां पुत्रीं प्रसूय सन्दधे ।। ९ ।।

 कीटपतंगजन्त्वादौ दधे प्रसूय कर्दमाम् । जलवासेषु पुत्रीं कुंभिका प्रसूय सन्दधे ।। १० ।।

 एवं द्वादशपुत्रीः सा सम्प्रसूय यथाप्रजम् । प्रददौ सा प्रजाभ्यः सेविका प्रत्येकमादरात् ।। ११ ।।

 एवं सेवापरा जोष्ट्री वेधसः सेविका सदा । सत्यलोके वर्तते स्म सेवाधर्मे हि नित्यदा ।। १ २ ।।

 यथा विप्रस्य कर्माणि सन्ति षट् मोक्षदानि हि । तथा चतुर्थवर्णस्य सेवा मोक्षकरी मता ।। १३ ।।

 यथा त्राणं क्षत्रियाणां निःश्रेयकरं मतम्। तथा सेवकवर्गस्य सेवा निःश्रेयसप्रदा ।। १४।।

 यथा दानं तु वैश्यस्य श्रेयस्कृत् तूभयत्र हि । तथा तु सेविका वर्गः श्रेयांसि सेवया लभेत् ।। १५।।

 यथा दास्याः सदाऽऽज्ञायां वर्तनं मोक्षदं भवेत् । तथा सेवकवर्गस्य सेवा ३ मोक्षदा भवेत् ।। १६।।

 ब्रह्मचर्यव्रते शीलं यथा रक्षणदं भवेत् । तथा सेवा सेविकायाः सदा रक्षणदा भवेत् ।। १७।।

 यथा गार्हस्थ्यधर्मस्य सत्कारो रक्षको भवेत् । यथा सेवकवर्गस्य सेवा वै रक्षिका भवेत् ।। १८।।

 यथा वनस्थितानां वै तपः सुखकरं मतम् । तथा सौख्यं परिचर्याकर्तुर्भवति सर्वदा ।। १९।।

 यथा त्यागवतां त्यागः परमानन्ददो मतः । तथा भावेन सेवा वै सेवकाऽऽनन्ददायिनी ।। २० ।।

 यथा यज्ञस्तपो ध्यानं जपो दानं हवादिकम् । उभयत्र सुखदं सेवापि सर्वत्र सौख्यदा ।।२ १ ।।

 सेवया प्राप्यते स्वर्गं राज्यं लक्ष्मीर्धनादिकम् । यशः कीर्तिस्तथा पुण्यं शाश्वतं मोक्षणं ध्रुवम् ।।२२।।

 कृष्णसेवा मातृसेवा पितृसेवाऽऽत्मसेवनम् । देवसेवा जनसेवा वृद्धसेवाऽऽर्त्तसेवनम् ।।२३ ।।

 पतिसेवा सतीसेवा पत्नीसेवेश्वरार्चनम् । गोभूधर्माऽनाथसेवाऽऽश्रितसेवा प्रजार्हणम् ।।२४।।

 स्वामिसेवाऽतिथिसेवा परात्मतोषणादिकम् । इहाऽमुत्र सुखदं च पुण्यदं शान्तिदं भवेत् ।।२५ ।।

 पुरुषोत्तमवृद्ध्या तु कृतं मोक्षकर भवेत् । देहसेवा धनसेवा पादसंवाहनादिकम् ।।२६ ।।

 गुणसेवा वस्तुसेवाऽन्नसेवा जलसेवनम् । गृहसेवा रुग्णसेवा लोकसेवादिकं तथा ।।२७।।

 सर्वं कृतं ब्रह्मदृष्ट्या सुखदं मोक्षदं भवेत् । सेवाधर्मस्ततो बोध्योऽगम्यो वै सर्वदेहिनाम् ।।।२८।।।

 सर्वमन्यद्भवेत् सेवा न भवेच्छ्रद्धया विना । विना भावनया सेवा न भवेद् योजिताऽपि वै ।। २९।।

 मोक्षेच्छया भवेत्सेवा भवेत्सुखेच्छयाऽपि वा । स्वार्थेच्छयाऽपि वा सेवा भवेत् फलाभिकाम्यया ।। ३ ०।।

