संस्कृत विकिसोर्स पर स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड के पुरुषोत्तम खण्ड का जो विवरण उपलब्ध है, उसका सारांश इस प्रकार है -

मुनियों ने कहा कि जो पुरुषोत्तम नामक क्षेत्र है, उसमें परमपुरुष दारुमय कैसे है। जैमिनि ने उत्तर दिया कि  इस क्षेत्र का विस्तार दस योजन का है। ऋषिकुल्या व स्वर्णरेखा नदियां दक्षिण उदधिगामी हैं। इनके मध्य का क्षेत्र पुरुषोत्तम क्षेत्र कहलाता है। यह तीर्थराज के जल से ऊपर उठा है तथा बालू से चित है। इसके मध्य में नीलाचल विराजमान है जो दूर से पृथिवी का एक स्तन लगता है। वराह रूप भगवान् ने पूर्व में वसुन्धरा का उद्धार करके, उसे सम्यक् रूप से समतल बनाकर पर्वतों द्वारा स्थिर बनाया। ब्रह्मा ने सारे तीर्थ, सरित्, समुद्र, क्षेत्रों की सृष्टि कर उन्हें यथास्थान रखकर सोचा कि क्या किया जाए कि सृष्टि की इतनी बडी प्रक्रिया को पुनः दोहराने की आवश्यकता न पडे। तापत्रय से अभिभूत जन्तुओं की मुक्ति कैसे हो। ब्रह्मा ने सोचा कि मैं मुक्ति के एकमात्र कारण विष्णु की स्तुति करता हूं।- - - -- स्तुति के पश्चात् भगवान ने कहा कि सागर के उत्तर तीर पर तथा महानदी के दक्षिण में पृथिवी का वह सर्वतीर्थफलप्रद प्रदेश है। एकाम्रकानन से लेकर दक्षिण उदधि तीर तक जो क्षेत्र है, वह क्रमिक रूप से पद – पद पर श्रेष्ठतम है। सिन्धुतीर पर जो नीलपर्वत राजता है, मैं वहां पुरुषोत्तम रूप में विराजमान हूं। नीलाद्रि के अंदर कल्पन्यग्रोध के मूल से पश्चिम दिशा में जो रौहिण कुण्ड है, उसके तीर पर निवास करके जो मुझे देखते हैं, वह उसके जल से क्षीणपाप होकर मेरे साथ सायुज्य प्राप्त करते हैं। ब्रह्मा उस स्थान पर आए और देखा कि एक कौवा आया और कारुण्य उदक से पूर्ण उस कुण्ड में डुबकी लगाकर नीलरत्न कांति वाले माधव का दर्शन कर काकदेह का त्याग कर शंखचक्रगदा हाथ में लेकर उनके बराबर में स्थित हो गया। यह देखकर यम ने अनुमान लगाया कि इस तीर्थ में तो सारी सृष्टि ही मुक्त हो जाएगी। उसका श्री से वार्तालाप हुआ। श्री ने कहा कि प्रलय काल में इस चर – अचर जगत के लीन होने पर यह क्षेत्र तथा मैं सर्वदा उपस्थित होते हैं। तब सप्तकल्प आयु वाले मृकंडु – पुत्र को कहीं स्थित होने के लिए स्थान न मिला। उन्होंने पुरुषोत्तम क्षेत्र में वट को देखा। वह तैरकर न्यग्रोध मूल के समीप आए और बाल वचन सुना जिसने कहा कि हे मार्कण्डेय, मेरे निकट आओ। यह क्षेत्र महाघोर एकार्णव में नौका के समान है। उसमें यह यूप सदृश न्यग्रोध विराजमान है। महाप्रलय की वात से इसकी शाखा कम्पित नहीं होती है। मार्कण्डेय ने नारायण व श्री के दर्शन किए, उनकी स्तुति की। मार्कण्डेय ने उस तीर्थ में वास करने की इच्छा प्रकट की। बालमुकुंद ने कहा कि प्रलय के समाप्त होने पर मैं तेरे लिए तीर्थ की रचना करूंगा। इस प्रकार वर देकर उन्होंने न्यग्रोध के वायव्य कोण में चक्र से एक गड्ढा बना दिया जिसमें स्थित होकर मार्कण्डेय ने शिव की उपासना की।

