पुरुषोत्तम मास चतुर्थी उत्तरा (5-7-2015ई.)

लक्ष्मीनारायण संहिता में अधिक मास कृष्णपक्ष चतुर्थी का माहात्म्य संक्षेप में इस प्रकार दिया गया है – सौराष्ट्र देश में रैवत भूमि में समित्पीयूष नामक का एक राजा था। उसकी 27 पत्नियां थी। उनके नाम थे – ऊर्जाहुती(1), पुष्करिणी (2), पद्मपत्रा(3), करीषिणी(4), विश्वप्रिया(5), आदित्यवर्णा(6), हरिणी(7), हेममालिनी(8), वसुधीति(9), वह्निशिखा(10), पद्माक्षी(11), पद्ममालिनी(12), प्रभासा(13), जगती(14), पङ्क्ति(15), बृहती(16), इडा(17), पिशंगिनी(18), सुषुम्णा(19), पुरीतति(20), विश्वार्चि(21), पद्मनेमिका(22), हिरण्यवर्णा(23), चन्द्रा(24), पद्मवर्णा(25), वम्रिका(26), विद्युल्लेखा(27)। यह सभी पतिव्रता थी। यद्यपि इनकी सौ – हजार दासियां थी, लेकिन यह अपने अपने ही हाथ से विष्णु की सेवा, पति की सेवा करती थी। विष्णु के लिए ही पकाना, तण्डुल आदि का शोधन, जल भरना, गृह का मार्जन, देवपूजा के पात्रों का घर्षण, क्षालन आदि, तुलसीपत्र, पुष्प आदि का आहरण अपने ही हाथों से करती थी। जब तक देह का स्वास्थ्य है, जब तक इन्द्रियमण्डल अपने वश में है, जब तक जठराग्नि युवा है, देह के अनुकूल पकाती है, तब तक आत्महित की साधना कर लेनी चाहिए। जब विकल भाव हो जाएगा, कान बहरे हो जाएंगे, तब न तो श्रीहरि का दर्शन होगा, न हरि का नाम श्रवण होगा, न श्रीहरि की सेवा होगी। अपनी अन्तरात्मा को ही अपना उपास्य प्रभु कृष्णनारायण मानना चाहिए। समित्पीयूष नृप त्रिकाल अर्चना करता था। एक बार दीपोत्सव तिथि से पूर्व कार्तिक कृष्ण अष्टमी हुई। उसमें आश्विन् पूर्णिमा से लेकर अष्टमी तक उसने एकसमय भोजन किया, अष्टमी को निर्जल उपवास रखा और कृष्ण पुरुषोत्तम की अर्चना की। कृष्ण चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। तब ऊर्जाहुती ने कृष्ण को पौरट मुकुट अर्पित किया, पुष्करिणी ने पौरट कुण्डल, पद्मपत्रा ने ललाट चक्र में चन्दन से पुण्ड्र, करीषिणी ने कज्जल आंजन, विश्वप्रिया ने स्वर्णपुष्पों का हार, आदित्यवर्णा ने कटक में भुजबन्ध, हरिणी ने कानकी ऊर्मिका, हेममालिनी ने रशना शृंखला, वसुधीति ने किंकिणीयुक्त स्वर्ण नूपुर, वह्निशिखा ने स्वर्णनिर्मित पादुका, पद्माक्षी ने योगपट्ट यज्ञोपवीत, पद्ममालिनी ने मिष्टान्न शाकपायस, प्रभासा ने पान हेतु शीतल जल, जगती ने फल व ताम्बूल, पंक्ति ने सुगन्ध, पुष्पसार व धूप, बृहती ने घृतदीप, इडा ने शिर पर स्वर्ण आभा वाला छत्र धारण किया, सुषुम्णा व पिंगला ने मिलकर श्वेत चामर धारण किया। पुरीतत् ने व्यजन(पंखा) लेकर पवन अर्पण किया। विश्वार्चि ने कृष्ण के हस्त में नक्तक दिया, पद्मनेमि ने कृष्ण के कर में  पुष्पगुच्छ दिया, हिरण्यवर्णा ने सहस्रनेमि चक्र दिया, चन्द्रा ने कृष्ण के हाथ में सुवर्ण निर्मित पद्म दिया, पद्मवर्णा ने शंख दिया, वम्री ने गदा दी, विद्युल्लेखा ने परमात्मा के लिए चुम्बन दिया। वह परमात्मा की सबसे अधिक प्रीतिपात्र बनी और जन्मान्तर में चन्द्रपत्नी रोहिणी बनी। सर्वजिता नाम की दासी ने पादसंवाहन आदि सेवा की, इसलिए वह स्नेपात्र बनी। कृष्ण ने उनको प्रसाद के रूप में पायस दिया और आशिष दी की तुम अमृतभोजन करने वाली देवियां बनो, तुम्हारा द्युलोक में गृह हो। इसके पश्चात् कृष्ण अदृश्य हो गए। तबसे राजा और उसकी पत्नियां जो कृष्ण ने कहा था, वही चाहा करती थी। एक बार उन्होंने दुन्दुभि की घोषणा सुनी कि पुरुषोत्तम मास की चतुर्थी को व्रत करने से कामनाओं की पूर्ति हो जाएगी। दुन्दुभि ने कहा कि यज्ञ के द्वारा वृष्टि कराने पर वैसी वृष्टि नहीं होती है जैसी वर्षाकाल में हो जाती है। चतुर्थी के व्रत से वर्षाकाल की वृष्टि जैसा ही फल मिलता है। तब राजा, पत्नियों व दासी ने मिल कर चतुर्थी व्रत किया। तब कृष्ण विप्र रूप धारण करके आए और रत्नों की अभिलाषा की। समित्पीयूष नृपति ने रत्नमाला दी। विप्र ने कहा राजन्, वर मांग लो। समित्पीयूष ने चन्द्रमा का राज्य मांगा, समिधा के करने से सुधावर्षी का रूप मांगा। पत्नियों ने द्युलोक में चन्द्रपत्नियां बनने का वर मांगा। वर देकर विप्र तिरोहित हो गया। कालांतर में समित्पीयूष अमृतांशु वाला, ओषधियों का पोषक चन्द्रमा बना। उसकी पत्नियां दक्ष की पुत्रियां बनी जिनका दक्ष ने विधिपूर्वक चन्द्रमा से विवाह कर दिया। विद्युल्लेखा रोहिणी नाम से उनकी अग्रणी बनी। अन्य पत्नियां मृगशीर्षा(1), आर्द्रा(2), पुनर्वसु(3), पुष्य(4), आश्लेषा(5), मघा(6), पूर्वाफाल्गुनी(7), उत्तरफाल्गुनी(8), हस्त(9), चित्रा(10), स्वाती(11), विशाखा(12), अनुराधा(13), ज्येष्ठा(14), मूल(15), पूर्वाषाढा(16), उत्तरषाढा(17), श्रवण(18), धनिष्ठा(19), शतभिषा(20), पूर्वाभाद्रपद(21), उत्तरभाद्रपद(22), रेवती(23), अश्विनी(24), भरणी(25), कृत्तिका(26) नाम से 27 नक्षत्र बनी। देवयुती नाम की दासी अभिजित् नक्षत्र बनी।

