पुरुषोत्तम मास कृष्ण पक्ष षष्ठी(7-7-2015ई.)

 लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास उत्तरा षष्ठी का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है – मरु देश में देवयव नाम का एक धनाढ्य ब्राह्मण रहता था जिसकी पत्नी का नाम देवजुष्टा था। उनके भृत्य का नाम गिरिक्षित था और भृत्या का नाम अद्रिद्युति था। वे चारों कृष्णभक्ति परायण थे। मरुदेश के अधिपति राजा देवसख ने भास्वती नामक नगरी में विष्णुमन्दिर बनवाया जिसमें सात शिखर थे। मध्य के शिखर के अन्तर में लक्ष्मी – राधा समेत कृष्णनारायण विष्णु विराजमान थे। दक्षिण शिखरों के गर्भों में श्री – प्रभा – पार्वती का त्रिक अपनी – अपनी दासियों के साथ विराजित था। वाम शिखर के गर्भों में माणिक्या, ललिता, जया अपनी – अपनी दासियों के साथ विराजमान थी। उनकी सेवा के लिए उन चारों को पृथक् – पृथक् नियुक्त किया गया। देवयव सदा मध्यभाग में पूजा करता था। गिरिक्षित बाहर चन्दनादि कार्य करने में नियुक्त हुआ। देवजुष्टा पार्वती – श्री – प्रभा की अर्चना में नियुक्त हुई। अद्रिद्युति वाम भाग में माणिक्या आदि की अर्चना में नियुक्त ही। राजा उन्हें वेतन देता था, वासयोग्य भवन, आजीविका के लिए वाटिका आदि, वार्षिक द्रव्य, स्वर्णसहस्र देता था। इसके अतिरिक्त उत्सव पर वस्त्र, अन्न भूषण आदि देता था। देवपूजाओं में नैवैद्य आदि राजा देता था। इस प्रकार चलते हुए देवयव विप्र लोभ से आकृष्ट होकर कभी तो यात्रियों द्वारा देवों को अर्पित द्रव्य में से एक रुपया या स्वर्णमुद्रा आदि ले लिया करता था। इस चोरी से देवयव का सद्द्रव्य देवधन से दूषित हो गया और चंचल हो गया। लक्ष्मी अन्यत्र जाने की तैयारी करने लगी।इसी प्रकार जब अन्न में सुरान्न मिश्रित हो जाता है तो वह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार जब वस्त्र देव वस्त्र से मिश्रित हो जाता है तो वह भी नष्ट हो जाता है। वस्तु मात्र जो चोरी से प्राप्त की गई है, जो प्रसाद रूप से प्राप्त नहीं की गई है, जो पूजक, आचार्य, गुरुओं द्वारा दी गई है, जो देवस्वरूपी है, वह जहां भी रखी जाएगी वह मूल का भी दहन कर देती है, वैसे ही जैसे चूल्हे की आग अरण्य में जाकर अरण्य को जला देती ङै। गौ का अन्न, भिक्षुक का अन्न, विप्र का अन्न, प्रमदा का अन्न, अनाथ का अन्न, निराधार अन्न कुपित अग्नि के समान है। ब्रह्म धन, विधवा धन, देवधन, भिक्षु का धन, गरीब का धन यह अग्नि रूप जहां गिरता है, वहां जला देता है। देवपूजा कृत फल, अन्न, पैसा ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि वह कुल को जला देता है। मरुदेश और कोसल राजाओं का युद्ध हुआ। कोसल देश की सेना ने मरुदेश के भूपति को जीत लिया। सेना ने सारी नगरी ध्वस्त कर दी। धनाढ्यों का धन छीन लिया। नृपमान्य द्विज जानकर उसका सारा धन छीन लिया और भार्या व भृत्यों सहित