     श्री ने यम को कहा कि इस क्षेत्र का पांच कोस समुद्र के अंदर स्थित है। तीर्थराज का दो कोस तट भूमि है। इस क्षेत्र की पश्चिम सीमा पर शंखाकार शीर्ष पर वृषभध्वज नीलकण्ठ विराजमान हैं। सिंधुराज के सलिल से वट के मूल तक का भाग शंख का उदर भाग है जो समुद्र के जल से आप्लावित है। यह अन्तर्वेदी कहलाती है जिसमें स्थित होकर चक्र, पद्म धारी के दर्शन कर सकते हैं। यह रोहिण नाम का कुण्ड है जो कारुण्य जल से पूरित है। यहां जो जल प्रलय में वर्धन करता है, वह बाद में यहीं लीन हो जाता है। अतः इसकी रोहिण संज्ञा है। अन्तर्वेदी की रक्षा आठ दिशाओं में आठ शक्तियां करती हैं जिनके नाम हैं – वटमूल में मंगला, पश्चिम में विमला, शंख के पृष्ठ भाग में सर्वमंगला, उत्तर दिशा में लंबा, दक्षिण में कालरात्रि, पूर्व में मरीचिका, पश्चिम में कालरात्रि।

     अब अम्बा ने ब्रह्मा को कहा कि इस क्षेत्र का माहात्म्य सुनो। दक्षिण में साक्षात् ब्रह्मस्वरूप नृसिंह विराजमान हैं जो हिरण्यकशिपु का वक्ष विदीर्ण कर रहे हैं। नृसिंह रूपी सूर्य से भासित होकर कल्पवृक्ष की यह छाया अविद्या का नाश करती है। श्री ने ब्रह्मा व यम से कहा कि सत्ययुग में इन्द्रद्युम्न राजा होगा जो यहां आकर सहस्र वाजिमेध करेगा। वह एक दारु से चतुर्द्धा करेगा। दारुप्रतिमाओं का निर्माण विश्वकर्मा करेगा। जो संसार के दुःखों का नाश करती है, अव्यय सुख प्रदान करती है, वह दारुमय ब्रह्म है। काष्ठमयी प्रतिमा मोक्ष कभी नहीं देती। श्री ने दारुदेह पुरुषोत्तम की लीला के रूप में पुण्डरीक द्विज व अम्बरीष क्षत्रिय का वृत्तान्त सुनाया जिनकी पुरुषोत्तम क्षेत्र में जाकर पश्चात्ताप करने से मुक्ति हो गई थी। अम्बरीष ने जो स्तुति की थी, उसका एक वाक्य है - एकपादस्त्रिपादश्च तीर्थपादोंऽतरिक्षपात् ।। यस्य पादोद्भवा गंगा पुनाति भुवनत्रयम्।।३९ ।। दूसरा वाक्य - समस्तपुरुषार्थस्य बीजं त्वत्पादपंकजे ।। उन्होंने एक दारुमय रूप को चतुर्धा अवस्थित रूपों में देखा। विष्णु व हलधर के बीच में भद्रा स्थित थी। वामभाग में चक्र स्थित था।

मुनियों ने पूछा कि वह पुरुषोत्तम क्षेत्र किस देश में है जहां नारायण दारु रूप में प्रकाशित होते हैं। जैमिनि ने उत्तर दिया कि दक्षिण उदधि के तीर पर उत्कल नाम देश है। उस क्षेत्र के निवासियों के गुण अमुक – अमुक हैं। - --  -