विवेचन

अधिक मास तृतीया तिथि की व्याख्या इस प्रकार की गई थी कि अग्नि चयन में तीसरी चिति का चयन करते समय तीसरे नेत्र की ज्योति सूर्य का रूप धारण कर लेती है। इस सूर्य की किरणें भ्रूमध्य से नीचे के भाग में, अन्तरिक्ष में अबाध फैलनी चाहिएं। इसी आधार को आगे बढाते हुए, अग्निचयन में चतुर्थी चिति में चन्द्रमा का चयन किया जाता है। अन्यथा, चतुर्थी चिति को सार्वत्रिक रूप से गणेश अधिदेवता के रूप में माना जाता है। ऐसा कहा जा सकता है कि चित्त के जो विकार, कभी भी न बदलने वाले, आरण्यक पशुओं जैसे संस्कारों को सूर्य के स्तर पर, रुद्र के स्तर पर रूपांतरित किया जा चुका है। अब चन्द्रमा के स्तर पर रौद्रता को शांत करके शीतलता लानी है। महात्म्य में कथा का आरम्भ समित्पीयूष राजा और उसकी पत्नियों से किया गया है। पीयूष सोम का, अमृत का एक नाम है। लोक में, गौ के वत्स को जन्म देने के सात दिन तक उसके पयः को पीयूष कहा जाता है। एक ग्रन्थ में कहा गया है –