वहां से भगा दिया। वह रैवत गिरि पर हिरण्या नदी के तट पर सोमनाथ के निकट गया और वन के मूल – फल खाकर रहने लगा। वह दिन में भृत्य व पत्नी सहित प्राची सरस्वती नदी के तट पर जाकर पिप्पल की शाखा के नीचे बैठकर जल पीकर विश्राम करता था तथा हरि कृष्णनारायण जगद्गुरु का स्मरण करता था। गिरिक्षित भृत्य ने देवयव को कहा कि जिसकी हमने पूजा की, उस शार्ङ्धनुष धारी विष्णु ने ही हमारी रक्षा नहीं की। सेनाओं ने मन्दिर के स्वर्ण तक का भी हरण कर लिया। तब भी विष्णु ने रक्षा नहीं की। जो अपनी ही रक्षा न कर सके, वह दूसरे की रक्षा क्या करेगा। तब देवयव ने अपने भृत्य से कहा कि ऐसा मत कहो। जैसा तुम कह रहे हो, वैसा नहीं है। श्रीहरि सब जीवों की रक्षा करते हैं। उन्होंने हम चारों की रक्षा की, इसी कारण से हम चारों जीवित हैं। देवद्रव्य का अपहरण करने का तो यही परिणाम होना था। अब आगे ऐसा यत्न करो कि यम का आगमन न हो। आपत्ति में नारायण ने षड्विध कर्म कहा है – विश्वास, वरण, न्यास, कृपणता, स्थिर मति, अनुकूल संकल्प, प्रतिकूल का वर्जन। अब हरि मेरे लिए जो कुछ करते हैं, वह मेरे योग्य ही होगा, यह विश्वास रखना चाहिए। तुम मेरे हो, मैं तुम्हारा हूं, यह वरण है। मैं अपना सर्वस्व तुम्हारे चरणों में न्यास रखता हूं, यह न्यास है। सार्वभौम होकर भी दास की तरह कृपणता से आचरण करे। सर्वनाश होने पर भी खेद न करे, स्थिर मति से रहे। तुम्हारा संतोष मेरा संतोष है, इससे अतिरिक्त कोई संकल्प न करे। उदर हेतु लोभ से जो चोरी आदि पातक हमने किया है, वह भगवान् भक्ति से निश्चय ही जला देगा। उन्होंने यह विचार करके प्राचीसरस्वती स्थल पर जपयज्ञ किया। इस प्रकार चलते उन्होंने अधिक मास की षष्ठी की दुन्दुभी की घोषणा सुनी कि षष्ठी का व्रत करने से पूजा के अपराध क्षमा कर दिए जाते हैं। उन चारों ने यह कामना करते हुए व्रत किया कि हमारी दरिद्रता नष्ट हो, विशाल धनसम्पदा पहले से भी अधिक हो, यान, वाहन, गृह, दास, दासी राज्य से भी अधिक हों। भक्तों में भी भोगों के प्रति आसक्ति हो जाया करती है। ब्राह्मण ने विचार किया परमेष्ठी पद या सूर्य – चन्द्र आदि के भी पदों से बडा इन्द्र पद है। ब्रह्मा को बूढे होने का रोग है, सूर्य – चन्द्रमादि आकाश में दूसरों के कारण से भ्रमण करते हैं। प्रवास में सुख कहां, कभी भी विश्राम नहीं। अतः इन्द्रपद ही सबसे अच्छा है जिसमें स्वर्ग की शाश्वत लक्ष्मी रहती है। उनकी भक्ति से केशव प्रकट हुए । उन्होंने महेन्द्र पद की कामना की और हरि तथास्तु कह कर अदृश्य हो गए। अधिमासे में प्राची सरस्वती के तट पर पिप्पल स्थल पर शरीर त्याग कर चारों द्युलोक को गए। कालांतर में देवयव तो व्रत के पुण्य से महेन्द्र बना, देवजुष्टा पुलोमा की कन्या होकर महेन्द्राणी बनी, गिरिक्षित इन्द्र-पुत्र जयन्त बना, अद्रिद्युति विश्वकर्मा की पुत्री होकर जयन्त – पत्नी बनी।