 निष्कामेन कृता या तु कोटिगुणार्थदा हि सा । अकामस्य तु कार्यस्य फलदः पुरुषोत्तमः ।।३ १।।

 इति विचार्य सा जोष्ट्री सर्वलोकस्य सेवनम् । पुत्रीभिः कारयामासाऽऽन्तरात्मा यत्र तुष्यति ।।३२।।

 सेवया तोषिताः सन्तो ददत्याशिष एव च । वृद्धा विप्राः प्रयुञ्जन्ति समाशिषस्तु सेविने ।। ३३।।

 शरीरं नाशमायाति तेन सेवा कृता परे । लोके सहायतां याति तस्मात् सेवां समाचरेत् ।।३४।।

 परोपकारः कुत्रापि विफलो याति नैव ह । सेवापि विफला नैव कालान्तरेऽपि जायते ।।३५।।

 अदत्तं नोपतिष्ठेत दत्तमेवोपतिष्ठते । असेवा नोपतिष्ठेत कृता सेवोपतिष्ठते ।।३६।।

 देहेन मनसा वाचा पितरं गुरुमच्युतम् । सेवेत सर्वदा प्राणी फलं तच्छाश्वतं भवेत् ।।३७।।

 इति जोष्ट्री सदा सत्ये सेवते परमेष्ठिनम् । पुत्रीभिश्च प्रजासेवां करोत्यनुदिवं शुभाम् ।।३८।।

 एकदा तु समाजोऽभूत् सुधर्मायामजगृहे । ऋषयो मुनयो देवाः पितरो मानवा द्रुमाः ।।३९ ।।

 पिशाचाद्यास्तथा कन्दा वल्लयो दैत्यदानवाः । समायाताश्चतुर्दशभुवनस्थास्तु देहिनः ।।४० ।।

 अदृश्याश्च तथा दृश्याः सस्त्रीका समुपाययुः । तैस्तैः समाजमूर्धन्यैराययुर्द्वादशापि ताः ।।४१ ।।

 सेविका दासिकारूपा जोष्ट्रीपुत्र्योऽशनादिकाः । समाजाः सेवितास्ताभिर्योग्या येषां कृते तु या ।।४२।।

 तां तां सेवां विधायैव तोषिताः सर्वयोनयः । तुष्टास्ताभ्यो ददुः पारितोषिकाण्याशिषस्तथा ।।४३।।

 सर्वा भवन्तु सद्भाग्याः शाश्वतानन्दपूरिताः । धनधान्ययशःकीर्तिसन्मानगुणपूजिताः ।।४४।।

 सिद्ध्यैश्वर्ययुता रम्यरूपधारिण्य एव च । जोष्ट्रीवंशप्रवर्धिन्यो महातेजोधराः सदा ।।४५ ।।

 लोकप्रकाशकारिण्यो देव्यो यद्यपि सेविका । भवन्तु सर्वदा ब्राह्म्यः शाश्वतस्थिरयौवनाः ।।४६ ।।

 इति लब्धाशिषः सर्वाः समाजे तु निवर्तिते । स्वसारो द्वादशमातुर्जोष्ट्र्या गृहं ययुः क्षणम् ।।४७।।

 तत्र तावत् सत्यलोके दुन्दुभिः श्रीहरेर्महान् । अश्रूयत वदन् शब्दं पुरुषोत्तमदेशितम् ।।४८।।

 अत्राऽधिके तु मे मासे द्वादश्यां मम पूजनम् । व्रतं ममैकशरणं कुर्वन्तु देहिनो यथा ।।४९ ।।

 भवन्मनोऽभिलषितं दास्येऽहं पुरुषोत्तमः । माऽत्र प्रमदितव्यं वै कृच्छ्रे स्वल्पं व्रतं बहु ।।५ ०।।

 भाग्यं येषामुज्ज्वलं वै गृह्णन्तु तेऽति तत्फलम् । दाताऽहं कृपया कृष्णनारायणोऽस्मि सर्वथा ।।५ १ ।।

 सिद्धीर्दास्ये धाम दास्ये दास्ये वै शाश्वतं सुखम् । सर्वं दास्ये च मां दास्ये न दास्ये नेप्सितं तु यत् ।।५ २।।

 एकभुक्तेन नक्तेन फलाहारेण वा व्रतम् । जलाहारेण दध्ना वा मुन्न्यन्नेन च भाजया ।।५ ३।।