पृथिवी वशामावास्या गर्भो वनस्पतयो जराय्वग्निर्वत्सोऽग्निहोत्रं पीयूषः   

अन्तरिक्षं वशा धाता गर्भो रुद्रो जरायु वायुर्वत्सो घर्मः पीयूषः   

द्यौर्वशा स्तनयित्नुर्गर्भो नक्षत्राणि जरायु सूर्यो वत्सो वृष्टिः पीयूषः   

ऋग्वशा बृहद्रथंतरे गर्भः प्रैषनिविदो जरायु यज्ञो वत्सो दक्षिणाः पीयूषः   

विड्वशा राजन्यो गर्भः पशवो जरायु राजा वत्सो बलिः पीयूष ।-  आप.श्रौ.सू. 16.32.४

अर्थात् पीयूष के पांच स्तर हैं – पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, ऋचा, विशः। पृथिवी पर अग्निहोत्र पीयूष है। अन्तरिक्ष में घर्म पीयूष है, द्युलोक में वृष्टि पीयूष है, ऋचा में दक्षिणा पीयूष है, विशः में बलि पीयूष है। चतुर्थी के माहात्म्य में पीयूष के साथ समित् विशेषण जोड दिया गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह पीयूष समिधा से सम्बन्धित है। अग्निहोत्र आदि यज्ञों में समिधा का प्रयोग अग्नि के प्रज्वलन के लिए किया जाता है। और समित् का अर्थ होता है – समिति। डा. फतहसिंह समिति शब्द की व्याख्या इस प्रकार किया करते थे कि एक सभा होती है, एक समिति। सभा में सदस्यों के विचार अलग – अलग हो सकते हैं, लेकिन समिति में सबके एक जैसे विचार होते हैं। अग्निहोत्र पीयूष, अमृत किस प्रकार बन सकता है, इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अग्निहोत्र को कामनाओं की पूर्ति करने वाला कल्पवृक्ष कहा जाता है। श्रौत सूत्र के उपरोक्त कथन में कहा जा रहा है कि यदि पृथिवी वशा, बांझ बन जाए, अमावास्या (चन्द्रमा रूपी) गर्भ को धारण करने वाली बन जाए, वनस्पतियां गर्भ की जरायु, रक्षा करने वाली बन जाएं, अग्नि पृथिवी रूपी गौ का वत्स बन जाए तो अग्निहोत्र पीयूष बन सकता है। अग्नि को पृथिवी तत्त्व का सार, सूक्ष्म भाग, गन्ध कहा जाता है। जब हम पृथिवी के स्तर से चेतन अग्नि को विकसित करना सीख जाएं तो अग्निहोत्र पीयूष बन सकता है।  डा. फतहसिंह वशा की व्याख्या अंग्रेजी के वैक्सिंग –वेनिंग के आधार पर किया करते थे। चन्द्रमा का घटना – बढना वैक्सिंग – वेनिंग कहलाता है। वर्तमान माहात्म्य में केवल एक शब्द का चुनाव किया गया है – समित्। कोई भी कार्य ऐसा नहीं होना चाहिए जहां समित् में, सममिति में गडबड आए। आधुनिक विज्ञान में श्री गोवान का कहना है कि जड पदार्थ में जो विद्युत विद्यमान है, यह जड पदार्थ की सममिति को पूरा करने के लिए है। ब्रह्माण्ड पुराण व लिंग पुराण में कहा गया है कि ब्रह्मा ने इस जगत में स्थावरों(खनिज पदार्थ, वनस्पतियां) में तो  विपर्यास(मिरर सिमीट्री) के रूप में प्रवेश किया, तिर्यकों(पृथिवी पर विभिन्न  दिशाओं में चलने की सामर्थ्य वाले)  में शक्ति के रूप में, मनुष्यों में सिद्धि(बुद्धि) के रूप में, देवों में पुष्टि के रूप में। अब लक्ष्मीनारायण संहिता में सममिति के विषय को एक स्तर और ऊंचा उठा दिया गया है और परोक्ष रूप में कहा जा रहा है कि समित्पीयूष नृप की पत्नियां भी सममिति में भागीदार हैं। यही पत्नियां साधना का स्तर ऊंचा उठने पर नक्षत्र रूप धारण करती हैं।

ऊर्जाहुती

पौरट मुकट

मृगशिरा

 

विततानि परस्तात् वयन्तो अवस्तात्

पुष्करिणी

पौरट कुण्डल

आर्द्रा

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टां

मृगयवः परस्तात् विक्षारो अवस्तात्

पद्मपत्रा

ललाट पुण्ड्र

पुनर्वसु

 

वातः परस्तात् आर्द्रमवस्तात्

करीषिणी

कज्जल अंजन

पुष्य

नित्यपुष्टां करीषिणीम्

जुह्वतः परस्तात् यजमाना अवस्तात्

विश्वप्रिया

स्वर्णपुष्प हार

आश्लेषा

 

अभ्यागच्छन्तः परस्तात् अभ्यानृत्यन्तो अवस्तात्

आदित्यवर्णा

कटक भुजबन्ध

मघा

आदित्यवर्णे तपसोधिजातो

रुदन्तः परस्तात् अपभ्रंशो अवस्तात्

हरिणी

ऊर्मिका कानकी

पूर्वाफाल्गुनी

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण

जाया परस्तात् ऋषभो अवस्तात्

हेममालिनी

रशना शृंखला

उत्तरफाल्गुनी

सुवर्णां हेममालिनीम्

वहतवः परस्तात् वहमाना अवस्तात्

वसुधीति

स्वर्णनूपुर

हस्त

 

प्रसवः परस्तात् सनि अवस्तात्

वह्निशिखा

पादुका

चित्रा

 

ऋतं परस्तात् सत्यम् अवस्तात्

पद्माक्षी

यज्ञोपवीत

स्वाती

 

व्रततिः परस्तात् असिद्धि अवस्तात्

पद्ममालिनी

मिष्टान्न

विशाखा

पिंगलां पद्ममालिनीम्

युगानि परस्तात् कृषमाणा अवस्तात्

प्रभासा

शीतल जल

अनुराधा

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीम्

अभ्यारोहत् परस्तात् अभ्यारूढं अवस्तात्

जगती

फल, ताम्बूल

ज्येष्ठा

 

शृणत्परस्तात् प्रतिशृणत् अवस्तात्

पंक्ति

सुगन्ध , धूप

मूल

 