         

विवेचन

डा. फतहसिंह कहा करते थे कि मनुष्य में विज्ञानमय कोश यव जैसा है जहां एक होते हुए भी यव की भांति दो दिखाई देते हैं। यव बीच में से जुडा रहता है। ऐसे ही विज्ञानमय कोश एक ओर से तो आनन्दमय कोश से जुडा है, दूसरी ओर से मनोमय कोश की त्रिलोकी से। देवयव की पत्नी को देवजुष्टा कहा गया है। देवजुष्टा के संदर्भ में वैदिक साहित्य में कहा गया है कि देवजुष्टा वाक् वह है जो देवों के साथ जुडी है। जो देव कहलाना चाहते हैं, वाक् वही कहे तो वह देवजुष्टा वाक् है। सरस्वती का भी तो यही कार्य है। माहात्म्य में कहा गया है कि देवयव, देवजुष्टा आदि मन्दिर में सेवा कर रहे थे। देवयव द्वारा देवद्रव्य के हरण के पाप से वह अपना सारा धन खो बैठा और प्राची सरस्वती के तट पर बैठ कर जप आदि करने लगा। वैदिक मन्त्रों की व्याख्या करते समय सायणाचार्य ने देवयव का अर्थ लिया है – जो देवों से जुडने चला है – देवयु। यद्यपि हम सब देवों से जुडे हुए हैं, लेकिन हमें स्वयं को प्राप्त भोगों से तृप्ति नहीं है। हो भी नहीं सकती, जब तक हम पूर्णतः आनन्दमय कोश से न जुड जाएं। मनुष्य ने अपने लिए बहुत से रसों का आविष्कार कर लिया है जो संभवतः आनन्दमय कोश में ही प्राप्त हो सकते हैं। इसीलिए आचार्य रजनीश आदि ने कहा है कि भोगों का त्याग मत करो, जब तक तुम्हें अन्य भोगों की प्राप्ति का विश्वास न हो जाए। भोग दिव्य हैं, यह उसी आनन्दमय कोश के भोगों की छाया है। लेकिन शास्त्र कहते हैं कि यदि तुम साधना के उपयुक्त स्तर पर पहुंचे बिना अमुक भोग का आस्वादन करते हो तो वह चोरी है, अनधिकार चेष्टा है, वैसी ही जैसे देवयव ब्राह्मण ने मन्दिर से देव धन चुरा लिया। जब साधना का उपयुक्त स्तर आ जाएगा, तब अमुक भोग अपने आप प्रकट हो जाएगा। परमात्मा ने किसी भी पशु को सारे रसों का आस्वादन करने का अधिकार नहीं दिया है। गौ के मुख में स्रवित होने वाले रस अन्य हैं, मनुष्य के मुख में अन्य इत्यादि। मनुष्य द्वारा आविष्कृत भोगों का कितना लाभ है, कितनी हानि, यह अन्य पक्ष है। हो सकता है कल विज्ञान में ऐसा यन्त्र बन जाए कि सिर में इलेक्ट्रांड फिट कर दो और एक से एक दिव्य रस का आस्वादन करो। यदि इतना हो भी जाए, तब भी हमें अपनी साधना के पथ को भूलना नहीं चाहिए। वर्तमान माहात्म्य में षष्ठी व्रत को भोगों को प्राप्त करने का एक उपाय बताया गया है। और यह व्रत प्राची सरस्वती पर किया जाना है।

सरस्वती के विषय में पूरे पौराणिक साहित्य का आधार एक ही हैप्राची सरस्वती और पश्चिम वाहिनी सरस्वती। पुराणों की इस कल्पना का वैदिक आधार क्या है, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। पूर्व वाहिनी स्थिति पुण्या स्थिति है जबकि पश्चिम वाहिनी स्थिति अपने पापों का नाश करने से सम्बन्धित है। पश्चिम का अर्थ है जहां सूर्य अस्त होता है, आध्यात्मिक रूप में जब हमारे कर्मफलों के बीज भुन जाते हैं, वह बीज अंकुरित नहीं होते। देवयव ब्राह्मण की पूर्व साधना मरु स्थल में थी, जहां सारे कर्मफल मरुस्थल बन जाते हैं, उगते नहीं।  पूर्व का अर्थ है जहां हमारे पुण्यों का उदय होता है। कुरुक्षेत्र वह स्थिति है जहां सरस्वती प्राची वाहिनी है। इसी प्रकार अन्य तीर्थ भी हैं। लोक में यह प्रसिद्ध है कि गंगा, यमुना नदियां तो प्रकट रहती हैं, लेकिन सरस्वती अदृश्य रहती है। यह स्थिति प्रयाग में संगम क्षेत्र में भी है। ब्रह्म पुराण 2.65 की कथा में स्पष्ट किया गया है कि जो सरस्वती अनृत रूपा थी, जो अनृत वचन बोलती थी, वह ब्रह्मा के शाप से अदृश्य नदी बन गई। फिर गंगा के वरदान से वह पुनः प्रकट हो गई। षष्ठी देवी को मनसा देवी भी कहते हैं। षष्ठी को सार्वत्रिक रूप से स्कन्द व उनकी पत्नी रूप देवसेना की आराधना का निर्देश है। स्कन्द अनिरुक्त गुण को, रस को, ज्ञान को निरुक्त, प्रत्यक्ष करने वाले देवता हैं। और जब तक रस प्रकट नहीं हुए तो नहीं हुए। जब रस प्रकट होंगे तो उनको संभालना कठिन हो जाएगा। अतः कहा गया है कि देवयव ने इन्द्र बनने का वरदान मांगा जिससे वह रसों से विचलित न हो।