मुनियों ने पूछा कि इन्द्रद्युम्न ने किस युग में विष्णु की प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। जैमिनि ने उत्तर दिया कि कृतयुग में अवंतिका क्षेत्र में मालवा में राजा इन्द्रद्युम्न था जिसने इच्छा प्रकट की कि मैं इन चक्षुषों से ही साक्षात् जगन्नाथ का दर्शन करूं। किसी ने पुरुषोत्तम तीर्थ का नाम लिया। वहां कल्पवृक्ष के पश्चिम में रौहिण नाम का एक कुंड है जिसमें कारण रूपी जल भरे हैं। वहां पश्चिम दिशा में शबरदीप नाम का आश्रम है जिसके परितः शबरों के गृह हैं।  राजा ने अपने पुरोहित के भ्राता विद्यापति को उस क्षेत्र को खोजने के लिए भेजा। जब विद्यापति उस देश में पहुंचा तो उसने वहां के निवासियों को शंख – चक्र – गदा युक्त देखा। जब उसे मुकुंद को देखने का मार्ग न मिला तो वह कुश बिछाकर भूमि पर ही सो गया। तब उसने भगवद्भक्ति विषयक वार्तालाप करते हुए अमानुष वाणी को सुना। तब विद्यापति ने उनका अनुसरण करते हुए शबरों के गृहों से वेष्टित क्षेत्र के शबरदीप नामक दीपसंस्थान का दर्शन किया। उसने शंख, चक्र, गदाधारी विष्णुभक्तों के दर्शन किए। तब विश्वावसु नामक वृद्ध शबर हरिपूजा के शेष लेकर जा रहा था। शबर ने उसका स्वागत किया, उसे भोजन के लिए दुर्लभ दिव्य भोग प्रस्तुत किए। विद्यापति ने कहा कि जब तक मैं यहां नीलमाधव के दर्शन करके राजा को समाचार न दे दूं, तब तक निराहार रहूंगा। शबर ने सोचा कि इन रहस्यमय जनार्दन से हमारी जीविका चलती है। लेकिन यदि मैं नहीं दिखाऊंगा तो यह विप्र शाप दे देगा। फिर उसको जनप्रवाद का भी स्मरण हुआ कि नीलमाधव के भूमि में लीन होने पर इन्द्रद्युम्न नरपति यहां आकर हजार अश्वमेध करेगा और दारुमय विष्णु को चतुर्द्धा स्थापित करेगा। उसने विप्र को नीलेंद्रमणि को दिखाने का निश्चय किया। वह हाथ पकड कर विप्र को कंटकाकीर्ण मार्ग से ले गया।  उसने रौहिण कुंड दिखाया और कहा कि यह रौहिण कुण्ड सब पथों का कारण है। यहां स्नान करने से वैकुंठभवन को जाता है। इसके पूर्व भाग में कल्पछाया वट है जिसकी छाया को पार कर ब्रह्महत्या का नाश हो जाता है। इसके पश्चात् वह दोनों वापस घर आ गए। वहां शबर ने विभिन्न दिव्य भक्ष्यों से विप्र का स्वागत किया। विप्र को अरण्य में दिव्य भोगों को देखकर आश्चर्य हुआ। शबर ने बताया कि देवगण यहां आकर दिव्य उपचारों से पूजा करके वापस चले जाते हैं। वही यह निर्माल्य उच्छिष्ट हैं। शबर ने बताया कि जब इन्द्रद्युम्न राजा यहां आएगा, तो उसकी नीलेंद्रमणि रूप पुरुषोत्तम के दर्शन नहीं होंगे लेकिन यह बात राजा को बतानी नहीं चाहिए। विद्यापति ने लौटकर राजा को सारा वृत्तान्त सुनाया। वह निराहार ही वापस लौटा। इस बीच, जब देवगण पुनः माधव के दर्शन को आए तो वहां केवल  सुवर्णवालुका से युक्त प्रचण्ड वात चली और वहां न तो माधव का दर्शन हुआ, न रौहिण कुंड का। उन्हें बहुत चिंता हुई। तब आकाशवाणी ने उनसे कहा कि अब से भूलोक में देव के दर्शन नहीं होंगे। इस स्थान पर उन्हें नमस्कार करके भी उनके दर्शन का फल प्राप्त होगा।