प्रतिभञ्जन्तः परस्तात् प्रतिशृणन्तः अवस्तात्

बृहती

घृतदीप

पूर्वाषाढा

 

वर्चः परस्तात् समिति अवस्तात्

इडा

छत्रधारण

उत्तराषाढा

 

अभिजयत् परस्तात्, अभिजितम् अवस्तात्

पिंगला

चामर

श्रवण

 

पृच्छमानाः परस्तात् पन्था अवस्तात्

सुषुम्णा

चामर

धनिष्ठा

 

भूतं परस्तात् भूतिः अवस्तात्

पुरीतति

व्यजन पवन

शतभिषा

 

विश्वव्यचाः परस्तात् विश्वक्षितिः अवस्तात्

विश्वार्चि

नक्तक

पूर्वाभाद्रपद

 

वैश्वानरं परस्तात् वैश्वावसवम् अवस्तात्

पद्मनेमिका

पुष्पगुच्छ

उत्तरभाद्रपद

तां पद्मनेमिं शरणं प्रपद्ये

अभिषिञ्चन्तः परस्तात् अभिषुण्वन्तः अवस्तात्

हिरण्यवर्णा

सहस्रनेमिचक्र

रेवती

हिरण्यवर्णां हरिणीं

गावः परस्तात् वत्सा अवस्तात्

चन्द्रा

पद्म

अश्विनी

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं

ग्रामः परस्तात् सेना अवस्तात्

पद्मवर्णा

शंख

भरणी

पद्मेस्थितां पद्मवर्णां

अपकर्षन्तः परस्तात् अपवहन्तो अवस्तात्

वम्रिका

गदा

कृत्तिका

 

शुक्रं परस्तात् ज्योति अवस्तात्

विद्युल्लेखा

चुम्बन

रोहिणी

 

आपः परस्तात् ओधषयो अवस्तात्

देवयुती

पादसंवाहन

अभिजित्

देवयुती – भाग्य?

 

 

उपरोक्त नामों में से कईं नाम श्रीसूक्त में प्रकट होते हैं। कुछ नाम वैदिक छन्दों के हैं। जैसे पङ्क्ति छन्द को सुगन्ध, पुष्पसार, धूप अर्पित करने वाला कहा गया है जो मूल नक्षत्र बनता है। पंक्ति छन्द में पांच पंक्तियां होती हैं। कहा गया है कि यह साधना के लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा नामक पांच स्तर हैं। हमारा मूल मज्जा में है।

बृहती छन्द को घृतदीप अर्पित करने वाली कहा गया है जो पूर्वाषाढा नक्षत्र बनती है। बृहती छन्द को गो व अश्व का सम्मिलित रूप कहा गया है। सूर्य बृहती छन्द में गति करता है। अतः बृहती द्वारा घृतदीप अर्पित करना उचित ही है।

वम्रिका को गदा प्रदान करने वाली तथा कृत्तिका का रूप कहा गया है। वैदिक साहित्य में वम्री का एक कार्य तो यह है कि वह धनुष की खिंची हुई रस्सी को काट देती है। जहां भी तनाव होगा, वह उसे काट देगी। यही कार्य कृत्तिका का भी है। वम्री का दूसरा कार्य यह है कि वह पृथिवी के निहित रस को प्रकट करती है।

     अभी हमें नक्षत्रों के विषय में जो मूलभूत ज्ञान उपलब्ध है, वह तैत्तिरीय ब्राह्मण  तथा अथर्ववेद 19.7 का है। इसी आधार पर नक्षत्रों की प्रकृति की व्याख्या की जानी है। हो सकता है कि फलित ज्योतिष के ग्रन्थों में इसके अतिरिक्त भी ज्ञान उपलब्ध हो। नक्षत्र का अर्थ होता है कि न – क्षत्र, अर्थात् हमारी शक्ति को अब प्रकृति के मूलभूत आवेगों जैसे भय, मृत्यु आदि से रक्षा में अपनी ऊर्जा का व्यय करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। अब शक्ति का उपयोग सीधे ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए किया जा सकता है।

  ऋग्वेद की एक ऋचा में द्युलोक में अदिति देवों के लिए मधु समान पीयूष का जनन करती है - येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हाः ।

उक्थशुष्मान्वृषभरान्स्वप्नसस्तां आदित्यां अनु मदा स्वस्तये ॥ - 10.63.4

यह उल्लेखनीय है कि आपस्तम्ब श्रौत सूत्र में चन्द्रमा के स्तर पर पीयूष के जनन का प्रत्यक्ष रूप में तो उल्लेख नहीं है, केवल सूर्य के स्तर पर ही है। यह भी उल्लेखनीय है कि पृथिवी के स्तर से चन्द्रमा के स्तर का विकास एकदम नहीं हो जाता, लेकिन माहात्म्य में तो इसे एकदम कर दिया गया है।

 

श्रीनारायण उवाच-

श्रूयतां च त्वया लक्ष्मि! पूर्वकल्पोद्भवा कथा । सौराष्ट्रे रैवतभूमौ समित्पीयूषनामकः ।। १ ।।