 

श्रीनारायण उवाच-

 श्रूयतां च त्वया लक्ष्मि! श्रीपुरुषोत्तमाश्रिता । कथा सम्पत्प्रदा सौख्यप्रदा सर्वेष्टदा सदा ।। १ ।।

 पूर्वे कल्पे ब्रह्मणो वै मरुदेशेऽतिधार्मिकः । धनाढ्यो ब्राह्मणो नाम्ना देवयवो बभूव ह ।। २ ।।

 तस्य पत्नी देवजुष्टाऽप्यासीत्पतिव्रता शुभा । तयोर्भृत्यो गिरिक्षितो भृत्या चाद्रिद्युतिस्तथा ।। ३ ।।

 बभूवतुः सदा कृष्णनारायणपरायणौ । स्वामिकार्यं विधायैव कृष्णचर्या प्रचक्रतुः ।। ४ ।।

 ब्रह्मकर्मपरा नित्यं षट्कर्मादिपरायणाः । चत्वारस्ते बभूवुर्वै कृष्णभक्तिपरायणाः ।। ५ ।।

 ब्राह्मणौ स्वामिनौ चापि विप्राण्यौ सेविके च ते । हर्यर्थं मनसा वाण्या तन्वा निन्युः क्षणात्क्षणम् ।। ६ ।।

 मरुदेशाधिपतिना राज्ञा देवसखेन वै । नगर्यां भास्वतीनाम्न्यां कारितं विष्णुमन्दिरम् ।। ७ ।।

 सप्तशिखरसंशोभं त्र्यग्रगोलमनोहरम् । स्वर्णस्तंभांगनरम्यं त्रिप्राकारमनोहरम् ।। ८ ।।

 मध्ये तु शिखराऽन्तःस्थसिंहासने चतुर्भुजः । कृष्णनारायणो विष्णुर्लक्ष्मीराधासमन्वितः ।। ९ ।।

 दक्षशिखरगर्भेषु श्रीप्रभापार्वतीत्रिकम् । स्वस्वदासीसमाजुष्टं प्रत्येकं राजते शुभम् ।। १० ।।

 वामशिखरगर्भेषु माणिक्या ललिता जया । स्वस्वदासीसमाजुष्टा प्रत्येकं राजते त्रिषु ।। १ १।।

 तत्सेवाया नियुक्तास्ते चत्वारो वै पृथक् पृथक् । देवयवो मध्यभागे पूजां करोति सर्वदा ।। १ २।।

 गिरिक्षितो बहिश्चन्दनादिकार्यकरोऽभवत् । देवजुष्टा दक्षभागे पार्वतीश्रीप्रभार्चनम् ।। १३ ।।

 अद्रिद्युतिर्वामभागे माणिक्याद्यर्चनादिकम् । करोत्येव विभागेन राजा ददाति वेतनम् ।। १४।।

 भवनं वासयोग्यं च जीविकां वाटिकादिकाम् । वार्षिकं च तथा द्रव्यं तथा स्वर्णसहस्रकम् ।। १५।।

 वस्त्रान्नभूषणादीनि ददाति चोत्सवेऽधिकम् । देवपूजासुनैवेद्यादिकं ददाति भूपतिः ।। १६ ।।

 एवं वै वर्तमानेन विप्रदेवयवेन वै । लोभाकृष्टेन मनसा गृह्यते ढब्बुकं क्वचित् ।। १७।।

 क्वचित्तु रूप्यकं स्वर्णमुद्रा यात्रालुभिः खलु । देवायाऽर्पितमित्येतद्देवद्रव्यं मुमोष सः ।। १८ ।।

 तेन चौर्यदुरितेन देवधनेन मिश्रितम् । देवयवस्य सद्द्रव्यं दूषितं त्वास चञ्चलम् ।। १ ९।।

 इयेष गन्तुमन्यत्र चंचला हि श्रियो मताः । देवद्रव्यान्वितं यत्तत् समूलं नाशमेति वै ।। २० ।।

 यद्यपि न्यायलब्धं स्वं देवद्रव्यस्पृशिं गतम् । दूषितं तद् विनश्येद्वै लक्षं नीत्वा प्रगच्छति ।। २ १ ।।