 पत्रेण कन्दमूलैश्च वायुभक्षेण वा व्रतम् । मम प्रसादलेशेन कृतं वा यद्यपि व्रतम् ।।५४।।

 तक्रेण पयसा वापि तिलैश्च माषमुष्टिभिः । येन केनापि भावेन द्वादशीव्रतमाहितम् ।।५५ ।।

 तस्याऽहं वाञ्छितं सर्वं पूरयिष्यामि सर्वथा । पूजनं मम कर्तव्यं प्रातर्मध्ये निशामुखे ।।५६।।

 जागरं च प्रकर्तव्यं देयानि भोजनानि च । दानान्यपि प्रदेयानि यथाशक्ति यथार्जनम् ।।५७।।

 मह्यं पुष्पांजलिं दद्याद् दद्यात्तथाऽक्षताञ्जलिम् । जलांजलिं प्रदद्याच्च दद्याच्च भावनांजलिम् ।।५८।।

 स्नेहांजलिं प्रदद्याच्च दद्यादात्मांजलिं व्रती । प्रदद्यात्सर्वतः श्रेष्ठां सर्वसमर्पणांजलिम् ।।५ ९ ।।

 भावगम्यः  स्नेहगम्यः प्रेमगम्यो भवाम्यहम् । वस्तुगम्यः स्वार्थगम्यो यद्वा तद्वा भवाम्यहम् ।।६० ।।

 गमिष्यति च दीर्घायुर्गमिष्यति च यौवनम् । यास्यन्ति सम्पदो नाशं मत्कृपा शाश्वती मता ।।६ १ ।।

 यास्यन्ति शीर्णतां योगाः पुष्टिर्यास्यति जीर्णताम् । वर्ष्म यास्यति भस्मत्वं मत्कृपा शाश्वती मता ।।६२।।

 उत्पन्नं तद्विनष्टं स्यात् पुण्यं राज्यं धनादिकम् । शाश्वती मे कृपा बोध्या यन्नाशो नैव विद्यते ।।६३।।

 कृपां गृह्णन्तु कृपणा दूरयान्तु दरिद्रताम् । मदाज्ञया व्रतेनैव शाश्वताढ्या भवन्तु वै ।।६४।।

 इत्येवं दुन्दुभेः शब्दं श्रुत्वा ता मातृवर्धिताः । व्रतं चक्रुर्हि पयसा द्वादश्या द्वादशैव ताः ।।६५।।

 अपि जोष्ट्री व्रतं चक्रे वारिणा भावगर्भितम् । स्नात्वा प्रातः कृष्णनारायणं स्मृत्वा त्रयोदश ।।६६।।

 स्वर्णमूर्तिं विधायैवाऽपूजयन् पुरुषोत्तमम् । मण्डपं कदलीस्तभं ह्यशोकाम्रादितोरणम् ।।६७।।

 पुष्पहारावलिजुष्टं स्वर्णवस्त्रादिशोभितम् । रंगदीपसुकलशैर्मण्डितं तोरणादिभिः ।।६८।।

 तन्मध्ये सर्वतोभद्रं कारयित्वा सुमण्डलम् । रम्यं सुवर्णकलशं पञ्चरत्नसुपल्लवम् ।।६९ ।।

 वस्त्रं फलं चन्दनं चाऽक्षतान् मध्ये निधाय च । तन्मूर्ध्नि कानकं न्यस्य पात्रं सतिलशर्करम् ।।७०।।

 तत्र निधाय देवेशं श्रीकृष्णपुरुषोत्तमम् । वै षोडशपदार्थैश्च पूजयामासुरादरात् ।।७१।।

 आवाहनादिकं कृत्वा पञ्चामृतैश्च वारिभिः । संस्नाप्य मार्जनं कृत्वाऽम्बराण्याभूषणानि च ।।७२।।

 कुंकुमैः कज्जलैर्गन्धसारैरक्षतचन्दनैः । शृंगारयित्वा श्रीकृष्णं धूपं दीपं विधाय च ।।७३।।

 नैवेद्यं पायसं श्रेष्ठं मिष्टान्नं पूरिकादिकम् । फलं त्वाम्रादिकं पानं चामृतं मधु जलम् ।।७४।।