     इधर, इन्द्रद्युम्न के समक्ष नारद प्रकट हुए जिन्होंने कहा कि वह बदरिकाश्रम में स्थित नर को देखने के लिए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हे नृप, तुम्हारे विमल गुणों के उत्करों से देवता, सिद्ध, मुनि, ब्रह्मा आदि सब प्रसन्न हैं। नारद ने नृप को विष्णुभक्ति की महिमा बताई। कहा कि भक्ति गुणभेद से त्रिविध होती है – तामसी, राजसी व सात्त्विकी। तामसी भक्ति वह है जिसमें कामक्रोध से अभिभूत व्यक्ति किसी अन्य कारण को नहीं जानता। राजसी वह है  -- -- -। सात्त्विकी वह है जिसमें यह भाव होता है कि यह जगत ही जगन्नाथ है। अन्य कोई भी कारण नहीं है। मेरे से भिन्न कोई नहीं है। यह भावना प्रेम के उत्कर्ष के फलस्वरूप आती है। इन्द्रद्युम्न ने नारद को आमन्त्रित किया कि हम साथ – साथ नीलमाधव की अर्चना के लिए चलते हैं। नारद जी ने स्वीकार कर लिया।

     मार्ग में शिव ने नारद को कहा कि जो विष्णु के हृदय सदृश अंतर्वेदी है, उसके संरक्षण के लिए विष्णु ने मुझे अष्टधा स्थापित किया है। शंखाकृति के अग्रभाग में मैं नीलकण्ठ रूप में स्थित हूं। इस समय नीलरत्न तनु वाले हरि अन्तर्हित हो चुके हैं। वहां नृसिंह का क्षेत्र बनाओ और सहस्र वाजिमेधों द्वारा यजन करो।

     नीलाद्रिक्षेत्र में पहुंच कर नारद ने कहा कि शंखाकृति क्षेत्र के मुख पर जो नीलकण्ठ व दुर्गा स्थित हैं, हम वहां वाजिमेध के लिए उपयुक्त समतल भूमि पर जाते हैं। वहां नीलाद्रि पर वास करने वाले नृसिंह की प्रतिदिन अर्चना होनी चाहिए। वह समस्त विघ्न के विनाशकर्ता व फल को अधिक करने वाले हैं। जब वे नीलाद्रि पर गए तो वहां उन्हें मार्ग नहीं मिला। तब उन्हें नारद से गिरि का शिर ज्ञात हुआ जहां कृष्ण - अगुरु के वृक्ष के नीचे दिव्य सिंह रूप धारी नृसिंह दैत्य को अपने ऊरु पर लिटा कर अपने दारुण नखों से उसके वृक्षःस्थल को विदीर्ण कर रहे हैं। इन्द्रद्युम्न ने उनका दर्शन करके नारद से कहा कि यह नृसिंह तो दर्शन में ही इतने भयावह हैं। आप ही इनकी पूजा कीजिए। मैं तो दूर से ही इनके दर्शन करके कृतकृत्य हो गया हूं। हे नारद, आप मुझे वह स्थान दिखाईये जहां कृपासिंधु की नीलमयी मूर्ति है।  इस पर नारद ने नृप को वह स्थान दिखाया जहां देव स्वर्णसिकता से संवृत हैं। हे नृप, कल्पांत में भी रहने वाला यह न्यग्रोध मुक्ति देने वाला है। इसकी छाया का क्रमण करने से पापकंचुकी से मुक्ति मिल जाती है। नारायण के न्यग्रोध रूप को देखकर भी मर्त्य निष्पाप हो जाता है, पूजन, स्तवन आदि की तो बात ही क्या है। इसके मूल से पश्चिम में तथा नृसिंह से उत्तर में माधव चार मूर्ति धारण करके स्थित हैं। वह यहां तुम्हें अनुग्रहीत करने के लिए पुनः प्रकट होंगे। इन्द्रद्युम्न ने मधुसूदन की स्तुति की। तब आकाशवाणी ने कहा कि जैसा नारद ने तुम्हें कहा है, वैसा करो। नारद ने कहा कि चलो, नीलकंठ के निकट चलते हैं। भगवान् तो अंतर्हित हो गए हैं, यह नृसिंह प्रकट हो गए हैं। इनकी सन्निधि में याग का फल अतिशय होगा। तुम वहां प्रासाद का निर्माण कराओ। मेरे स्मरण करने से विश्वकर्मा का पुत्र वहां आकर शीघ्र पश्चिम – मुखी प्रासाद का निर्माण करेगा। नीलकंठ के दक्षिण में जो महान् चंदन वृक्ष है, उसके पश्चिम देश के क्षेत्र में तुम सहस्र वाजिमेधों से यजन करो। तुम वहां जाओ। मैं यहां दिव्य सिंह रूपी अनन्त ज्योति की आराधना करूंगा। जैसे दीप से दीप जलाया जाता है, ऐसे ही इनकी शुभ आकृति को प्रकट करूंगा। राजा ने ऐसा ही किया। वह चन्दन द्रुम की सन्निधि में गया तो वहां उसको मनुष्य रूप धारण किए हुए देवशिल्पी मिला। उसने चार दिनों में में वह प्रासाद निर्मित कर दिया। पांचवें दिन वे नारद के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। इतने में ही उन्होंने दिव्य वाद्यों को सुना जिनका कोई आधार नहीं था। इतने में ही नारद आद्य नृसिंह की प्रतिमा को लेकर उपस्थित हुए। इन्द्रद्युम्न ने नृसिंह के उस रूप की स्तुति की। नृप ने कहा कि हे प्रभु, सहस्र हयमेध के अन्त में मैं चर्मचक्षुओं से तुम्हारे दिव्य रूप को देखूं, वैसा कीजिए।