 अन्नं चापि सुरान्नादिमिश्रितं नश्यति द्रुतम् । वस्त्रं देवाम्बरयुक्तं नाशयत्येव देहिनम् ।। २२।।

 वस्तुमात्रं चौर्यलब्धं यन्न प्रसादरूपतः । पूजकाचार्यगुरुभिर्दत्तं देवस्वरूपि तत् ।।।२३ ।।

 यत्र क्षिप्तं तु तत् सर्व मूलीयमपि दह्यति । चुल्लीकाष्ठाऽनलोऽरण्यगतोऽरण्यं प्रदह्यति ।। २४।।।

 गवामन्नं भिक्षुकान्नं विप्रान्नं प्रमदान्नकम् । अनाथान्नं निराधारान्नमग्निः कुपितः स वै ।। २५।।

 ब्रह्मस्वं विधवास्वं च देवस्वं भिक्षुनाणकम् । अनाढ्यस्वं महानग्निः पतेद् यत्र स दह्यति ।। २६।।

 देवपूजाकृता किञ्चित्फलं चान्नं च ढब्बुकम् । न ग्राह्यं देवतात्वं चेद् यतो दहति तत्कुलम् ।। २७।।

 पूर्वैः पूर्वतमैश्चापि मुषितं देवनाणकम् । तदेवान्यदपि न्याय्यं मुष्णाति मुषकस्य वै ।। २८ ।।

 देवयवोऽपि देवस्य मन्दिरे हरिसन्निधौ । यात्रालुभिस्त्वर्पितं च प्रक्षिप्तं ढब्बुकादिकम् ।।।२ ९।।

 पुष्णात्येव स्वके द्रव्ये निक्षिपति च वृद्धये । येन केन निमित्तेन तस्य नाशं उपागतः ।। ३० ।।

 मरुकोसलयोः राज्ञोर्युद्धं घोरं बभूव ह । कोसलस्य तु सैन्यैर्वै विजितो मरुभूपतिः ।। ३१ ।।

 सैन्यैस्तु नगरी सर्वा भास्वती ध्वंसिता तदा । धनाढ्यानां नाणकानि हृतानि वै प्रसह्य तैः ।। ३ २।।

 नृपमान्यं द्विजं ज्ञात्वा सर्वं तस्य हृतं धनम् । निष्कासितस्ततः स्थानात् सभार्याभृत्यमात्रकः ।। ३३ ।।

 ययौ स रैवतगिरौ हिरण्यायास्तटे शुभे । सोमनाथस्य निकषां वने मूलफलाशनः ।। ३४।।

 निर्गमयत्यहान्येव पर्यटन् भृत्यदारयुक् । सरस्वतीं नदी प्राचीं गत्वा पिप्पलशाखिनम् ।। ३५।।

 निषसाद जलं पीत्वा विशश्राम क्षणं तदा । सस्मार च हरिं कृष्णनारायणं जगद्गुरुम् ।। ३६ ।।

 चिन्तयामासुरन्योन्यं शत्रुजन्यं पराभवम् । गिरिक्षितस्तदा भृत्यः प्राह देवयवं द्विजम् ।। ३७।।

 यस्य वै पूजनं सम्यक् कृतं तेनापि शार्ङ्गिणा । रक्षिता न वयं शत्रोरुपद्रवेऽपि सेवकाः ।। ३८।।

 सर्वस्वं वै हृतं सैन्यैर्मन्दिरस्यापि कांचनम्। तत्रापि रक्षणं नैव कृतं श्रीविष्णुना तदा ।। ३९।।

 परस्य रक्षणं कस्मात् कुर्याद् यः स्वं न  रक्षयेत् । इत्युक्ते ब्राह्मणो देवयवः प्राह स्वभृत्यकम् ।। ४० ।।

 मैवं वद तथा नास्ति यथा त्वं वदसि द्विज! । रक्षति श्रीहरिः सर्वान् जीवतो रक्षिता वयम् ।।४ १ ।।

 रक्षा कृता चतुर्णां वै यज्जीवामोऽत्र संयुताः । देवद्रव्यापहारस्य पातकं त्वन्तवर्जितम् ।।४२।।

 तत्कृतं वै मया तच्च द्रव्यं स्वद्रव्यमिश्रितम् । तेन सर्वं गतो नो वै द्रव्यं मत्पातकेन वै ।।४३।।

 देवद्रव्यं च देवान्नं यस्य कोशे हि जीर्यति । तस्य सर्वस्वनाशाय फलं भवति निश्चितम् ।।४४।।