 राजा बभूव तत्पत्न्यो बभूवुः सप्तविंशतिः । ऊर्जाहुतिः पुष्करिणी पद्मपत्रा करीषिणी ।। २ ।।

 विश्वप्रियाऽऽदित्यवर्णा हरिणी हेममालिनी । वसुधीतिर्वह्निशिखा पद्माक्षी पद्ममालिनी ।। ३ ।।

 प्रभासा जगती पंक्तिर्बृहतीडा पिशंगिनी । सुषुम्णा च पुरीततिर्विश्वार्चिः पद्मनेमिका ।। ४ ।।

 हिरण्यवर्णा चन्द्रा च पद्मवर्णा च वम्रिका । विद्युल्लेखा च ताः सर्वाः पातिव्रत्यपरायणाः ।। ५ ।।

 कुर्वन्त्यो भगवद्भक्तिं दानधर्मपरायणाः । अतिथीनां च सत्कारं कुर्वन्त्यो भावपूर्वकम् ।। ६ ।।

  स्नानं ध्यानं देवपूजां जपं कुर्वन्ति चादरात् । होमं दैवं तथा पैत्र्यं भौतं कुर्वन्ति सत्क्रतुम् ।। ७ ।।

 आश्रितान् भोजयित्वैव भुञ्जन्ति च पिबन्ति च । शतसाहस्रदासीषु सतीष्वपि स्वहस्तकैः ।। ८ ।।

 विष्णोः सेवां धवसेवां कुर्वन्ति स्वीयधर्मतः । विष्णोरर्थं पाचनं च तण्डुलादिविशोधनम् ।। ९ ।।

 कण्डनं वारिभरणं गृहमार्जनमित्यपि । पात्राणां देवपूजाया घर्षणं क्षालनादिकम् ।। १० ।।

 तुलसीपत्रपुष्पाणामाहृत्याद्यं च ताः सदा । कुर्वन्त्येव महाभक्त्या नान्यद्वारा कदाचन ।। ११ ।।

 हर्यर्थं खलु भक्तानां किमकार्ये भवेन्ननु । सर्वस्वं त्वर्पितं यत्र वर्ष्मणा किं न जायते ।। १२ ।।

 अनित्येन तु देहेन नित्यं पुण्यं समर्जयेत् । येन भुक्तिस्तथा मुक्तिः कृष्णस्य कृपया भवेत् ।। १३ ।।

 स एव सर्वथा वन्द्यः पूज्यस्तोष्यः परेश्वरः । यस्मात् सर्वं प्रभवति भोग्यं भोज्यं सुखादिकम् ।। १४।।

 सम्पत् स्मृद्धिर्धनं पत्नी पतिः सुतसुतादिकम् । क्षेत्रं स्वर्गं महाराज्यं यस्मात्तं वै भजेद् बुधः ।। १५।।

 यावत् स्वास्थ्यं भवेद् देहे वश्यमिन्द्रियमण्डलम् । जाठराग्निर्युवा पक्ता दैहिके सानुकूलता ।। १ ६।।

 तावदात्महितं साध्यं काम्यं वा कामवर्जितम् । परमेशपदं नित्यानन्दपूर्णं तु शाश्वतम् ।। १७।।

 विगमे विकले भावे न स्याद्वै दर्शनादिकम् । श्रीहरेस्तत् सदा कार्यं दर्शनं चक्षुषा मुदा ।। १८।।

 विकर्णे बधिरे भावे न स्यान्नामश्रवो हरेः । सुगमे साऽनुकूलेऽस्मिन् कार्यं श्रवणमाच्युतम् ।। १ ९।।

 वृक्णे वा विकले सेवा न भवेद्वै सतां हरेः । सुबले सानुकूले च हस्ते सेव्यो हरिः स्वयम् ।। २० ।।

 प्रबले सुगमे पादे गम्यं मन्दिरमैश्वरम् । अनुद्विग्नेऽप्रमत्ते च मानसे वाजसंभृते ।। २ १ ।।

 मन्तव्यो भगवान् कृष्णनारायणः सुखप्रदः । अन्तरात्मा स्वात्मना वै समुपास्यः सदा प्रभुः ।। २२।।

 भग्ने तु नगरे सर्वे त्यक्त्वा यास्यन्ति विष्टयः । दृढपादात्मके तत्र साध्यः श्रीपुरुषोत्तमः ।। २३।।

 एवं निर्णीय सर्वास्ताः समित्पीयूषयोषितः । सेवन्ते श्रीहरिं नित्यं मन्दिरे निर्मिते शुभे ।। २४।।

 समित्पीयूषनृपतिश्चक्रे त्रिषवणं सदा । त्रिकालं प्रार्चनं कृष्णनारायणस्य सन्दधे ।। २५।।

 एवं वै वर्तमानानां तासां कालो महान् गतः । तत्कल्पे कार्तिककृष्णाष्टमी कृष्णाष्टमी ह्यभूत् ।। २६।।

 दीपोत्सवतिथेः पूर्वं सप्ताहव्यवधानिकी । इषपूर्णां समारभ्य चक्रुस्ता एकभुक्तकम् ।।२७।।