     इसके पश्चात् हयमेध का विस्तृत वर्णन है। हयमेध के सात सुत्या दिवसों की प्रथम रात्रि में चतुर्थ प्रहर में नृप ने स्वप्न में विष्णु के  दर्शन किए। उनके दक्षिण पार्श्व में धरणीधर अनंत स्थित थे। वाम पार्श्व में चक्र के दर्शन किए। उसने उनकी स्तुति की। ध्यान की समाप्ति पर वह जाग गया और प्रातःकाल होने पर नारद को स्वप्न सुनाया। हयमेध की समाप्ति पर अवभृथ पर दक्षिण तट के भूदेश पर जो सेवक नियुक्त थे, उन्होंने आकर बताया कि समुद्र में महान् वृक्ष दिखाई दे रहा है जो  सर्वत्र शंख – चक्र से अंकित है। उसकी गंध से सारी तटभूमि सुवासित है। राजा ने नारद से पूछा तो नारद ने कहा कि पूर्णाहुति समाप्त करो। श्वेत द्वीप में जो विष्णु की अव्यय मूर्ति दिखाई देती है, उसके अंग से स्खलित रोम ने तरु का रूप धारण कर लिया है। जैसा राजा ने जैसा स्वप्न में देखा था, यह वृक्ष चक्षुशाख व चार भुजाओं वाला था। नृप ने नारद से पूछा कि विष्णु की किस प्रकार की प्रतिमा किसके द्वारा घटित होगी। तब आकाशवाणी ने कहा कि जो वृद्ध शस्त्रपाणि उपस्थित है, उसको अन्दर प्रवेश देकर बाहर से द्वार बंद कर दो। ऐसा ही किया गया। बाहर दिव्य संगीत नाद आदि बजाए गए। एक देव के चार रूप प्रकट हुए – विष्णु, भद्रा, बलभद्र, सुदर्शन।