 सर्वस्वं तद्गतं योग्यं फलमत्रैव चार्जितम् । यमलोकोऽपि भोक्तव्यो ह्यधुना शिष्यतेऽपि हि ।।४५।।

 तथापि सेवनस्यैतत्फलं रक्षति नोऽत्र वै । यद्वयं घातिता नैव रक्षिताः परमात्मना ।।४६ ।।

 देवद्रव्यं न भोक्तव्यं पत्रं पुष्पं फलादिकम् । वस्त्रं यानं गृहं पात्रं भोक्तव्यं नैव सर्वथा ।।४७।।

 अन्यायेनापि लोभेनाऽज्ञानेनापि प्रसह्य वा । भुक्तं यदि तदा तत्तु भोक्तुर्नाशकरं भवेत् । । ४८।।

 तद्वयं नाशिता नैव कृपा सेयं हरेर्द्विज । अथ यत्नः प्रकर्तव्यो यथा यमो न संचरेत् ।।४९ ।।

 प्रपन्नानां हरिस्त्राता यमस्तत्र न संचरेत् । प्रपत्तौ षड्विधत्वं वै नारायणेन दर्शितम् ।।५ ० ।।

 विश्वासो वरणं न्यासः कार्पण्यं च स्थिरा मतिः । आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकूल्यविवर्जनम् ।।५ १ ।।

 तत्र हरिर्मदर्थं यत् करोति सकलं तु तत् । मदर्थं योग्यमेवाऽस्ति त्वेवं विश्वासमाचरेत् ।।५२ ।।

 त्वं ममासि तवाहं चेत्येवं वरणमर्थयेत् । सर्वस्वोऽहं पादयोस्ते न्यस्तोऽस्मि न्यासमाचरेत् ।।५ ३ ।।

 सत्यपि सार्वभौमेऽपि कार्पण्यं दासवच्चरेत् । सर्वनाशेऽपि खेदं न कुर्यान्मतिं स्थिरां चरेत् ।।५ ४।।

 तव तोषो मम तोषो नान्यथेति सुकल्पयेत् । इत्येवं तस्य यद्रम्यं रम्यमेव ममापि तत् ।।५ ५ ।।

 नान्यदिति प्रकुर्याद्वै मत्वा भक्तिं सदा हरेः । अपराधान् क्षमाप्यैव सोऽस्मान् संतारयिष्यति ।।५६ ।।

 उदरार्थं प्रलोभेन कृतं चौर्यादि पातकम् । तत्सर्वं भगवान् भक्त्या ध्रुवं प्रज्वालयिष्यति ।।५७।।

 कृष्णनारायणं ब्रह्म व्याहरँस्तं त्वनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्वर्ष्म स याति परमं पदम् ।।५ ८ ।।

 तस्मादत्रैव सत्तीर्थे ह्युषित्वा चिरमेव तु । आराध्य तं कृष्णनारायणं यास्याम वै पुनः ।।५९।।

 यद्वाऽऽयुष्यक्षये तस्य धाम प्राप्स्याम ईप्सितम् । अपराधसहस्राणि स श्रीहरिः क्षमिष्यते ।।६ ०।।

 इति विचार्य चत्वारः कृष्णनारायणाभिधाम् । जपयज्ञं प्रचक्रुस्ते प्राचीसरस्वतीस्थले ।।६ १ ।।

 प्रातः स्नात्वा हरिं ध्यात्वा पुपूजुर्नित्यमेव ते । दलं पुष्पं फलं तोयं कन्दादि यदुपस्थितम् ।।६२।।

 अर्पयन्ति हरये ते जलार्थं प्रार्थनादिकम् । कुर्वन्ति स्म प्रगे मध्ये सायं निशि पुनः पुनः ।।६३।।

 एवं वै वर्तमानेषु व्योममार्गेण संश्रुतः । दुन्दुभिस्त्वधिमासस्य श्रीपुरुषोत्तमोदितः ।।६४।।

 षष्ठ्यां प्रातर्दुन्दुभेस्तु पुरुषोत्तममासि वै । घोषणा मोक्षदा यद्वा सकामानां तु भोगदा ।।६५।।

 प्रवर्तते स्म सा कर्णपथं प्राप्ता मनोरमा । चतुर्भिस्त्वपि सध्यानां विचार्वाऽवधृता हृदि ।।६६ ।।