 ताम्बूलकं फलं चान्यद् यद्यत्त्वपेक्षितं प्रभोः । तत्तत्सर्वं प्रदायैवाऽऽरार्त्रिकं दधिरे च ताः ।।७५।।

 दण्डवत् नमनं स्तोत्रं प्रदक्षिणं सुमाऽञ्जलिम् । अपराधक्षमायाञ्चां चान्तिमार्घ्यं ददुः प्रगे ।।७६।।

 मध्याह्नेऽपि तथा चक्रुः सेवनं निशि चापि ताः । रात्रौ जागरणं चक्रुर्नर्तनं गायनादिभिः ।।७७।।

 द्वादशैव च ताः कन्या हावभावसमन्वितम् । यथा कृष्णहरिर्नारायणः श्रीपुरुषोत्तमः ।।७८।।

 शृंगाररसभावेन प्रसन्नः स्यात्पुमुत्तमः । आकृष्टः सन् दयालुः स दर्शनं च ददेद्यथा ।।७९।।

 तथा ताभिर्महाहर्षैः कृतं नर्तनगायनम् । प्रातर्हरिर्ब्राह्मकाले प्रादुर्बभूव संहसन् ।।८०।।

 युवा पुष्टः सुरूपश्च युवतीमानसाश्रयः । कोटिकामातिसौन्दर्यो वीर्यसंभृतगात्रकः ।।८ १।।

 प्रतिरोमरतिव्याप्तः प्रत्यंगानंगभासितः । प्रसन्नोऽस्मि प्रसन्नोऽस्मि सेवया संवदन् मुहुः ।।८२।।

 सेविका  वरदानानि वृणुतेष्टानि सर्वथा । इन्द्राणीत्वं शिवात्वं वा ब्रह्माणीत्वं ततोऽपि च ।।८३।।

 कृष्णात्वं वैष्णवीत्वं च ब्राह्मीत्वं तत्परं च वा । यद्यदिच्छा भवेत् तत्तद् ददाम्यद्य न संशयः ।।८४।।

 द्वादशात्मभवतीभिर्जिता लोकाः परात्पराः । सेवया श्रद्धया भावनया स्नेहार्द्रयाऽङ्गनाः ।।८५।।

 दास्योऽपि यूयमेवाऽद्याऽदास्यो जाता हि सेवया । मानसस्थं वृणुताऽद्य मा चिरं हृदयंगमाः ।।८६।।

 सेविकानां सेवकोऽहं शास्त्रीणां शासकोऽस्म्यहम् । मित्राणीनामहं मित्रं वामानां दक्षिणोऽस्म्यहम् ।।८७।।

 स्निग्धानां स्नेहिलश्चास्मि शरण्यानां तु रक्षकः । मदर्थत्यक्तसर्वस्वानां तु सर्वस्वदोऽस्म्यहम् ।।८८।।

 तथा न तोषमाप्नोमि धनैर्भत्यैश्च सेवया । यथा सन्तोषमाप्नोमि स्वेनैव कृतसेवया ।।८९।।

 सेवकोऽहमहं स्वामी यत्र सेवा न भिद्यते । यत्र भक्तः स्वयं मां वै स्वयं भावेन सेवते ।।९०।।

 तस्मात् प्रियाः प्रवदन्तु किं ददामि वदामि किम् । प्रियाभ्यः किं प्रयच्छामि सर्वस्वं हृदयान्वितम् ।।९१।।

 प्रियाः प्राहुर्वयं सर्वा अर्पिताः परमात्मनि । सर्वकान्ते परे कान्ते पत्यौ श्रीपुरुषोत्तमे ।।९२।।

 दासीनां तु तथा धर्मः सर्वार्पणं तु शास्तरि । प्रियाणां तु तथा धर्मः कान्ते सर्वार्पणं प्रिये ।।९३।।

 स्वामिनश्च तथा धर्मोऽर्पितानां ग्रहणं सदा । कान्तप्रियस्य धर्मो वै कान्तानां प्रियकारिता ।।९४।।

 प्रिया प्रियस्य सर्वस्वं प्रियः सर्वं प्रियाकृते । प्रियायाश्चापि सर्वस्वं प्रिय एव दयानिधिः ।।९५।।