     उपरोक्त सारांश के तथ्य ध्यान देने योग्य हैं।

1.सर्वप्रथम, नीलाद्रि क्षेत्र शबरदीप के निकट है। शबरदीप के  परितः शबरों के गृह हैं। नीलमणि के दर्शन शबर करते हैं। मीमांसा दर्शन के शाबर भाष्य के संदर्भ में यह उल्लेख है कि बहुत से उच्चारण ऐसे होते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता। वह मन्त्र भी नहीं हैं, लेकिन फिर भी अपना प्रभाव दिखाते हैं। ऐसी विद्याएं प्रायः निम्न कोटि की जातियों में देखने को मिल जाती हैं। परिष्कृत रूप में इसे इस प्रकार कहा जा सकता है कि बहुत सी सिद्धियां ऐसी होती हैं जो अकस्मात् अपात्र को भी प्राप्त हो जाती हैं। लेकिन यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं की जा सकती। इस अवस्था को आर्ट, कला की अवस्था कहा जा सकता है। सम्यक् अनुसन्धान से इस आर्ट को विज्ञान में बदलना अपेक्षित होता है जहां छोटे – बडे सभी उसका लाभ ले सकते हैं। राजा इन्द्रद्युम्न  द्वारा शबरदीप आकर नीलमाधव के दर्शन हेतु अश्वमेध करना इसी उद्योग का परिचायक हो सकता है।

2.कहा गया है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र में एक रौहिण कुण्ड है जिसमें कारण या कारुण्य जल भरा है। इसमें स्नान करने के पश्चात ही नीलमणि के या नीलमाधव के दर्शन होते हैं। सबसे पहले मार्कण्डेय को यह रौहिण कुण्ड प्राप्त हुआ। जब नील ज्योति अदृश्य हुई तो यह कुण्ड भी अदृश्य हो गया। मृकण्डु – पुत्र मार्कण्डेय का अर्थ है इस प्रकार समझ सकते हैं कि मृग कहते हैं जो अज्ञात की खोज में है। कस्तूरी मृग को गंध आती रहती है लेकिन उसे यह पता नहीं होता कि कस्तूरी स्वयं उसकी नाभि में है। वह गंध की खोज में व्याकुल हुआ घूमता है। कण्डु खाज को कहते हैं। कोई भी छोटी सी बात हमें चुभी, हमें उसके मूल को खोजने के लिए, कारण को खोजने के लिए मृग की भांति व्याकुल हो जाना चाहिए। यही कारण है कि मार्कण्डेय को कारण – जल वाला रौहिण कुण्ड सबसे पहले प्राप्त हुआ। कारण जल को कारुण्य जल भी क्यों कहा गया है, यह अज्ञात है।

3.पुरुषोत्तम क्षेत्र में भगवान की जो प्रतिमाएं बनाई गई हैं, वह दारु रूप हैं। दारु काष्ठ को कहते हैं, लेकिन पुराण तुरन्त स्पष्ट कर देता है कि यह काष्ठ नहीं है, अपितु दुःखों का नाश करने वाला है। इससे अधिक कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि दारु से अर्थ दारण से है। कोई ऐसी घटना हमारे जीवन में घटित हो जाए जो हमें झिंझोड कर रख दे, उसे दारण, फाडना कहते हैं। पुरुषोत्तम क्षेत्र के अन्यत्र उपलब्ध माहात्म्यों में एक घटना का उल्लेख आता है कि एक विप्र का पुत्र मर गया तो पति – पत्नी इतना रोए कि भोजन त्याग कर महीना भर रोते ही रहे। इससे उनको पुरुषोत्तम मास के व्रत का फल मिल गया। यह दारण किसी पश्चात्ताप के रूप में भी हो सकता है, जैसा कि वर्तमान माहात्म्य में पुण्डरीक द्विज व अम्बरीष क्षत्रिय की कथा के माध्यम से कहा गया है।