 शृण्वन्तु मानवाः सर्वे निर्धनाः सधना अपि । निरागसः सापराधास्तथा नार्यो नरा अपि ।।६७।।

 पूजायां मे त्वपराधा भवन्ति बहवोपि वै । यदि कैश्चित् कृतास्तान् वै गणयिष्ये मनाङ् न वै ।।६८।।

 कुर्वन्तु व्रतमद्यैव षष्ठ्यां द्वितीयपक्षके । पुरुषोत्तममास्यस्मिन् क्षमयिष्ये नु पातकम् ।।६९।।

 वज्रलेपादिकं पापं क्षालयिष्येऽद्य वै व्रतात् । एकभुक्तं च वा नक्तं विना याञ्चां समागतम् ।।७०।।

 गृहीत्वापि तु षष्ठ्यां वै व्रतं कार्यं ममात्र हि । फलं भुक्त्वा जलं पीत्वा ग्रसित्वा पवनं च वा ।।७ १।।

 व्रतं कार्य मम षष्ठ्यां तस्मै दास्ये यथेप्सितम् । प्राक् कृतं मे विपरीतं स्मरिष्ये तन्न सर्वथा ।।७२।।

 अद्याऽहं कृपया दास्ये तदिष्टं पुरुषोत्तमः । पुरुषोत्तममासोऽयं वर्तते भुवनत्रये ।।७३।।

 ईशलोकेऽप्ययं मासो ममाऽऽज्ञया प्रवर्तते । सर्वमूर्धन्यमासोऽयं मूर्धन्यपुरुषोत्तमात् ।।७४।।

 मूर्धन्यफलदस्तस्माद् वृणुतेप्सितमुत्तमम् । इत्युक्त्वा दुन्दुभिस्तस्मात् स्थानात् स्थानान्तरं ययौ ।।७५।।

 चत्वारो ब्राह्मणास्ते तु दारिद्र्यदुःखपीडिताः । षष्ठ्यां व्रतं प्रचक्रुस्ते श्रुत्वा दुन्दुभिशब्दितम् ।।७६।।

 दारिद्र्यं नष्टतां गच्छेत् सुखं वैभवसंभवम् । पूर्वतोऽप्यधिकं स्याच्च विशाला धनसम्पदः ।।७७।।

 यानवाहनसौधानि दासा दास्यः समुज्ज्वलाः । राज्यादप्यधिकं सर्वं भवेत्तर्हि सुखं भवेत् ।।७८।।

 इत्यभिलष्य तैः सर्वैस्तूपवासव्रतं कृतम् । पूर्वं संभोगिनः पश्चाद् वाञ्छन्ति भोगसम्पदः ।।७९।।

 स्वभावं यान्ति भूतानि निग्रहस्तु दुराधरः । यावद्वाञ्च्छा न वै शान्ता तावज्ज्ञाता प्रवर्तते ।।८०।।

 भक्तानामपि चेष्टेषु भोग्येष्वस्ति प्रवर्तनम् । रागशून्यस्य नास्त्येव समद्रष्टुः प्रवर्तनम् ।।८१ ।।

 विचार्य विषवत् त्यक्तं यदि रागो न लीयते । तर्हि सुयोगे सम्पन्ने पुनरादातुमिच्छति ।।८२।।

 तस्मादिन्द्रियनैर्बल्यं साधयन्ति सुयोगिनः । तपसा क्षालितपापबला जयन्ति मायिकम् ।।८३।।

 अनाहारेण विजयो बहुक्लेशेन वा जयः । शैथिल्येन च विजयो भवत्याहारशालिनाम् ।।८४।।

 एभिस्तु ब्राह्मणैर्दारायुक्तैर्न विजयः कृतः । इष्टं वै मायिकं तैस्तु राज्यं वै पूर्वतोऽधिकम् ।।८५।।

 पारमेष्ठ्यपदं यद्वा सूर्यचन्द्रादिकं पदम् । इन्द्रपदसमं देवराजवन्नाऽन्यदस्ति तत् ।।८६।।

 ब्रह्मणः सर्वदा त्वस्ति वार्धक्यं स्वप्रजाः प्रति । सूर्यचन्द्रादिका व्योम्नि भ्रमन्ति परवश्यगाः ।।८७।।

 प्रवासिनां सुखं नास्ति विश्रामो नास्ति वै क्वचित् । अविश्रान्तः सदा क्लिष्टस्तस्मादैन्द्रपदं वरम् ।।८८।।