 अष्टम्यामुपवासं च चक्रुस्ता निर्जलं मुदा । पुरुषोत्तमसंज्ञस्य कृष्णस्य प्रतिमां शुभाम् ।।२८ ।।

 कानकीं कारयित्वा च तथा कृष्णस्य मातरम् । कंभराख्यां कानकीं च कारयित्वा च तास्तथा ।। २९ ।।

 गोपालं कृष्णपितरं कारयित्वा तु कानकम् । मण्डपं कारयित्वा चाऽऽनर्चुः श्रीपुरुषोत्तमम् ।। ३० ।।

 नृत्यं सवाद्यं चक्रुस्ताः कण्ठस्वरविमिश्रितम् । तावदाविर्बभूव श्रीकृष्णनारायणो हरिः ।। ३१ ।।

 चतुर्भुजः कौस्तुभाढ्यः पीताम्बरादिकाम्बरः । नवीनजलदश्यामः श्वेतकान्तिविराजितः ।। ३ २ ।।

 दृष्ट्वाऽऽश्चर्य तु ताः प्रापुः क्षणं श्रीपुरुषोत्तमम् । ततस्ता मुमुहुस्तत्र दिव्यमूर्तौ मनोहरे ।। ३३ ।।

 दिव्याऽऽभूषादि चानीयाऽर्पयामासुः ससंभ्रमाः । ऊर्जाहुती ददौ तस्मै पौरटं मुकुटं तदा ।। ३४।।

 पुष्करिणी ददौ तस्मै पौरटे कुण्डले शुभे । पद्मपत्रा तल्ललाटे चक्रे पुण्ड्रं तु चान्दनम् ।। ३५।।

 करीषिणी दृशोस्तस्य चक्रे सत्कज्जलांजनम् । विश्वप्रिया स्वर्णपुष्पहारान् ददौ तु शार्ङ्गिणे ।। ३६ ।।

 आदित्यवर्णा प्रददौ कटके भुजबन्धकौ । हरिणी त्वर्पितवती ह्यूर्मिकाः कानकीर्नवाः ।। ३७।।

 हेममालिनी प्रददौ रशनां शृंखलां शुभाम् । वसुधीतिर्ददौ स्वर्णनूपुरौ किंकिणीयुतौ ।। ३८ ।।

 वह्निशिखाऽर्पितवती पादुके स्वर्णनिर्मिते । पद्माक्षी प्रददौ यज्ञोपवीतं योगपट्टकम् ।। ३९ ।।

 पद्ममालिनी प्रददौ मिष्टान्नं शाकपायसम् । प्रभासा प्रददौ तस्मै पानाय शीतलं जलम् ।।४० ।।

 जगती त्वर्पितवती फलं ताम्बूलकं तथा । पंक्तिर्ददौ सुगन्धं च पुष्पसारं च धूपकम् ।।४१ ।।

 बृहती प्रददौ तस्मै घृतदीपं सुमंगलम् । इडा छत्रं दधाराऽस्य शिरसि स्वर्णभास्वरम् ।।४२।।

 सुषुम्णा पिंगला श्वेते दध्यतुश्चामरे ह्युभे । पुरीतत् व्यजनं धृत्वा करोति पवनार्पणम् ।।४३ ।।

 विश्वार्चिर्नक्तकं रम्यं कृष्णहस्ते ददौ तदा । पद्मनेमिर्ददौ पुष्पगुच्छं कृष्णकरे तदा ।।४४।।

 हिरण्यवर्णा प्रददौ चक्रं सहस्रनेमिकम् । चन्द्रा ददौ कृष्णहस्ते पद्मं सुवर्णनिर्मितम् ।।४५।।

 पद्मवर्णा ददौ शंखं वम्री ददौ तदा गदाम् । विद्युल्लेखा ददौ चास्मै चूम्बनं परमात्मने ।।४६।।

 सा सर्वाभ्यो बभूवाऽतिप्रेमपात्रं परात्मनः । तत्पुण्येनाऽत्यधिकं सा पत्युः प्रेमास्पदा पुनः ।।४७।।

 चन्द्रपत्नी रोहिणी सा जन्मान्तरे बभूव वै । इत्येवं तूपदाः दत्वाऽऽरार्त्रिकं ताश्च चक्रिरे ।।४८।।

 अन्यास्तु चूम्बनं दृष्ट्वा लज्जां हृत्सु  प्रपेदिरे । फलं तासां नातिमानं चन्द्रात् तास्तु प्रपेदिरे ।।।४९।।

 दासी सर्वजितानाम्नी पादसंवाहनं व्यधात् । सा तु सेवापरा यस्मात् स्नेहपात्रं तदाऽभवत् ।।।५०।।

 पुष्पाऽक्षताञ्जलीन् चार्घ्यं ताश्च सर्वा ददुस्ततः । प्रदक्षिणनमस्कारस्तवनाद्यं प्रचक्रिरे ।।५१ ।।

 कृष्णस्त्वतिप्रसन्नश्च ददौ प्रसादपायसम् । गृहीत्वा तृप्तिमापन्ना दध्युस्तं हृदयाम्बुजे ।।५२।।