4.पुरुषोत्तम क्षेत्र में आदि से लेकर अन्त तक नील वर्ण का ही मह्त्त्व है। सामान्य रूप से, साधना में नीला वर्ण वर्जित है। यह सर्वविदित है कि नील वर्ण पुरुष के कामोद्दीपन के लिए तथा गुलाबी स्त्री के कामोद्दीपन के लिए है। अतः उसी प्रकार के कार्यों में नील वर्ण विहित है।   शनि के व बलभद्र के वस्त्र नील वर्ण के हैं। मयूर पिच्छ का वर्ण नील होता है जिसे कृष्ण अपने मुकुट में धारण करते हैं। उपनिषदों में कहा गया है कि निर्विकल्प समाधि में नील वर्ण की ज्योति दिखाई देती है, जिस प्रकार आकाश का अनाधार नील वर्ण प्रतीत होता है। तन्त्र के अनुसार कण्ठ के विशुद्धि चक्र का वर्ण नील है। कहा गया है कि शिव नीलकण्ठ दो कारणों से बने। एक कारण तो यह है कि उन्होंने समुद्र मन्थन से उत्पन्न विष को पी कर अपने कण्ठ में धारण कर लिया। दूसरा कारण यह है कि इन्द्र को शिव के उग्र रूप का दर्शन हुआ तो उसने अपना वज्र मारा जिससे शिव के कण्ठ का रंग नीला पड गया। पुरुषोत्तम क्षेत्र के माहात्म्य में क्षेत्र के आकार को कम्बु या शंख रूप कहा गया है जिसका अग्रिम भाग नीलकण्ठ शिव का प्रतीक है। वहीं नील पर्वत है जिसके शिखर से होकर उग्र रूप धारी नृसिंह के दर्शन किए जा सकते हैं। ऐसा संभव है कि कण्ठ के विशुद्धि चक्र के अतिरिक्त अन्य चक्रों पर नील वर्ण वर्जित हो।

5.कहा गया है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र में नील पर्वत है जिसके शिखर से उस स्थान में प्रवेश किया जाता है जहां नृसिंह भगवान् अपने नखों द्वारा हिरण्यकशिपु के वक्ष का विदारण कर रहे हैं। इन्द्रद्युम्न को तो नृसिंह के इतने भयंकर रूप का दर्शन हुआ कि वह दूर – दूर ही रह गया। नारद ने उग्र नृसिंह को सौम्य बनाने के लिए पांच दिनों की साधना की। पांचवें दिन वह नृसिंह की सौम्य मूर्ति को लेकर इन्द्रद्युम्न के समक्ष प्रकट हुए। कहा गया है कि ऐसा उन्होंने इस प्रकार किया जैसे दीप से दीप जलाया जाता है। वर्तमान में स्थिति यह है कि पुरी में नृसिंह मन्दिर में नृसिंह की उग्र प्रतिमा के आगे सौम्य प्रतिमा स्थापित की गई है। आखिर नृसिंह वक्ष के रूप में किस वस्तु का विदारण कर रहे हैं। डा. फतहसिंह वक्ष का तात्पर्य अंग्रेजी के वैक्सिंग – वेनिंग, घटना – बढना लेते हैं, वैसे ही जैसे हमारा वक्ष ऊपर – नीचे घटता बढता है। वक्ष का विदारण नृसिंह की ऊरु या जंघा पर हो रहा है। यह हो सकता है कि वक्ष का ऊरु, विस्तीर्ण बन जाना ही वक्ष का विदारण हो। वर्तमान पुरुषोत्तम माहात्म्य में कहा गया है कि सात्त्विक रूप वह है जब कारण का उद्दीपन बाहर से प्रतीत न हो, अपितु हमारी चेतनाएं परस्पर इतनी मिल जाएं कि कारण भी आन्तरिक ही बन जाए। जब एक चेतना का स्पन्दन सब चेतनाओं में प्रतीत होने लगेगा, वह वक्ष का विदारण हो सकता है। बहुत से भक्तों का उल्लेख आता है कि वह पशु आदि का दुःख स्वयं अनुभव कर लेते थे। यह कार्य नृसिंह के नखों द्वारा क्यों होता है, इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि नखों का व्यापक रूप नक्षत्र हैं। इससे आगे की प्रक्रिया अन्वेषणीय है।