 राज्यं सर्वसुराणां वै दाराधामधनादिकम् । स्वर्गे लक्ष्मीः शाश्वती च स्मृद्धिरिन्द्रस्य वर्तते ।।८९।।

 तस्मादैन्द्रपदं ग्राह्यं भोगोत्तमप्रदं शुभम् । पश्चाद् भक्त्या समुपार्ज्य वैकुण्ठं दिव्यसाधनम् ।।९० ।।

 एवं निश्चित्य तैः सर्वैः कृतं षष्ठ्यां व्रतं शुभम् । प्रातः स्नात्वा मृदो मूर्तिं कारयित्वा हरेस्तदा ।।९१ ।।

 पार्श्वे स्फटिकपाषाणं स्थापयित्वा ततश्च ते । आवाहयित्वा श्रीकृष्णनारायणं पुमुत्तमम् ।।।९२।।

 संस्नाप्य पंचदुग्धाद्यमृतेन च जलेन च । वस्त्राभूषाद्रवद्द्रव्याक्षतपुष्पादिचन्दनैः ।।९३।।

 धूपदीपसुनेवेद्यैः फलपत्रजलादिभिः । संपूज्याऽर्घ्यं बिल्वफलैर्युक्तं दत्वा नमः स्तुतिम् ।।९४।।

 प्रार्थनां स्तवनं पुष्पाञ्जलीन्समर्प्य विष्णवे । आन्दोलयाचक्रिरे च लतारज्ज्वादिदोलने ।।९५।।

 मध्याह्ने च तथा सायं रात्रौ पूजां सजागराम् । चक्रुस्ते नृत्यगीतादि तत्राऽऽविरास केशवः ।।९६।।

 वरान् वृणुत भक्ताः स्थ गतं दुःखं व्रतेन मे । यथेष्टं त्वर्पयितुं चागतोऽस्मि तोषितोऽस्मि च ।।९७।।

 दृष्ट्वा श्रुत्वा कृष्णनारायणं हरिं चतुर्भुजम् । नत्वा ते पादयोः पुष्पांजलिं वारि ददुस्तदा ।।९८।।

 वव्रिरे देवसदनं महेन्द्रपदमृद्धिमत् । तथास्त्विति वरं दत्वा हरिस्तिरोबभूव ह ।।९९।।

 अधिमासे सरस्वत्यास्तटे प्राच्याः सुपिप्पले । स्थले त्यक्त्वा शरीराणि चत्वारो दिवमागताः ।। १ ००।।

 प्रान्तेन्द्रस्याऽऽयुषो नाशे दशलोकिक्षयोत्तरम् । चत्वारस्ते ययुः सौम्ये महर्लोके चिरंस्थिताः ।। १० १।।

 पुनः कल्पान्तरारंभे चत्वारो दिवमागताः । देवयवो महेन्द्रो वै बभूव व्रतपुण्यतः ।। १ ०२।।

 देवजुष्टा महेन्द्राणी संबभूव हरेः प्रिया । गिरिक्षितो बभूवेन्द्रपुत्रो जयन्तनामकः ।। १ ०३।।

 अद्रिद्युतिर्विजयन्तपत्नी जाता तु मानसी । विश्वकर्मसुता त्वेषा स्नुषा त्विन्द्रस्य या मता ।। १०४।।

 पुलोमजाऽभवदिन्द्राणीति सा मानसी सुता । इन्द्रपत्नी संबभूव दासीदासाऽर्बुदाऽन्विता ।। १०५।।

 षष्ठीव्रतेन विप्रैस्तैराप्तं त्वैन्द्रपदं शुभम् । सुखं देवेश्वरपदं प्राप्तं श्रीहर्यनुग्रहात् ।। १०६।।

 इमां कथां पठेद् यस्तु शृणुयाद्वा समाहितः । तस्य षष्ठीफलं स्याद्वै तथेष्टं संलभेत च ।। १ ०७।।

 इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये मरुदेशीयदेवयवगिरिक्षितविप्रयोस्तत्पत्न्योर्देवजुष्टाऽऽर्द्रद्युत्योश्च देवद्रव्यचौर्येण सर्वस्व-नाशोत्तरं त्वधिकमासस्य द्वितीयपक्षस्य षष्ठ्या व्रतेन महेन्द्रजयन्तमहेन्द्राणीजायन्तीपद-प्राप्तिनिरूपणनामा त्रयोदशाधिकत्रिशत-तमोऽध्यायः ।।१.३१३।।