 कृष्णः प्राह तु ता देवीर्भवन्त्वमृतभोजनाः । स्वर्णरत्नमणिहारा दिव्या दिवि कृतगृहाः ।।५३ ।।

 इत्याशिषः प्रदायैवाऽदृश्यो बभूव केशवः । तास्तु पूजां समाप्यैव पतिं प्राहुरुदन्तकम् ।।५४।।

 अतितुष्टो बभूवापि समीत्पीयूषभूपतिः । नित्यं पत्नीयुतः स्वर्गं वाञ्छति पूजनोत्तरम् ।।५५।।

 पत्न्यश्चापि तु वाञ्छंति कृष्णोक्तं नाकमैश्वरम् । एवं काले गते कल्पप्रान्ते कृष्णस्य वै श्रुतः ।।५६।।

 दुन्दुभिर्घोषणां कुर्वन् पुरुषोत्तमशासनाम् । शृण्वन्तु वै नरा नार्यो देवा देव्योपि मद्वचः ।।।५७।।

 यासां येषां यथेष्टं यद् दास्यामि तत्तथाविधम् । पुरुषोत्तमसंज्ञोऽहं परंब्रह्म सनातनः ।।५८।।

 प्रवदामि कृपया वै विना पुण्यस्य तोलनम् । स्वल्पे कृतेऽप्यसंख्यातं फलं ददामि सर्वथा ।।५९।।

 ये जना मे फलं पुष्पं पत्रं चन्दनमक्षतान् । अर्पयिष्यन्त्यधिमासे चतुर्थ्यां काम्यकर्मकृत् ।।६० ।।

 तेषां तु कामनाः सर्वाः पूरयिष्ये पुमुत्तमः । सर्वं मेऽस्ति मयि सर्वं मया व्याप्त चराचरम् ।।६ १ ।।

 नातिरिक्तं स्वतन्त्रं वै किञ्चिदस्ति जडाजडम् । जडं चाप्यजडं तत्त्वं मदीयं त्वस्ति सर्वथा ।।६२।।

 मोक्षस्थानानि सर्वाणि सिद्ध्यैश्वर्यस्थलान्यपि । विभूतयश्चेश्वराणां देवानां च पदानि वै ।।६३।।

 मानवानां तथा पातालस्थानां च समृद्धयः । सर्वं त्वस्ति ममैवेदं यदिच्छन्तु ददाम्यहम् ।।६४।।

 पुरुषोत्तममासस्य व्रतं पाक्षिकमाह्निकम् । नैशं वापि कृतं येन तस्य किञ्चिन्न दुर्लभम् ।।६५।।

 राजा यथाबलं कुर्याद् व्रतं दानं च पूजनम् । प्रजा यथाधनं कुर्याद् व्रतं दानं समर्पणम् ।।६६ ।।

 नरो नारी यथाधर्मं कुर्यान्मेऽधिकमासिकम् । व्रतं ते मे जन बाहं विस्मरामि कदाचन ।।६७।।

 अद्य कालान्तरे वापि यथातोषं फलं बहु । ददाम्येव न सन्देहो न मे भक्तोऽफलो भवेत् ।।६८।।

 सकामस्य कृते स्वर्गादयो लोकाः कृता मया । अकामस्य कृते ब्रह्मलोकोऽस्ति रक्षितो मया ।।६९।।

 सर्वेषु सुखबाहुल्यं ब्रह्मलोके  त्वनन्तकम् । ददाम्याश्रितभक्ताय मदर्थे व्रतकारिणे ।।७ ० ।।

 नात्र मूल्यं स्वकृतस्य मूल्यं तु वचसो मम । वचो मम धृतं येन फलं तस्याऽप्यनन्तकम् ।।७ १ ।।

 नहि वृष्टिप्रदे यज्ञे कृते वृष्टिर्हि तादृशी । यादृशी घनकाले स्यादमाना चाप्यनन्तका ।।७२ ।।

 स्वयं वर्षामि भगवान् श्रीहरिः पुरुषोत्तमः । कृपया घनरूपोऽहं पुरुषोत्तममासि वै ।।७३ ।।

 यथापात्रं यथापेक्षं प्रगृह्णन्तु मयाऽर्पितम् । वस्त्रफाले फलं कृत्वा विकीर्यतेऽनु यान्तु तत् ।।७४।।

 पुरुषोत्तममासस्य करिष्यन्ति प्रशंसनम् । येऽपि तेऽप्यर्जयिष्यन्ति यथेष्टं सुखमुत्तमम् ।।७५।।

 पुरुषोत्तममासस्य व्रतार्थे त्वन्यदेहिनाम् । अनुमोदं प्रदास्यन्ति तेऽपि स्वःसुखभागिनः ।।७६।।

 अधिमासे व्रतकर्तुः साहाय्यं ये तु मानवाः । करिष्यन्ति च तेभ्योऽपि दास्ये यथेप्सितं सुखम् ।।७७।।