6.पुरुषोत्तम माहात्म्य में सार्वत्रिक रूप से इन्द्रद्युम्न द्वारा सहस्र अश्वमेध का उल्लेख आता है। अश्वमेध यज्ञ के वैदिक वर्णन में कारण जैसा कोई शब्द प्रकट नहीं होता। वहां सावित्रेष्टि का कथन अवश्य है। इसका अर्थ होगा कि जो कारण अनजाने बन रहे हैं, उन्हें हमें अपने पुरुषार्थ द्वारा नया रूप देना है, वैसे ही जैसे वैदिक कर्मकाण्ड में यह कल्पना की जाती है कि किसी भी कार्य को करने के लिए सविता देव पहले प्रेरित करते हैं।

7.माहात्म्य में कहा गया है कि अवभृथ स्नान के समय जो दिव्य वृक्ष प्रकट हुआ था, उससे चार मूर्तियों का निर्माण किया गया – नीलमाधव, भद्रा या सुभद्रा, बलभद्र व सुदर्शन। पौराणिक साहित्य में अन्यत्र सार्वत्रिक रूप से चतुर्व्यूह के संदर्भ में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न व अनिरुद्ध के नाम आते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है कि वासुदेव अनिरुक्त स्थिति है, जहां गुण अप्रकट स्थित में रहते हैं। संकर्षण स्पर्श की स्थिति है। डा. फतहसिंह समाधि से व्युत्थान का निर्वचन इस प्रकार किया करते थे कि व्युत्थान की स्थिति में चेतना एक दम प्रकट नहीं हो जाती। सबसे पहले भूतों का शब्द गुण प्रकट होता है। फिर स्पर्श, फिर रूप, फिर रस और अन्त में गन्ध। जैन साहित्य में इसको इस प्रकार भी कहा जाता है कि अमुक जीव एक लिंगी है, अमुक दो लिंगी है आदि। चींटी में दर्शन व स्पर्श का गुण विकसित हुआ है। इस कथन को प्रत्यक्ष रूप में निद्रा से जागरण की घटना से जोडा जा सकता है।

8.माहात्म्य में कहा गया है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की स्थापना के पीछे ब्रह्मा का उद्देश्य यह था कि सृष्टि की जो जटिल प्रक्रिया एक बार की जा चुकी है, उसको बार – बार दोहराने की आवश्यकता न पडे। यहां सृष्टि का अर्थ एक भगवान् को चार रूपों में प्रकट करना हो सकता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह सृष्टि अनिरुक्त गुणों को व्याकृत करना, प्रकट करके दिखाना है। और इन गुणों को भी दिव्य रूप में, विस्तृत रूप में समझने की आवश्यकता है।

9.वर्तमान में, जब जगन्नाथ मन्दिर की दारु मूर्तियों का नवकलेवर विधान किया जाता है तो सबसे पहले सुदर्शन चक्र की मूर्ति हेतु वृक्ष का चुनाव किया जाता है। फिर बलभद्र हेतु, फिर भद्रा हेतु और अन्त में नीलमाधव हेतु। हो सकता है कि यह समाधि की ओर प्रस्थान को इंगित करता हो। मन्दिर का विधि विधान इंटरनेट पर विस्तृत रूप में उपलब्ध है और इस दृष्टि से पठनीय है कि स्कन्द पुराण के पुरुषोत्तम माहात्म्य में जो कुछ वर्णित है और जो कुछ पुरी के मंदिर में प्रचलित है, उनमें क्या समानताएं हैं, क्या असमानताएं। इसी प्रकार, जिन भौगौलिक स्थितियों का उल्लेख पुराण में है, आज की भौगौलिक स्थिति उनसे कहां तक मिलती है।

 प्रथम लेखन – २५-७-२०१५ई.(द्वितीय आषाढ शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् २०७२)

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