 इति चात्र  महत्यर्थे यथेष्टं कुरु केशव । मानसं त्वयि सर्वस्वं चार्पितं कुरु यन्मतम् ।।९६।।

 श्रुत्वा प्राह तदा कृष्णनारायणः प्रभूत्तमः । सर्वं वेद्मि तथा सर्वाः स्वीकरोमि हृदन्तरे ।।९७।।

 बाह्यतोऽपि करान्धृत्वा करोमि हृदयंगमाः । भवन्तु मत्करस्पर्शाद् दिव्यरूपधरा मम ।।९८।।

 प्रियाः पत्न्यो भवन्त्वक्षराख्ये धामनि सर्वदा । जोष्ट्री  मम स्वरूपेऽस्तु तेजोमयी तु शक्तिका ।।९९।।

 सर्वानन्दप्रदा देवी चिन्मयी मत्स्वरूपिणी । सच्चिदानन्दरूपे मे चिन्मयी सा मया कृता ।। १० ०।।

 अन्याश्च द्वादशपत्न्यः सन्तु शाश्वतिका मम । तत्तन्नाम्ना तु ताः पत्न्यस्तत्र वसन्तु मद्गृहे ।। १०१ ।।

 मत्समाकृतयः सर्वाः पत्न्यस्ता अर्थतो यथा । मां विनाऽन्यसुखादेर्याऽशनं नैव करोति हि ।। १०२।।

 इति सार्थाऽनशनाख्या, पिपासां त्वर्थतः शृणु । मद्रसं सर्वदा पातुमिच्छति नान्यमेव या ।। १०३।।

 सा पिपासा मया पत्नी रक्षिता मत्स्वरूपिणी । अथाऽशना मम पत्नी या समश्नाति मां सदा ।। १०४।।

 सर्वान् कामानश्नुते सा ब्रह्मणा विदुषा सह । इति सार्थाऽशनाख्या सा पत्नी मे रक्षिता मया ।। १ ०५।।

 या च स्वात्मनि नित्यं मां परं वासयते पतिम् । सा मया भावपूर्णा वासना पत्नी सुरक्षिता ।। १०६ ।।

 यस्या नामाऽत्र वक्तव्यं भावना भाविता मया । आयाति मत्करं धृत्वा कराया मे प्रिया हि सा ।। १ ०७।।

 कं सुखं मत्परानन्दं शं लक्ष्मीं दिव्यसंपदम् । सेवया याति गृह्णाति मत्तो या सा करायिका ।। १ ०८।।

 मदर्थमेव सर्वस्वं कृतं क्रियात्मकं यया । इति निश्चयसार्थक्या व्यवसाया प्रिया मम ।। १ ०९।।

 सोढुं योग्या मम सर्वा क्रियाऽऽज्ञा सा प्रिया मम । प्रकर्षेण सहते या मद्रतिं सा प्रसह्यका ।। ११० ।।

 मदर्थे सर्वथा दिव्या विलस्यति मदर्थिका । विलासाख्या मम पत्नी मेऽनुविलासकारिणी ।। ११ १।।

 यस्याः श्वासो विना मां तु स्थातुं शक्तो भवेन्नहि । यस्या ह्यहं च मे साऽस्ति पतिर्मेऽस्ति सुखाय वै ।। १ १२।।

 इति विश्वासमापन्ना विश्वासा सा मम प्रिया । मां विना जीवनं श्वासो नास्ति यस्याः प्रतिक्षणम् ।। ११ ३।।

 मेहति वर्षते पत्यौ प्रेम वर्षयति प्रभौ । मयि स्नेहं करोत्येव मेघा सा मत्प्रिया मता ।। १ १४।।

 सर्वं कर्मं मयि या स्वां दमयतिभावतः । मदर्थं दमनं यस्याः कर्मणां कर्दमा प्रिया ।। १ १५।।

 कुं क्षेत्रं स्वात्मकं या भावयति मत्कृतेऽन्वहम् । कुंभे जलं यथा तद्वन्मां बिभर्ति निजात्मनि ।। ११६ ।।

 सा पत्नी कुंभिका मेऽस्ति यूयं पत्न्यः प्रकीर्तिताः । दिव्या यास्ता द्वादशैवाऽक्षरे धाम्नि वसन्तु मे ।। १ १७।।