 किमु स्याद् दुर्लभं चाधिमासे भक्तस्य मे खलु । धाम दास्ये धनं दास्ये दारान् दास्ये सुतान् पशून् ।।७८ ।।

 पतिं दास्ये सुतां दास्ये गां राज्यं चिरजीविताम् । आरोग्यं चेन्द्रियानन्दं दास्येऽपि शाश्वतं सुखम् ।। ७९। ।

 इति वै -दुन्दुभिं श्रुत्वा समित्पीयूषभूपतिः । तत्पत्न्यश्चातिभक्तिस्था अपि वै सप्तविंशतिः ।।८ ० ।।

 दासी च दुन्दुभिं नत्वाऽक्षतपुष्पफलादिभिः । सम्पूज्य चक्रिरे कर्तुं चतुर्थीव्रतमुत्तमम् ।।८ १ ।।

 प्रातः पूजां हरेः कृत्वा मध्याह्नेऽपि सभोजनम् । पूजनं कारयित्वैव सायं चक्रुः प्रपूजनम् ।।८२।।।

 पायसं पूरिकाः भोजयित्वाऽऽरार्त्रिकमादधुः । नृत्यगीतप्रवाद्यैश्चक्रिरे जागरणं निशि ।।८३।।

 प्रातः स्नात्वा कृष्णनारायणं सम्पूज्य भावतः । दानं ददुस्तु रत्नानां रसानां समिधां तथा ।।८४।।

 हविष्याणां चामृतानां मिष्टान्नानां च दक्षिणाः । स्वर्णरूप्यात्मिकाश्चापि फलवस्तूनि वै ददुः ।।८५।।

 चन्द्रकान्तान् ददुः सौम्यान् शीतलान् स्वर्णदान्ददुः । तदा विप्रस्वरूपेण श्रीकृष्णः पुरुषोत्तमः ।।८६।।

 समाजगाम सत्पात्रं भूत्वा रत्नाभिलाषुकः । समित्पीयूषनृपतिस्तदा सर्वप्रियायुतः ।।८७।।

 ददौ रत्नाढ्यमालां च नमश्चक्रेऽतिभावतः । विप्रः प्राह वरं राजन् याचस्व भविता तथा ।।८८।।

 समित्पीयूष आकर्ण्य वव्रे चान्द्रं सुराज्यकम् । सुधावर्षित्वरूपं वै ययाचे समिधां कृते ।।८९।।

 पत्न्यश्चापि तथा चन्द्रपत्नीत्वं वव्रिरे दिवि । तथास्त्विति वरं दत्वा तिरोबभूव भूसुरः ।।९० ।।

 कल्पान्ते प्रलयं प्राप्य सृष्ट्यादौ स तु भूपतिः । समित्पीयूषनाम्नोऽर्थं सार्थं कुर्वन् हरिच्छया ।।९ १।।

 अमृतांशुश्चौषधीनां पोषकश्चन्द्रमा दिवि । बभूव तस्य पत्न्यश्च दक्षपुत्र्यः प्रजज्ञिरे ।।९२।।

 दक्षेण विधिना दत्तास्तस्मै ताः सप्तविंशतिः । विद्युल्लेखा बभूवाग्र्या रोहिणीनामतः प्रिया ।।९३।।

 अन्याश्चापि मृगशीर्षा ह्यार्द्रा पुनर्वसुस्तथा । पुष्याऽऽश्लेषा मघा पूर्वफाल्गुन्युत्तरफाल्गुनी ।।९४।।

 हस्तश्चित्रा तथा स्वाती विशाखा चानुराधिका । ज्येष्ठा मूला पूर्वषाढोत्तराषाढा श्रवात्मिका ।।९५।।

 धनिष्ठा शतभीषा च पूर्वभाद्रपदा तथा । उत्तरभद्रिका चैव रेवती त्वश्विनी तथा ।।९६।।

 भरणी कृत्तिका चेति मिलिताः सप्तविंशतिः । बभूवुश्च दिवि चन्द्रपत्न्यो देव्योऽमृतप्रदाः ।।९७।।

 दासी देवयुतीनाम्नी जाताऽभिजित्समाह्वया । मध्याह्नेऽस्याः कृतो वासः सर्वकार्यजयप्रदः ।।९८।।

 आकल्पं ताश्च वर्तन्ते चतुर्थ्या व्रतपुण्यतः । तस्मात् कार्यमधिवासोऽपरचतुर्थ्युपोषणम् ।।९९।।

 एकभुक्तं च वा नक्तं फलाहारं ममार्चनम् । श्रोता वक्ता तथा चास्य चतुर्थीव्रतभाग्भवेत् ।। १०० ।।

 

इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये समित्पीयूषराज्ञस्तत्सप्तविंशतिपत्नीनां दुन्दुभिश्रवणोत्तरं द्वितीयपक्षचतुर्थीव्रतकरणेन दिवि चन्द्रराज्यनक्षत्रराज्यप्राप्तिर्दास्या अभिजित्त्व-प्राप्तिश्चेत्यादिनिरूपणनामा एकादशा-धिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। १.३११ ।।