 अथाऽन्यैस्तु स्वरूपैर्द्वादशशक्त्यात्मिकास्तु वै । वर्तन्तामन्यरूपिण्यो महाकालाय चार्पिता ।। १ १८।।

 ततो विश्वं व्यक्रामत् साशनाऽनशने ह्यभि । पिपासया प्रवाहस्तु धावत्यग्रेऽस्य संसृतेः ।। १ १९।।

 वासनया वसत्येतज्जडचेतनमिश्रितम् । करायया भवत्यत्र विनिमयस्तु देहिनोः ।। १२ ०।।

 धार्यते पुष्यते कालवाहया व्यवसायया । प्रसह्यया क्षमते त्वार्तवान् द्वन्द्वाँश्च वत्सरः ।। १२१ ।।

 विलासया श्रमं हापयित्वा जीवान् युनक्ति सः । विश्वासया फले लोभात्प्रवर्तन्ते तु देहिनः ।। १२२।।

 मेघया स्नेहवृष्ट्या वै रञ्जयन्ति प्रजाः समाः । कर्दमया प्रजा भूता मयि तिष्ठन्ति कर्दमे ।। १२३ ।।

 कुंभेष्वत्र गोलकेषु ब्रह्माण्डेषु च सर्वथा । तत्तत्स्थाने स्थापयित्री कुंभिका रक्षिका मता ।। १ २४।।

 एवं कालस्य मच्छक्तिभूतस्य शक्तयोऽन्वहम् । भवन्तु कार्यकारिण्यो लोके कालाय चार्पिताः ।। १ २५।।

 अथ यत्र जोष्ट्रिकायाः पुत्र्यः सन्त्युषिता यथा । तास्तथैव तु वेधः कृद्ब्रह्माण्डेऽपि वसन्त्विति ।। १२६ ।।

 वसन्तु श्रीकृष्णनारायणस्य मम वाच्छया । तृतीयैस्तु स्वरूपैः स्वैर्ज्योष्ट्रीजनन्य एव ह ।। १ २७।।

 एवं त्रिविधरूपैर्वै मया सम्यङ्नियोजिताः । कुर्वन्तु दास्यमेवाऽत्र महाकाले तथा मयि ।। १२८।।।

 भवतीनामहं स्वामी पतिः श्रीपुरुषोत्तमः । रमन्तां तु मया सार्धं स्वतन्त्रा अक्षरे परे ।। १२९।।

 तथाऽन्या मच्छक्तिरूपमहाकालसहायिकाः । तथाऽपरा मम सृष्टौ तत्तत्कार्यवहाः सदा ।। १३०।।

 इति त्रेधा मया दत्तं भवतीभ्यः प्रसेवनम् । द्वादश्यास्तु व्रतस्यैव फलं दत्तं हि शाश्वतम् ।। १३ १।।

 इत्युक्त्वा भगवान् कृष्णनारायणः पुमुत्तमः । दिव्यास्ताः सह नीत्वैव व्यवस्थाप्य तथाऽपराः ।। १ ३२।।

 महाकालाय दत्वाऽन्या ययौ धामाऽक्षरं हरिः । वद लक्ष्मि! कृपापारावारः कृष्णः पुमुत्तमः ।। १३३।।

 किं किं ददाति कृपया स्वल्पस्याऽनन्तकं फलम् । इति ते कथितं सर्वं जोष्ट्रीदेव्याः कथानकम् ।। १३४।।

 देवी जोष्ट्री वसुधिती देवमिन्द्रं वयोधसम् । प्राप्याऽवर्धत बृहती ब्राह्म्यास पुरुषोत्तमम् ।। १ ३५।।

 य इदं श्रावयेच्चापि शृणुयाद्वा पठेच्च वा । तस्यापि तादृशं स्याच्च फलं व्रतस्य निश्चितम् ।। १३६।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये वैराजपुत्र्या जोष्ट्र्या अनशनादि- द्वादशपुत्रीणां सेवया द्वादश्याव्रतेन च प्रसन्नस्य पुरुषोत्तमनारायणस्य प्राप्तिस्त्रेधारूपधारणादिक चेत्यादिनिरूपणनामैकोनविंशाधिकत्रिशत-तमोऽध्यायः ।। १.३१९ ।।